शनिवार, 4 फ़रवरी 2012
दवा कारोबार पर बढ़ता विदेशी संकट
देश के दवा कारोबार पर विदेशी कंपनियों का वर्चस्व बढ़ता ही जा रहा है, एक के बाद एक छोटी-बड़ी भारतीय दवा कंपनियाँ विदेशी कंपनियों के हाथों बिकती जा रही है, जिससे भारतीय दवा कंपनियों पर विदेशी कंपनियों का कब्जा शुरू हो गया है| वर्ष 2001 में दवा क्षेत्र को सौ फीसदी विदेशी निवेश के लिये खोला गया था और उस समय से लेकर अब तक कई भारतीय कंपनियाँ विदेशी हाथो में जा चुकी है| छोटी कंपनियों में निर्णायक हिस्सेदारी खरीदने का चलन तो नब्बे के दशक से ही शुरु हो गया था लेकिन बड़ी कंपनियों के बिकने का सिलसिला पिछले पाँच साल में जोर पकड चुका है| इस कड़ी में सबसे पहले अगस्त 2006 में नामी भारतीय दवा कम्पनी मैट्रिक्स लैब को अमेरिकी कम्पनी मायलान ने खरीदा था| इसके बाद अप्रैल 2008 में डाबर फार्मा का फ्रेसियस कैबी ने जून 2008 में रैनबेक्सी का दायची सैक्यो ने, जुलाई 2008 में शांता बायोटेक का सनोफी अवन्तिस ने, दिसम्बर 2009 में आर्किड कैमिकल्स का होसपीरा ने और मई 2010 में पीरामल हेल्थकेयर का एबट लैबोरेट्रीज ने अधिग्रहण कर लिया था| पीरामल हेल्थकेयर की गिनती देश की दस सबसे बड़ी कंपनियों में होती थी| रैबेक्सी के बाद विदेशी हाथो में जाने वाली यह दूसरी बड़ी कम्पनी है|
गौर करने लायक बात यह है कि पीरामल और रैनबेक्सी जैसी कंपनियों को खरीदने के बाद विदेशी कम्पनियाँ भारतीय दवा बाजार में चोटी पर पहुंच गई है| मिसाल के तौर पर पीरामल के अधिग्रहण के बाद अमेरिका कि एबट सात फीसद हिस्सेदारी के साथ भारत कि सबसे बड़ी दवा कंपनियों में से तीन विदेशी है और यह तादाद बढ़ने वाली है क्योकि विदेशी कम्पनियाँ किसी भी कीमत पर घरेलू कंपनियों को खरीदना चाहती है|
सवाल उठता है कि भारतीय दवा कम्पनीयों में बहुराष्टीय कंपनियों कि इस कदर दिलचस्पी के क्या कारण है? असल में भारत और चीन समेत दुनिया के तमाम विकासशील देशो में लोगों कि आमदनी बढ़ने के साथ ही स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता भी बढती ही जा रही है| 2020 तक उभरते देशो में दवा कारोबार चार सौ अरब डालर को पार कर जाएगा और इसमे अकेले भारतीय बाजार कि हिस्सेदारी चालीस अरब डालर से ज्यादा होगी| विकसित देशो के दवा बाजार में विस्तार कि संभावनाए नगण्य है| भारी प्रर्तिस्पर्धा के चलते दवा कंपनियों के मुनाफे में कमी आ रही है और विकसित देशो का दवा कारोबार महज एक फीसद कि रफ्तार से बढ़ रहा है जाहिर है कि कोई भी बहुराष्टीय कम्पनियाँ अपार सभावनाओं वाले इस बाजार को अनदेखा नहीं कर सकती| ये बहुराष्टीय कम्पनियाँ दो रणनीतियो पर काम करती है| पहली किसी भी कीमत पर स्थानीय दवा कंपनियों का सफाया करके घरेलू बाजार पर कब्जा करना और दूसरी एकाधिकार होने के बाद दवाओं की कीमतों में इजाफा करके मुनाफ़ा कमाना| 2007 में भारतीय दवा बाजार में विदेशी कंपनियों कि हिस्सेदारी पन्द्रह फीसद थी वही 2010 में यह आकड़ा पचीस फीसद को पार कर गया है| जानकारों के मुताबिक़ आगामी पाँच सालो में भारत के आधे से ज्यादा दवा कारोबार पर विदेशी कंपनियों का कब्जा हो जाएगा| दिक्कत यही से शुरू होती है| बहुराष्टीय कम्पनियाँ बाजार पर नियंत्रण करने के बाद कीमतों में इजाफा करना शुरू कर देती है| जब एक बार ये कम्पनियाँ दवाओं के दाम बढाना शुरू करेगी तो कम संसाधनों वाली छोटी दवा कम्पनियाँ अपने आप दवाब में आ जायेगी| ऐसे में सारा खामियाजा गरीब जनता को भुगतना पडेगा जिसकी जेब पर महंगी दवाओं के जरिये डाका डाला जाएगा| अब बहुराष्टीय कम्पनियाँ भारतीय दवा कम्पनियों को हथिया कर एक तीर से दो निशाने साधना चाहती है|
भारत जैसे विकासशील देश में मरीज के लिये दवाओं कि कीमत बेहद अहम है| राष्टीय नमूना सर्वेक्षण के मुताबिक़ हमारे यहाँ इलाज के कुल खर्च में अस्सी फीसद लागत दवाओं कि होती है| जिस देश में अस्सी करोड लोग दो जून कि रोटी का भी जुगाड नहीं कर पाते हो वहाँ पर महंगी दवाएं कितने लोग खरीद पाएंगे, इसका अनुमान लगाया जा सकता है|
भारतीय दवा उद्योग के वजुद पर छाए इस संकट के गंभीर परिणाम देश को भुगतने पड़ सकते है| अभी तो केवल पाचँ बड़ी कम्पनियाँ बिकी है, लेकिन बहुराष्टीय कंपनियों ने डाक्टर रैड्डीज,अरबिंदो फार्मा,सिपला और जायडस कैडिला समेत बीस बड़ी भारतीय दवा कम्पनियाँ पर नजरें गडा रखी है| घरेलू दवा कम्पनियों को बहुराष्टीय कम्पनियाँ इतनी आकर्षक कीमत कि पेशकश कर रही है जो भविष्य में इस कारोबार से होने वाली आमदनी और अनुमानित वृद्धि के मुकाबले कही ज्यादा है| जाहिर है सरकार के असहयोगी रवैये के कारण दवा कम्पनियाँ ज्यादा मुनाफे वाले क्षेत्रो कि और रुख कर रही है| अगर देशी कंपनियों के अधिग्रहण का सिलसिला जारी रहा तो सस्ती जेनेरिक दवाओं का संकट गहरा जाएगा| बहुराष्टीय कम्पनियाँ बाजार में हिस्सेदारी बढते हि कीमतों में बढोतरी करेंगी| जनता को इस संकट से बचाने के लिये सरकार को दवा उद्योग की सेहत सुधारने कि और ध्यान देना होगा|
दलीप कुमार
(लेखक शोधकर्त्ता एवं पत्रकार है) संपर्क - 139,कावेरी छात्रावास, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय,नई दिल्ली-67 ईमेल -dalipjnu@gmail.com
मोबाइल -8233538698
इस तरह के भयावह भविष्य का श्रीगणेश उसी दिन हो गया था जब भारतीय बाजारों को विदेशी कंपनियों के लिए खोल दिया गया था. अब तो बहुत देर हो चूका है. दुःख इस बात का है की देश के निति नियंता इस मार को नहीं झेलेंगे. मरेगा तो बेचारा आम आदमी.
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