गुरुवार, 29 दिसंबर 2011
ग्लास चिल्ड्रन
टोकियों में जंमें, दाईसाकु इकेदा सोका गाक्काई के सम्मानीय अध्यक्ष और
सोका गाक्काई इन्टरनेषनल के अध्यक्ष हैं. बौद्ध धर्म के अगुआ, लेखक, कवि
और षिक्षाविद के रूप में एवं बौद्ध धर्म प्रेरित मानवतावाद को केन्द्र में रखकर
उन्होंने षांति, पर्यावरण और षिक्षा के क्षेत्रों में अनेक महत्वपूर्ण कदम उठाये हैं
और इन विषयों पर विष्वविद्यालयों में भाषण दिये हैं. साथ ही वे कई राष्ट्ीय
अंतर्राष्ट्ीय नेताओं और दुनियाके सांस्कृतिक अगुआओं और षिक्षाविदों से
संवादरत रहे हैं. सन 1983 में उन्हें ‘यूनाइटेड नेषन्स पीस अवार्ड’ से
सम्मानित किया गया हैहिन्दुस्तान
में अपनी कई यात्राओं के दौरान, श्री इकेदा ने श्री जयप्रकाष
नारायण, श्री राजीव गांधी और भूतपूर्व राष्ट्पति के, आर. नारायणन से विचारों
का आदान प्रदान किया है और तहे दिल से हमारी समूची पृथ्वी पर षांति और
संपन्नता स्थापित करने के लिए बातचीत की है. उन्हें दुनिया के कई
विष्वविद्यालयों ने सम्मानित ‘डाक्टरेट’ और ‘प्रोफेसरषिप’ से नवाजा है, जिसमें
दिल्ली विष्वविद्यालय द्वारा सम्मानी ‘डाक्टरेट ऑफ लैटर्स’ भी षामिल हैंइन्होंने
सौ से भी अधिक पुस्तकें लिखी हैं, जिनमे षामिल है, उपन्यास ‘दी
हयूमन रिवोल्यूषन’ और ‘चूज लाइफ’, प्रसिद्ध इतिहासकार ए.जे. टॉयन्बी से
संवाद, ‘अपनी दुनिया आप बदलिये’ इत्यादिप्रस्तुत
लेख उनकी पुस्तक ‘ग्लास चिल्डरन’ से अनुवादित है जिसमें कई
वर्षों पूर्व लिखे गये छोटे छोटे निबंध है जिनमें से कुछ ‘वर्ल्ड ट्ब्यिून प्रेस’ द्वारा
सन 1973 में प्रकाषित किये गए थेहमारे
देष की नवयुवक पीढी द्वारा आए दिन आत्महत्याओं का सहारा
लेना समसामयिक समस्या हैं. आपके माध्यम से इस समस्या एवं उसके
निराकरण हेतु प्रयास किया जाय तो उचित होगा. इसी प्रसंग में यह अनुवादित
लेख आपके विचारार्थ प्रस्तुत हैंनाजुक
बच्चें ं
लेखक: दाईसाकु इकेदा
हम सभी नव वर्ष का स्वागत हर्षोल्लास से करते हैे. हालांकि प्रत्येक
युवक-युवतियां, स्त्री-पुरूष एवं बच्चों-बूढों की खुषियां अलग अलग प्रकार की
होती है लेकिन सभी की भावनाओं में खुषियों का इजहार रहता हैं विषेषकर
छोटेंछोटें बच्चें इस अवसर पर स्वप्रेरणा से मंगलमय नववर्ष की कामना करते हैंकुछ
लोग इस त्योैहार का लुत्फ उठाने अपने परिवार के साथ विभिन्न
स्थानों का भ्रमण करते हेै तो कुछ घर मंे ही रहकर अपने परिवार के साथ
खुषियां मनाते हेैं. टीवी के विभिन्न चैनल भी इस अवसर पर अपने अपने
विषेष कार्यक्रम दिखाते हैं. ऐसेही एक मौके पर जब मैं अपने परिवार के साथ
खुषियां बांट रहा हंू तो मैं सोचता हंू कि कितना अच्छा हो कि इस मौके पर
हम एक दूसरे को कोई षिक्षाप्रद लोककथा-कहानी सुनाएं मसलन टॉलस्टाय की
‘मूर्ख ईर्ववान’ की कहानी को ही लें. अगर ऐसी ही मिलती जुलती कहानियां सर्वत्र
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कहीजाय तो जिस तरह के सामाजिक ताने-बाने में आज हम जी रहे है उससे
कही बेहतर वातावरण का निर्माण हमारे इर्द-गिर्द हो सकता हैं. मैं सोचता हूं कि
‘मूर्ख ईर्ववान’ एक ऐसी अमर कथा है जिसकी सर्वत्र आज भी उतनी ही
प्रासंगिकता है जितनी की पहले कभी थीहो
सकता है कि हममें से कई लोगों को यह कहानी पहले से ही ज्ञात होइसके
अनुसार एक देष में एक समृद्ध किसान परिवार में तीन लडकें थे. ईवान
उसमें सबसे छोटा था. उससे छोटी एक गूंगी बहन भी थी. सबसे बडा लडका
सैनिक था. उसकी षादी एक ऐष्वर्यषाली परिवार में हुई थी जो हर बात में
अपनी धाक रखना चाहता था. मंझलें पुत्रका ध्यान हरदम रू.पैसों की तरफ
रहता था. इसके विपरीत ईवान हरवक्त साधारण वेषभूषा में रहता हुआ अपनी
छोटी बहन का ध्यान रखताथा औेर चुपचाप अपनी खेतीबाडी में लगा रहता थासमय
गुजर रहा था लेकिन इस परिवार की खुषी चारजनों के एक
राक्षसदल को नागवार गुजरी. यह चारों हरदम इस युक्ति में लगे रहते थे कि
ईवान और उसके भाइयों में किसी तरह भी मनमुटाव हो औेर उनका परिवार
बर्बाद हो जाय. कहानी तो विस्तार में है लेकिन उसका सारंाष यह है कि ईवान
के दोनो बडे भाई तो राक्षसों की बातों में आ गए लेकिन ईवान पर उनकी बातों
का कोई असर नही हुआ फलस्वरूप जीत ईवान की ही हुई. हालांकि ईवान
दुनियादारी से अनभिज्ञ था लेकिन उसका हर काम सच्चाई एवं ईमानदारी से
प्रेरित होता था. कोई उसके साथ कितनाही दगा करें यह जान लेने पर भी वह
गुस्सा नही करता था उल्टे पलटकर उदारतापूर्वक उसे कहता ‘अरे भाई ! तुम्हें
ऐसा नही करना चाहिए था.’ ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे उसका जंम दूसरों के
प्रति क्षमाभावना प्रदर्षित करने के लिए ही हुआ था. इतनाही नही वह धैर्यवान
भी था और कैसी भी कठिन परिस्थितियां हो उससे वह डिगनेवाला नही था,
सचमुच में वह लोककथाओं का नायक था.
ऐसे ही मिलते जुलते चरित्रवान, जो कभी निराष ना हो, जापान की
कथा-कहानियों में भी मिलजायेंगे. हालांकि ईवान समाजके बनावटी एवं
आडम्बरपूर्ण सामाजिक जीवन के विरूद्ध संघर्ष करनेवाला नायक था लेकिन मेरा
मानना है कि ऐसे चरित्र आधुनिक समाज में कम ही देखने में आते हेैंजैसाकि
हम सबका मानना है कि षिक्षा सिर्फ ऐसी ही नही होनी चाहिए
कि वह बच्चों को एक डरपोक एवं सांचे में ढले हुए सिक्कें की तरह बनायें
बल्कि वह उनको सहिष्णुता, मिलनसारिता एवं आगे बढने की ललक इत्यादि गुणों
से भरपूर बनानेवाली हो. कहने का तात्पर्य यह है कि वह उनमें ईवान जेैसी
ईमानदारी एवं अपने कार्य के प्रति लगन सिखाएंमुझ
े यह देखकर बहुत दुख होता है कि आजकल नवयुवकों-युवतियांे द्वारा
आत्महत्याओं की संख्या बढती जा रही है. कुछ नवयुवक छोटी छोटी बातों से
परेषान होकर घर से भाग जाते है जबकि कइयों को हरदम तरह तरह की
मानसिक चिंताएं घेरे रहती है. लगता है जापान अपनी महत्वता और विष्वास
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खोता जा रहा हेैं. हमारे नवयुवक हमसे दूर होते जा रहे हैंे. इससे हमारे
जापानी सामाज के भविष्य पर भी असर हो रहा है. क्या जापान के वयस्क
लोगों की असफलताओं का असर हमारे नवयुवकों पर भी पड रहा हेै ?
आजकल के नवयुवकों की मुसीबतों के सामने जल्दी ही झुकने की प्रवृति को देख
देखकर मेरे हृदय में बहुत पीडा होती हेै. ऐसा लगता है मानो ये लोग कांच के
बने हुएुए है.ै इनमे दृढता नामकी कोई चीज नही है. ऐसा लगता है कि वे कभी
भी टूट जायेंगे. इसके लिए समाज पर दोषारोपण करना सहज है परन्तु ऐसा
करने से देष का भविष्य नही सुधर जायेगा बल्कि हमें यह देखना होगा कि
गलती कहां है ? औेर हमें इसे दुरस्त करना होगानवय
ुवकों को इतना कमजोर किसने बनाया है ? उन्हें ऐसा क्या
पढाया-लिखाया जा रहा हेै कि वे जीवन की वास्तविकताओं से पलायन कर रहे
है ? इन सब के क्या कारण है ? और कैसे हमें इन्हें सुधारना है ? समाजके
बडें बूडढों को इन सब प्रष्नों पर गम्भीरता से सोचना चाहिए अब केवल चिकनी
चुपडी या थोथी बातों से काम नही चलेगा बल्कि इन समस्याओं पर समुचित
ध्यान देना होगाइस
विषय में एक षिक्षाविद ने मुझे बताया कि आजकल के बच्चें अपनी
रोजमर्रा की जिन्दगी में काफी लापरवाह होते जा रहे है. कुछही बच्चें ऐसे है जो
छोटें छोटें औजार मसलन कैंची अथवा घरेलू चाकू का अच्छी तरह से इस्तैमाल
करना जानते है. बाजार में आधुनिक षार्पनर आजाने से उन्हें चाकूसे पेंसिल
छीलने की आवष्यकता ही नही पडती. इसी तरह उनको कांट छांटकर कोई वस्तु
बनाने के लिए कैंची की आवष्यकता नही होती क्योंकि आजकल बाजार में
प्लास्टिक के बने बनाये ऐसे टुकडें मिल जाते है जिन्हें जोडकर तरह तरह के
खिलौनें बनाये जा सकते हैे. कहने का तात्पर्य यह है कि आधुनिक सुख
सुविधाओं ने हमारे बच्चों को इन छोटे छोटे औजारों के इस्तैमाल से दूर कर
दिया हैपरन्तु
कुछ षिक्षाविदों का यह भी कहना है कि बच्चों को इन छोटे छोटे
ओैजारों से दूर रहने का एक महत्ती कारण यह भी है कि बच्चों की माताएं
स्वयं ही उनको इन कामों से दूर रखती हैे. उनका कहना है कि अगर बच्चें
इनका इस्तैमाल करेंगे तो उनके चोट लग सकती है. इसका नतीजा यह है कि
बच्चें को अगर कोई फल वगैरह भी खाना है तो उसकी मां उसे छीलकर देती
है. इसमें कोई षक नही कि असावधानीपूर्वक इस्तैमाल करने से चाकू अथवा
कैंची इत्यादि से चोट लग सकती है परन्तु बच्चों को इनसे सावधान करना एक
बात है और उन्हें इस वजहसे कुछ ना करने देना दूसरी बात है. उसी षिक्षाविद
ने मुझे बताया कि जब वह ऐसे बच्चों को देखता है, जिसने कभी किसी फल
वगैरह को इनसे नही छीला, तो उसे बच्चेंकी बजाय उसके माता-पिता की,
जरूरत से ज्यादा परवाह करने की, भावना परही तरस आता हैं4
प्रकृति की ओरसे बच्चें कमजोर पैदा नही होते. यह भी सच है कि
मानवषिषु जंम लेतेही अपने पैरों पर खडा नही हो सकता जैसेकि कई जानवरों
के बच्चें हो जाते है. परन्तु यह भी देखा गया है कि समय पर उचित प्रषिक्षण
देने पर नवजात षिषु भी कम उम्र में ही तैरना सीख सकता हैे. कुछ लोगों का
तो यहां तक कहना है कि बिना प्रषिक्षण के भी नवजात षिषु में इतनी साम्मर्थ
होती है कि वह तैर सकें. यह बात दर्षाती है कि क्रियाषीलता मानव का
स्वाभाविक गुण है. यहां मेरे कहने का यह मतलब बिलकुल नही है कि यह
पढकर लोग अपने नवजात षिषु को तैराने लग जाय. मेरा आषय तो सिर्फ
इतना ही है कि माता-पिता की जरूरत से ज्यादा बच्चों के बचाव की भावना से
उनके नैसर्गिक गुणों पर कुठाराघात होता है जिससे उनका स्वाभाविक विकास
रूक जाता है. नतीजतन ऐसे बच्चें जीवनधारा में अच्छी तरह नही तैर पातेहो
सकता है कि मेरी यह बात कुछ अभिवावकों को अच्छी नही लगे
लेकिन यह भी सच है कि कई मायने में बच्चें इतने आलसी नही होते लेकिन
उनके माता पिता अधिक दुलार में उन्हें ऐसा बना देते हैं. यों वैसे देखा जायतो
आधुनिक जमाने में विज्ञान एवं तकनिकी विकास सम्पूर्ण मानवजाति को ही धीरे
धीरे निकम्मा बना रहा है. हममें से कितने व्यक्ति ऐसे है जिनके पास खुदका
औजारों का किट है जिससे वह मरम्मत का छोटा मोटा काम खुद कर सकें ?
मुझे याद है जब मैं किषोरावस्था में था तब हरदम ही मेरे कही न कही
चोट लगती रहती थी. हालांकि अधिकांष समय मैं पारिवारिक कामों में लगा
रहता परन्तु इसके बावजूद मैं मिटटी कीचड में खेलकूद करता रहता था
नतीजतन मेरे षरीर पर मेरे अन्य साथियों की तरह छोटे मोटे घाव होते रहते
थे. यह वह मुष्किल जमाना था जब अधिकतर लोगों को अपनी वस्तुएं स्वयं
बनानी पडती थी. यही आवष्यकता बच्चों को वस्तुओं के बारे में ज्ञान एवं
उत्साह पैदा करती थी जो आगे चलकर उनकी जिन्दगी में काम आती थीपरन्तु
मुझे आष्चर्य है कि आधुनिक समय की माताएं अपने बच्चों में ज्ञान
एवं उत्साह के लिए क्या कर रही है ? जब बच्चें एक समझदारी की उम्र में आ
जाते हेै तो क्यों नही उन्हें चाकू एवं कैंची जैसी चीजों का भली प्रकार इस्तैमाल
करना सिखाती है. हालांकि साथ ही साथ उन्हें यह भी सिखाना है कि औजारों
का इस्तैमाल करते समय क्या क्या सावधानी रखनी है परन्तु अभिवावक इतना
भी नही करेंगे ओैर इसके बजाय स्वयंही उनका यह काम करते रहेंगे तो यह
उनकी बुद्धिमानी नही कही जायेगीवैसे
देखा जाय तो चाकू या कैंची कोई बहुत बडी बात नही है. असली
बात है इन छोटे छोटे कामों में मातापिता पर निर्भरता. अगर बच्चा जिन्दगी में
छोटी छोटी बातों से भी डरेगा या दिक्कतों से दूर भागेगा या ऐसी आषा रखेगा
कि उसकी मुसीबत को कोई और सहले या कोई औेर आकर उस समस्या को
हल करदे तो ऐसे परिवेष में पला बढा बच्चा बडा होकर जिन्दगी के थपेडों को
आसानी से सहन नही कर पायेगा. रोजमर्रा की जिन्दगी में हम ऐसे कई बच्चों
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को देखते है जो बोर्ड के इम्तहान देने के वक्त या किसी इन्टरव्यू में जाते वक्त
अपने साथ अपने अभिवावकों को ले जाते है. ऐसेही नवयुवकों को जब जिन्दगी
में समस्याएं घेर लेती है तो ना तो वह उससे दूर भाग सकते है ना ही कोई
दूसरा उसे झेल सकता है तो वह घबराजाते हेैं. मैं जब भी किसी नवयुवक द्वारा
आत्महत्या की खबर सुनता हंू तो मुझे लगता है कि मैं एक ऐसे नवयुवक की
खबर सुन रहा हंू जिसे उसके अभिवावक ने कभी जिन्दगी की नाव को खेना
नही सिखायाबडों
को चाहिए कि वह छोटों को अपने पांवों पर खडे होना सिखायेंपुराने
समय से ही बडे बूढें कहते आए है कि ‘अगर आप अपने बच्चों ं को
प्यार करते है तो उन्हें किसी यात्रा पर भेेिजिये’ हालांकि ऐसा कहते वक्त उन्हें
बहुतसी चिंताएं घेरे रहती हैे बावजूद इसके लोग अपने बच्चों को होषियारी
सिखाने हेतु ऐसा करते आए हैंलेकिन
मुझे नही लगता कि आजकल के अभिवावक ऐसा करेंगे. वह
षायद इतनाही करले तो बहुत है कि वह अपने रोजमर्रा की जिन्दगीमें बच्चों को
स्वयं अपना कामकाज करने की आदत डलवाले परन्तु क्या यह सच नही है कि
वह ठीक इसका उल्टा कर रहे है ? वास्तव में होता यह है कि ठीक अलसुबह
वह उसको उसके हाथों से काम करने से रोकते है तो सांयकाल उसको पैरों पर
चलने से निरूत्साहित करते हेैे, दोपहर को उसे धूप से बचाकर रखने की
कोषिष करते है तो रात्रि को ठन्डी हवा से उसका बचाव करते मिलेंगे. कहने
का तात्पर्य यह है कि वह अपने बच्चों को इस तरह बना देते है कि वह पूर्णतः
छुईमुई का पौधा बनकर रह जाता है ओैर इस तरह परवरिष किए हुए बच्चें का
जब जिन्दगी की वास्तविकताओं से सामना होता हेै तो वह कोई कठिनाई के पूरी
तरह से आने के पूर्वही घबरा जाता हैं. अगर अभिवावक ने उसे कठिन
परिस्थितियों में धैर्यपूर्वक उसका सामना करना नही सिखाया है औेर अगर वह
जिन्दगी में विषम परिस्थिति आने पर आत्महत्या की ओर अग्रसर होता है तो
कही न कही इसके लिए उसके मातापिता भी दोषी हैंउदाहरण्
ाार्थ मानलें कि एक छोटा बच्चा चलते चलते गिर पडता हैे औेर
अगर मातापिता में से कोई फौरनही दौडकर उसे उठा लेता है तो मैं इस तरह
के व्यवहार को बहुत अच्छा नही कहूंगा लेकिन अगर वह उस बच्चें को अपनी
हालत पर योंही छोड देते हेै तो वह भी ज्यादा ठीक नही हेै. सही अभिवावक
वह है जो बच्चें के गिरने की चिंता तो करते है लेकिन साथ ही साथ उसे वापस
अपने आप उठने की प्रेरणा भी देते हैं.
एक बच्चा जो इस तरह गिरता हेै उसे कुछ न कुछ दर्द तो होता ही हैे.
ऐसा होने पर सबसे पहले वह चिल्लाने की तैयारी करता हेै परन्तु इसके पहले
वह अपने मातापिता की तरफ देखता हैे. कहने का तात्पर्य यह है कि हालांकि
उसे कष्ट हुआ हेै लेकिन रोने चीखने के पूर्व वह अपने चारों तरफ देखकर यह
अंदाज लगाता है कि उसे चिल्लाना चाहिए या नही. अगर इस समय आप यह
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कहे कि ओह ! इसके चोट लगी है तो वह जरूर रोयेगा लेकिन अगर उसे यह
सुनाई दे कि ‘कोई बात नही तुमतो बहादुर हो’ तो वह षायद नही रोयेगाहालांकि
यह कोई जरूरी नही कि हरदम ऐसा ही होता है.
ृ यहां मैं आपको यह बताना चाहता हूं कि मैंने स्वयं अतयंत व्यस्त रहने
के बावजूद अपने तीनों लडकों की परवरिष कैसे की है. सबसे बडा लडका 24
साल का है, मंझला 22का और छोटा 19 वर्ष का है. बडें को आप बुद्धिजीवि
कह सकते है. मंझला उत्साहित एवं हंसमुख है जबकि छोटे को स्कूल के दिनों से
ही नक्षत्र विज्ञान में रूचि है. इस समय वह अपने मित्रों के साथ टोकियो के
दक्षिण में एक द्वीप पर है. उसमे वंषानुगत मछुआरे का खून है. वह समुद्र से
बहुत प्यार करता हैपिछले
मई में एक रोज सुबह सुबह ही वह अपने दोस्तों के साथ समुद्र
की सैर पर निकला लेकिन षीघ्रही उॅची 2 लहरों की चपेट में आने से उनकी
नाव उलट गई और जो बोट उनकी सहायता के लिए पीछे पीछे चल रही थी
उसके इंजिन में उसी वक्त कुछ खराबी आ गई. बच्चें जिन्दगी और मौत के
बीच संघर्ष करते रहे ओैर अंत में वही से गुजर रहे एक जहाज ने उनकी जान
बचाई. इतना कुछ होने के बावजूद मेरे लडके ने घर पर आकर कुछ नही
बताया वहतो उसकी मां ने भांपलिया तब कही जाकर सारी घटना का पता लगा
और उसकी मां ने यह बात मुझे बाद में बताईमुझ
े इस बात से कोई आष्चर्य नही हुआ बल्कि मैं उसकी इस बात से
प्रभावित ही हुआ. मैंने इसके बाद भी कभी यह नही चाहा कि मेरे लडकें कुछ
करने हेतु हरदम मेरी ओर ताकते रहे.
मेरे द्वारा की गई घटनाओं के वर्णन से ऐसा प्रतीत हो सकता है कि
बच्चों की षिक्षा में कही न कही कोई कमी है औेर वह यह कि हममें से
अधिकांष को यही नही मालुम कि आखिर षिक्षा का उद्धेष्य क्या है ? मेरे
विचार से षिक्षा का मूल उद्धेष्य ेष्ेष्य है ‘आत्म निर्भर्ररता’. बच्चें सिर्फ उनके
अभिवावकों की ही धरोहेहर नही है वह समाजकी, राष्ट्क्की सम्पति भी है.ै. उनका
स्वयंकंका एक अलग वर्चसर््स्व है,ै, व्यक्तित्व है जिनका अभी पूर्णर्रूरूपेण विकास नही
हुअुआ हेैे.ै. चूंूंिकि उनकी पूर्ण उन्नति होनेना बाकी है अतः हम सबका कर्तव्य है कि
ऐसे समय में ं उनकी मदद की जाय ओैेरैर इसके लिए जरूरी है कि उन्हें ं
आत्मनिर्भर्ररता की ओर बढने हेतेतु प्रा्रोत्ेत्साहित किया जाय.
जापानी भाषा में षिक्षा का पर्यायवाची षब्द है ‘कइयोकू’ इसमे ‘इयोकू’ का
मतलब है पढाना, उॅचा उठाना. हमारे यहां बसंत ऋतु में बीज बोये जाते हेै
जोकि आगे चलकर पौधें का रूप लेते हैं. किसान उनके आसपास की खरपतवार
को हटाता है, उनको खाद-पानी देता है लेकिन यह तमाम खाद-पानी पौधें स्वयं
जमीन से लेते है. पौधें उगाने का मतलब यह है कि उनके उगने का वातावरण
बनाया जाय ताकि वे स्वयं बडे हो सकें, आत्मनिर्भर बन सकें और इसीसे यह
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जापानी षब्द ‘कयोकू’ बना है जिसका मतलब है कि आत्मनिर्भरता का पाठ
पढानाअगर
हम षिक्षा का मूल उद्धेष्य आत्मनिर्भरता बनाले तो उसके तौरतरीकें
बिलकुल स्पष्ट होजायेंगे. हालांकि इस विषय पर काफी परिचर्चा हुई है कि बच्चों
के विकास हेतु कुछ साहसिक कदम उठाये जाय या कुछ और तरीकें इस्तैमाल
किये जाय. इस बात पर काफी वादविवाद भी हुआ है लेकिन मेरा मानना है कि
तरीकों में भलेही मतभेद की गुंजाइष हो लेकिन उद्धेष्य के प्रति कोई मतभेद नही
हैंषिक्ष्
ाा का मूल उद्धेष्य आत्मनिर्भरता ही है. इस उद्धेष्य की पूर्ती हेतु जहां
बच्चों को सघन प्रषिक्षण दिया जाना चाहिए वहां यह भी आवष्यक है कि हम
उन्हें अपने पैरों पर खडा होने के योग्य बनने के लिए वातावरण भी निर्मित
करें. कहने का तात्पर्य यह है कि जब उनकी स्वयं निर्णय लेने की अवस्था प्राप्त
हो उसके पहले उन्हें कठोर अनुषासन में रखा जाना आवष्यक है. ज्यों2 वह
बडें हो उन्हें स्वयं निर्णय लेने की प्रेरणा देनी चाहिए.
परन्तु बहुधा वास्तविक जीवन में हमे ठीक इसका उल्टा होता नजर आता
हेै. जब बच्चा छोटा होता है, अभिवावक उसको मनमानी करने देते हैे लेकिन
अचानक ही एक दिन हम उस पर प्रतिबंध थोपने की कोषिष करते है तब तक
बहुत देर होचुकी होती है. ऐसी परिस्थितियों में उसमें आत्मनिर्भरता की भावना
आने की सम्भावना कम ही रहेगीबच्चें
हालांकि छोटे होते है लेकिन उनमें सीखनेकी प्रबल इच्छा होती हैजो
बात कोई वयस्क सीखने में वर्षों लगा देता है एक बच्चा उसे एक दिन में,
एक महीने में अथवा एक साल में ही सीख सकता हैे और चूंकि वह पूर्वाग्रस्त
नही होता इसलिए सीखी गई बात वह हृदय से ग्रस्त कर लेता है जिसे निकालना
बहुत मुष्किल हैंबच्चें
हर बात में और किसी भी बात में दिलचस्पी ले सकते है. उनकी
दिलचस्पी विवेक रहित होती है. यहां अभिवावक उनकी मदद कर सकते हैेबच्चा
जो भी कहता है माता-पिता उसे ध्यानपूर्वक सुनकर उस पर अपनी
प्रतिक्रिया जाहिर कर सकते है कि क्या उसके हित में है और क्या अहित में
और उसी अनुसार कार्यवाही कर सकते हैइस
तरीके से प्रयास करने से बच्चें का दिमाग ढलने लगता है और धीरे
धीरे उसके व्यक्तित्व का विकास होने लगता है. बेषक इसके साथही बच्चें के
स्वयं के जंमजात गुण, वातावरण इत्यादि का प्रभाव भी होगा परन्तु अभिवावकों
का प्रभाव भी काफी महत्वपूर्ण होता हैंअगर
बच्चें को आत्मनिर्भर बनाना है तो उसे इसके लिए समझदारी दी
जानी चाहिए और यह समझदारी आयेगी जानकारी से, इसके लिए उसके
स्वाभाविक गुणों को विकसित करना होगा. निसंदेह यह सब गुण हरदम
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सर्वोत्कृष्ट रूप में प्राप्त नही किए जा सकते लेकिन अच्छे से अच्छा प्राप्त
करनेका प्रयत्न तो किया ही जाना ही चाहिए.
मैं यहां पर जोर देकर कहना चाहूंगा कि अगर आप बच्चें का सर्वांगीण
विकास करना चाहते है तो आपको उसे ऐसा माहौल देना होगा जोकि काम में
दिलचस्पी एवं प्रतिस्पर्द्धा से भरपूर हो ताकि वह स्वयंमेव आनेवाली कठिनाइयों
को पार करना सीखें और आगे बढेंजब
षिक्षा का उद्धेष्य आत्मनिर्भरता होता है तब अनुषासन का एक
अलगही अर्थ होता है. तब वह सिर्फ ‘यह करो, यह मत करो’ तकही सीमित
नही रहता बल्कि वह बच्चें को सकारात्मक सोच के साथ प्रयत्न करते हुए आगे
बढनेकी प्रेरणा देता है. उदाहरणार्थ मानलें बच्चा कोई ऐसा काम कर रहा है
जिससे कि दूसरों को परेषानी हो रही हो तब सिर्फ उसे षाब्दिक रूपसे मना
करने से ही काम नही चलेगा बल्कि उसे यह सिखाना होगा कि वह यह काम
बंद करके सामनेवाले से क्षमा याचना करें तभी वह अपनी आत्मा की आवाज के
अनुसार आगे बढेगाआप
सोच रहे होंगे कि मैंने यह लेख नव वर्ष के उत्सव की बात करते
हुए प्रारम्भ किया था ओैर उसका समापन बालकों की षिक्षा के विषय पर बात
करते हुए कर रहा हूं परन्तु दोनों में संबंध है. जैसेकि नव वर्ष का उत्सव
सालका प्रारम्भ है तो बालकपन जीवन की षुरूआत है. हमें यह नही भूलना
चाहिए कि यह प्रारम्भिक अवस्थाही सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है इसी से संस्कारों
का एक बडा हिस्सा बनता हैंसदा
की भांति इस वर्ष भी संसार में नव वर्ष के महोत्सव मनाएं जायेंगे.
ऐसे समय प्रार्थना करते वक्त हम किसी षैतान से डरकर सिर्फ ऐसी ईष प्रार्थना
में ही ना लगे रहे कि वह हमें अमुक अमुक वरदान देदें ताकि हमें कुछ परिश्रम
नही करना पडे अर्थात परिश्रम से बचाते हुए भाग्य परही निर्भर ना बनादें. हम
ईष्वर से ऐसे समाज के निमार्ण की प्रार्थना करें जहां परिश्रम का महत्व हो, जहां
हर कोई सिर्फ दूसरों की मदद की ओर ही नही ताकता रहे बल्कि अच्छे से
अच्छा ऐसा काम करे जो स्वयंहित के साथ साथ दूसरों के हित का भी हो और
अगर हम ऐसा कर सके तो इस महोत्सव में चार चांद लग जायेंगे
अनुवादक
-ई. शिव शंकर गोयल,
फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,
प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.
मो. 98737063339
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