अजमेर की ऐतिहासिकता लगभग दो हजार ईस्वी पूर्व तक के समय का स्पर्श करती है। आर. के. ढोंढियाल द्वारा सम्पादित राजकीय गजेटियर्स में यह उल्लेख मिलता है कि सिन्धु घाटी सभ्यता के दौरान यहां की सीसा खान से सीसा निकाला जाता था। इसी तरह डॉ. मजूमदार और डॉ. गोपीनाथ शर्मा के ऐतिहासिक ग्रन्थों में भी संकेत मिलते हैं कि महाभारत काल के समय भी अजमेर व पुष्कर आबाद थे। एक ब्रितानी लेखक हैबर ने भी उल्लेख किया है कि यह नगर कई बार बसाया गया और अनेक बार उजाड़ा गया। कुल मिलाकर बात यह है कि अजमेर एक प्राचीन नगर है।
अजयमेरु से अजमेर नहीं बना है, क्योंकि भाषा विज्ञान के अनुसार मेरु से मेर नहीं बनता है। मेरु का अर्थ पर्वत होता है और मेर का अर्थ मेढ़ या स्थान होता है। जैसे-जैसलमेर यानि जैसल द्वारा बसाया गया स्थान। ऐसे ही अजमेर यानि राजा अज या अजयपाल द्वारा बसाया गया स्थान। अजयमेरु तो तारागढ़ का पुराना नाम है, जिसका उल्लेख पंडित जयनाक द्वारा लिखित पृथ्वीराज विजय नामक ग्रंथ में मिलता है। यह किला अजयराज चौहान (ग्यारहवीं सदी) द्वारा बनवाया गया अथवा उसके द्वारा इस किले का विस्तार किया गया।
अजमेर शहर के अन्य नाम भी इतिहास व साहित्य की पुस्तकों में मिलते हैं, यथा अनन्तदेश, चश्मानगरी, पद्मावती नगरी आदि। चूंकि यहां चौहान साम्राज्य का दबदबा रहा, इसलिए चौहान राजा अजयराज के नाम पर ही इस शहर का नामकरण अजमेर निश्चित कर दिया गया। अरावली पर्वत के जिस पर्वत शिखर पर चौहान दुर्ग बताया गया, वह मूलत: तो 'बीठली� पहाड़ कहा जाता है। फिर बौद्धकाल में किसी तारक लासा ने यहां तारापीठ स्थापित की और जब चौहानों ने यहां किला बनाया तो वह इस तारापीठ की याद दिलाते हुए तारागढ़ (लोक समाज में) कहा जाने लगा। विख्यात चौहान नरेश अजयराज चौहान के नाम पर चारण भाट इसे अजयमेरु और किले को अजयमेरु दुर्ग कहने लगे। बात को अलंकारित तरीके से लिखने के शौकीन साहित्यकारों ने अजमेर शहर को भी अजयमेरु नगर कहना आरंभ कर दिया जबकि यह शहर पहाड़ पर (अजयमेरु) बसा हुआ नहीं है। शुरू में भी यह पहाड़ की तलहटी में था, पहाड़ पर नहीं।
अब अपने मूल विषय पर आते हैं कि प्राचीन अजमेर में जैन सभ्यता संस्कृति का वर्चस्व था। राजपूताना गजेटियर्स में ही उल्लेख मिलता है कि किसी पद्मसेन नामक राजा ने यहां पद्मावती नगरी बसाई थी। इसका विस्तार पुष्कर, किशनपुरा, नरवर और बड़ली गाँव तक था। लोक समाज में यह बात भी प्रचलित है कि अजमेर से खुण्डियास गांव तक 108 झालरे बजती थी, अर्थात इतने मंदिर थे। ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि इन्द्रसेन नाम के जैन राजा ने यहां 'इन्दर कोट� बनवाया जो आज अन्दर कोट के नाम से जाना जाता है।
किशनपुरा और नरवर में आज भी खुदाई के दौरान जो ईंट और स्तम्भ निकलते हैं, वे जैन मंदिरों व भवनों के अवशेष जैसे लगते हैं। अजमेर के क्रिश्चियन गंज के आगे जो जैन आचार्यों की छतरियां हैं, उनमें प्राचीनतम छतरी छठी-सातवीं सदी की हैं। इसी भांति वर्तमान दरगाह बाजार क्षेत्र में पांचवीं-छठी सदी के दौरान वीरम जी गोधा ने विशाल जैन मंदिर बनवाया था और उसमें पंच कल्याणक महोत्सव भी सम्पन्न हुआ। इससे भी प्रमाणित होता है कि यहां उस समय जैन संस्कृति विकसित अवस्था में थी। 760 ईस्वी में भट्टारक धर्म कीर्ति के शिष्य आचार्य हेमचन्द्र का यहां निधन हुआ, जिनकी छतरी आज भी विद्यमान है। सन् 776 ईस्वी में पुन: एक जैन मंदिर का निर्माण एवं पंच कल्याणक महोत्सव सम्पन्न हुआ। इसके 175 वर्ष बाद वीरम जी गोधा ने श्री पाश्र्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर का निर्माण व पंच कल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव कराया। यह मंदिर आज भी गोधा गवाड़ी में स्थित है। बारहवीं सदी में ही यह नगर जैन आचार्य जिनदत्त सूरी की कर्मस्थली रहा। उनका देहान्त भी यहीं हुआ और उस स्थान पर आज विख्यात दादाबाड़ी बनी हुई है। इससे पहले का एक दृष्टान्त है कि अजयराज चौहान ने भी पाश्र्वनाथ जैन मंदिर में स्वर्ण कलश चढ़ाया। अजयराज से पृथ्वीराज चौहान (तृतीय) के समय तक अजमेर, नरायना व पुष्कर में जैन विद्वानों के अनेक शास्रार्थ होते रहने के उल्लेख भी इतिहास में मिलते हैं। यहां भट्टारकों की पीठ भी स्थापित की गई और लगभग पांच सौ वर्ष में इन जैन विद्वानों ने हजारों ग्रंथों की प्रतिलिपि तैयार की तथा नये ग्रन्थ भी लिखे। ऐसे कई ग्रन्थ सरावगी मौहल्ला स्थित बड़े मंदिर में सुरक्षित बताए जाते हैं।
सन् 1160 ईस्वी में राजा विग्रहराज विशालदेव चौहान ने जैन आचार्य धर्मघोष की सलाह पर यहां एकादशी के दिन पशुवध पर रोक लगा दी। ऐसे ही 1164 ईस्वी में आचार्य जिनचन्द्र सूरी ने अपने गुरु आचार्य जिनदत्त सूरी की याद में सुन्दर स्तम्भ बनवाया। तत्पश्चात् 1171 में यहां जैन समाज ने विशाल पंच कल्याणक महोत्सव सम्पन्न कराया। इसके बाद पृथ्वीराज चौहान (तृतीय) का पतन होते ही अजमेर की हालत भी बिगडऩे लगी। सल्तनत काल के दौरान तो यहां बहुत अधिक अस्थिरता रही। फिर भी भट्टारकों के द्वारा जैन ग्रंथों का कार्य होता रहा। फिर मुगल मराठा काल में यह नगर 30 से भी अधिक युद्धों का साक्षी बना और सांस्कृतिक दृष्टि से पिछड़ गया। अंग्रेजों के समय यहां पुन: जैन मंदिरों का निर्माण शुरू हुआ और साथ ही साथ जैन संस्कृति को भी विस्तार मिला और अब नारेली गांव में जो ज्ञानोदय तीर्थ विकसित हो रहा है, वह इस शहर में जैन संस्कृति की सनातन विकास परम्परा का ही चरम उत्कर्ष है।
-शिव शर्मा
101-सी-25, गली संख्या 29, नई बस्ती, रामगंज, अजमेर
मोबाइल नंबर- 9252270562
अजयमेरु से अजमेर नहीं बना है, क्योंकि भाषा विज्ञान के अनुसार मेरु से मेर नहीं बनता है। मेरु का अर्थ पर्वत होता है और मेर का अर्थ मेढ़ या स्थान होता है। जैसे-जैसलमेर यानि जैसल द्वारा बसाया गया स्थान। ऐसे ही अजमेर यानि राजा अज या अजयपाल द्वारा बसाया गया स्थान। अजयमेरु तो तारागढ़ का पुराना नाम है, जिसका उल्लेख पंडित जयनाक द्वारा लिखित पृथ्वीराज विजय नामक ग्रंथ में मिलता है। यह किला अजयराज चौहान (ग्यारहवीं सदी) द्वारा बनवाया गया अथवा उसके द्वारा इस किले का विस्तार किया गया।
अजमेर शहर के अन्य नाम भी इतिहास व साहित्य की पुस्तकों में मिलते हैं, यथा अनन्तदेश, चश्मानगरी, पद्मावती नगरी आदि। चूंकि यहां चौहान साम्राज्य का दबदबा रहा, इसलिए चौहान राजा अजयराज के नाम पर ही इस शहर का नामकरण अजमेर निश्चित कर दिया गया। अरावली पर्वत के जिस पर्वत शिखर पर चौहान दुर्ग बताया गया, वह मूलत: तो 'बीठली� पहाड़ कहा जाता है। फिर बौद्धकाल में किसी तारक लासा ने यहां तारापीठ स्थापित की और जब चौहानों ने यहां किला बनाया तो वह इस तारापीठ की याद दिलाते हुए तारागढ़ (लोक समाज में) कहा जाने लगा। विख्यात चौहान नरेश अजयराज चौहान के नाम पर चारण भाट इसे अजयमेरु और किले को अजयमेरु दुर्ग कहने लगे। बात को अलंकारित तरीके से लिखने के शौकीन साहित्यकारों ने अजमेर शहर को भी अजयमेरु नगर कहना आरंभ कर दिया जबकि यह शहर पहाड़ पर (अजयमेरु) बसा हुआ नहीं है। शुरू में भी यह पहाड़ की तलहटी में था, पहाड़ पर नहीं।
अब अपने मूल विषय पर आते हैं कि प्राचीन अजमेर में जैन सभ्यता संस्कृति का वर्चस्व था। राजपूताना गजेटियर्स में ही उल्लेख मिलता है कि किसी पद्मसेन नामक राजा ने यहां पद्मावती नगरी बसाई थी। इसका विस्तार पुष्कर, किशनपुरा, नरवर और बड़ली गाँव तक था। लोक समाज में यह बात भी प्रचलित है कि अजमेर से खुण्डियास गांव तक 108 झालरे बजती थी, अर्थात इतने मंदिर थे। ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि इन्द्रसेन नाम के जैन राजा ने यहां 'इन्दर कोट� बनवाया जो आज अन्दर कोट के नाम से जाना जाता है।
किशनपुरा और नरवर में आज भी खुदाई के दौरान जो ईंट और स्तम्भ निकलते हैं, वे जैन मंदिरों व भवनों के अवशेष जैसे लगते हैं। अजमेर के क्रिश्चियन गंज के आगे जो जैन आचार्यों की छतरियां हैं, उनमें प्राचीनतम छतरी छठी-सातवीं सदी की हैं। इसी भांति वर्तमान दरगाह बाजार क्षेत्र में पांचवीं-छठी सदी के दौरान वीरम जी गोधा ने विशाल जैन मंदिर बनवाया था और उसमें पंच कल्याणक महोत्सव भी सम्पन्न हुआ। इससे भी प्रमाणित होता है कि यहां उस समय जैन संस्कृति विकसित अवस्था में थी। 760 ईस्वी में भट्टारक धर्म कीर्ति के शिष्य आचार्य हेमचन्द्र का यहां निधन हुआ, जिनकी छतरी आज भी विद्यमान है। सन् 776 ईस्वी में पुन: एक जैन मंदिर का निर्माण एवं पंच कल्याणक महोत्सव सम्पन्न हुआ। इसके 175 वर्ष बाद वीरम जी गोधा ने श्री पाश्र्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर का निर्माण व पंच कल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव कराया। यह मंदिर आज भी गोधा गवाड़ी में स्थित है। बारहवीं सदी में ही यह नगर जैन आचार्य जिनदत्त सूरी की कर्मस्थली रहा। उनका देहान्त भी यहीं हुआ और उस स्थान पर आज विख्यात दादाबाड़ी बनी हुई है। इससे पहले का एक दृष्टान्त है कि अजयराज चौहान ने भी पाश्र्वनाथ जैन मंदिर में स्वर्ण कलश चढ़ाया। अजयराज से पृथ्वीराज चौहान (तृतीय) के समय तक अजमेर, नरायना व पुष्कर में जैन विद्वानों के अनेक शास्रार्थ होते रहने के उल्लेख भी इतिहास में मिलते हैं। यहां भट्टारकों की पीठ भी स्थापित की गई और लगभग पांच सौ वर्ष में इन जैन विद्वानों ने हजारों ग्रंथों की प्रतिलिपि तैयार की तथा नये ग्रन्थ भी लिखे। ऐसे कई ग्रन्थ सरावगी मौहल्ला स्थित बड़े मंदिर में सुरक्षित बताए जाते हैं।
सन् 1160 ईस्वी में राजा विग्रहराज विशालदेव चौहान ने जैन आचार्य धर्मघोष की सलाह पर यहां एकादशी के दिन पशुवध पर रोक लगा दी। ऐसे ही 1164 ईस्वी में आचार्य जिनचन्द्र सूरी ने अपने गुरु आचार्य जिनदत्त सूरी की याद में सुन्दर स्तम्भ बनवाया। तत्पश्चात् 1171 में यहां जैन समाज ने विशाल पंच कल्याणक महोत्सव सम्पन्न कराया। इसके बाद पृथ्वीराज चौहान (तृतीय) का पतन होते ही अजमेर की हालत भी बिगडऩे लगी। सल्तनत काल के दौरान तो यहां बहुत अधिक अस्थिरता रही। फिर भी भट्टारकों के द्वारा जैन ग्रंथों का कार्य होता रहा। फिर मुगल मराठा काल में यह नगर 30 से भी अधिक युद्धों का साक्षी बना और सांस्कृतिक दृष्टि से पिछड़ गया। अंग्रेजों के समय यहां पुन: जैन मंदिरों का निर्माण शुरू हुआ और साथ ही साथ जैन संस्कृति को भी विस्तार मिला और अब नारेली गांव में जो ज्ञानोदय तीर्थ विकसित हो रहा है, वह इस शहर में जैन संस्कृति की सनातन विकास परम्परा का ही चरम उत्कर्ष है।
-शिव शर्मा
101-सी-25, गली संख्या 29, नई बस्ती, रामगंज, अजमेर
मोबाइल नंबर- 9252270562
Bahut sunder likha gaya hai...good research and composition. Thanks for writing and sharing. Please keep it up. You can send more research to me realated to jainism .... manishjain31@gmail.com
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