मैं तो उस घड़ी को कोस रहा हंू, जब नामकरण के समय मां-बाप ने मेरा नाम भंवर रख दिया। इसको लेकर मुझे कई बार गलतफहमियां भी हुई हैं। ऐसे ही एक बार का किस्सा है, मैं घर पर बैठा था। बरसात का मौसम था और पड़ौस से कहीं गानों की मधुर-मधुर आवाजें आ रही थीं। वैसे भी सुहावने मौसम में कोई भी उन गानों अथवा गीतों को सुन कर चुप कैसे बैठ सकता है?
एक गाने के बोल थे 'सावन के झूले पड़े, सैयांजी हमें तुम क्यों भूले पड़ेÓ। इसके बाद दूसरा गाना बजा 'बन्नारे! बांगा म्है झूला डाल्या ...Ó एक नायिका बाग में झूला डाल कर अपने प्रेमी को झूला झूलने हेतु निमंत्रण दे रही है। इसके तत्काल बाद ही एक फिल्मी गीत बजा 'बागों म्है बहारों में, गलियों में चौबारों में, मैं ढूंढूं, तू छिप जाÓ यह सुन कर मैं तन कर बैठ गया लेकिन तभी एक और गीत बजा, 'भंवर बांगा म्है आजो जी......पपहियो बोल्यो जी!Ó नायिका भंवर जी को किसी बाग में बुला रही है और कह रही है कि पपीहा पक्षी भी बोल रहा है। तभी मैंने सोचा कि आज जरूर कोई बात है, वर्ना एक के बाद एक ऐसे शुभ संकेत कैसे आ रहे हैं और इस आखिरी गीत में तो मेरा नाम लेकर ही मुझे बागों में बुलाया जा रहा है। मेरा मन खुद ही बा-बाग हो गया और मैं अपना आपा खो बैठा तथा बाग में जाने की तैयारी करने लगा, लेकिन जब मैं कपड़े पहन कर तैयार हुआ तो सोचने लगा कि मेरे को आखिर किस बाग में बुलाया गया है, यह तो बताया ही नहीं? वैसे होने को जंहागीर तथा शाहजहां का श्रीनगर में शालीमार और निशात बाग बनवाया हुआ है, कहीं उसी में आने का इशारा न हो, लेकिन फिर सोचा, जिस बाग के चारों ओर यदा-कदा गोलियों की आवाजें गूंज जाती हो, भला वहां भंवर जी को कौन बुलायेगा? फिर मेरे दिमाग में आया कि कहीं चंडीगढ़ के पिन्जौर गार्डन का बुलावा तो नहीं है? लेकिन अपने स्टैन्डर्ड को देखते हुए मैंने स्वयं ने ही इस संभावना को खत्म कर दिया। एकबारगी मन में यह भी आया कि कही राष्ट्रपति भवन के मुगल गार्डन का तो बुलावा नहीं है, जहां के रखरखाव पर ही हिन्दुस्तान की गरीब जनता के लाखों रुपए रोज खर्च हो जाते है। लेकिन फिर ख्याल आया कि वह गार्डन तो बकौल भू. पू. मंत्री शशि थरूर 'कैटल क्लासÓ यानि साधारण आदमियों के लिए है ही नहीं, फिर मेरे जैसे को वहां कौन बुलायेगा?
आदमी के ख्याल ही तो हैं, जितने ऊंचे उड़ जाएं, उतने कम है। एक ख्याल यह भी आया कि कहीं पूरब दिशा से बुलावा न आया हो और फौरन ही कलकत्ता के ईडन गार्डन का विचार कौंधा, लेकिन वहां आजकल बंगाल की दीदी का बोलबाला है, जिसे कॉरपोरेट जगत का मीडिया खूब हवा दे रहा है। गोया कि वहां आज तक जो कुछ हुआ गलत ही हुआ हो।
अचानक मुझे विचार आया कि हो न हो मुंबई के ही किसी बाग का बुलावा हो। वैसे भी वहां का नेहरू गार्डन सांझ ढ़लते ही प्यार की पींगें बढ़ाने का उपयुक्त स्थान कहलाता है। लेकिन मुंबई को लेकर मन में उत्साह पैदा नहीं हुआ क्योंकि वहां के प्रसिद्ध शिवाजी पार्क में तो अब राजनीतिक दलों के जो भाषण होते हैं, वह सब सुनत-सुनते लोगों के कान पक गए, सब थोथी बातें!
सुना था कि मैसूर के पास कावेरी नदी पर बने कृष्णार्जुनसागर बांध के पास वृन्दावन गाार्डन है, जहां म्यूजीकल फव्वारे है, लेकिन ऐसी जगह मुझे बुला कर कौन आफत मोल लेगा और चेन्नई में तो 'स्नेक गार्डनÓ यानि सांपों का बाग ही है और आप जानते हैं, ऐसी जगह शृंगार रस में डूबने की नहीं होती।
यों होने को जोधपुर के पास राईका बाग है, लेकिन यह सब राई और बाग दोनो को ही बदनाम करने के लिए काफी है। उधर जयपुर में वास्तुकार विद्याधर का बाग, दुलाराम का बाग, सिसौदिया गार्डन इत्यादि हैं, लेकिन इनमें से अधिकांश आम जनता के लिए है ही नहीं, फिर वहां से बुलावा क्यों कर आयेगा? वैसे भी अजमेर का दौलत बाग और जयपुर का रामनिवास बाग तो सही मायने में अब बाग रहे ही कहां? यों होने को और भी कई बाग हैं। आपको क्या-क्या बताऊं?
ऐसे ही एक-एक कर कई विचार मन में आते रहे। बचपन में संसार के सात आश्चर्य में से एक बेबीलोन के झूलते बाग के बारे में पढ़ा था, लेकिन अब वह सब इतिहास की बातें रह गई हैं। मैं सोच रहा था कि यों होने को लंदन का हाईड पार्क भी है और वहां का ही बुलावा हो तो कैसा अच्छा रहे? विदेश की सैर भी हो जायेगी लेकिन यह सब मन के लड्डू हैं, फीके क्यों रहें।
मैं सोचने लगा कि आखिर किस बाग में जाऊं और मुझे यानि भंवरजी को बाग में ही क्यों बुलाया है? लेकिन फिर ख्याल आया कि प्राचीन काल से ही बाग का महत्व रहा है। चाहे लंका की अशोकवाटिका हो चाहे कोई और कहते हैं कि सृष्टि के प्रारम्भ में आदम और हव्वा को एक फल खाने की प्रेरणा किसी बाग में ही मिली थी। प्रसिद्ध वैज्ञानिक न्यूटन को गुारुत्वाकर्षण के सिद्धांत का ज्ञान बाग में ही सेव गिरने से हुआ था। अंत में मैंने सोचा, हो न हो यह गंगा-यमुना की धरती 'उत्तम प्रदेशÓ में बनने वाले नए नए बागों में से किसी एक का बुलावा होगा, जहां आम जनता की खून पसीने की कमाई के करोड़ों रुपए समाजसेवा में न लगा कर जिन्दा-मृत नेताओं की मूर्तियां लगाने में लगाए जा रहे हैं और तर्क दिया जा रहा है कि जब मनुवादी देवी-देवताओं की मूर्तियां लगा सकते हैं, महात्मा गांधी की मूर्तियां लगा सकते है तो हम 'मनीवादीÓ अपनी मूर्तियां क्यों नहीं लगा सकते? आखिर तर्क ही तो है! इन बातों से मेरा मन खट्टा हो गया और मैंने कहीं भी जाने का विचार त्याग दिया।
यह व्यंग्य लेख सेवानिवृत्त इंजीनियर श्री शिवशंकर गोयल ने भेजा है। उनका संपर्क सूत्र है -फ्लेट नं. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट नं. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75, मोबाइल नंबर: 9873706333
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