शुक्रवार, 3 जून 2011
साम्यवाद के जनक श्री कृष्ण
आधुनिक साम्यवाद के प्रणेता कार्ल माक्र्स, लेनिन एवं माओत्से तुंग के समय से भी काफी पहले भारतवर्ष में एक ऐतिहासिक महापुरुष का प्रादुर्भाव हुआ था, जिन्होंने न केवल गरीब, असहाय एवं दलितों पर होने वाले अत्याचारों का विरोध किया, उनके हितों के लिए संघर्ष किया बल्कि तत्कालीन धार्मिक पाखंड एवं थोथे कर्म कांडों का भी विरोध किया और बदले में समाज में उचित रीति रिवाजों के प्रचलन के लिए लोगों को प्रेरणा दी। वह महापुरुष थे श्री कृष्ण, जिनको हिन्दू परायण जनता भगवान का अवतार मानती है। जैसा कि सर्वविदित है साम्यवाद की मूलभूत धारणा है, मनुष्य मनुष्य सब समान हैं, इनमे ऊंच-नीच का कोई भेद नहीं है और जो समाज के कमजोर तबकों पर अत्याचार करता है, उसे सजा मिलनी ही चाहिए। इसके साथ ही हमारी कोशिश हो कि हम एक ऐसे समाज का निमार्ण कर सकें, जिसमे स्वार्थपरकता, एक ही व्यक्ति अथवा परिवार का निरकुंश एवं ठाट-बाट का शासन नहीं हो। न ही किसी तरह का उत्पीडऩ हो। श्री कृष्ण ने अपने काल में यही सब किया। उनके जीवन से हमें यह शिक्षा मिलती है कि कैसे उन्होंने आज से 5000 साल पहले इन सिद्धान्तों एवं विचारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दर्शायी थी। अगर कोई गीता का समुचित अध्यन करे तो यह पायेगा कि उसके सर्जक श्रीकृष्ण, कार्लमाक्र्स से भी अधिक साम्यवादी थे। यहां तक कि यह कहना भी गलत नहीं होगा कि साम्यवाद के जनक श्रीकृष्ण ही थे। श्रीकृष्ण ने उस समय चारों ओर फैले अंध धार्मिक कट्टरपन के विरुद्ध आवाज उठाई। यह भी सर्वविदित है कि उस समय लोगों में यह धारणा फैली हुई थी कि इन्द्र को प्रसन्न करने हेतु किसी जीव की बली देना आवश्यक है। श्री कृष्ण ने इस प्रथा का विरोध किया और लोगों के स्वाभिमान को जगाया। श्रीकृष्ण ने ही गायों की पूजा शुरू करवाई, जो कि हमारे तत्कालीन कृषि जीवन का आधार थी। श्रीकृष्ण ने सर्वजन के भूख की निवृत्ति हेतु अन्नकूट की प्रथा शुरू करवाई ताकि सबके लिए अन्न की व्यवस्था हो और कोई भूखा नहीं सोए। श्रीकृष्ण ने उन लोगों का भी विरोध किया जो हर बात में वेदों का उदाहरण देकर अपनी बात मनवाने का प्रयास किया करते थे। श्रीकृष्ण ने गीता में विस्तार से वर्णन किया है कि जो व्यक्ति अंध विश्वास के वशीभूत होकर अपनी छोटी-छोटी कामनाओं की पूर्ती हेतु विभिन्न देवी-देवताओं के निमित तरह-तरह के कर्मकांड करते हैं, वे मूढ़ हैं। उन्होने यह भी कहा कि जो कई देवी-देवताओं की पूजा करते हैं, धार्मिक अंध विश्वास एवं थोथे रीति-रिवाजों को मानते है, उन्हें अधिक बुद्धिमान नहीं माना जा सकता। श्रीकृष्ण ने जिन्दगी के हर क्षेत्र का अध्ययन करने के पश्चात यह निष्कर्ष निकाला और अर्जुन से कहा कि तू सब धर्मों का त्याग करके मेरी शरण में आ जा। जैसा कि बाद में कार्ल माक्र्स ने भी कहा था कि, थोथे कर्म कांडों वाला धर्म आम लोगों के लिए अफीम के समान है, परन्तु धर्म से भी आगे बढ़ कर सत्य की खोज करने की प्यास हमेशा से रही है। आदमी के जेहन में सवाल उठता रहा है कि मृत्युपरान्त आदमी कहां जाता है? इसका उत्तर श्रीकृष्ण अर्जुन के माध्यम से गीता में सबको देते हैं, जो कि अध्यात्म का हिस्सा है, लेकिन आधुनिक साम्यवाद के ग्रन्थों में इसकी झलक देखने को नहीं मिलती है। गीता को पढऩे से इंसान को सृष्टि के सृजनात्मक पहलू की गहरी जानकारी प्राप्त होती है, जिसके बगैर जिन्दगी शुष्क बन कर रह जाती है। यहीं आकर धर्म एवं अध्यात्म का भेद प्रकट होता है, जो कि साम्यवाद के ग्रन्थों में नदारद है और यह पहलू सिर्फ श्रीकृष्ण की गीता में उपलब्ध है। साम्यवाद किसी भी अवस्था में श्रीकृष्ण को नही भुला सकता है क्योंकि साम्यवाद के तमाम सिद्धान्तों में श्रीकृष्ण पहले से ही कारगर ढंग से मौजूद हैं। इस बात को हम नजर अंदाज नहीं कर सकते और अगर करते हैं तो हम पायेंगे कि हमने सिर्फ एक धर्म की जगह दूसरे धर्म को, जिसका कि नाम साम्यवाद है, रख दिया है। मुझेे आश्चर्य होता है कि कम्युनिस्ट विचारधारा के लोगों ने अभी तक भी श्रीकृष्ण को क्यों नहीं अपनाया है?
गीता में स्वयं श्रीकृष्ण ने कई बार कहा है कि जो व्यक्ति प्रत्येक जीव में मेरी छवि देखता है, प्रत्येक व्यक्ति में अपनी स्वयं की मूरत देखता है, वह सत्य के दर्शन करता है और यही तथ्य साम्यवाद का मूल सिद्धान्त है, यानि आम व्यक्ति को अपना मान कर उसकी भलाई की कोशिश करना। केले के छिलके की उपयोगिता तभी तक है, जब तक कि उसके अंदर केला मौजूद है, परन्तु ज्योंही हम केले का इस्तेमाल कर लेते हैं तो हम केले को कूड़ेदान में फैंक देते हैं। ठीक इसी तरह कर्मकांड का धर्म हमें हमारे लक्ष्य, अंतिम सत्य तक नहीं ले जाता। उसके लिए व्यक्ति को अपने मन की गहराई में उतर कर वैज्ञानिक अध्यात्मवाद की तरफ जाना पड़ता है। यहां आकर तथाकथित धर्म बाहर ही खड़ा रह जाता है और व्यक्ति शुद्ध मानवता, शुद्ध देवत्व की ओर बढ़ता है। यही वह सार तत्व है, जिसे कृष्ण ने गीता में प्रतिपादित किया है। पश्चिम में वैज्ञानिकों पर अक्सर यह दबाब डाला जाता रहा है कि वे धार्मिक ग्रन्थों की अवधारणाओं पर उंगली न उठाएं, उन पर प्रश्न न करें, जबकि इसके विपरीत भारत के अधिकांश धर्म ग्रन्थ सवाल-जबाब के रूप में ही लिखे हुए हैं। गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को अपनी बात कहने के उपरान्त सुझाव देते हैं कि तुम स्वतंत्र रूप से इन बातों पर गौर करो और तुम्हें इस बात की पूरी आजादी है कि तुम इससे सहमति प्रकट करो या इन्हें ठुकरा दो। श्रीकृष्ण ने कहीं भी अपने विचार अर्जुन पर नहीं थोपे। साम्यवाद भी लगभग इन्ही विचारों का पोषक है, लेकिन कहीं कहीं सुनने में आता है कि इस विचारधारा को मानने वाले कुछ कट्टर लोग अपने से भिन्न विचारों को पसंद नहीं करते। विभिन्न विषयों पर अपने विचार प्रकट करने के साथ ही श्रीकृष्ण ने युद्ध के मैदान में अर्जुन को अत्याचारों को सहने की बजाय उनके विरुद्ध उठ कर युद्ध करने की प्रेरणा दी, जैसा कि कम्युनिस्ट भी अधिकतर करते हैं। उन्होंने अर्जुन को कहा कि इस युद्ध को विवेक बुद्धि का इस्तेमाल करते हुए कर्तव्यरूप समझ कर लड़े, न कि गुस्से अथवा घृणा के साथ लड़े। साम्य वाद की जो खूबियां हैं, उसमें से एक है बंटवारा। अगर हम श्रीकृष्ण का बाल्यकाल देखें तो हम पायेंगे कि वह बचपन से ही बिना किसी भेदभाव के अपने ग्वाल-बालों के बीच माखन-मिश्री का बंटवारा करके खाते थे। बाद में उन्होंने सम्पत्ति का बंटवारा किया। साम्यवाद की सबसे बड़ी खूबी है कि बिना किसी भेदभाव के सम्पूर्ण समाज के हित में काम करना और यही श्रीकृष्ण ने भी किया। उनका मानना था कि जो मनुष्य वास्तव में बुद्धिमान है, वह समाज में किसी को ब्राह्मण एवं किसी को अछूत नहीं समझेगा। कम्युनिस्ट जातिवाद के सतत विरुद्ध है, परन्तु आप चाहे इसे पसंद करें अथवा नहीं परन्तु यह हर काल में किसी न किसी रूप में सर्वत्र व्याप्त है। यह जल्मजात भी है और मनुष्य द्वारा अपनाये गए कर्मों के अनुसार भी। ऐसे भी उदाहरण हमें मिल जायेंगे जिसमें कि किसी का जन्म तो किसी अन्य जाति में हुआ, लेकिन उसने अपने पर परागत धन्धे को न अपना कर अन्य कोई कार्य किया। उदाहरण के लिए हम वेद व्यास को लें, जिनका जन्म तो एक मछुआरे के यहां हुआ, लेकिन उन्होंने इतिहास प्रसिद्ध बड़े-बड़े धार्मिक ग्रन्थों की रचनाएं की। हमें आश्चर्य तो तब होता है, जबकि हम पाते हैं कि हमारे ज्ञात हजारों ऋषि-मुनियों में से कुछ लोग ही तथाकथित सवर्ण वर्ग के थे। यह दुख की बात है कि कुछ दिखावटी लोग जो साम्यवाद की बात करते हैं, लेकिन वे स्वयं आलीशान जिन्दगी जीते हैं, परन्तु श्रीकृष्ण ने कभी ऐसा नहीं किया.। वे स्वयं कभी राजा नहीं बने, हालांकि कुछ लोग उन्हें द्वारकाधीश पुकारते हैं। वे द्वारका के सेवक की तरह रहे। वे राजमुकट के बिना ही राजा रहे। उन्होंने सदैव गरीबों के हितों के लिए कार्य किया और आमजन में अपनी तस्वीर देखी, इसलिए सदियां बीत जाने पर आज भी वे याद किये जाते हैं, परन्तु आजकल अचानक रामायण, महाभारत इत्यादि को सिर्फ महाकाव्य, साहित्यिक रचना घोषित करने की बातें होने लगी हैं। कुछ लोग इन ग्रन्थों को कथा-कहानियों के रूप में लेने लगे हंैं, मानो इनमें वर्णित घटनाएं कोरी कपोल कल्पित हो। यह घारणा हास्यास्पद है क्योंकि सिर्फ पौराणिक कथा-कहानियों से सम्पूर्ण क्षेत्र और यहां तक कि देश-विदेश में भी बिना किसी प्रचार प्रसार के समुचित साधनों के, इनका प्रभाव देखा-सुना जा सकता है। रामायण एवं महाभारत का सम्पूर्ण सभ्यता पर इतना व्यापक प्रभाव एक आश्चर्य का विषय है। संस्कृ त के शब्द 'इतिहासÓ का तात्पर्य ही यही है कि ऐसा हुआ था, ऐसा हुआ है। संसार के प्रत्येक प्राणी को अपने समकक्ष मानना हृदय की बात है और हृदय की यह उमंग अध्यात्म से आ सकती है। यह कोरी विद्वता की बात ही नहीं है कि आपने पढ़ा और आप इस पर काम करने लगे, यह भावना की बात है और भावनाओं का विकास अध्यात्म से होता है। इसलिए एक सच्चा कम्युनिस्ट बनने के लिए यह आवश्यक है कि आपके हृदय में दया एवं प्रेम की लहर उमड़े। आधुनिक साम्यवाद धर्म के वर्तमान, कर्मकांडों की बाहुल्यता वाले स्वरूप को स्वीकार नहीं करता है और आपको शून्य में विचरण करने के लिए छोड़ देता है। अगर आप पर अध्यात्म का प्रभाव नहीं है तो आप अपने उदेश्यों से भटक जायेंगे और आप में प्रतिहिन्सा की ज्वाला प्रज्ज्वलित हो सकती है या आप में अवसाद-विषाद आ सकता है, जो कि आत्महत्या का रास्ता है। आप दूसरे किसी की तब तक सेवा नहीं कर सकते, जब तक कि आप उसे अपना नहीं मानें। सिर्फ अध्यात्म ही आपमें यह सेवाभाव, बांट कर सेवन करना अथवा साम्यवाद की भावना ला सकता है। साम्यवाद में इसी अध्यात्म की कमी है, जिसके लिए श्रीकृष्ण प्रसिद्ध थे, परन्तु अब यह देखा गया है कि कम्युनिस्ट केरल में गुरूवयूर मंदिर जाने लगे हैं और बंगाल में दुर्गा पूजा महोत्सव मनाने में भी झिझक नहीं दिखा रहे हैं।
श्री श्री रविशंकर-आर्ट ऑफ लिविंग हिन्दुस्तान टाइ स 13.6.2004 अनुवादक: शिव शंकर गोयल
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