विशाल भारत की विशाल सीमाओं पर समय-समय पर घुसपैठ व अतिक्रमण होते-होते अब खंडित भारत का नक्शा हमारे सामने है। कितना संकुचित छोटा भारत जा कर बचा है। भारत की उत्तर-पश्चिम सीमा से प्राचीन समय से आक्रमण होते आए हैं। सिंध प्रांत पर खैबर से आक्रमण होते थे। इस कारण कहावत बन गई कि सिंधुड़ी सिंधुड़ी आप को खैबर से खतरा।
327 वर्ष ईस्वी पूर्व अत्याचारी सिकंदर बादशाह ने अचानक सिंध पर आक्रमण किया। बादशाह सिकंदर बड़ा बलशाली था। उसकी सेना भी अन्य देशों को रौंधती सिंध प्रांत होते हुए सोने की चिडिय़ा भारत को निगलना चाहती थी। लेकिन सीमा पर सिंध और पंजाब की सेनाओं ने इनका कड़ा मुकाबला किया। सिकंदर को घायल कर दिया। अंत में उसने सीमा पर ही प्राण त्याग दिए।
सिकंदर के बाद 163 वर्ष ईस्वी पूर्व मगध, गुजरात, काठियावाड़, पंजाब, मथुरा, सिंध आदि पर मनिन्दर का आक्रमण हुआ। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार मनिन्दर के बाद सात यवन बादशाहों के आक्रमण हुए। उन सब को सिंध के प्राचीन महाराजाओं ने मौत के घाट उतार दिया। इन यवन राजाओं के अलावा तुषार (शक) जाति के राजाओं ने भी आक्रमण किया। संस्कृत ग्रन्थों में इन्हें तुषार, निशक और देवपुत्र के नाम से संबोधित किया गया है। उस समय हिंदुओं की पाचन क्रिया प्रबल थी। उन्होंने इन सब को परास्त कर आत्मसात कर लिया।
सिंध पर अरबों के आक्रमणसे लगभग डेढ़ सदी पूर्व रायदेवल नामक एक हिंदू राजा सिंध पर राज करता था। उसके बाद राय सहरास पहला, राय सहरास दूसरा सिंहासन पर बैठे। राय घराने के उन राजाओं ने कुल 137 साल तक राज्य किया। चच, राय सहिरास दूसरे के मंत्री थे। राजा के मरने के बाद चच ने उनकी विधवा रानी संहदी से विवाह किया और सन् 622 ईस्वी में सिंहासन पर बैठे। राजा चच ने अपने छोटे भाई चंद को प्रधानमंत्री बनाया और स्वयं अपने राज्य की निगरानी करने और भारी सेना साथ लेकर राज्य की सीमाएं बढ़ाने निकल पड़े। थोड़े समय बाद राजा चच मकरान की ओर बढ़े। इस प्रांत पर भी अपना झंडा फहराया। सिंध पर राजा चच का राज्य सन् 671 ईस्वी तक बड़े न्याय, ठाठ और शांति से चला।
दाहरसेन ने बारह वर्ष की अल्पायु में बागडोर संभाली। उनकी तरुणावस्था होने तक उनके चाचा इन्द्र राज्य की व्यवस्था सुचारु रूप से चलाने में सहयोग दे रहे थे, किन्तु ऐसा अधिक समय तक नहीं हो सका। दाहरसेन के सिंहासनारूढ़ होने के छह वर्ष बाद ही इन्द्र की मृत्यु हो गई। तब मात्र 18 साल की आयु में ही राज्य के संचालन की सम्पूर्ण जिम्मेदारी दाहरसेन पर आ गई।
सिंधुपति महाराजा दाहरसेन ग्रीष्मकाल का समय रावर नामक स्थान पर व्यतीत किया करते थे और सर्दी में ब्राह्मणवाद और बसंत ऋतु में अलोर (अरोद्रा) में बिताते थे। पांचवीं सदी से पहले अरब देशों की ओर से हिन्दुस्तान एवं सीमावर्ती प्रांत सिंध पर आक्रमण शुरू हो गए थे। उन दिनों आक्रमणकारियो को बार-बार मुंह की खानी पड़ती थी और जान से हाथ धोना पड़ता था। अंत में 710 ई. में अरब के खलीफा ने अपने नौजवान भतीजे व नाती इमाम अल्दीन मोहम्मद बिन कासिम को सिंध पर आक्रमण के लिए भारी सेना के भेजा। यह सेना कुछ समुद्री मार्ग से और कुछ मकरान के रास्ते सिंध की ओर बढ़ी। अंत में मोहम्मद बिन कासिम का भारी लश्कर 711 ईस्वी में मुहर्रम माह की दसवीं तारीख को सिंध के देवल बंदरगाह पर पहुंचा। धोखा देकर मोहम्मद बिन कासिम ने देवल बंदरगाह को अपने कब्जे में कर लिया। शिरोमणि सिंधुपति महाराजा दाहरसेन भारत के वीर, सरहद के राखा, हिंदू कुल के रक्षक तीरंदाजी में प्रसिद्ध थे। उनके पास भारी मजबूत शूल था, जिसमें सुदर्शन चक्र की तरह चक्र था, जो शत्रु का सिर काट कर वापस चुंबक की तरफ जैसे लोहा आता है, वैसे लौटता था। उन्होंने गांव-गांव संदेश भेज कर सेना बढ़ाई और मोहम्मद बिन कासिम का मुकाबला किया और उनका पीछे खदेड़ दिया। इस पर मोहम्मद बिन कासिम की अरब सेना के कुछ सैनिक महिलाओं के वस्त्र पहन कर सहायता के लिए चिल्लाने लगे। दाहरसेन से फरेब किया गया था। वे दयावश उनकी सहायतार्थ अपनी सेना को छोड़ कर उस करुणा भरी आवाज की ओर बढ़े। अरब सेना ने उन्हें अकेला देख कर उनके हाथी पर अग्नि बाण छोड़े। मस्त हाथी ने नदी में जा कर सम्राट को पटका। वहां अंधेरे में से आपको सैनिक महल में ले आए, जहां 16 जून 712 ईस्वी में आपने शहादत दी। उसके बाद उनकी पत्नी श्रीमती लाडली देवी, दो कन्याओं व बेटे जयसिंह कुमार ने भी बलिदान दिया। इस प्रकार प्रथम स्वतंत्रता सेनानी ने भारत मां को पूरे परिवार के साथ आहुति दी।
सन् 1997 में अजमेर नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष ओंकार सिंह लखावत के अथक प्रयासों वे अजमेर के हरिभाऊ उपाध्याय नगर विस्तार में सिंधुपति महाराजा दाहरसेन का स्मारक खड़ा करवाया। इस रमणीक स्थान पर स्वामी विवेकानंद, गुरु नानकदेव, झूलेलाल, संत कंवरराम एवं हिंगलाज माता की मूर्तियां भी अलग-अलग पहाडिय़ों पर स्थापित करवार्इं। दीर्घाओं में सम्राट दाहरसेन के बलिदानी संघर्ष की कहानी चित्रों में दर्शायी गई है। प्रत्येक प्रतिमा को कांच से ढ़का गया है। यहां आकर्षक फव्वारे और प्राकृतिक गुफाएं देखने लायक हैं। यहा हर साल दाहरसेन के बलिदान दिवस व जयंती पर कार्यक्रम होते हैं। इसके अतिरिक्त यह शहर का दर्शनीय स्थल भी है, इस कारण यहां पर्यटकों आना-जाना रहता है।
-कंवल प्रकाश किशनानी
9829070059
599/9, राजेन्द्रपुरा हाथीभाटा, अजमेर
327 वर्ष ईस्वी पूर्व अत्याचारी सिकंदर बादशाह ने अचानक सिंध पर आक्रमण किया। बादशाह सिकंदर बड़ा बलशाली था। उसकी सेना भी अन्य देशों को रौंधती सिंध प्रांत होते हुए सोने की चिडिय़ा भारत को निगलना चाहती थी। लेकिन सीमा पर सिंध और पंजाब की सेनाओं ने इनका कड़ा मुकाबला किया। सिकंदर को घायल कर दिया। अंत में उसने सीमा पर ही प्राण त्याग दिए।
सिकंदर के बाद 163 वर्ष ईस्वी पूर्व मगध, गुजरात, काठियावाड़, पंजाब, मथुरा, सिंध आदि पर मनिन्दर का आक्रमण हुआ। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार मनिन्दर के बाद सात यवन बादशाहों के आक्रमण हुए। उन सब को सिंध के प्राचीन महाराजाओं ने मौत के घाट उतार दिया। इन यवन राजाओं के अलावा तुषार (शक) जाति के राजाओं ने भी आक्रमण किया। संस्कृत ग्रन्थों में इन्हें तुषार, निशक और देवपुत्र के नाम से संबोधित किया गया है। उस समय हिंदुओं की पाचन क्रिया प्रबल थी। उन्होंने इन सब को परास्त कर आत्मसात कर लिया।
सिंध पर अरबों के आक्रमणसे लगभग डेढ़ सदी पूर्व रायदेवल नामक एक हिंदू राजा सिंध पर राज करता था। उसके बाद राय सहरास पहला, राय सहरास दूसरा सिंहासन पर बैठे। राय घराने के उन राजाओं ने कुल 137 साल तक राज्य किया। चच, राय सहिरास दूसरे के मंत्री थे। राजा के मरने के बाद चच ने उनकी विधवा रानी संहदी से विवाह किया और सन् 622 ईस्वी में सिंहासन पर बैठे। राजा चच ने अपने छोटे भाई चंद को प्रधानमंत्री बनाया और स्वयं अपने राज्य की निगरानी करने और भारी सेना साथ लेकर राज्य की सीमाएं बढ़ाने निकल पड़े। थोड़े समय बाद राजा चच मकरान की ओर बढ़े। इस प्रांत पर भी अपना झंडा फहराया। सिंध पर राजा चच का राज्य सन् 671 ईस्वी तक बड़े न्याय, ठाठ और शांति से चला।
दाहरसेन ने बारह वर्ष की अल्पायु में बागडोर संभाली। उनकी तरुणावस्था होने तक उनके चाचा इन्द्र राज्य की व्यवस्था सुचारु रूप से चलाने में सहयोग दे रहे थे, किन्तु ऐसा अधिक समय तक नहीं हो सका। दाहरसेन के सिंहासनारूढ़ होने के छह वर्ष बाद ही इन्द्र की मृत्यु हो गई। तब मात्र 18 साल की आयु में ही राज्य के संचालन की सम्पूर्ण जिम्मेदारी दाहरसेन पर आ गई।
सिंधुपति महाराजा दाहरसेन ग्रीष्मकाल का समय रावर नामक स्थान पर व्यतीत किया करते थे और सर्दी में ब्राह्मणवाद और बसंत ऋतु में अलोर (अरोद्रा) में बिताते थे। पांचवीं सदी से पहले अरब देशों की ओर से हिन्दुस्तान एवं सीमावर्ती प्रांत सिंध पर आक्रमण शुरू हो गए थे। उन दिनों आक्रमणकारियो को बार-बार मुंह की खानी पड़ती थी और जान से हाथ धोना पड़ता था। अंत में 710 ई. में अरब के खलीफा ने अपने नौजवान भतीजे व नाती इमाम अल्दीन मोहम्मद बिन कासिम को सिंध पर आक्रमण के लिए भारी सेना के भेजा। यह सेना कुछ समुद्री मार्ग से और कुछ मकरान के रास्ते सिंध की ओर बढ़ी। अंत में मोहम्मद बिन कासिम का भारी लश्कर 711 ईस्वी में मुहर्रम माह की दसवीं तारीख को सिंध के देवल बंदरगाह पर पहुंचा। धोखा देकर मोहम्मद बिन कासिम ने देवल बंदरगाह को अपने कब्जे में कर लिया। शिरोमणि सिंधुपति महाराजा दाहरसेन भारत के वीर, सरहद के राखा, हिंदू कुल के रक्षक तीरंदाजी में प्रसिद्ध थे। उनके पास भारी मजबूत शूल था, जिसमें सुदर्शन चक्र की तरह चक्र था, जो शत्रु का सिर काट कर वापस चुंबक की तरफ जैसे लोहा आता है, वैसे लौटता था। उन्होंने गांव-गांव संदेश भेज कर सेना बढ़ाई और मोहम्मद बिन कासिम का मुकाबला किया और उनका पीछे खदेड़ दिया। इस पर मोहम्मद बिन कासिम की अरब सेना के कुछ सैनिक महिलाओं के वस्त्र पहन कर सहायता के लिए चिल्लाने लगे। दाहरसेन से फरेब किया गया था। वे दयावश उनकी सहायतार्थ अपनी सेना को छोड़ कर उस करुणा भरी आवाज की ओर बढ़े। अरब सेना ने उन्हें अकेला देख कर उनके हाथी पर अग्नि बाण छोड़े। मस्त हाथी ने नदी में जा कर सम्राट को पटका। वहां अंधेरे में से आपको सैनिक महल में ले आए, जहां 16 जून 712 ईस्वी में आपने शहादत दी। उसके बाद उनकी पत्नी श्रीमती लाडली देवी, दो कन्याओं व बेटे जयसिंह कुमार ने भी बलिदान दिया। इस प्रकार प्रथम स्वतंत्रता सेनानी ने भारत मां को पूरे परिवार के साथ आहुति दी।
सन् 1997 में अजमेर नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष ओंकार सिंह लखावत के अथक प्रयासों वे अजमेर के हरिभाऊ उपाध्याय नगर विस्तार में सिंधुपति महाराजा दाहरसेन का स्मारक खड़ा करवाया। इस रमणीक स्थान पर स्वामी विवेकानंद, गुरु नानकदेव, झूलेलाल, संत कंवरराम एवं हिंगलाज माता की मूर्तियां भी अलग-अलग पहाडिय़ों पर स्थापित करवार्इं। दीर्घाओं में सम्राट दाहरसेन के बलिदानी संघर्ष की कहानी चित्रों में दर्शायी गई है। प्रत्येक प्रतिमा को कांच से ढ़का गया है। यहां आकर्षक फव्वारे और प्राकृतिक गुफाएं देखने लायक हैं। यहा हर साल दाहरसेन के बलिदान दिवस व जयंती पर कार्यक्रम होते हैं। इसके अतिरिक्त यह शहर का दर्शनीय स्थल भी है, इस कारण यहां पर्यटकों आना-जाना रहता है।
-कंवल प्रकाश किशनानी
9829070059
599/9, राजेन्द्रपुरा हाथीभाटा, अजमेर
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