रविवार, 20 जुलाई 2025

ऐसे होते थे स्कूलों में दंड!

पचास के दशक में स्कूलों एवं मदरसों में विद्याार्थियों द्वारा कसूर किए जाने पर मास्टर उन्हें तरह तरह के दंड देते थे। कसूर क्या होते थे, यही कोई जैसे चलती क्लास में पीछे बैठ कर अपना या अपने किसी सहपाठी का खाना खाना, बातें करना, सोना, मास्टर की तरफ ध्यान नहीं देना, शोर मचाना, घर से होमवर्क करके नहीं लाना और मास्टर से कहना कि कर तो लिया, लेकिन घर भूल आया हूं इत्यादि इत्यादि। हालांकि यह आखिर वाला झूठ बच्चे अपने मां-बाप से ही सीखते थे, जो अकसर किसी के पूछने पर कह देते थे, आपको चिऋी डाली तो थी, लेकिन डाकिये ने ही गड़बड़ कर दी होगी। हालांकि अब दंड देने की बाते इतिहास के पन्नों में सिमट गई हैं, लेकिन उनमें से कुछ को आपको वापस याद कराते हैंरू-

टांगा टोलीरू- जो बच्चा पाठशाला में बिना बताये आदतन गैर हाजिर होता था, उसे लाने के लिए मास्साब पांच बच्चों का एक दल भेजते थे। वह दल उस लड़के के चारों हाथ पांवों को पकड़ कर, उसे झुलाते हुए, स्कूल लाता था। इस टुकडी के नायक के पास कसूरवार लड़के का बस्ता होता था। आगे की सजा मास्साब देते थे।

मुर्गा-मिगीर्रू- यह दंड बहुत आम था। छोटा मोटा कोई भी कसूर हो, विद्यार्थी को मुर्गा बना दिया जाता था। इसके अनुसार उकडू बैठ कर दोनों हाथों को घुटनों के नीचे से निकाल कर अपने कान पकडने होते थे। कभी कभी कसूर की डिग्री ज्यादा होने पर मुर्गा बनाने के बाद पीठ पर कोई किताब अथवा स्लेट रख कर उसे अधर कर दिया जाता था, जैसे कभी संचार मंत्रालय लेने के सवाल पर मनमोहनसिंहजी को करुणानिधि ने कर दिया था। किताब अथवा स्लेट के नीचे गिर जाने पर दंड की अवधि बढ़ा दी जाती थी। इस सजा के भुक्तभोगी बताते हैं कि यह अनुभव बाद में कालेज में रेगिंग के समय उनके खूब काम आया।

उन दिनों सहशिक्षा तो थी नहीं, इसलिए पता नहीं कि लड़कियों को मुर्गा बनाते थे या मुर्गी। बहरहाल अर्से पहले की एक बात याद आ रही है। एक बार मेरी पोती रोती हुई, जब स्कूल से घर लौटी तो मैंने उससे इसका कारण पूछा। वह बोली कि मैंने मैम को मुर्गी कह दिया था, इसलिए उसने मुझे मारा। इस पर मैंने उससे कहा कि तूने उसे मुर्गी क्यों कहा? तो वह बोली वह हर एग्जाम में मुझे अंडा देती है। तब मैं और क्या कहती?

लेट लतीफरू- यह सजा हमारी स्कूल में सुबह देरी से पहुंचने पर दी जाती थी। देर से आने वाले विद्यार्थियों को स्कूल के गेट के बाहर ही रोक कर एक मास्साब उन्हें प्लेटफार्म पर लाते, जिसके सामने पहले से ही स्कूल के सारे बच्चे सामूहिक प्रार्थना के लिए खड़े हुए होते थे। कुछ देर बाद हमारे हैड मास्साब वहां आते और केन से उनके हाथों पर मारते थे। घेर कर लाने वाले मास्साब हिंगलिश के विद्वान थे और इसलिए अपने आपको हैड पंडित लिखते थे। चूंकि वे अहिंसा में विश्वास करते थे, अतरू हैडमास्टर साहब द्वारा बच्चों को मारते समय वह सिर्फ उनको उकसाने का काम करते थे, खुद मारपीट में हिस्सा नहीं लेते थे। जानकार लोग बताते हैं कि आदतन लेट आने वाले अधिकांश लड़के आगे चल कर पुलिस में भर्ती हो गए एवं वहां काफी कामयाब भी हुए। उन्हें सिर्फ गालियों का एडवांस कम्प्यूटराइज्ड कोर्स और करना पड़ा।

हवाई जहाजरू- वैज्ञानिक भले ही दावा करते रहें कि हवाई जहाज का आविष्कार राइट बंधुओं ने किया था, लेकिन हमारे मास्साब तो वर्षों पहले से चली आ रही इस परम्परा में बच्चों को दंड देते समय उन्हें हवाई जहाज बनाया करते थे। इस सजा में दोनों हाथों को दांये-बांयें फैला कर और एक पांव को जमीन से ऊपर पीछे की तरफ रखना पडता था। सजा की अवधि मास्साब पर निर्भर होती थी। मेरे एक सहपाठी को अक्सर हवाई जहाज बनने की सजा मिलती थी और मजे की बात देखिए वही सहपाठी बाद में नौकरी के दौरान मुझे जयपुर में हमारे विभाग में ही कार्यरत मिल गया। वहां एक बार कर्मचारी यूनियन के चुनाव हुए और वह भी किसी पद के लिए खड़ा हुआ। संयोग की बात देखिये कि उसने अपना चुनाव चिन्ह हवाई जहाज ही रखा और वह जीत गया। तब से आज तक उसे लोग हवाई जहाज के नाम से ही पुकारते हैं। वह भी सुन कर खुश होता है। सजा मानो तो सजा और मजा मानो तो मजा!

खड़े रहने की सजारू- छोटे मोटे कसूर पर यह सजा आम थी। कम कसूर हुआ तो फर्श पर और नहीं तो बैंच पर खड़ा कर दिया जाता था। कभी कभी इस सजा में हाथों को भी उपर उठाना पड़ता था। बाद में किसी एल्यूमिनी में मिलने पर उनमें से कइयों ने बताया कि जैसे बचपन का खाया-पीया बुढापे में काम आता है। वैसे ही खड़े रहने का वह अनुभव उनकी जिन्दगी में बाद में बहुत काम आया क्योंकि आए दिन राशन-कैरोसीन की दुकान पर, बिजली-पानी का बिल जमा कराते वक्त लाइन में काफी खड़ा रहना पड़ता था।

बाहर से समर्थनरू- लोग बाग वामपंथियों को ख्वामख्वाह बदनाम करते हैं कि सन 2004 में उन्होंने मनमोहनसिंह की सरकार को बाहर से समर्थन दिया। वैसे यह फार्मूला तो वर्षों पहले हमारी स्कूल में आजमाया जाता था। एक बार की बात है कि हमारें हिन्दी टीचर ने हमें चुप रहने के लाभ हानियां विषय पर निबंध लिखने को दिया। हम सब उसी पर बहस कर रहे थे। क्लास में बहुत शोर हो रहा था। अचानक हमारे वही टीचर क्लास में आ गए, नतीजतन उन्होंने बहुत से बच्चों को क्लास से बाहर खड़े कर कहा कि मैं जो पढ़ा रहा हूं, तुम लोग बाहर से ही सुनो। संयोग से हमारे हैड मास्साब उधर से निकल रहे थे। जब उन्होंने इतने बच्चों को क्लास से बाहर देखा तो पूछा कि क्या बात है? अंदर टीचर पढ़ा रहा है और तुम लोग बाहर खड़े हो तो हमने उन्हें सारा वाकया बताते हुए कहा कि हम बाहर से ही पढ़ रहे हैं। इसी तरह अखाड़े में जब दो पहलवान कुश्ती लड़ रहे होते तो हम उन्हें बाहर से खूब समर्थन देते थे। अरे! देख क्या रहा है, धोबी पछाड़ दांव लगा, कोई कहता अरे! गुद्दी पकड़ ले इत्यादि इत्यादि। बाहर वालों को क्या मालूम कि अंदर वालों पर क्या बीत रही है?

चूंटिया-चिकोटीरू-यह सजा वैसे तो एक्यूप्रेशर की ही एक प्रक्रिया होती थी, लेकिन मास्साब अधिक जोश में होते तो यह एक्यूपंक्चर में बदल जाती थी। इसके अप्लाई करते ही विद्यार्थी के खून की लाल एवं सफेद दोनों तरह की टिकियां सक्रिय हो जाती थीं। हालांकि विशेषज्ञों का कहना था कि इससे उनकी संख्या-प्लेटलेट काउंट-कम ज्यादा नहीं होती थी। भुक्तभोगी बताते हैं कि यह सजा जांघ पर ज्यादा कारगर रहती है। राम जाने?

ऊठक-बैठकरू- कसरत और प्राणायाम वगैरह कराने वालों का दावा था कि यह उनके सूक्ष्म व्यायाम का ही हिस्सा था, लेकिन बिना बताये स्कूल वालों ने इसे अपने सजा कार्यक्रम में शामिल कर लिया। यह सजा कान पकड़ कर और बिना कान पकड़े दोनों तरह से दी जाती थी। राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि इससे मिलती जुलती कयावद किसी समय जयललिता ने अटलजी को उनके प्रधानमंत्रित्व काल में करवाई थी।

सूर्यभान माररू- इस मार पर इन मास्साब का कापीराइट अधिकार था और यह उनके नाम से ही जानी जाती थी। इसके अनुसार मास्साब बारी बारी से एक धूंसा पीठ पर और एक धप्प-थाप सिर के पीछे, रिदम यानि संगीत की लय के साथ मारते थे, क्या मजाल जो कोई स्टैप बीच में छूट जाए। संगीत और वीर रस का मेल वहीं देखने में आया। मैं इस मार का भुक्तभोगी हूं। एक बार की बात है। कामर्स की कक्षा थी। मास्साब ने मुझसे पूछा अच्छा बताओ, तुम्हारे पास 10 रुपए हैं, उसमें से पांच रुपए तुम रमेश को देते हो तो अपने बही खाते में इसकी एंट्री कैसे करोगे? मैंने खडे होकर कहा सर! मेरे पास 10 रुपए हैं ही कहां जो उसे दूंगा, लिखने की बात तो बाद में आएगी। बस फिर क्या था, मुझे उनकी मार का मजा चखना पड़ा, जो मुझे आज तक याद है।

हवाई स्कूटर पर बैठानारू- जैसे संविधान में संशोधन होते रहते हैं, वैसे ही इन सजाओं में भी समय समय पर संशोधन होते रहे। जब मार्केट में स्कूटर आ गए तो मास्टर सजा के रूप में हवाई स्कूटर पर बैठाने लगे। इसमें सब कुछ वैसा ही होता था, गोया आप स्कूटर पर बैठे हो। हां, आपके नीचे स्कूटर ही नहीं होता था। इसमें किसी आरटीओ से लायसेंस लेने की आवश्यकता नहीं होती थी ताकि आपको उन्हें कुछ सुविधा शुल्क देना पड़े। चालान की भी गुंजाइश नहीं के बराबर थी। इसलिए पुलिस की भी इनकम कहां से होती?

हवाई कुसीर्रू- जैसे अकबर के समय बीरबल ने हवा महल बनाया था, शेख चिल्ली ने अपना हवाई परिवार गढ़ा था, कांग्रेस ने गरीबी हटाओ का हवाई नारा दिया था और बीजेपी ने समता मूलक समाज बनाया था, उसी तर्ज पर हमारे मास्साब शरारत करने वालों को हवाई कुर्सी पर बैठाते थे। यह सजा भी हवाई स्कूटर के माफिक ही होती थी, जिसमे काल्पनिक कुर्सी पर विद्यार्थी को बैठाया जाता था। इसका मकसद यह रहा होगा कि आगे चलकर अगर कहीं नौकरी में अफसर हो जाएं और मलाईदार पोस्ट-कुर्सी-न मिले या राजनीति में रहते चुनाव में जनता घर बैठा दे, तो किसी तरह का अफसोस न रहे और कुछ साल इंतजार करना पड़े तो अखरे नहीं।

नृत्य मुद्रारू- वैसे तो कुचिपुड़ी, मणिपुरी, कत्थक, गरबा, भंगड़ा, घूमर, लावणी इत्यादि कई नृत्य होते हैं, लेकिन जिस मास्साब को उसकी नालेज हो या वक्त पर याद आ जाए उसी नाच की मुद्रा बना कर स्टूडेंट को सजा दे दी जाती थी। समय की कोई सीमा नहीं। कई बार तो शिवजी और भस्मासुर की कथा में जिस मोहिनी नृत्य का जिक्र है, वह भी करना पड़ता था, जिसमें नाचते नाचते अंत में वह दैत्य स्वयं ही अपने सिर पर हाथ रख लेता है और भस्म हो जाता है। जिन साथियों को यह सजा हुई, उन्हें जब जब भी किसी जुलूस की झांकी में हिस्सा लेना पड़ा या बारात में जाने का अवसर मिला तो वहां बैंड की धुन पर नाचने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं आई।

डंडों से पिटाईरू- यह सजा कभी कभार ही दी जाती थी। इसमें डंडों या बेंत से बुरी तरह पिटाई की जाती थी। एक बार की बात है कि एक शायर का यह शेर हमारी क्लास के एक लड़के ने कहीं से सुन लिया। बीड़ी में भी अजब गुफ्तगू है, पीओ तो कश है और फूंको तो फू है। वह कहीं से हनुमान छाप बीड़ी का टुकड़ा उठा लाया और छिप कर पीने लगा। कहीं से मास्साब को इसकी खबर लग गई। बस फिर क्या था। उसे इस सजा का कहर सहना पड़ा।

कान उमेठना, पीछे से हाथ मरोडनारू- इसमें मास्साब हाथ को पीठ की तरफ ले जा कर उसे मरोड़ते थे, जैसे अभी कुछ दिनों पहले ममता बनर्जी ने भू.पू. रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी मसले पर केन्द्र सरकार के साथ किया था। उस घटना पर राजनीतिक विशेषज्ञों की टिप्पणी थी-इफ्तदाये इश्क, रोता है क्या, आगे आगे देखिए होता है क्या?

कुछ बच्चों के मां-बाप क्लास मोनीटर बनने का हक वंश परम्परा के आधार पर जताते थे। उनका कहना था कि जब हमारे पिताजी पढ़ते थे तो वह मोनीटर थे, फिर हम पढें़ तो हम बने तो स्वाभाविक है कि अब हमारा लड़का मोनीटर बनेगा। कभी कभी कुछ बच्चों के अमीर मां-बाप स्कूल में आकर मास्साब को कहते थे कि हमारा लड़का कभी गलती नहीं करता, फिर भी खुदा न खास्ता कोई गलती हो जाए तो उसे सजा देने की बजाय उसके पास बैठने वाले बच्चे को सजा दी जाए ताकि दहशत के मारे वह गलती न करे, जैसे विधानसभा चुनावों में पहले बिहार में और अब यूपी में हार का ठीकरा युवराज की जगह किसी और के सिर फोडने की सोच चल रही है। तुलसीदासजी यूं ही नहीं कह गए-

समरथ को नही दोष गुसांई


-ई. शिव शंकर गोयल-

फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट न. 12, सैक्टर न.10,

द्वारका, दिल्ली-75.

मो. 9873706333


बुधवार, 2 जुलाई 2025

शोक सभाओं का दुर्भाग्यपूर्ण आयोजन

 

शोक सभाएं आजकल दुःख बांटने और मृतक के परिवार को सांत्वना देने के अपने मूल उद्देश्य से भटक गईं हैं। आजकल शोक सभाओं के आयोजन के लिए विशाल मंडप लगाए जा रहे हैं। सफेद पर्दे और कालीन बिछाई जाती है या किसी बड़े बैंक्वेट हाल में भव्य सभा का आयोजन किया जाता है, जिससे यह लगता है कि कोई उत्सव हो रहा है। इसमें शोक की भावना कम और प्रदर्शन की प्रवृत्ति ज्यादा दिखाई देती है। मृतक का बड़ा फोटो सजा कर भव्यता के माहौल में स्टेज पर रखा जाता है। यहां तक कि मृतक के परिवार के सदस्य भी अच्छी तरह सज-संवरकर आते हैं। उनका आचरण और पहनावा किसी दुःख का संकेत ही नहीं देता।

समाज में अपनी प्रतिष्ठा दिखाने की होड़ में अब शोक सभा भी शामिल हो गई है। सभा में कितने लोग आए, कितनी कारें आईं, कितने नेता पहुंचे, कितने अफसर आए - इसकी चर्चा भी खूब होती है। ये सब परिवार की सामाजिक प्रतिष्ठा के आधार बन गए हैं। उच्च वर्ग को तो छोड़िए, छोटे और मध्यमवर्गीय परिवार भी इस अवांछित दिखावे की चपेट में आ गए हैं। शोक सभा का आयोजन अब आर्थिक बोझ बनता जा रहा है। कई परिवार इस बोझ को उठाने में कठिनाई महसूस करते हैं पर देखा-देखी की होड़ में वे न चाह कर भी इसे करने के लिए मजबूर होते हैं।
इस आयोजन में खाना, चाय, कॉफी, मिनरल वाटर जैसी चीजों पर भी विशेष ध्यान दिया जाता है। यह पूरी सभा अब शोक सभा की बजाय एक भव्य आयोजन का रूप ले रही है।
शोकसभा में जाते हैं, तब लगता ही नहीं कि हम लोग शोकसभा में आए हैं, रीति रिवाज उठाने की बजाय नए नए रिवाज बनने लगे हैं।
सब से विनम्र प्रार्थना- 1. शोक सभाओं को अत्यंत सादगीपूर्ण और आडंबर रहित ही होनी चाहिए।
2. संपन्न परिवार ऐसा कुछ न करें कि मध्यमवर्गीय पुनरावृत्ति में पिस जाएं, और अनुसरण न कर पाने की स्थिति में अपराधबोध से ग्रसित हो जाएं।
3. खूब साधन संपन्न लोग ऐसे अवसरों पर सामाजिक संस्थाओं को खूब दान पुण्य करें, ये संस्थाएं आपकी शोहरत की गाथा का बखान खुद ब खुद कर लेंगी ।
4. सेवा संस्थाएं भी सभी वर्गों के लिए समानता का भाव रखकर उनकी सेवा करें।


प्रेषक-शंकर सभनानी

गुरुवार, 19 जून 2025

"गाड़ी वाला आया घर से कचरा निकाल" गीत किसने लिखा?

"गाड़ी वाला आया घर से कचरा निकाल" गीत को मध्य प्रदेश के मंडला जिले के गांव के शिक्षक श्याम बैरागी ने 2016 में लिखा था। यह गीत स्वच्छता अभियान के लिए बनाया गया था और आज देशभर में सफाई गाड़ियों के साथ बजता है। एक बॉलीवुड फिल्म में भी इस गीत का इस्तेमाल हुआ।

श्याम बैरागी द्वारा लिखा "गाड़ी वाला आया घर से कचरा निकाल" गीत के मुख्य बोल निम्न हैं -

देख-देख-देख तू यहाँ वहाँ न फेंक

देख फैलेगी बीमारी, होगा सबका बुरा हाल...

तो का करे भैया?

गाड़ी वाला आया घर से कचरा निकाल,

गाड़ी वाला आया घर से कचरा निकाल...

यह गीत स्वच्छता और सफाई की जागरूकता के लिए लिखा गया था और अब पूरे भारत में सफाई गाड़ियों के साथ बजता है। श्याम बैरागी को उनकी त्वरित कविता लेखन (आशुकवि) और जन-जागरूकता के लिए लिखे गए गीतों के लिए जाना जाता है; वे आज भी शिक्षा और गीत-संगीत के ज़रिए समाज में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए सक्रिय हैं।

आपको यह जानकारी कैसी लगी?

केशव राम सिंघल

बुधवार, 9 दिसंबर 2020

कुत्ता शाला अजमेर में क्यों खोली गई थी?

कमल गर्ग

अपने यहां परंपरा है की पहली रोटी गाय को और आखरी रोटी कुत्ते को जहां तक सवाल है कुछ ना कुछ सोच विचार कर यह बनाया गया होगा, लेकिन मैं देखता हूं यहां पर कुत्ते रात भर  भोंकते रहते हैं और नींद में खलल होती है ।सुबह उठकर देखते हैं तो रैंप के ऊपर ,सीढ़ियों के ऊपर लैट्रिन की हुई होती है साथ ही जैसे ही गाड़ी आकर खड़ी होती है टांग ऊंची करके पेशाब करके गंदगी करते रहते हैं अब क्या कहें हमारे बुजुर्ग सही थे या गलत लेकिन कुत्ता शाला अजमेर में क्यों खोली गई थी, इसीलिए कि आवारा और बीमार कुत्तों को  रख सकें और वह आखरी रोटी इकट्ठा करने के लिए कुत्ता शाला से पीपा लेकर एक कार्मिक आया करता था क्या यही व्यवस्था आज नहीं हो सकती नगर परिषद से पिंजरे  आया करते थे  कुत्तों को पकड कर ले जाते थे। शेर काटते नहीं, कुत्ते के काटे का इलाज नहीं ,लाखों लोग मर जाते हैं

शनिवार, 5 दिसंबर 2020

...जब प्रकाश सेठी अजमेर आये


कांग्रेस के युवा नेता संजय गांधी की मार्च 1980 में होने वाली यात्रा की तैयारियों का जायज़ा लेने के लिये उस वक्त के केन्द्रीय पेट्रोलियम मंत्री प्रकाश सेठी अजमेर आये, उन्होंने सुभाष उद्यान में आयोजित होने वाले सर्व धर्म सम्मेलन की तैयारियों को अंतिम रूप दिया। श्री सेठी ने सर्किट हाऊस में पत्रकारों से बातचीत की।अजमेर के दो प्रमुख दैनिक के सिटी चीफ  श्री श्याम जी (नवज्योति) और मैं प्यारे मोहन त्रिपाठी (न्याय) ने ही सेठी जी से बातचीत की। पास में खड़े हैं अजमेर पश्चिम के विधायक किशन मोटवानी व सत्य किशोर सक्सेना जी।उल्लेखनीय है कि प्रकाश सेठी जी की लड़की अजमेर में विधायक रहे माणक चन्द जी सोगानी के पुत्र को ब्याही गयी थी।


प्यारे मोहन त्रिपाठी 

संयुक्त निदेशक जनसम्पर्क (रि)

अजमेर

शनिवार, 28 नवंबर 2015

रेल बजट आने वाला है, जरा ध्यान दीजिए इन सुझावों पर

आदरणीय बन्धुओ, संस्थाओं,  मंदिर/मस्जिद/गुरुद्वारों के पदाधिकारियों,
आप सभी को विदित है कि फरवरी 2016 में रेल बजट आने वाला है। सभी संस्थाएं व जागरूक बन्धु जनता की सहूलियत हेतु अपने-अपने सुझाव रेल मंत्रालय को भेजते हैं। अजयमेरु नागरिक अधिकार एवं जन चेतना समिति, नाका मदार, अजमेर ने जनता के हितार्थ समय-समय पर विभिन्न बिन्दुओं पर रेल प्रशासन का ध्यान आकर्षित किया है और रेल प्रशासन ने उन सुझावों पर कार्यवाही भी की है। 
पुन: रेल प्रशासन के ध्यान में विभिन्न बिन्दु लाने की आवश्यकता है, जिन पर कार्यवाही करने से जनता को काफी सहूलियतें मिलने की उम्मीद हैंं।
हम आपसे अनुरोध करते हैं कि आप अजमेर की रेल आवश्यकताओं पर नॉर्थ वेस्टर्न रेलवे, जयपुर के जनरल मैनेजर सहित अजमेर मंडल रेल प्रबंधक, रेल मंत्री, चेयरमैन रेलवे बोर्ड तक अपने सुझाव भेजें। कुछ ही माह बाद फरवरी में रेल बजट आने वाला है, यदि अभी ही सुझाव नहीं भेजे गए तो रेल बजट में उन प्रस्तावों का समावेश किया जाना सम्भव नहीं होगा:
1. गत रेल बजट 2015 में गुलाब बाड़ी रेल फाटक पर ओवर ब्रिज बनाने की स्वीकृति प्रदान की गई थी (देखें अजयमेरु टाइम्स 1 एवं 16 मार्च 2015 अंक), इस कार्य हेतु बजट आवंटन की मांग की जाय व इस कार्य को शीघ्र प्रारम्भ कराने हेतु पुरजोर मांग की जाय।
2. अजमेर रेलवे स्टेशन का द्वितीय निकास द्वार पाल बीचला की तरफ बनाने की योजना अजमेर विकास के लिए अत्यन्त आवश्यक है। इससे अजमेर की आधी आबादी को लाभ होगा और मेन स्टेशन रोड पर ट्रैफिक भी कम होगा। यह योजना जनता को सहूलियत तो प्रदान करेगी ही, प्रशासन के लिए भी स्टेशन रोड पर ट्रै्रफिक की समस्या का निदान निकालेगी। यह बड़ी योजना है जिसमें रेलवे के साथ-साथ अजमेर विकास प्राधिकरण, नगर निगम आदि सभी की भागीदारी होगी। इस योजना में भूमि अधिग्रहण कर रोड चौड़ा भी करना होगा अत: इसके लिए भारी जोर लगाने की आवश्यकता है।  अन्यथा इस कार्य पर सभी विभाग कार्य करने से दूर ही रहने का प्रयास करेगें। इसके लिए सांसद व जन प्रतिनिधियों पर भी विशेष जोर दिया जाना आवश्यक है।
3. मदार रेलवे स्टेशन को आधुनिक सुविधाओं से लैस करने के साथ इसका विस्तार भी किया जाए, ताकि भविष्य में अजमेर मुख्य स्टेशन का भार कम किया जा सके। यदि मदार स्टेशन का विकास नहीं किया तो अजमेर को नई रेलगाडिय़ां मिलना मुश्किल हो जाएंगी। मुख्य स्टेशन पर स्थान की कमी के कारण पिटलाइनों का नितांत अभाव है, अत: मदार स्टेशन पर इस कार्य की योजना बनाई जानी आवश्यक है। अजमेर रेलवे स्टेशन पर जगह की कमी के कारण गत वर्ष रेल बजट में अजमेर को एक भी नई ट्रेन नहीं दी गई। स्मार्ट सिटी के परिप्रेक्ष्य में मदार स्टेशन का विस्तार व विकास अत्यन्त आवश्यक है। इस स्टेशन के विकास हेतु भूमि भी बहुतायत से उपलब्ध है, अत: इस स्टेशन हेतु दीर्घकालीन योजना बनाने की आवश्यकता है। इसके लिए अजमेर के दोनों सांसद महोदय से विशेष अनुरोध किया जाना चाहिए।
4. अजमेर अन्तर्राष्ट्र्रीय धर्म नगरी है। यहां पुष्कर तीर्थ व ख्वाजा साहब की दरगाह सहित अनेक पवित्र स्थान हैं, जहां देश से ही नहीं विदेश से भी लाखों धर्म पे्रमी बन्धु निरंतर आते हैं। यहां दो-दो अन्तर्राष्ट्रीय मेले- पुष्कर व ख्वाजा सहाब, भरते हैं।  अजमेर का  मथुरा व सोमनाथ धर्मनगरों से सीधा सम्पर्क नहीं है। एक धर्म नगरी का दूसरी धर्म नगरी के साथ सीधा सम्पर्क होना आवश्यक है। इस सिलसिले में अजमेर को सोमनाथ व मथुरा से सीधे जोडऩे के क्रम में दिल्ली-राजकोट ट्रेन को सोमनाथ तक तथा इलाहबाद-जयपुर ट्रेन को अजमेर तक बढ़ाया जाना आवश्यक है।  
5. अजमेर व श्री महावीरजी के बीच तीन ट्रेनें हैं (अजमेर-पटना जियारत एक्सप्रेस, उदयपुर-सियालदाह अनन्या एक्सप्रेस, रांची-अजमेर एक्सप्रेस), जिनका ठहराव श्री महावीरजी स्टेशन पर नहीं है।  अनेक अवसरों पर रेल सलाहकार समिति सदस्यों के साथ सम्पन्न मीटिंगों में इसकी मांग उठी है, परन्तु सफलता नहीं मिल सकी है। उदयपुर, भीलवाड़ा, अजमेर, जयपुर सहित अनेक नगरों से हजारों की संख्या में तीर्थयात्री प्रतिदिन श्री महावीरजी जाते हैं, परन्तु इन ट्रेनों का ठहराव न होने से उन्हें भारी असुविधा होती है। 
6. अजमेर नगर के हर कोने में रेलवे की सम्पत्तियां मौजूद हैं अर्थात किसी भी कोने से निकल जाएं, रेलवे का वजूद वहां मिलेगा। ऐसे में यदि रेलवे द्वारा उस स्थान की संभाल नहीं की जाती है तो शहर की सुन्दरता पर भी प्रभाव पड़ता है।  ऐसा ही एक क्षेत्र राजा साइकिल चौराहा है, जहां ओवर ब्रिज का निर्माण हुआ है। इसके निर्माण के बाद रेलवे की काफी भूमि लावारिस जानवरों व शरारती तत्वों का अड्डा बनकर रह गई है।  रेलवे पर दबाव बनाया जाए कि इस भूमि हेतु कोई योजना बनाकर इसे सुन्दर पार्क का रूप दिया जाए या अन्य जनोपयोगी कार्य हेतु विकसित किया जाए। 
7. एयरपोर्ट  शटल चलाई जाए- अजमेर एयरपोर्ट को जयपुर (सांगानेर) से जोडऩे के लिए एक एयरपोर्ट शटल चलाई जाये, ताकि जो व्यक्ति अजमेर, पुष्कर, दरगाह विजिट करना चाहते हैं, वे सीधे जयपुर से इस शटल के माध्यम से अजमेर आ सकें। यह रेलवे ट्रैक लगभग 120 किलोमीटर का होगा, जिसमें 100 किलोमीटर ट्रैक पहले से तैयार है। इस रेल ट्रैक को जयपुर मेन स्टेशन से जोडऩे की आवश्यकता नहीं है। विदित हो कि अजमेर एयरपोर्ट दिल्ली, मुम्बई जैसे बड़े एयरपोर्ट से ही जुड़ पाएगा, अन्य नगरों के लिए उसे जयपुर एयरपोर्ट का ही उपयोग करना होगा। अत: एयरपोर्ट शटल के माध्यम से अजमेर एयरपोर्ट का जयपुर से कनेक्शन होने पर यात्रियों को भारी लाभ होगा। 
8. अहमदाबाद-आगरा फोर्ट ट्रेन सं. 12548 अजमेर से आगरा फोर्ट की तरफ रात्रि 2.10 पर रवाना होती है। अजमेर के तीर्थ यात्रियों/जायरीनों व जनता के लिए यह गाड़ी अत्यन्त उपयोगी तो है परन्तु इसकी रवानगी का समय यदि रात्रि 11.50 किया जाए तो यह अत्यन्त उपयोगी होगी और रेलवे को भी भारी ट्रेफिक प्राप्त कराएगी। पूर्व डी आर एम श्री मनोज सेठ द्वार इसके लिए रिवाइज्ड टामइ टेबल बनाया गया था और उसे पत्र  के माध्यम से जयपुर डिवीजनल हैड क्वाटर भेजा गया था। परन्तु यह कार्य आगे नहीं बढ़ सका। यह टे्रन अजमेर के लिए बहुत उपयोगी व महत्वपूर्ण टे्रन है जिसके समय में बदलाव होने से जनता का भारी सुविधा प्राप्त होगी। 
-एन.के. जैन, 
जन सम्पर्क प्रभारी
अजयमेरु नागरिक अधिकार एवं जन चेतना समिति, 
नाका मदार, अजमेर मो. 9414004270

शनिवार, 7 नवंबर 2015

क्या सोशल मीडिया पर कहा सुना सब कुछ सत्य है ?

गत कुछ महीनों में संपूर्ण भारतवर्ष में जिस तरह का माहौल बना है और दिन प्रतिदिन राग-द्वैष, आरोप-प्रत्यारोप, भक्त-देशद्रोही,विकासपुरूष-घोटालेबाज़,सेक्युलर-सूडो सेक्युलर,बीफ-दादरी,असहिष्णुता-अवार्ड वापसी, अच्छे दिन-महंगे दिन, वगैरह-वगैरह की लड़ाई भक्त बनाम गैर भक्तो में जिस प्रकार से सोशल मीडिया पर चल रही है बड़ी ही दिलचस्प है। मैं क्या सही और क्या गलत है के चक्कर में ना पड़ के सीधे मुद्दे पर आता हूँ। किसी पर विश्वास करना बड़ी ही अच्छी बात है मगर बिना किसी विवेकपूर्ण तर्क के अन्धविश्वास करना और जो वो करे उसे ही सत्य  मान के औरों को अनसुना करना या उनके द्वारा कुछ कहने या बोलने पर गाली गलौच कर मार्क ज़ुकेरबर्ग के प्लेटफार्म को दूषित करना अत्यंत ही दुःख की बात है। सोशल मीडिया का आरम्भ अपने परायों से जुड़े रहने और ज्ञान एवं सुचना के आदान प्रदान के लिए हुआ था पर विगत वर्षो में इसे राजनैतिक पार्टियो ने एक बड़े ऑनलाइन समुदाय को भ्रमित एवं प्रभावित करने का माध्यम बना लिया है। आज ये  सोशल मीडिया राजनितिक अंध भक्तो के लड़ने का अखाड़ा बन चूका है। और सबसे बड़ी बात ये है की लोग अपने सोचने समझने की शक्ति भूल कर जो भी प्रायोजित तरीके से पोस्ट और शेयर आ रहे है उन्हें गीता और रामायण की तरह अटल सत्य मान कर अपना नजरिया बना रहे है। उन्हें ये नहीं मालूम की कौन व्यक्ति या समूह किस प्रयोजन के लिए क्या प्रोपेगंडा रच रहा है। क्या सत्य है क्या मिथ्या किसी को कुछ नहीं लेना देना। एक समय था जब हमारे बुजुर्ग सिर्फ अपने देखे और सुने पर ही यकीं करते थे और 'जो देखा वो सत्य, बाकि सब मिथ्या' वाली नीति का अनुसरण करते थे। परन्तु आजकल जो किसी ऑफिसियल या फ़र्ज़ी पेज या अकाउंट से कुछ भी शेयर होता है सब उसे पत्थर की लकीर मान लेते है। आधुनिक भारत में अफवाह उड़ाने का, घृणा फ़ैलाने का, सोशल मीडिया से बढ़िया प्लेटफार्म और कहा मिलता।

पुनश्च : झूठ को सौ बार चिल्ला चिल्ला के बोलो तो लोग सच मान लेते है, जैसा की आजकल हर  चुनाव में होता है। जीतने के लिए येन केन प्रकारेण वाली नीति चुनते है। मुद्दो को विकास से शुरू कर धर्म और असहिष्णुता पर ख़त्म करते है। और चुनाव के बात यही विदूषक मौन साध लेते है। अतः सभी बुद्धिजीवियों से निवेदन है कि किसी भी प्रायोजित पोस्ट और शेयर को देखते ही विश्वास करने के बजाय अपने विवेक से काम ले और सोशल मीडिया को राजनैतिक अखाड़ा ना बनाये। किसी ने सत्य ही कहा है 'दिखावे पर न जाए,अपनी अकल लगाये ' ।
Bhupendra Singh