मंगलवार, 24 अप्रैल 2012

अकेले सिंधी को ही है दो लिपियों की मान्यता

सिंधी भाषा की लिपि को लेकर लंबा विवाद चला है और आज भी इसको लेकर विवाद होता रहता है। सिंधी किस लिपि में लिखी जाए, इसको लेकर सिंधी लेखकों व साहित्यकारों में दो धड़े हो चुके हैं। ये दोनों ही धड़े सिंधी भाषा को संविधान में मान्यता दिए जाने के दौरान आमने-सामने आ गए। दोनों एक दूसरे का विरोध करने लगे तथा केन्द्रीय सरकार के ऊपर अपनी-अपनी लिपि सिंधी लिपि तथा देवनागरी लिपि को मान्यता देने के लिए दबाव डालते रहे। आखिरकार भारत सरकार ने 10 अप्रैल 1967 में सिंधी भाषा को संविधान में मान्यता प्रदान की, साथ-साथ सिंधी भाषा के लिए दोनों लिपियों अरबी-फारसी तथा देवनागरी लिपि को मंजूर किया। सिंधी भाषा भारतीय संविधान की एक मात्र ऐसी भाषा है, जिसके उपयोग के लिए दो लिपियों को मान्यता प्रदान की गई है। इसे हम सिंधी भाषा का दुर्भाग्य कहें या सौभाग्य, आकलन मुश्किल है।
ऐसा नहीं है कि लिपि को लेकर आजादी के बाद ही विवाद हुआ। संयुक्त हिंदुस्तान के वक्त भी देवनागरी लिपि अस्तित्व में आ चुकी थी। सिंधियों के जन्माक्षर देवनागरी लिपि में लिखे जाते थे। सन् 1923 में कराची सरकार ने पाठ्यक्रमों की पुस्तकें देवनागरी में प्रकाशित की थीं। गद्य की प्रारंभिक पुस्तकें, जो अंग्रेजों ने रची एवं प्रकाशित कीं, उन में कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकें देवनागरी लिपि में थीं, जो इस प्रकार हैं:- मती अजील बाइबल से सेन्ट मौथियूस का अनुवाद, 1825, ग्रामर ऑफ सिंधी लैंग्वेज, मी. प्रनेसप 1855, ए ग्रामर वोक्यूबलरी ऑफ सिंधी लैंग्वेज-मी. वाथन 1836, वाक्यूबलरी ऑफ सिंधी लैंग्वेज- ईस्टविक 1849, ए ग्रामर वोक्यूबलरी ऑफ सिंधी लैंग्वेज- कैप्टन स्टैक 1849, ए डिक्शनरी-अंग्रेजी-सिंधी-कैप्टन स्टैक 1849. सन् 1947 में जब देश का बंटवारा हुआ और सिंध के हिन्दू सिंधी भारत में आए और अनेक राज्यों में बस गए। भारत में फिर से लिपि के प्रश्न को उठाया गया। दिसम्बर 1942 में मुंबई में एक सिंधी साहित्य सम्मेलन हुआ था, जिसमें यह निर्णय भी हुआ था कि सिंधी भाषा को देवनागरी लिपि में लिखा जाए। यह प्रस्ताव सिंधी के सुप्रसिद्ध ग्रंथकार लालचंद अमरडिऩो मल ने रखा था। साथ में स्वतंत्रता सेनानी, राज्य सभा के सदस्य और पूर्व केन्द्रीय मंत्री दादा जैरामदास दौलतराम तथा अन्य कांग्रेसी सिंधी स्वतंत्रता सेनानियों ने भारत की वस्तुस्थिति तथा हिन्दी देवनागरी लिपि की मांग को आगे बढ़ाया। इसका अरबी लिपि का उपयोग करने वाले सिंधी विद्वानों ने विरोध किया। अलवर में अखिल भारत सिंधी सम्मेलन में, अखिल भारत सिंधी बोली साहित्य सभा, जो सिंधी विद्वानों, शिक्षा शास्त्रियों, पत्रकारों तथा कलाकारों की प्रतिनिधि सभा थी, ने अरबी लिपि का प्रस्ताव किया, जिसमें गोविंद माल्ही, कीरत बाबाणी, पोपटी हीरानंदाणी, प्रो. मंघाराम मलकाणी तथा अन्य भाषा विज्ञानी व शिक्षाशास्त्री थे।
वैसे वस्तुस्थिति ये है कि प्राचीन-अर्वाचीन सिंधी साहित्य, लोक-साहित्य, धार्मिक सिंधी अरबी लिपि में ही प्रकाशित है। अरबी लिपि में ही अध्ययन एवं अध्यापन की ज्यादातर सुविधाएं हैं। लिपि के संबंध में स्वाधीनता के पश्चात आज तक संघर्ष चला आ रहा है। कोई एक स्पष्ट निर्णय नहीं हो पाया है। चूंकि राष्ट्रभाशा की लिपि देवनागरी है और अन्य भाषाओं की अधिकतर लिपियां देवनागरी के नजदीक हैं, इसलिए हिन्दी प्रदेशों में सिंधी भाषा के लिए देवनागरी का प्रचलन कुछ ज्यादा है।
हिन्दी भाषा के लेखन के लिए एक ही लिपि देवनागरी लिपि का प्रयोग होता है, परन्तु सिंधी भाषा के लेखन में अरबी-फारसी और देवनागरी दोनों लिपियों का प्रयोग होता है। इसलिए सिंधी भाषा की विशिष्ट ध्वनियों के लिए देवनागरी लेखन में विशेष चिन्ह लगाते हैं। उदाहरण के लिए देखें तो हिंदी में अन्त: स्फुरित ध्वनियां नहीं हैं, जब कि सिंधी की ग, ज, ब, ड ध्वनियों के अन्त:स्फुटिक रूप सिंधी में मिलते हैं। देवनागरी लिपि में उक्त लिपि-चिन्हों के नीचे पड़ी रेखा लगा कर अन्त:स्फुटिक ध्वनियों के लिए लिपि-चिन्ह लगाने की परम्परा है।
वर्तमान में भारत के अधिकतर राज्यों में सिंधी माध्यम के स्कूल बंद होते जा रहे हैं। स्कूलों-कॉलेजों में सिंधी एक विषय के रूप में पढ़ाया जाता है। इसी कारण नई सिंधी युवा पीढ़ी सिंधी भाषा से विमुख हो रही है। अरबी-फारसी लिपि सीखना उनके लिए दुश्वार सा हो गया है। इसलिए युवा पीढ़ी में देवनागरी लिपि का प्रचलन हो रहा है। सभी राज्यों के युवा सिंधी लेखक देवनागरी लिपि में लेखन कार्य तथा प्रकाशन कार्य कर रहे हैं। सिंधी लिपि का बड़ी तेजी से व्यवहार में उपयोग कम होता जा रहा है। अधिकतर राज्य साहित्य अकादमियां भी अपना साहित्य देवनागरी लिपि में प्रकाशित कर रही हैं।
जहां तक देवनागरी लिपि का सवाल है, यह मुस्लिम शासन के दौरान भी इस्तेमाल हुई है। भारत की प्रचलित अतिप्राचीन लिपि देवनागरी ही रही है। विभिन्न मूर्ति-अभिलेखों, शिखा-लेखों, ताम्रपत्रों आदि में भी देवनागरी लिपि के सहस्राधिक अभिलेख प्राप्य हैं, जिनका काल खंड सन 1008 ई. के आसपास है। इसके पूर्व सारनाथ में स्थित अशोक स्तम्भ के धर्मचक्र के निम्न भाग देवनागरी लिपि में भारत का राष्ट्रीय वचन सत्यमेव जयते उत्कीर्ण है। इस स्तम्भ का निर्माण सम्राट अशोक ने लगभग 250 ई. पूर्व में कराया था। मुसलमानों के भारत आगमन के पूर्व से, भारत की देषभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी या उसका रूपान्तरित स्वरूप था, जिसके द्वारा सभी कार्य सम्पादित किए जाते थे। मुसलमानों के राजत्व काल के प्रारम्भ (सन 1200 ई) से सम्राट अकबर के राजत्व काल (1556 ई.-1605ई.) के मध्य तक राजस्व विभाग में हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि का प्रचलन था। भारतवासियों की फारसी भाषा से अनभिज्ञता के बावजूद उक्त काल में, दीवानी और फौजदारी कचहरियों में फारसी भाषा और उसकी लिपि का ही व्यवहार था। यह मुस्लिम शासकों की मातृभाषा थी।
भारत में इस्लाम के आगमन के पश्चात कालान्तर में संस्कृत का गौरवपूर्ण स्थान फारसी को प्राप्त हो गया। देवनागरी लिपि में लिखित संस्कृत भारतीय शिष्टों की शिष्ट भाषा और धर्मभाषा के रूप में तब कुंठित हो गई। किन्तु मुस्लिम शासक देवनागरी लिपि में लिखित संस्कृत भाषा की पूर्ण उपेक्षा नहीं कर सके। महमूद गजनवी ने अपने राज्य के सिक्कों पर देवनागरी लिपि में लिखित संस्कृत भाशा को स्थान दिया था।
औरंगजेब के शासन काल (1658 ई.- 1707 ई.) में अदालती भाषा में परिवर्तन नहीं हुआ, राजस्व विभाग में हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि ही प्रचलित रही। फारसी किबाले, पट्टे रेहन्नामे आदि का हिन्दी अनुवाद अनिवार्य ही रहा। औरंगजेब राजत्व काल, औरंगजेब परवर्ती मुसलमानी राजत्व काल (1707 ई से प्रारंभ) एवं ब्रिटिश राज्यारम्भ काल (23 जून 1757 ई. से प्रारंभ) में यह अनिवार्यता सुरक्षित रही। औरंगजेब परवर्ती काल में पूर्वकालीन हिन्दी नीति में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हुआ। ईस्ट कम्पनी शासन के उत्तराद्र्ध में उक्त हिन्दी अनुवाद की प्रथा का उन्मूलन अदालत के अमलों की स्वार्थ-सिद्धि के कारण हो गया और ब्रिटिश शासकों ने इस ओर ध्यान दिया। फारसी किबाले, पट्टे, रेहन्नामे आदि के हिन्दी अनुवाद का उन्मूलन किसी राजाज्ञा के द्वारा नहीं, सरकार की उदासीनता और कचहरी के कर्मचारियों के फारसी मोह के कारण हुआ। इस मोह में उनका स्वार्थ संचित था। सामान्य जनता फारसी भाशा से अपरिचित थी। बहुसंख्यक मुकदमेबाज मुवक्किल भी फारसी से अनभिज्ञ ही थे। फारसी भाषा के द्वारा ही कचहरी के कर्मचारीगण अपना उल्लू सीधा करते थे।
शेरशाह ने अपनी राजमुद्राओं पर देवनागरी लिपि को समुचित स्थान दिया था। शुद्धता के लिए उसके फारसी के फरमान फारसी और देवनागरी लिपियों में समान रूप से लिखे जाते थे। देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी परिपत्र सम्राट अकबर (शासन काल 1556 ई.- 1605ई.) के दरबार से निर्गत-प्रचारित किये जाते थे, जिनके माध्यम से देश के अधिकारियों, न्यायाधीशों, गुप्तचरों, व्यापारियों, सैनिकों और प्रजाजनों को विभिन्न प्रकार के आदेश-अनुदेश प्रदान किए जाते थे। इस प्रकार के चौदह पत्र राजस्थान राज्य अभिलेखागार, बीकानेर में सुरक्षित हैं। औरंगजेब परवर्ती मुगल सम्राटों के राज्यकार्य से सम्बद्ध देवनागरी लिपि में हस्तलिखित बहुसंख्यक प्रलेख उक्त अभिलेखागार में द्रष्टव्य हैं, जिनके विषय तत्कालीन व्यवस्था-विधि, नीति, पुरस्कार, दंड, प्रशंसा-पत्र, जागीर, उपाधि, सहायता, दान, क्षमा, कारावास, गुरुगोविंद सिंह, कार्यभार ग्रहण, अनुदान, सम्राट की यात्रा, सम्राट औरंगजेब की मृत्यु सूचना, युद्ध सेना-प्रयाण, पदाधिकारियों को सम्बोधित आदेश-अनुदेश, पदाधिकारियों के स्थानान्तरण-पदस्थानपन आदि हैं। मुगल बादशाह हिन्दी के विरोधी नहीं, प्रेमी थे। अकबर (शासन काल 1556 ई0- 1605 ई.) जहांगीर (शासन काल 1605 ई.- 1627 ई.), शाहजहां (शासन काल 1627 ई.-1658 ई.) आदि अनेक मुगल बादशाह हिन्दी के अच्छे कवि थे। मुगल राजकुमारों को हिन्दी की भी शिक्षा दी जाती थी। शाहजहां ने स्वयं दाराशिकोह और शुजा को संकट के क्षणों में हिंदी भाषा और हिन्दी अक्षरों में पत्र लिखा था, जो औरंगजेब के कारण उन तक नहीं पहुंच सका। आलमगीरी शासन में भी हिन्दी को महत्व प्राप्त था। औरंगजेब ने शासन और राज्य-प्रबंध की दृश्टि से हिन्दी-शिक्षा की ओर ध्यान दिया और उसका सुपुत्र आजमशाह हिन्दी का श्रेष्ठ कवि था। मोजमशाह शाहआलम बहादुर शाह जफर (शासन काल 1707 इर्1-1712 ई.) का देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी काव्य प्रसिद्ध है। मुगल बादशाहों और मुगल दरबार का हिन्दी कविताओं की प्रथम मुद्रित झांकी 'राग सागरोद्भव संगीत रागकल्पद्रुम' (1842-43ई.), शिवसिंह सरोज आदि में सुरक्षित है।
-कंवल प्रकाश किशनानी
-599/9, राजेन्द्रपुरा, हाथीभाटा, अजमेर
फोन-0145-2627999, मोबाइल-98290-70059

ऐसे होते थे स्कूलों में दंड!

पचास के दशक में स्कूलों एवं मदरसों में विद्याार्थियों द्वारा कसूर किए जाने पर मास्टर उन्हें तरह तरह के दंड देते थे। कसूर क्या होते थे, यही कोई जैसे चलती क्लास में पीछे बैठ कर अपना या अपने किसी सहपाठी का खाना खाना, बातें करना, सोना, मास्टर की तरफ ध्यान नहीं देना, शोर मचाना, घर से होमवर्क करके नहीं लाना और मास्टर से कहना कि कर तो लिया, लेकिन घर भूल आया हूं इत्यादि इत्यादि। हालांकि यह आखिर वाला झूठ बच्चे अपने मां-बाप से ही सीखते थे, जो अकसर किसी के पूछने पर कह देते थे, आपको चि_ी डाली तो थी, लेकिन डाकिये ने ही गड़बड़ कर दी होगी। हालांकि अब दंड देने की बाते इतिहास के पन्नों में सिमट गई हैं, लेकिन उनमें से कुछ को आपको वापस याद कराते हैं:-
टांगा टोली:- जो बच्चा पाठशाला में बिना बताये आदतन गैर हाजिर होता था, उसे लाने के लिए मास्साब पांच बच्चों का एक दल भेजते थे। वह दल उस लड़के के चारों हाथ पांवों को पकड़ कर, उसे झुलाते हुए, स्कूल लाता था। इस टुकडी के नायक के पास कसूरवार लड़के का बस्ता होता था। आगे की सजा मास्साब देते थे।
मुर्गा-मिर्गी:- यह दंड बहुत आम था। छोटा मोटा कोई भी कसूर हो, विद्यार्थी को मुर्गा बना दिया जाता था। इसके अनुसार उकडू बैठ कर दोनों हाथों को घुटनों के नीचे से निकाल कर अपने कान पकडऩे होते थे। कभी कभी कसूर की डिग्री ज्यादा होने पर मुर्गा बनाने के बाद पीठ पर कोई किताब अथवा स्लेट रख कर उसे अधर कर दिया जाता था, जैसे कभी संचार मंत्रालय लेने के सवाल पर मनमोहनसिंहजी को करुणानिधि ने कर दिया था। किताब अथवा स्लेट के नीचे गिर जाने पर दंड की अवधि बढ़ा दी जाती थी। इस सजा के भुक्तभोगी बताते हैं कि यह अनुभव बाद में कालेज में रेगिंग के समय उनके खूब काम आया।
उन दिनों सहशिक्षा तो थी नहीं, इसलिए पता नहीं कि लड़कियों को मुर्गा बनाते थे या मुर्गी। बहरहाल अर्से पहले की एक बात याद आ रही है। एक बार मेरी पोती रोती हुई, जब स्कूल से घर लौटी तो मैंने उससे इसका कारण पूछा। वह बोली कि मैंने मैम को मुर्गी कह दिया था, इसलिए उसने मुझे मारा। इस पर मैंने उससे कहा कि तूने उसे मुर्गी क्यों कहा? तो वह बोली वह हर एग्जाम में मुझे अंडा देती है। तब मैं और क्या कहती?
लेट लतीफ:- यह सजा हमारी स्कूल में सुबह देरी से पहुंचने पर दी जाती थी। देर से आने वाले विद्यार्थियों को स्कूल के गेट के बाहर ही रोक कर एक मास्साब उन्हें प्लेटफार्म पर लाते, जिसके सामने पहले से ही स्कूल के सारे बच्चे सामूहिक प्रार्थना के लिए खड़े हुए होते थे। कुछ देर बाद हमारे हैड मास्साब वहां आते और केन से उनके हाथों पर मारते थे। घेर कर लाने वाले मास्साब हिंगलिश के विद्वान थे और इसलिए अपने आपको हैड पंडित लिखते थे। चूंकि वे अहिंसा में विश्वास करते थे, अत: हैडमास्टर साहब द्वारा बच्चों को मारते समय वह सिर्फ उनको उकसाने का काम करते थे, खुद मारपीट में हिस्सा नहीं लेते थे। जानकार लोग बताते हैं कि आदतन लेट आने वाले अधिकांश लड़के आगे चल कर पुलिस में भर्ती हो गए एवं वहां काफी कामयाब भी हुए। उन्हें सिर्फ गालियों का एडवांस कम्प्यूटराइज्ड कोर्स और करना पड़ा।
हवाई जहाज:- वैज्ञानिक भले ही दावा करते रहें कि हवाई जहाज का आविष्कार राइट बंधुओं ने किया था, लेकिन हमारे मास्साब तो वर्षों पहले से चली आ रही इस परम्परा में बच्चों को दंड देते समय उन्हें हवाई जहाज बनाया करते थे। इस सजा में दोनों हाथों को दांये-बांयें फैला कर और एक पांव को जमीन से ऊपर पीछे की तरफ रखना पडता था। सजा की अवधि मास्साब पर निर्भर होती थी। मेरे एक सहपाठी को अक्सर हवाई जहाज बनने की सजा मिलती थी और मजे की बात देखिए वही सहपाठी बाद में नौकरी के दौरान मुझे जयपुर में हमारे विभाग में ही कार्यरत मिल गया। वहां एक बार कर्मचारी यूनियन के चुनाव हुए और वह भी किसी पद के लिए खड़ा हुआ। संयोग की बात देखिये कि उसने अपना चुनाव चिन्ह हवाई जहाज ही रखा और वह जीत गया। तब से आज तक उसे लोग हवाई जहाज के नाम से ही पुकारते हैं। वह भी सुन कर खुश होता है। सजा मानो तो सजा और मजा मानो तो मजा!
खड़े रहने की सजा:- छोटे मोटे कसूर पर यह सजा आम थी। कम कसूर हुआ तो फर्श पर और नहीं तो बैंच पर खड़ा कर दिया जाता था। कभी कभी इस सजा में हाथों को भी उपर उठाना पड़ता था। बाद में किसी एल्यूमिनी में मिलने पर उनमें से कइयों ने बताया कि जैसे बचपन का खाया-पीया बुढापे में काम आता है। वैसे ही खड़े रहने का वह अनुभव उनकी जिन्दगी में बाद में बहुत काम आया क्योंकि आए दिन राशन-कैरोसीन की दुकान पर, बिजली-पानी का बिल जमा कराते वक्त लाइन में काफी खड़ा रहना पड़ता था।
बाहर से समर्थन:- लोग बाग वामपंथियों को ख्वामख्वाह बदनाम करते हैं कि सन 2004 में उन्होंने मनमोहनसिंह की सरकार को बाहर से समर्थन दिया। वैसे यह फार्मूला तो वर्षों पहले हमारी स्कूल में आजमाया जाता था। एक बार की बात है कि हमारें हिन्दी टीचर ने हमें चुप रहने के लाभ हानियां विषय पर निबंध लिखने को दिया। हम सब उसी पर बहस कर रहे थे। क्लास में बहुत शोर हो रहा था। अचानक हमारे वही टीचर क्लास में आ गए, नतीजतन उन्होंने बहुत से बच्चों को क्लास से बाहर खड़े कर कहा कि मैं जो पढ़ा रहा हूं, तुम लोग बाहर से ही सुनो। संयोग से हमारे हैड मास्साब उधर से निकल रहे थे। जब उन्होंने इतने बच्चों को क्लास से बाहर देखा तो पूछा कि क्या बात है? अंदर टीचर पढ़ा रहा है और तुम लोग बाहर खड़े हो तो हमने उन्हें सारा वाकया बताते हुए कहा कि हम बाहर से ही पढ़ रहे हैं। इसी तरह अखाड़े में जब दो पहलवान कुश्ती लड़ रहे होते तो हम उन्हें बाहर से खूब समर्थन देते थे। अरे! देख क्या रहा है, धोबी पछाड़ दांव लगा, कोई कहता अरे! गुद्दी पकड़ ले इत्यादि इत्यादि। बाहर वालों को क्या मालूम कि अंदर वालों पर क्या बीत रही है?
चूंटिया-चिकोटी:-यह सजा वैसे तो एक्यूप्रेशर की ही एक प्रक्रिया होती थी, लेकिन मास्साब अधिक जोश में होते तो यह एक्यूपंक्चर में बदल जाती थी। इसके अप्लाई करते ही विद्यार्थी के खून की लाल एवं सफेद दोनों तरह की टिकियां सक्रिय हो जाती थीं। हालांकि विशेषज्ञों का कहना था कि इससे उनकी संख्या-प्लेटलेट काउंट-कम ज्यादा नहीं होती थी। भुक्तभोगी बताते हैं कि यह सजा जांघ पर ज्यादा कारगर रहती है। राम जाने?
ऊठक-बैठक:- कसरत और प्राणायाम वगैरह कराने वालों का दावा था कि यह उनके सूक्ष्म व्यायाम का ही हिस्सा था, लेकिन बिना बताये स्कूल वालों ने इसे अपने सजा कार्यक्रम में शामिल कर लिया। यह सजा कान पकड़ कर और बिना कान पकड़े दोनों तरह से दी जाती थी। राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि इससे मिलती जुलती कयावद किसी समय जयललिता ने अटलजी को उनके प्रधानमंत्रित्व काल में करवाई थी।
सूर्यभान मार:- इस मार पर इन मास्साब का कापीराइट अधिकार था और यह उनके नाम से ही जानी जाती थी। इसके अनुसार मास्साब बारी बारी से एक धूंसा पीठ पर और एक धप्प-थाप सिर के पीछे, रिदम यानि संगीत की लय के साथ मारते थे, क्या मजाल जो कोई स्टैप बीच में छूट जाए। संगीत और वीर रस का मेल वहीं देखने में आया। मैं इस मार का भुक्तभोगी हूं। एक बार की बात है। कामर्स की कक्षा थी। मास्साब ने मुझसे पूछा अच्छा बताओ, तुम्हारे पास 10 रुपए हैं, उसमें से पांच रुपए तुम रमेश को देते हो तो अपने बही खाते में इसकी एंट्री कैसे करोगे? मैंने खडे होकर कहा सर! मेरे पास 10 रुपए हैं ही कहां जो उसे दूंगा, लिखने की बात तो बाद में आएगी। बस फिर क्या था, मुझे उनकी मार का मजा चखना पड़ा, जो मुझे आज तक याद है।
हवाई स्कूटर पर बैठाना:- जैसे संविधान में संशोधन होते रहते हैं, वैसे ही इन सजाओं में भी समय समय पर संशोधन होते रहे। जब मार्केट में स्कूटर आ गए तो मास्टर सजा के रूप में हवाई स्कूटर पर बैठाने लगे। इसमें सब कुछ वैसा ही होता था, गोया आप स्कूटर पर बैठे हो। हां, आपके नीचे स्कूटर ही नहीं होता था। इसमें किसी आरटीओ से लायसेंस लेने की आवश्यकता नहीं होती थी ताकि आपको उन्हें कुछ सुविधा शुल्क देना पड़े। चालान की भी गुंजाइश नहीं के बराबर थी। इसलिए पुलिस की भी इनकम कहां से होती?
हवाई कुर्सी:- जैसे अकबर के समय बीरबल ने हवा महल बनाया था, शेख चिल्ली ने अपना हवाई परिवार गढ़ा था, कांग्रेस ने गरीबी हटाओ का हवाई नारा दिया था और बीजेपी ने समता मूलक समाज बनाया था, उसी तर्ज पर हमारे मास्साब शरारत करने वालों को हवाई कुर्सी पर बैठाते थे। यह सजा भी हवाई स्कूटर के माफिक ही होती थी, जिसमे काल्पनिक कुर्सी पर विद्यार्थी को बैठाया जाता था। इसका मकसद यह रहा होगा कि आगे चलकर अगर कहीं नौकरी में अफसर हो जाएं और मलाईदार पोस्ट-कुर्सी-न मिले या राजनीति में रहते चुनाव में जनता घर बैठा दे, तो किसी तरह का अफसोस न रहे और कुछ साल इंतजार करना पड़े तो अखरे नहीं।
नृत्य मुद्रा:- वैसे तो कुचिपुड़ी, मणिपुरी, कत्थक, गरबा, भंगड़ा, घूमर, लावणी इत्यादि कई नृत्य होते हैं, लेकिन जिस मास्साब को उसकी नालेज हो या वक्त पर याद आ जाए उसी नाच की मुद्रा बना कर स्टूडेंट को सजा दे दी जाती थी। समय की कोई सीमा नहीं। कई बार तो शिवजी और भस्मासुर की कथा में जिस मोहिनी नृत्य का जिक्र है, वह भी करना पड़ता था, जिसमें नाचते नाचते अंत में वह दैत्य स्वयं ही अपने सिर पर हाथ रख लेता है और भस्म हो जाता है। जिन साथियों को यह सजा हुई, उन्हें जब जब भी किसी जुलूस की झांकी में हिस्सा लेना पड़ा या बारात में जाने का अवसर मिला तो वहां बैंड की धुन पर नाचने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं आई।
डंडों से पिटाई:- यह सजा कभी कभार ही दी जाती थी। इसमें डंडों या बेंत से बुरी तरह पिटाई की जाती थी। एक बार की बात है कि एक शायर का यह शेर हमारी क्लास के एक लड़के ने कहीं से सुन लिया। बीड़ी में भी अजब गुफ्तगू है, पीओ तो कश है और फूंको तो फू है। वह कहीं से हनुमान छाप बीड़ी का टुकड़ा उठा लाया और छिप कर पीने लगा। कहीं से मास्साब को इसकी खबर लग गई। बस फिर क्या था। उसे इस सजा का कहर सहना पड़ा।
कान उमेठना, पीछे से हाथ मरोडना:- इसमें मास्साब हाथ को पीठ की तरफ ले जा कर उसे मरोड़ते थे, जैसे अभी कुछ दिनों पहले ममता बनर्जी ने भू.पू. रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी मसले पर केन्द्र सरकार के साथ किया था। उस घटना पर राजनीतिक विशेषज्ञों की टिप्पणी थी-इफ्तदाये इश्क, रोता है क्या, आगे आगे देखिए होता है क्या?
कुछ बच्चों के मां-बाप क्लास मोनीटर बनने का हक वंश परम्परा के आधार पर जताते थे। उनका कहना था कि जब हमारे पिताजी पढ़ते थे तो वह मोनीटर थे, फिर हम पढें़ तो हम बने तो स्वाभाविक है कि अब हमारा लड़का मोनीटर बनेगा। कभी कभी कुछ बच्चों के अमीर मां-बाप स्कूल में आकर मास्साब को कहते थे कि हमारा लड़का कभी गलती नहीं करता, फिर भी खुदा न खास्ता कोई गलती हो जाए तो उसे सजा देने की बजाय उसके पास बैठने वाले बच्चे को सजा दी जाए ताकि दहशत के मारे वह गलती न करे, जैसे विधानसभा चुनावों में पहले बिहार में और अब यूपी में हार का ठीकरा युवराज की जगह किसी और के सिर फोडऩे की सोच चल रही है। तुलसीदासजी यूं ही नहीं कह गए-
समरथ को नही दोष गुसांई

-ई. शिव शंकर गोयल-
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शनिवार, 21 अप्रैल 2012

सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा

दुख्तरे [बेटी] हिंद है। उसके हाथों ने अग्नि को नवाजा तो दुनिया ने भारत की कूवत की तपिश महसूस की। क्या खुशगवार मंजर है। अब्दुल कलाम ने मिसाइल की परविश की, तो तेसी थोमस ने अग्नि को अपने हाथों से परवाज दी। सरहद के उस पार से किसी बुरी नजर ने झांका तो उसके कदम ठिठक गए। एक ऐसा भारत जिसके कौमी परचम की छांव में जात-बिरादरी, धर्म-मजहब और आस्था-अकीदे की लकीरें मिट जाती हैं। गोया पूरी इंसानियत एकाकार है। ये उन लोगों को मादरे हिंद का माकूल जवाब है, जो मानवता को धर्म और जात बिरादिरी के सांचे में बांटना चाहते हैं।
बहुत फख्र होता है, अपने देश पर और दिल कह उठता है- सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा है। तेसी थोमस इसाई है। वो केरल में पली बढ़ी। काश, भारत की माटी का ये पहलु वो लोग समझ पाते, जो कभी कहते हैं महाराष्ट्र एक खास वर्ग का है तो हिंदुस्तान एक खास धर्म का है।
अब्दुल कलाम भारत के राष्ट्रपति रहे और अपने खुदा के पक्के अकीदतमंद हैं। भारत की रक्षा तैयारियों की कोई कहानी और कामयाबी के किस्से इतिहास में दर्ज होंगे तो उसमे कलाम का नाम सिरे फेहरिस्त होगा। भारत के माथे हिंद ओ पाक जंग में फतह का सेहरा बांधने वाले जनरल मानेकशा पारसी थे। भारत के पहले पांच सितारा एयर मार्शल अर्जन सिंह सिख हैं। भारत की विविधता, उदारता, विशालता और बहुलता एक ऐसा मोहक गुलदस्ता बनाती है, जिसमें हर तरह के रंग शुमार हैं। पर चंद लोग हैं जो इस दिलकश मंजर को एक खास रंग में रंगना चाहते हैं। ऐसे लोग इस धर्म में भी है, और वो उस धर्म में भी। मगर औसत भारतीय का मजहब तो इंसानियत है, क्योंकि सूफी संत, पीर मुर्शिद, मीरा, तुसली, जायसी, सूर, कबीर और रसखान से ये ही सदा बलंद करते रहे हैं।
भारत में मुसलमान एक सबसे बड़ा अल्पसंख्यक वर्ग है। वो कोई पन्द्रह फीसद के आस-पास है। सेना में उनकी तादाद तीन फीसद है। मगर सरहद पर वतन के लिए कुर्बान होने वालों में उनकी संख्या छह प्रतिशत है। ऐसे हैं क्या हिन्दू, क्या मुसलमान, सिख, इसाई, पारसी और जैन, सब भारत मां के लाडले हैं। बहुत कम लोगों को मालूम होगा उर्दू के शायर मरहूम फिराक गोरखपुरी का असली नाम रघुपति सहाय है। अपने सूबे में उर्दू दुनिया के बड़े दस्तखत हैं शीन काफ निजाम। अदब की दुनिया में बहुत बड़ा नाम है शीन काफ निजाम। उनकी शख्सियत इतनी विराट है कि जात-धर्म के तमगे छोटे हो जाते हैं। कौन जानता है कि उनका नाम शिवकुमार है। इंसानियत के ये रिश्ते इतने मजबूत, मगर एक महीन धागे में बंधे हैं कि कोई तोगडिय़ा और बुखारी इसे तोड़ नहीं सकता।
जयपुर के स्वर्गीय हबीब मियां दुनिया के सबसे बुजुर्ग हाजी और पेंशन याफ्ता माने जाते थे। वे एक सौ तीस साल से भी ज्यादा उम्र तक दुनिया में रहे और इंतकाल कर गए। मगर एक बैंक मैनेजर राजेश नागपाल ने न केवल इस उम्रदराज शख्स की बेटे की तरह खिदमत की, बल्कि उनकी हज यात्रा में मदद भी की। नागपाल ने ये सब किसी सियासी पार्टी से चुनावी टिकिट के लिए नहीं किया, न कभी इश्तिहारों में अपना नाम साया करवाया। ये रिश्ते किसी सियासतदां के भाषण और पार्टियों के घोषणा पत्र से नहीं निकलते। ये उस महान परम्परा का नाम है, जिसे भारत कहते हैं।
हिन्दुस्तान की सरलता और सहजता फिर से दोहराना चाहता हूं। भारत में सतारूढ़ गठबंधन की प्रमुख सोनिया गाँधी, इटली के ईसाई परिवार में पैदा हुई। आज वे भारत में सर्वाधिक ताकतवर नेता हैं। उनके राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल एक मुस्लिम हैं। राष्ट्रपति एक महिला है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की संसद की स्पीकर मीरा कुमार एक दलित के बेटी है। भारत के उपराष्ट्रपति एक मुस्लिम हैं। प्रधानमन्त्री एक सिख हैं। रक्षा मंत्री एक ईसाई हैं। विदेश राज्य मंत्री एक मुस्लिम हैं। भारत के मुख्य न्यायाधीश अल्पसंख्यक पारसी समुदाय से हैं। विश्व की सबसे बड़ी जम्हूरियत में चुनाव करने वाली संस्था के प्रमुख एक मुस्लिम हैं। देश के योजना आयोग के उपाध्यक्ष एक सिख हैं। जस्टिस फातिमा बीबी को भारत में पहली महिला जज होने का गौरव मिला है, जो सुप्रीम कोर्ट तक पहुंची। उनके बाद ये सम्मान सुजाता मनोहर को मिला।
भारत में हिंदी सिनेमा की तीन लोकप्रिय सितारे सलमान, आमीर और सलमान मुस्लिम हैं। इनमें एक की मां हिन्दू है, दो की पत्नियां हिन्दू हैं। तभी किसी ने कहा कोई बात है की हस्ती हमारी मिटत्ती नहीं। शुक्रिया।

लेखक श्री नारायण बारेठ राजस्थान के जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार हैं और लंबे समय तक बीबीसी से जुड़े रहे हैं।

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

कई बार बसा और उजड़ा अजमेर

तारागढ़
विश्व धरोहर दिवस 18 अप्रैल पर विशेष
आर.डी.कुवेरा
राजस्थान का जिब्राल्टर अजमेर उस प्रमुख मार्ग से जुड़ा हुआ है, जो राजस्थान के मध्य में स्थित है तथा आगरा और दिल्ली को मालवा, गुजरात, दक्षिण भारत तथा उत्तर पश्चिमी राजस्थान व सिन्ध होता हुआ अफगानिस्तान और अरब देशों से जोड़ता है।
एक राजस्थानी कहावत है-अन्न भगवान रो, अर लूण चौहान रो। अर्थात अन्न तो भगवान का और नमक सांभर का। असल में सांभर के नमक का व्यापार कई सदियों तक खच्चरों पर बनजारों के माध्यम से अजमेर होते हुए सारे भारत ही नहीं वरन् खच्चरों के माध्यम से अफगानिस्तान होता हुआ अरब देशों तक होता था। सन् 684 से 709 ई. तक सांभर के राजा रहे सामन्त राज के कार्यकाल में ही सांभर की झील से नमक का व्यापारिक उत्पादन आरम्भ किया गया था। लक्खी बंजारा के वंशज अजमेर होते हुए नमक का व्यापार करते थे। आज भी लक्खी बंजारे की स्मृति में सांभर में स्थान बना हुआ है।
कभी-कभी अजमेर से आगे जाने पर बंजारों को टाटगढ़, भीम व आसपास मेर जाती के लुटेरों द्वारा लूट लिया जाता था। उनसे निपटने और अरब आक्रमणकारियों के सिन्ध तक आ जाने के कारण मिलने वाली किसी भी चुनौती का मुकाबला करने के लिए चौहान राजा अजयपाल ने सन् 730 ई. में अजमेर का नामकरण अजयमेरू कर यहां सैनिक चौकी की स्थापना की तथा तारागढ़ का निर्माण आरम्भ कराया। अजयपाल के पुत्र व उत्तराधिकारी अर्णोराज को यहां अनेक मंदिर स्थापित करने का श्रेय दिया जाता है। इनके कार्यकाल में अजमेर की गणना शक्तिशाली दुर्ग के रूप में की जाने लगी थी। चौहान काल में लगातार युद्धों में रहते हुए भी बीसलदेव ने अजमेर में धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक उत्थान के कई उल्लेखनीय कार्य किये। अजमेर की चतुर्मुखी प्रगति हुई। वह साहित्य मर्मज्ञ, कला प्रेमी और शिल्पकला का ज्ञाता था। चौहानों के शासनकाल में अजमेर की स्मृद्धि का अधिकांश श्रेय बीसलदेव को ही जाता है। सरस्वती कंठाभरण महाविद्यालय, बीसलसर जलाशय, आनासागर, और भारी संख्या में देवालय बनवाए, लेकिन उनमें से अधिकतर को मुस्लिम विजेताओं ने धर्मान्धता के कारण नष्ट कर दिए। पृथ्वीराज तृतीय के शासनकाल में मुसलमानों के विरुद्ध संघर्ष निरंतर जारी रहा और चौहानों व गुजरात के चालुक्यों के आपसी संघर्ष के कारण अजमेर का विकास रुक सा गया। मोहम्मद गोरी ने तराई की दूसरी लड़ाई में पृथ्वीराज चौहान को हरा कर उसे मार डाला। परिणामस्वरूप अजमेर वासियों को भयंकर लूट-पाट और हिंसा का शिकार होना पड़ा था। नागरिक सुरक्षित स्थानों की ओर पलायन कर गए तथा अजमेर का नगरीय विकास अवरुद्ध होना आरम्भ हो गया।
दिल्ली के मुसलमानों के सूबेदारों तथा बाद में कभी मेवाड़ के सिसोदिया, तो कभी मारवाड़ के राठौड़ों के कार्यकाल में नगर की समृद्धि को इतना धक्का लगा कि पन्द्रहवीं सदी के मध्य तक ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की मजार के आस-पास जंगली पशु और बाघ घूमते हुए नजर आते थे। सन् 1556 में अजमेर हाजी खां के अधीन था, किन्तु अकबर के सेनापति कासिम खान ने बिना किसी संघर्ष के अजमेर दुर्ग पर अधिकार कर इसे मुगल साम्राज्य का सूबा बना लिया। मुगल काल में यहां कानून और व्यवस्था का राज आरम्भ हुआ। अकबर अजमेर की समृद्धि में अत्यधिक रुचि रखता था। 16वीं तथा 18वीं शताब्दी के मध्य अकबर, जहांगीर और शाहजहां के काल में अन्दरकोट, त्रिपोलिया गेट व तारागढ़ क्षेत्र विकसित हुए। दिल्ली गेट, आगरा गेट और मदारगेट व खाईलैण्ड होते हुए बाहरी चारदिवारी बनाई गई। साथ ही साथ नला बाजार, लाखन कोटड़ी, दरगाह बाजार, पुरानी मंडी, सरावगी मौहल्ला, कड़क्का चौक व आस-पास के इलाके विकसित हुए। शाहजहां के कार्यकाल तक अजमेर में स्थायी विकास कानून और व्यवस्था उद्योग-व्यापार आरम्भ हुए। इस लिहाज से कहा जा सकता है कि मुगलकाल में यहां अनेक विकास कार्य हुए, जिनके निशान आज भी मौजूद हैं। मुगलों के पतन के बाद सन् 24 जून, 1818 तक अजमेर फिर से जोधपुर के राठौड़ों, मुगलों व ग्वालियर के मराठों के अधीन रहा। मराठों के सूबेदारों के काल में अजमेर में असहनीय अत्याचार, लूट-पाट और हिंसा का बोल-बाला रहा। सिंधिया की फौज ने चौथ वसूली के नाम पर मनमानी रकम वसूली। अजमेर में असुरक्षा एवं अस्थिरता बढ़ी और अधिकांश जनता यहां से दूसरे स्थानों पर चली गई। अजमेर असुरक्षा और दरिद्रता का क्षेत्र बन गया। इसे अजमेर के उजडऩे की संज्ञा दी जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। 24 जून, 1818 को अंग्रेजी शासन आरम्भ होने पर अजमेर मेरवाड़ा में शासन का सुदृढ़ीकरण करने के लिए प्रथम सुपरिटेन्डेन्ट बिल्डर ने क्षेत्र में लूट-पाट करने वाली मेर जाति को साम, दाम, दण्ड भेद की नीति अपना कर उन्हें समझौता करने को मजबूर किया। इसके बाद मेरवाड़ा को तिहरी गुलामी करनी पड़ी, जिसमें अंग्रेजी शासन और मेवाड़ और मारवाड़ के नरेशों की सीमाएं लगती थीं। कानून व व्यवस्था में अस्थिरता रहती थी। इसे व्यवस्थित करने के लिए दोनों नरेशों से एक संधि हुई। एक बटालियन का गठन किया गया, उसमें सिर्फ मेर जाति के युवकों को ही भर्ती किया गया, जिसका नामकरण मेरवाड़ा बटालियन रखा गया। मेर जाति की सामाजिक कुरीतियों को मिटाने व मेरवाड़ा में शांति स्थापना का जो कार्य अंग्रेज अधिकारियों ने जिस दृढ़ता, साहस और अपनी कार्यकुशलता से किया, वह उल्लेखनीय है। कर्नल हाल और कर्नल डिक्सन को मुख्य रूप से इसका श्रेय दिया गया। ब्यावर शहर का निर्माण भी डिक्सन की ही देन थी।
विल्डर ने अजमेर का कार्यभार संभाला तब यह नगर एक दम वीरान था। मराठों और पिंडारियों के अत्याचारों और दमन के कारण यहां के निवासियों ने दूसरी रियासतों में शरण ली थी। विल्डर ने अजमेर के लोगों को पुनर्वास में काफी योगदान दिया। शान्ति की स्थापना होते ही लोग तेजी से वापस अपने घरों को लौटने लगे और शासन में विश्वास पुन: जागृत होने लगा। कृषि में भी वृद्धि हुई और पुन: समृद्धि के संकेत दृष्टिगोचर होने लगे।
अंग्रेज अधिकारियों ने राजनीतिक निपुणता और प्रशासनिक योग्यता से अजमेर व मेरवाड़ा में कानून और व्यवस्था भी दृढ़ता कायम की और सम्पूर्ण क्षेत्र में कृषि, उपयोग, व्यापार और पशुपालन में उन्नति के नए सोपान स्थापित किए। मुद्रा के चलन को व्यवस्थित किया। पंचायत व्यवस्था फिर से विकसित की। न्याय व्यवस्था को व्यवस्थित रूप से आरम्भ किया। न्याय और पुलिस व्यवस्था जो पहले सम्मिलित थी, अलग की गई। 1858 में अजमेर और मेरवाड़ा को मिला कर एक जिले का रूप दिया व लगान वसूली व्यवस्थित की गई।
यह स्वीकार करना पड़ेगा कि 18वीं सदी में मुगलों के पतन काल से लेकर अजमेर संघर्षशील शक्तियों के बीच शतरंज के मुहरों की तरह पिटता रहा और हर आक्रांता ने इस पर दांत गड़ाए। इस संघर्ष में यह जिला एक तरह से विनष्ट सा हो चला था और यहां की जनसंख्या कुल मिला कर मात्र 25 हजार ही रह गई थी। अंग्रेजों के आधिपत्य के साथ शांति और स्थाई प्रशासन का युग आरम्भ हुआ तथा जनसंख्या में भी वृद्धि होने लगी। ब्यावर, जो अंग्रेजों के आगमन के समय एक छोटा-सा गांव था, अंग्रेजी शासन-काल में प्रमुख एवं महत्वपूर्ण व्यावसायिक केन्द्र बन गया था। वहां महत्वपूर्ण सूती उद्योग पनपा और उसके व्यापार में पंजाब के फजिल्का के बाद इस का स्थान बन गया था। हालांकि अंग्रेजों ने स्वाधीनता आंदोलन को बेदर्दी से कुचला, लेकिन उन्होंने यहां के विकास का भी पूरा ख्याल रखा। तभी तो आज की बुजुर्ग पीढ़ी को आज के हालात के मद्देनजर यह कहते हुए सुना जा सकता है कि इससे तो अंग्रेजों का राज की बेहतर था। ऐसी आजादी से तो अंग्रेजों की गुलामी ही अच्छी थी।
सीपीडब्ल्यूडी, सेन्ट्रल बोर्ड ऑफ सेकण्डरी एज्युकेशन, कलेक्ट्रेट बिल्डिंग, सेन्ट्रल जेल, पुलिस लाइन, टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज, लोको-केरिज कारखाने, डिविजन रेलवे कार्यालय बिल्डिंग, मार्टिन्डल ब्रिज, सर्किट हाउस, अजमेर रेलवे स्टेशन, क्लॉक टावर, गवर्नमेन्ट हाई स्कूल, सोफिया कॉलेज व स्कूल, मेयो कॉलेज बिल्डिंग, लोको ग्राउण्ड, केरिज ग्राउण्ड, मिशन गल्र्स स्कूल, अजमेर मिलिट्री स्कूल, नसीराबाद छावनी, सिविल लाइंस, तारघर, आर.एम.एस., गांधी भवन, नगर निगम भवन, जी.पी.ओ., विक्टोरिया हॉस्पिटल, मदार सेनीटोरियम, फॉयसागर, भावंता से अजमेर की वाटर सप्लाई, पावर हाउस की स्थापना, रेलवे हॉस्पिटल, दोनों रेलवे बिसिट आदि का निर्माण ब्रिटिश सरकार के अधिकारियों के विजन का ही परिणाम था, जिससे अजमेर के विकास की बुनियाद पड़ी। आज अजमेर का जो स्वरूप है, उस पर अंग्रेजों की छाप स्पष्ट देखी जा सकती है।
अंग्रेजों के कार्यकाल में ही आर्य समाज व मिशनरीज ने अजमेर में शिक्षा के विकास में अहम भूमिका निभाई। इन संस्थाओं की ओर से संचालित स्कूलों में बच्चों के अनुशासन पर विशेष ध्यान दिया जाता रहा है। अंग्रेजी माध्यम की अधिकतर स्तरीय स्कूलें मिशनरीज की ही देन है, यथा एंसलम्स, क्वीन मेरीज व सोफिया। संपन्न घरानों के लोग अपने बच्चों को इन्हीं स्कूलों में ही पढ़ाना पसंद करते हैं। इसी प्रकार आर्य समाज की अनेक शिक्षण संस्थाएं वर्षों से अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही हैं।
आजादी के बाद देश विभाजन के कारण सिंध प्रांत से आए सिंधियों ने प्रांरभिक समय तो संघर्ष में काटा, मगर जल्द ही उन्होंने व्यापार के क्षेत्र में अपनी धाक जमाई। आज व्यवसाय का एक भी क्षेत्र ऐसा नहीं है, जिस पर सिंधी व्यापारियों का वर्चस्व न हो। आज अजमेर जिस प्रकार महानगरीय संस्कृति की ओर बढ़ रहा है, उसमें सिंधियों की अहम भूमिका है। इस लिहाज से अजमेर के विकास में सिंधियों के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।
लब्बोलुआब यह कहा जा सकता है कि जिस तरह दिल्ली कई बार बसी और कई बार उजड़ी, ठीक वैसे ही अजमेर की स्थिति रही, बल्कि उससे भी अधिक खराब रही।

लेखक आर.डी.कुवेरा प्रदेश के जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार हैं
उनका संपर्क सूत्र है-
जटिया हिल्स, लोहागल रोड़, अजमेर
मो. 9829180180, 9660180180

गुरुवार, 5 अप्रैल 2012

आइये जानिये जनसंघ से भाजपा की विकास यात्रा

भारतीय जनसंघ की स्थापना 21 अक्टूबर 1951 को हुई थी। देश को आजाद हुए भी चार वर्ष ही हुए थे। इस बीच 1950 में संविधान लागू हुआ। नेहरू जी के मंत्रिमंडल में अलग-अलग प्रतिभाओं के गैर कांग्रेसी लोग भी थे। इसमें डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर भी थे। देश का विभाजन हो चुका था, लेकिन पाकिस्तान के प्रति नेहरू सरकार की नीतियों के कारण राष्ट्रवादी शक्तियों के मन में अनेक आशंकाएं उत्पन्न हो गयी थीं। कश्मीर पर पाकिस्तान का 1947 में आक्रमण और नेहरू द्वारा बढ़ती हुई भारतीय सेना को युद्ध विराम कर रोक देना तथा संयुक्त राष्ट्र संघ में कश्मीर विषय को ले जाकर उलझा देना, कई लोगों को यह राष्ट्रहित को क्षति पहुंचाने वाली नीति लग रही थी। यही नहीं, पूर्वी पाकिस्तान में हिन्दुओं के खिलाफ दमन चक्र चल रहा था और बड़ी संख्या में हिन्दू शरणार्थी बन कर भारत आ रहे थे। पाकिस्तान के प्रति कठोर नीति अपनाने के बजाय नेहरू सरकार नरम नीति अपनाए हुए थी। इस कारण असंतोष पैदा हो रहा था। श्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने पूर्वी पाकिस्तान के प्रति नेहरू जी के रवैये पर मतभेद होने के कारण मंत्री परिषद से त्यागपत्र दे दिया। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने पीपुल्स पार्टी नाम की पार्टी बनाई थी, उसको ही आगे भारतीय जनसंघ में परिवर्तित किया गया।
भारतीय जनसंघ की स्थापना के पूर्व डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के द्वितीय सरसंघ चालक श्री गोलवलकर जी (श्री गुरूजी) से मिलने गए थे और संघ से सहयोग की अपेक्षा की थी। संघ स्वयं राजनीति में आ जाए, श्री गुरूजी ने इस प्रस्ताव को तो स्वीकार नहीं किया लेकिन राष्ट्रवादी राजनीतिक दल के गठन को अपना सहयोग देने का वादा किया और नये दल को खड़ा करने और प्रारंभिक अवस्था में उसका मजबूत ढांचा बनाने और देशभर में उसके कार्य का विस्तार करने के उद्देश्य से कुछ तपे हुए स्वयं सेवक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को दिए। इनमें सर्वश्री पं. दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, नानाजी देशमुख, सुंदर सिंह भण्डारी जैसे कर्मठ और समर्पित कार्यकर्ता थे। इस प्रकार अखिल भारतीय स्तर पर राष्ट्रवादी विचारों पर आधारित एक नए राजनीतिक दल की स्थापना हुई, जिसके प्रथम अध्यक्ष स्वाभाविक रूप से डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी थे।
पहला लोकसभा चुनाव वर्ष 1952 में हुआ। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में भारतीय जनसंघ ने भी इसमें हिस्सा लिया और उसके तीन उम्मीदवार विजयी हुए। संसद में नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट नाम से एक फ्रंट का निर्माण किया गया, जिसमें अकाली दल, गणतंत्र परिषद एवं अन्य छोटे-मोटे दल सहभागी हुए। फ्रंट के 31 सदस्य थे और उसके नेता डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी थे। वे भारतीय संसदीय इतिहास के प्रतिपक्ष के पहले नेता थे।
लोकसभा के प्रथम चुनाव में भारतीय जनसंघ को तीन सीटें और 3.07 प्रतिशत मत प्राप्त हुए और उसको मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय राजनीतिक दल का दर्जा प्राप्त हो गया।
जम्मू-कश्मीर राज्य का वहां के राजा हरिसिंह ने भारतीय संघ में विलीनीकरण कर दिया। पं. नेहरू ने नेशनल कांन्फ्रेंस के शेख अब्दुल्ला को जम्मू-कश्मीर राज्य का शासक नियुक्त किया। शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर के लिए अलग प्रधान, अलग विधान और अलग निशान लागू किया। इसके विरोध में प्रजा परिषद ने आंदोलन किया। प्रजा परिषद के इस आंदोलन में कई लोग शहीद हुए। प्रजा परिषद का नारा था 'एक देश में दो प्रधान, दो विधान और दो निशान नहीं चलेंगे।� प्रजा परिषद के इस आंदोलन को नवगठित भारतीय जनसंघ ने अपना आंदोलन बना लिया। बिना परमिट के जम्मू-कश्मीर में प्रवेश पर लागू प्रतिबंध को तोड़कर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने राज्य में प्रवेश किया। उन्हें 18 मई को गिरफ्तार किया गया और 23 जून 1953 को शेख अब्दुल्ला की कारागार में उनकी रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु हो गई। अपनी निर्माणात्मक अवस्था में भारतीय जनसंघ को यह भारी आघात लगा।
भारतीय जनसंघ से भारतीय जनता पार्टी तक की विकास यात्रा को कुछ चरणों में बांट कर जाना जा सकता है:- प्रथम चरण-
यह चरण 1951 से 1973 तक का है। भारतीय जनसंघ यथास्थिति को तोड़कर भारतीय जीवन मूल्यों के अनुकूल और लोकतांत्रिक तरीके से परिवर्तन का आग्रह लेकर राजनीतिक मंच पर उतरा था। 21 अक्टूबर 1951 को स्वीकृत अपने प्रथम घोषणा पत्र में जनसंघ ने भारत को 'शक्तिशाली, सुसंगठित और सुसम्पन्न� बनाने का ध्येय सामने रख, 'भारत को सामाजिक और आर्थिक जनतंत्र� बनाने की बात कही। आर्थिक उन्नति के लिए 'उत्पादन में वृद्धि, वितरण में समानता तथा उपभोग में संयम� पर बल दिया। पं. दीनदयाल उपाध्याय जी ने पहले जनसंघ के महामंत्री के रूप में और बाद में कुछ समय के लिए अध्यक्ष के रूप में भारतीय जनसंघ को संगठनात्मक स्वरूप प्रदान किया, उसकी विचारधारा और दर्शन का प्रतिपादन किया। उन्होंने एकात्म मानववाद का दर्शन प्रस्तुत किया और कार्यकर्ताओं के चरित्र एवं अनुशासन पर प्रबल आग्रह रखा। उन्होंने भौगोलिक राष्ट्रवाद को अस्वीकार किया और चिति या संस्कृति पर आधारित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को भारतीय जनसंघ के राष्ट्रवाद के रूप में प्रस्तुत किया। भारतीय जनसंघ का राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जो जुड़ाव था, उसके चलते आदर्शवाद और लोकतंत्र भारतीय जनसंघ की विचारधारा बना। इस चरण में समर्पित कार्यकर्ताओं की शृंखला खड़ी करके उनमें वैचारिक स्पष्टता लाने और उन्हें आदर्शवाद से अनुप्राणित करने पर बल दिया गया। जनवरी 1965 में विजयवाड़ा के अधिवेशन में 'सिद्धांत और नीति� दस्तावेज स्वीकार किया गया, जो जनसंघ का मार्गदर्शक नीति दस्तावेज बना।
इस चरण में जनसंघ ने 5 चुनाव लड़े और उसका वोट प्रतिशत 3.07 से 7.36 के बीच रहा। 1967 में 9 राज्यों में कांग्रेस सत्ता विहीन हुई और मिलीजुली सरकारें बनी। जनसंघ भी न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर मिलीजुली सरकारों में सहभागी बना। द्वितीय चरण-
यह चरण 1973 से 1980 तक का है। इस चरण की मुख्य घटनाएं हैं- गुजरात में नवनिर्माण आंदोलन, गुजरात विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस की हार और जनता मोर्चा की विजय, जय प्रकाश नारायण का छात्र आंदोलन को नेतृृत्व देना, बिहार आंदोलन, जयप्रकाश नारायण जी का समग्र क्रांति का नारा, श्रीमती इंदिरा गांधी के खिलाफ इलाहबाद न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन सिन्हा का फैसला, श्रीमती इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द किया जाना तथा उनको 6 वर्ष के लिए चुनाव लडऩे के लिए अयोग्य घोषित किया जाना, श्रीमती इंदिरा गांधी से प्रधानमंत्री पद छोडऩे की मांग को लेकर श्री जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में विपक्षी दलों का आंदोलन, श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा 25 जून 1975 को देश में आपात स्थिति की घोषणा कर राजनीतिक दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं को जेलों में बंद कर देना, मीसा कानून का दुरुपयोग, अखबारों पर कड़ी सेंसरशिप, अपने निजी हित के लिए संविधान में एक के बाद एक अनेक संशोधन करना, संघ पर प्रतिबंध लगाना, न्यायालयों पर दबाव पैदा करना, प्रतिबद्ध न्यायपालिका और नौकरशाही के सिद्धांत पर अमल करना और पूरे देश में लोकतंत्र का गला घोंट कर सन्नाटा पैदा कर देना।
इस दौर की अन्य घटनाएं- विपक्षी दलों, लोकतंत्र में आस्था रखने वाले संगठनों और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा आपात स्थिति के विरोध में सत्याग्रह किया जाना, एक लाख से अधिक लोगों द्वारा सत्याग्रह करना और 25 हजार से अधिक लोगों को मीसा में बंद किया जाना इत्यादि। श्रीमती इंदिरा गांधी अपने तानाशाही चरित्र पर लोकतंत्र का पर्दा डाले रखना चाहती थी, इसलिए उन्होंने 1977 के आरंभ में लोकसभा चुनावों की घोषणा की। जेल में बंद विपक्षी दलों के नेताओं ने मिलजुल कर श्रीमती इंदिरा गांधी की तानाशाही मिटाने के लिए लोकसभा चुनाव लडऩे का फैसला किया। जनता पार्टी का गठन किया गया। भारतीय जनसंघ ने अपने को जनता पार्टी में विसर्जित कर दिया और जनता पार्टी के रूप में लोकसभा चुनावों में उतरा। जनता पार्टी की शानदार विजय हुई। इंदिरा गांधी पराजित हुईं, तानाशाही समाप्त की गई और जनता पार्टी का शासन प्रारंभ हुआ।
यद्यपि जनता पार्टी ने लोकतंत्र की पुन: स्थापना के लिए प्रभावी कदम उठाए और अच्छा शासन प्रदान किया, किन्तु कुछ घटकों ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबंधों को लेकर जनसंघ से आए सदस्यों के बारे में दोहरी सदस्यता का प्रश्न खड़ा किया। जनसंघ इस विषय को लेकर जनता पार्टी से बाहर आ गया। उसके पश्चात् जनता पार्टी की सरकार गिर गई और इंदिरा गांधी फिर सत्ता में आ गई।
तृतीय चरण-
1980 में तीसरा चरण प्रारंभ हुआ। 6 अप्रैल 1980 को भारतीय जनता पार्टी के रूप में एक नया राजनीतिक दल बन कर सामने आया। यह चरण 1980 से प्रारंभ होकर 1996 तक फैला हुआ है। इस चरण में लोकसभा के चार चुनाव हुए, जिनमें भाजपा को क्रमश: 7.40 प्रतिशत(1984), 11.49 प्रतिशत(1989), और 20.04 प्रतिशत(1991) मत प्राप्त हुए। 1980 का चुनाव जनसंघ ने जनता पार्टी के अंग के रूप में लड़ा था। इसमें जनता पार्टी को 19 प्रतिशत वोट मिले और उसके 31 उम्मीदवार जीते। इनमें 15 जनसंघ के थे।
इस चरण की महत्वपूर्ण घटनाएं- भारतीय जनता पार्टी नामक एक राजनीतिक दल को सुदृढ़ करने के लिए देशभर में प्रमुख कार्यकर्ताओं का दौरा, इस बीच इंदिरा गांधी की हत्या, राजीव गांधी का प्रधानमंत्री बनना, इसके तुरन्त बाद लोकसभा चुनावों की घोषणा, इंदिरा जी की हत्या के पश्चात् हुए लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को अभूतपूर्व सफलता प्राप्त होना, भारतीय जनता पार्टी का लोकसभा चुनावों में केवल दो सीटों पर विजयी होना, राजीव गांधी का धीरे-धीरे वोट बैंक की राजनीति में फंसते जाना, शाहबानो प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को कानून में संशोधन करके बदल डालना, 1986 में राम मंदिर के द्वार खुलवाना, 1987 में शिलान्यास करवाना, बाद में वोट बैंक की तुष्टिकरणवादी राजनीति के दबाव में राम मंदिर मुद्दे से अपने हाथ खींच लेना, 1989 में पालमपुर(हिमाचल प्रदेष) में भारतीय जनता पार्टी द्वारा राम मंदिर आंदोलन के लिए प्रस्ताव पारित करना, बाद में वी.पी.सिंह का राजीव गांधी का साथ छोड़ कर बाहर आना, बोफोर्स खरीद में भ्रष्टाचार का प्रकरण उठना, भाजपा के सहयोग से वी.पी. सिंह के नेतृत्व में सरकार बनना, वी.पी. सिंह द्वारा मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करना, राम मंदिर मुद्दे के प्रश्न पर भाजपा द्वारा वी.पी. सिंह सरकार से समर्थन वापिस लेना, श्री लालकृष्ण आडवाणी की राम रथ यात्रा और पूरे देश में राम लहर का निर्माण होना और पी. वी. नरसिंह राव की सरकार का कार्यकाल समाप्त होने के बाद 1996 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी का सबसे बड़े राजनीतिक दल के रूप में उभर कर आना।
चतुर्थ चरण-
1996 में चतुर्थ चरण प्रारंभ हुआ। 1996 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को अभूतपूर्व सफलता मिली। 1996, 1998, 1999, और 2004 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को प्राप्त सीटें और मत प्रतिशत क्रमश: इस प्रकार रहा-161 सीटें (20.29 प्रतिशत), 182 सीटें (25.59 प्रतिशत),182 सीटें (23.74 प्रतिशत) और 138 सीटें (22.16 प्रतिशत)। पहली बार केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी ने सरकार बनाई, किन्तु हमारे साथ अन्य दलों की अस्पृश्यता के चलते शिवसेना और अकाली दल को छोड़कर अन्य दल जुडऩे के लिए तैयार नहीं हुए। अत: संख्या बल के अभाव के चलते 13 दिन में यह सरकार गिर गई। 1998 में लोकसभा चुनावों में हम फिर से सबसे बड़े दल के रूप में उभरे। कुछ दलों के साथ मिल कर केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी ने सरकार बनाई। यह सरकार लोकसभा में 17 अप्रैल को मात्र एक वोट से पराजित हुई और यह मत भी संदेहास्पद था। इस बीच कारगिल में पाकिस्तान की सशस्त्र घुसपैठ और भारतीय सेनाओं द्वारा आखिरी घुसपैठियों को खदेड़ कर इस क्षेत्र को पाकिस्तान से मुक्त कराने की घटना उल्लेखनीय है।
1999 में हम पुन: सबसे बड़े दल के रूप में उभरे। अन्य दलों के साथ मिलकर हमने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का निर्माण किया और संयुक्त रूप से चुनाव लड़ा। चुनाव एजेंडा में सुशासन और सुराज को आधार बनाया गया तथा गठबंधन की राजनीति का दौर आगे बढ़ा। 1998 से 2004 तक श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के नेतृत्व में राजग ने केन्द्र में शासन किया। इस दौरान अनेक उल्लेखनीय सफलताओं के बावजूद 2004 के चुनावों में राजग को पराजय का मुंह देखना पड़ा और यूपीए गठबंधन की सरकार सत्ता में आयी। इस दौर में हमने ईमानदारी से गठबंधन धर्म का निर्वाह किया। सुशासन और सुराज्य के लिए प्रभावशाली कदम उठाये। महंगाई पर नियंत्रण रखा, जरूरी वस्तुओं की उपलब्धता बढ़ाई, पोखरण में परमाणु विस्फोट कर भारत का विश्व में गौरव बढ़ाया। केन्द्र और राज्यों के रिश्ते बेहतर बनाए। संघात्मक शासन को सुदृढ़ किया और पड़ोसी देशों के साथ अच्छे संबंधों की नीतियों पर चले।
इस लम्बी विकास यात्रा में हम समय-समय पर अनेक राज्यों में और फिर 96 में केन्द्र में भी सत्ता में आए। सत्ता के इस दौर का हमारे दल पर भी परिणाम हुआ। चरित्र, आदर्शवाद और अनुशासन, जिनके कारण भाजपा ने अपनी अलग पहचान बनाई थी, उनमें शिथिलता आई। एक ओर हमारा आत्मविष्वास बढ़ा दूसरी ओर आदर्शवाद शिथिल हुआ। आचार संहिता जैसे अपने प्रिय विषयों को स्थगित करने पर मजबूर हुए, इसके कारण पार्टी के कार्यकर्ताओं में नाराजगी पैदा होना स्वाभाविक था। आज हमारे समक्ष निम्नलिखित चुनौतियां हैं-
-गठबंधन राजनीति, जो समय का तकाजा है, के चलते अपनी विचारधारा और आग्रहों पर कैसे टिके रहें?
-विषम परिस्थितियों में भी कार्यकर्ताओं में आदर्शवाद का आग्रह कैसे जगाएं?
-दक्षिण भारत और उत्तर-पूर्वी राज्यों में पार्टी का विस्तार कैसे करें?
-भारतीय जनता पार्टी के विरोधियों द्वारा लगातार दुष्प्रचार करके हमारी साम्प्रदायिक छवि बनाने का जो प्रयास हुआ है, उसे कैसे दुरुस्त करें?
-दलित वर्ग, अनुसूचित वर्ग और पिछड़े समाज जैसे समुदायों में पार्टी का विस्तार कर उसे सर्वस्पर्शी रूप कैसे प्रदान करें?
-पार्टी के विस्तार के परिणामस्वरूप नये आए कार्यकर्ताओं के लिए संस्कार की प्रभावी व्यवस्था कैसे करें?
-जिन राज्यों में हमारी सरकारें हैं, उनमें सुशासन और सुराज्य के उच्च मानदण्ड कैसे स्थापित करें?

-कंवल प्रकाश किशनानी
जिला प्रचार मंत्री, शहर जिला भाजपा अजमेर
निवास-599/9, राजेन्द्रपुरा, हाथीभाटा, अजमेर
फोन-0145-2627999, मोबाइल-98290-70059 फैक्स- 0145-2622590

बुधवार, 4 अप्रैल 2012

जैन संस्कृति का वर्चस्व रहा है प्राचीन अजमेर में

अजमेर की ऐतिहासिकता लगभग दो हजार ईस्वी पूर्व तक के समय का स्पर्श करती है। आर. के. ढोंढियाल द्वारा सम्पादित राजकीय गजेटियर्स में यह उल्लेख मिलता है कि सिन्धु घाटी सभ्यता के दौरान यहां की सीसा खान से सीसा निकाला जाता था। इसी तरह डॉ. मजूमदार और डॉ. गोपीनाथ शर्मा के ऐतिहासिक ग्रन्थों में भी संकेत मिलते हैं कि महाभारत काल के समय भी अजमेर व पुष्कर आबाद थे। एक ब्रितानी लेखक हैबर ने भी उल्लेख किया है कि यह नगर कई बार बसाया गया और अनेक बार उजाड़ा गया। कुल मिलाकर बात यह है कि अजमेर एक प्राचीन नगर है।
अजयमेरु से अजमेर नहीं बना है, क्योंकि भाषा विज्ञान के अनुसार मेरु से मेर नहीं बनता है। मेरु का अर्थ पर्वत होता है और मेर का अर्थ मेढ़ या स्थान होता है। जैसे-जैसलमेर यानि जैसल द्वारा बसाया गया स्थान। ऐसे ही अजमेर यानि राजा अज या अजयपाल द्वारा बसाया गया स्थान। अजयमेरु तो तारागढ़ का पुराना नाम है, जिसका उल्लेख पंडित जयनाक द्वारा लिखित पृथ्वीराज विजय नामक ग्रंथ में मिलता है। यह किला अजयराज चौहान (ग्यारहवीं सदी) द्वारा बनवाया गया अथवा उसके द्वारा इस किले का विस्तार किया गया।
अजमेर शहर के अन्य नाम भी इतिहास व साहित्य की पुस्तकों में मिलते हैं, यथा अनन्तदेश, चश्मानगरी, पद्मावती नगरी आदि। चूंकि यहां चौहान साम्राज्य का दबदबा रहा, इसलिए चौहान राजा अजयराज के नाम पर ही इस शहर का नामकरण अजमेर निश्चित कर दिया गया। अरावली पर्वत के जिस पर्वत शिखर पर चौहान दुर्ग बताया गया, वह मूलत: तो 'बीठली� पहाड़ कहा जाता है। फिर बौद्धकाल में किसी तारक लासा ने यहां तारापीठ स्थापित की और जब चौहानों ने यहां किला बनाया तो वह इस तारापीठ की याद दिलाते हुए तारागढ़ (लोक समाज में) कहा जाने लगा। विख्यात चौहान नरेश अजयराज चौहान के नाम पर चारण भाट इसे अजयमेरु और किले को अजयमेरु दुर्ग कहने लगे। बात को अलंकारित तरीके से लिखने के शौकीन साहित्यकारों ने अजमेर शहर को भी अजयमेरु नगर कहना आरंभ कर दिया जबकि यह शहर पहाड़ पर (अजयमेरु) बसा हुआ नहीं है। शुरू में भी यह पहाड़ की तलहटी में था, पहाड़ पर नहीं।
अब अपने मूल विषय पर आते हैं कि प्राचीन अजमेर में जैन सभ्यता संस्कृति का वर्चस्व था। राजपूताना गजेटियर्स में ही उल्लेख मिलता है कि किसी पद्मसेन नामक राजा ने यहां पद्मावती नगरी बसाई थी। इसका विस्तार पुष्कर, किशनपुरा, नरवर और बड़ली गाँव तक था। लोक समाज में यह बात भी प्रचलित है कि अजमेर से खुण्डियास गांव तक 108 झालरे बजती थी, अर्थात इतने मंदिर थे। ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि इन्द्रसेन नाम के जैन राजा ने यहां 'इन्दर कोट� बनवाया जो आज अन्दर कोट के नाम से जाना जाता है।
किशनपुरा और नरवर में आज भी खुदाई के दौरान जो ईंट और स्तम्भ निकलते हैं, वे जैन मंदिरों व भवनों के अवशेष जैसे लगते हैं। अजमेर के क्रिश्चियन गंज के आगे जो जैन आचार्यों की छतरियां हैं, उनमें प्राचीनतम छतरी छठी-सातवीं सदी की हैं। इसी भांति वर्तमान दरगाह बाजार क्षेत्र में पांचवीं-छठी सदी के दौरान वीरम जी गोधा ने विशाल जैन मंदिर बनवाया था और उसमें पंच कल्याणक महोत्सव भी सम्पन्न हुआ। इससे भी प्रमाणित होता है कि यहां उस समय जैन संस्कृति विकसित अवस्था में थी। 760 ईस्वी में भट्टारक धर्म कीर्ति के शिष्य आचार्य हेमचन्द्र का यहां निधन हुआ, जिनकी छतरी आज भी विद्यमान है। सन् 776 ईस्वी में पुन: एक जैन मंदिर का निर्माण एवं पंच कल्याणक महोत्सव सम्पन्न हुआ। इसके 175 वर्ष बाद वीरम जी गोधा ने श्री पाश्र्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर का निर्माण व पंच कल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव कराया। यह मंदिर आज भी गोधा गवाड़ी में स्थित है। बारहवीं सदी में ही यह नगर जैन आचार्य जिनदत्त सूरी की कर्मस्थली रहा। उनका देहान्त भी यहीं हुआ और उस स्थान पर आज विख्यात दादाबाड़ी बनी हुई है। इससे पहले का एक दृष्टान्त है कि अजयराज चौहान ने भी पाश्र्वनाथ जैन मंदिर में स्वर्ण कलश चढ़ाया। अजयराज से पृथ्वीराज चौहान (तृतीय) के समय तक अजमेर, नरायना व पुष्कर में जैन विद्वानों के अनेक शास्रार्थ होते रहने के उल्लेख भी इतिहास में मिलते हैं। यहां भट्टारकों की पीठ भी स्थापित की गई और लगभग पांच सौ वर्ष में इन जैन विद्वानों ने हजारों ग्रंथों की प्रतिलिपि तैयार की तथा नये ग्रन्थ भी लिखे। ऐसे कई ग्रन्थ सरावगी मौहल्ला स्थित बड़े मंदिर में सुरक्षित बताए जाते हैं।
सन् 1160 ईस्वी में राजा विग्रहराज विशालदेव चौहान ने जैन आचार्य धर्मघोष की सलाह पर यहां एकादशी के दिन पशुवध पर रोक लगा दी। ऐसे ही 1164 ईस्वी में आचार्य जिनचन्द्र सूरी ने अपने गुरु आचार्य जिनदत्त सूरी की याद में सुन्दर स्तम्भ बनवाया। तत्पश्चात् 1171 में यहां जैन समाज ने विशाल पंच कल्याणक महोत्सव सम्पन्न कराया। इसके बाद पृथ्वीराज चौहान (तृतीय) का पतन होते ही अजमेर की हालत भी बिगडऩे लगी। सल्तनत काल के दौरान तो यहां बहुत अधिक अस्थिरता रही। फिर भी भट्टारकों के द्वारा जैन ग्रंथों का कार्य होता रहा। फिर मुगल मराठा काल में यह नगर 30 से भी अधिक युद्धों का साक्षी बना और सांस्कृतिक दृष्टि से पिछड़ गया। अंग्रेजों के समय यहां पुन: जैन मंदिरों का निर्माण शुरू हुआ और साथ ही साथ जैन संस्कृति को भी विस्तार मिला और अब नारेली गांव में जो ज्ञानोदय तीर्थ विकसित हो रहा है, वह इस शहर में जैन संस्कृति की सनातन विकास परम्परा का ही चरम उत्कर्ष है।

-शिव शर्मा
101-सी-25, गली संख्या 29, नई बस्ती, रामगंज, अजमेर
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