गुरुवार, 2 फ़रवरी 2012
दिल्ली दिल वालों की
देश की राजधानी दिल्ली के बारे में चन्द बातें आप बीती के रूप में लिख रहा हूं कि जो कुछ भी लिखूंगा, सच-सच ही लिखूंगा और सच के सिवाय कुछ नहीं लिखंूगा। यह बड़ा शहर है। यहां की बड़ी बड़ी बातें हैं। यहां बड़े-बड़े आदमी रहते हैं। उनके अपने ठाठ हैं। मजे की बात है कि जानवर भी रहते हैं तो वे ऐलानिया रहते हैं, जैसे आईटीओ पुल के पास एक बोर्ड टंगा है, जिस पर लिखा है, 'यहां हाथी रहते हैंÓ। ऐसा बोर्ड अन्यत्र कम ही देखने को मिलता है। लगता है कि चुनाव कमीशन ने भी अभी तक यह बोर्ड नहीं देखा है, वरना कहता बहनजी, यहां भी आ पहुंची, अभी उसे पर्दे से ढ़कने का आदेश देते हैं। आप पूछेंगे कि इतने पर्दे कहां से आयेंगे तो बाजार में पर्दों की कोई कमी तो है नहीं। जगह-जगह लिखा हुआ मिलेगा 'पर्दे ही पर्देÓ। कोई इस्तेमाल करने वाला चाहिए, सरकारी घोटाले ढ़कने हों या कुछ और, पर्दों की कोई कमी नहीं है। चुनाव कमीशन में कई विद्वान हैं, परन्तु वे यह नहीं सोचते कि इस तरह सिर्फ पर्दा ढ़कने जैसी थोथी बातों में क्या रखा है? पूरी चुनाव प्रणाली आमूलचूल परिवर्तन मांगती है। विकास और विचारधारा, जाति-पैसा-दारू के मुकाबले कहीं बहुत पीछे छूट गए हैं और अपने आपको धर्मनिरपेक्ष कहने वाले दल ही धर्म और जाति की आवाजें लगा रहे हंै और अपने अपने कुनबे को आगे बढाते हुए अपने दल के अध्यक्ष द्वारा थोपे हुए उम्मीदवारों के लिए वोट मांग रहे हैं। खैर, यहां जगह-जगह शॉपिग मॉल बन गए हैं, वहां चाहे एक के दो देने पडें़, लेकिन कुछ लोग वहां खरीददारी करना अपनी शान समझते हैं। ऐसे ही एक शॉपिंग मॉल में जाना हुआ। वहां क्या देखा कि एक वृद्ध ताऊ अपने पोते के साथ कुछ दूर खड़ा है। इतने में वह क्या देखता है कि सामने की दीवार धीरे-धीरे फट गई। उसमें एक वृद्धा दाखिल हुई। कुछ देर बाद वह दीवार वापस जुड़ गई। थोडी देर बाद वह दीवार फिर खुली और उसमें से एक नवयुवती निकली। इतना देखते ही वृद्ध ताऊ के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। उसने अपने पोते से कहा 'अरे! जा जल्दी से जार थारी ताई नै बुलाल्या, वा भी दीवार मायनै जार जवान होलेगी।Ó
मॉल की खरीददारी को जाने दीजिए। साधारणत: भी खरीद करने जाने पर दुकानदार पैदल को कुछ और कार सवार को कुछ और भाव बताते हैं। खरीददारी करते वक्त ग्राहक के हाथ पेन्ट की जेब में हो तो भी भाव बढ़े हुए ही बताये जायेंगे।
एक बार किसी रिश्तेदार के यहां एक शादी में आना हुआ। शादी का निमन्त्रण पत्र बाकी तो सारा इंगलिश में था, लेकिन कार्ड के ऊपर गणेश जी को संस्कृत भाषा में न्यौता गया था। मेरे विचार से इसका कारण यह रहा होगा कि यहां बाकी लोग तो सब इंगलिश वाले हैं। अब रहे गणेश जी तो उन्हें इंगलिश कहां आती होगी? वैसे आपको बताऊं कि मारीशस में प्रवासी भारतीय वहां उन्हें किरोल एवं फ्रेंच भाषा में पूजते हैं, वह तो संस्कृत भाषा के पंडित थे, क्योंकि धार्मिक ग्रन्थों में यह जिक्र आया है कि भागवत पुराण उन्होंने ही लिखी थी। वेदव्यास जी बोलते गये और वे लिखते गए। उसी निमन्त्रण पत्र में बायीं ओर नीचे की तरफ रोमन इंगलिश लिपि में आर.एस.वी.पी. लिखा हुआ था। ऐसा अमूमन दिल्ली में छपने वाले शादी के हर निमन्त्रण पत्र में होता है, लेकिन पूंछने पर भी कोई मुझे यह नहीं बता पाया कि यह आर.एस.वी.पी. किस चिडिया का नाम है? किसी तरह एक जानकार को पकड़ा तो उसने बताया कि यह एक फ्रेंच शब्द है, जिसका अर्थ है कि कृपया निमन्त्रण पत्र मिलते ही पत्रोत्तर दें। वैसे यह केवल वैधानिक चेतावनी की तरह वैधानिक निवेदन है। यहां शायद ही कोई इसकी तरफ ध्यान देता हो। दिल्ली में पढ़े-लिखे व्यक्तियों में ऐसे आदमियों की कमी है, जो एक वाक्य भी पूरा हिन्दी या इंगलिश में बोल सके। अगर वह अंग्रेजी से शुरू करेगा तो थोड़ी देर बाद बोलते-बोलते हिन्दी पर आ जायेगा और अगर वह जाने-अनजाने हिन्दी में बोलना शुरू करेगा तो कुछ ही देर में कन्धे उचका-उचका कर इंगलिश बोलने लगेगा। अब आप यह पूछ कर क्या करेंगे कि वह इंगलिश कैसी होती है?
समृद्ध लोगों को कुत्ते पालने का भी शौक है और जिन पर अंग्रेजियत का ज्यादा प्रभाव है, वे बिल्ली भी पालते हैं, लेकिन उनके नाम इंग्लैंड की बिल्लियों की तरह ही रखते हैं। जहां तक अंग्रेजियत का सवाल है, इसमें यहां के निवासियों का कम और बाहर से आकर कुकरमुत्तों की तरह जगह-जगह निजी इंगलिश मीडियम स्कूल खोलने वालों का हाथ ज्यादा लगता है। बताते है कि इनमें कुछ के तो पूर्वज चम्बल के बीहड़ इलाके से आये हुए हैं, क्योंकि जब जयप्रकाश नारायण और विनोबा भावे ने वहां के डाकुओं का आत्मसमर्पण करवाया था तब उनमें से कई के पास कोई काम नहीं रहा। वे रिटायर्ड दस्यु भी कहलाना पसंद नहीं करते थे। अत: यहां आकर कुछने रिटायर्ड आइएएस, मिलिट्री अथवा पुलिस अधिकारी की अध्यक्षता में एन.जी.ओ. बना ली और खुल्लमखुल्ला विदेशी संस्थाओं एवं सरकार को लूटने लगे। इनमें से कुछ समाज सेवा के नाम पर विदेशों की सैर-सपाटा करते हैं। कुछ लोगों को आयकर बचाने में मदद करते हैं। बाकियों ने तरह-तरह के नामों से 'इंटरनेशनल इंगलिश मीडियम स्कूलÓ खोल लिए हैं, जहां लोग खुद लुटने चले आते हैं। सौभाग्य से इन्ही स्कूलों में से एक दो में जाना हुआ तो वहां संचालक महोदय ने अपना इतिहास बताया कि तब हमारे परिवार वाले वहां बीहड़ों में क्या करते? वहां हम आने वालों को लूटते थे, यहां पढ़ा-लिखा तबका खुद लुटने चला आता है कि लो, हमें चाहे जितना लूट लो, परन्तु हमारा बच्चा पढ़ेगा इंगलिश मीडियम स्कूल में ही और मजे की बात यह है कि इन स्कूलों के पदाधिकारी किसी भी सरकारी आदेश को नहीं मानते और मानते भी हैं तो अपनी मनमरजी से लागू करते हैं, यानि मीठा-मीठा गप्प, कड़वा-कड़वा थू। इन्हीं में से एक स्कूल में मेरा जाना हुआ कि आखिर इतनी फीस देने वाले बच्चें पढ़ते क्या हैं?
शायद छठी या सातवीं क्लास थी। मैंने एक बच्चें से पूछा, 'बताओ बेटा, ताजमहल किसने बनाया तो वह बोला अंकल, इसे बनाने वाला एक मशहूर बिल्डर था, लेकिन अभी मुझे ठीक से उसका नाम याद नहीं आ रहा है।
भारतीय संस्कृति पर आधारित शिक्षा देने का दावा करने वाली एक स्कूल में भी जाना हुआ। सोचा गाय, गंगा, गायत्री, गीता और गणेशजी को लेकर उच्च संस्कारों की शिक्षा दी जा रही होगी, इसलिए मैंने एक छात्रा से पूछा बताओ कि गंगा कहां से निकल कर कहां जाती है, तो उसने जवाब दिया कि गंगा हमारे घर से निकल कर सामने वाले डेफोडिल्स अपार्टमेंट में गुप्ता अंकल के जाती है।
यहां दिल्ली में सरकारी और गैर सरकारी इंगलिश मीडियम स्कूलों में एक सबसे बडा अंतर यह है कि सरकारी स्कूलों में टीचर कभी कभी विद्धार्थी को अपराध करने पर हाथोंहाथ छोटा मोटा दंड दे देते हैं, जब कि वही अपराध करने पर इंगलिश मीडियम स्कूलों में पहले स्टूडेन्ट को उसकी डायरी की मार्फत कारण बताओ नोटिस दिया जाता है। उसके बाद आगे की कार्यवाही होती है। हर काम अमेरिकन स्टाइल में है। अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की पढ़ाई और टीवी के सीरियलों के मिले-जुले प्रभाव के बारे में पिछले दिनों बहुत कुछ देखने सुनने को मिला। यह इंगलिश का प्रभाव अब आम जनजीवन पर भी अपनी पकड़ बना चुका है। तरह-तरह के सीरियल-ही मेन इत्यादि-देख देख कर बच्चे उन्हें घरों पर दोहराने लगे हैं। वैसे अभी तक तो यही सुनते आए थे कि कागजी नींबू अच्छे होते हैं, कोई कोई कागजी बादाम की भी तारीफ करते पाए जाते हैं, लेकिन बताते हैं कि यहां की कागजी योजनाएं और कागजी स्कूल भी काबिले तारीफ हैं। समाचार पत्रों से ही विदित हुआ कि दिल्ली मे एक ऐसा स्कूल भी है जहां न स्कूल की बिल्डिंग है न मास्टर है और न ही बच्चे, सिर्फ बोर्ड लगा हुआ है। ऐसे ही कागजी कॉलोनियां भी हैं। यह दोनों चीजें यहां बहुत मशहूर हैं। आपका कभी आना हो तो इन्हें जरूर देखें, मजा आएगा, सच!
दिल्ली में सरदार भगत सिंह मार्ग को अब इस नाम से कोई नहीं जानता। अब यह कहलाता है एस बी सिंह मार्ग। ऐसे में सरदार भगत सिंह के बारे में जानने अथवा बताने की फुर्सत किसे है? दूसरी बात जो मुझे यहां महसूस हुई, वह यह कि दिल्ली वाले आप को फौरन पहचान लेंगे कि बन्दा (यहां आदमी को ऐसे ही बोलते हैं)बाहर का है या दिल्ली निवासी है। मसलन यदि आपने ग्रेटर कैलाश को जी के बोला तो आप दिल्लीवासी हैं, वर्ना बाहरी हैं। दिल्ली प्रवास के दौरान छुट्टी के रोज एक बार मुझे अपने एक मित्र से मिलने उनके सात मंजिले अपार्टमेन्ट के फ्लैट में जाना पड़ा। पूछते-पूछते जब उनके फ्लैट पर पहुंच कर घंटी बजाई तो मित्र के बच्चों ने दरवाजा खोला और पूछने पर जवाब दिया कि मॉम-डैड तो पास के गांव में धूप खाने गये हैं। मैं एक बार तो सुन कर चकरा गया। धूप सेकने पास के गांव में गए हैं? साफ पानी और हवा प्रदूषण का तो बहुत सुना था कि दिल्लीवासी इनसे दूर होते जा रहे हैं, लेकिन धूप से भी वंचित होने का पता यहां आने के बाद ही लगा। कुछ वर्षों बाद यहां के लोग नार्वे, स्वीडेन की तरह सूर्य स्नान करने आसपास के गांवों में जाया करेंगे। आप देख लेना।
खैर, मैं मित्र के ड्राइंग रूम में बैठ गया। कुछ देर बाद मैंने बच्चों से पूछा कि बेटे आज स्कूल नहीं गये? इस पर बच्चों ने जवाब दिया कि अंकल, हमारे कई फादर हैं, उनमें से एक फादर की बदली हो जाने से आज स्कूल में छुटटी हो गई है। सुना आपने?
इसी तरह पिछले प्रवास के दौरान एक बड़े अस्पताल में जाना हुआ। सुना था कि वहां बड़े बड़े ऑपरेशन मरीज को बिना क्लोरोफार्म सुंघाये ही किये जाते हैं। उत्सुकता तो बहुत थी लेकिन मेरे जैसे को ऑपरेशन थियेटर में कौन जाने देता? खैर, किसी के साथ अस्पताल के आउटडोर तक गया और इस बाबत जानकारी ली तो बडी काम की बात पता लगी। वहां ऑपरेशन थियेटर में ही मरीज को पूरे इलाज, रहना, खाना, पीना इत्यादि का एडवान्स बिल थमा दिया जाता है, जिसे देख कर वह वहीं टेबल पर ही बेहोश हो जाता है, फिर और कुछ सुंघाने की क्या आवश्यकता है? दिलचस्प बात यह है कि इनमें से कई अस्पताल तो ऐसे हैं, जिन्हें सरकार ने इस बिना पर रियायती दर से जमीनें दी हुई हैं कि वह गरीबों का इलाज किफायती दर से करेंगे। हां, एक महत्वपूर्ण बात तो रह ही गई। मैं अस्पताल के आउटडोर में एक डाक्टर के पास खडा था। डाक्टर साहब मरीजों को धड़ाधड़ तरह-तरह के टैस्ट लिख कर दे रहे थे, तभी एक नौजवान अपनी वृद्धा मां को लेकर आया और डाक्टर साहब को दिखाया। कुछ देर बाद डाक्टर साहब बोले कि कुछ टैस्ट होंगे। इस पर वह नवयुवक बोला डाकÓसाहब मदर तो बिलकुल पढ़ी-लिखी नहीं है, यह टैस्ट वगैरह कैसे देगी? यह सुनकर वहां खड़े सभी सोच में डूब गए।
आदमी के साथ आदमी के व्यवहार की तो सैकड़ों बातें आप और हम आए दिन देखते सुनते आए हैं। दिल्ली में लोगबाग अब देवताओं तक से अपना व्यवहार बदल रहे हैं। किसी ने बताया कि कुछ अर्सें पूर्व कनाट प्लेस के हनुमान मंदिर के बालाजी नाराज होकर रूठ कर कहीं चले गए। कारण पूछने पर पता लगा कि वर्षों पूर्व लोग मन्दिर में आते थे, सवा रुपए का प्रसाद चढ़ाते थे और श्रद्धा से माथा टेकते थे। फिर धीरे-धीरे इसमे बदलाव आया। अधिकांश लोग हाथ जोड़ कर ही उधर से निकलने लगे लेकिन हद तो तब हुई जब कि जीन्स पहने नौजवान लड़कियां उन्हें दूर से ही हाय! कहते हुए उधर से निकलने लगीं।
यहां के व्यक्तियों कि एक खास बात यह है कि वे नाम को बहुत महत्व देते हैं और हो भी क्यों नहीं? सब जगह नाम की महिमा है। आप अच्छी से अच्छी मिठाई-नमकीन ले आइए, लेकिन अगर उसकी पैकिंग बढिय़ा नहीं है और उस पर एक विशेष प्रतिष्ठान का नाम नही है तो दिल्लीवासी फौरन कह देगा, अरे कहां से लाए हो? कभी धनियाराम की फलां चीज खाई है?
यहां पर बोलचाल में लोगों को नाम के पीछे आ की मात्रा लगाने का बड़ा शौक है। अगर आपने योग को योगा नहीं बोला तो आपके बारे में लोगों की धारणा अच्छी नहीं बनेगी। इसी तरह राम को रामा और कृष्ण को कृष्णा कहना यहां की शान है। आपने फिनाले को फाइनल बोल दिया तो लेने के देने पड़ जायेंगे। यस को या नहीं बोला तो लोग आपको कुछ और ही नजरों से देखेंगे। आधुनिकता की दौड़ में कई मजहबों की नई-नई शाखाएं खुल गई हैं। नौजवान पीढ़ी उसमें जाना अपनी शान समझते हैं। मैं यहां आया था तो क्या करता, दिल्ली घूमने निकला, लेकिन जब देखा कि पुरानी दिल्ली में नई सड़क है और नई दिल्ली में पुराना किला तो माथा ठनका। इसी तरह रेलवे के माल गोदाम के सामने से निकला तो जगह-जगह लाल रंग की बाल्टियां टंगी देखीं, जिस पर लिखा था आग, लेकिन जब पास जाकर देखा तो उसमें रेत भरी हुई थी। और तो और पोस्ट आफिस जाने पर देखा कि गोंद के डिब्बे में गोंद की जगह पानी भरा है। सोचा अब के अजमेर के हमारे सांसद सचिन पायलेट से कभी मिलना होगा तो इस बात का उलाहना दूंगा। सड़क पर पीडब्ल्यूडी का काम चल रहा था और बोर्ड पर लिखा था मेन एट वर्क और काम कर रहे हैं आदमी और औरतें दोनों। महिलाओं के साथ इतना भेदभाव क्यों? सड़क पर ही जगह-जगह लिखा मिलेगा नो राइट टर्न और अटल जी की सरकार की बात तो जाने दीजिये। वर्तमान यूपीए की सरकार भी जब-तब अपना झुकाव दक्षिणपंथ अर्थात राइट टर्न की तरफ लेती रहती है। यह सब देख मैं तो निराश हो कर जल्दी ही अपने डेरे पर लौट गया। जाने आगे और क्या-क्या देखना पड़े?
यह सब देख सुन कर मुझे लगा कि दिल्ली दिल वालों की ही है।
शिव शंकर गोयल फलैट न.1201, आइआइटी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट न.12, सैक्टर 10, द्वारका, दिल्ली 75. मो. 9873706333
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