शनिवार, 1 सितंबर 2012

बेटे नहीं बेटी के माथे पर पगड़ी

भारत में पगड़ी की रस्म से बेटियों को परे रखा जाता है. रस्म है कि पिता के अवसान के बाद पुत्र ही पिता की पगड़ी धारण करता है. लेकिन जयपुर की ज्योति माथुर ने पिता के निधन के बाद पगड़ी की रस्म ऐसे सम्पन्न की जैसे कोई बेटा करता है. ज्योति ने पिता की पगड़ी अपने सिर बाँध बदलाव की इबारत लिखी है. ज्योति कहती हैं वो चाहती है बेटियों को बराबरी का हक़ मिले. जयपुर के महेश नगर में धार्मिक विधि-विधान और मंत्रो के बीच रस्मो रिवाज के अंधेरो से निकली ज्योति यूँ प्रकट हुई जैसे वो बेटियों के लिए रोशनी लेकर आई हो. पिछले दिनों ज्योति के पिता का कैंसर से देहांत हो गया था और ज्योति अपने पिता की अकेली संतान है. लिहाज़ा परिवार की ज़िम्मेदारी ज्योति के कंधो पर ही रही है. मगर जब पगड़ी की रस्म का मौका आया तो सामाजिक रस्म आड़े आ गई. क्योंकि रस्मो रिवाज इस मामले में बेटो की हिमायत करते है. लेकिन ज्योति ने पगड़ी और बेटी के बीच सदियों से बने फासले को मिटा दिया.

पूर्ण समर्थन

नाते रिश्तेदारों की भीड़ जमा हुई और जब पगड़ी की रस्म का अवसर आया, ज्योति ने प्रचलित रस्म का प्रतिकार किया और परिवर्तन की प्रतिमा बन कर खड़ी हो गई. पुरोहित ने मंत्रोचारण किया और ज्योति के माथे पिता की पगड़ी बंधी तो उसके चेहरा बदलाव की रोशनी से दमक उठा. ज्योति ने कहा “मेरे पिता ने हमेशा मुझे बेटे से भी ज्यादा महत्व दिया.उन्होंने बेटी बेटो में कोई फर्क नहीं किया. मगर उनके निधन के बाद पगड़ी का सवाल आया तो मुझे लगा मेरे दिवगंत पिता की ख्वाहिश पूरी होगी, मैं ही पगड़ी की रस्म अदा करुँगी. ये सभी बेटियों के हको का सम्मान है”. ज्योति कहती है कि जब मेरे पिता ने कभी भेद नहीं किया तो समाज में ये बेटियों के साथ ये भेद क्यो? शायद ये पहला मौका था जब बेटी के सिर पिता की पगड़ी बंधी. ज्योति की इस परिवर्तनकारी पहल का परिवार और करीबी रिश्तेदारों ने समर्थन किया. ज्योति के मामा दिनेश कुमार कहते है “ज्योति ने जो किया है,वो सराहनीय है. ज्योति ने कदम बढाया तो उसके पति और ससुराल वालो ने पूरी मदद की और हौसला बढाया. हम ज्योति और उसके ससुराल वालो के जज्बे को सलाम करते है.”

‘धर्म के खिलाफ नहीं’

जयपुर में धर्म शास्त्रों के जानकार पंडित के के शर्मा कहते है कि शास्त्र कभी बेटे बेटी में भेद नहीं करते और ना ही बेटी के लिए पगड़ी पर कोई मनाही है. के के शर्मा के अनुसार “अब समय भी बदल गया है. बेटिया भी घर की जिम्मेदारी निभा सकती है.पहले बेटों को ही पगड़ी रस्म का दस्तूर था. क्योंकि पगड़ी की रसम का अर्थ है परिवार के मुखिया के निधन के बाद पगड़ी के जरिये जिम्मेदारी का अंतरण. पहले बेटिया घर से बाहर नहीं निकलती थी, अब वे बेटो के जैसे सभी जिमेदारियो का निर्वहन करने में सक्षम है. “ पगड़ी को इंसान के रुतबे और इज्जत का प्रतीक माना जाता है, पर जब भी पगड़ी सम्मान के लिए आगे बढ़ी, उसने दस्तार के लिए बेटो के माथे का ही वरण किया. मगर अब समय बदला है. इसीलिए ज्योति ने दस्तूर के माथे बेटियो की दस्तारबंदी की तो रस्मो रिवाज खुद ब खुद झुक गई.

-नारायण बारेठ

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