सोमवार, 9 जनवरी 2012
इसे मेरी चाहत कहूँ
इसे मेरी चाहत कहूँ
किसी रिश्ते का नाम दूं
या फिर मेरी फितरत कहूं
कुछ तो हैं जो मुझे
दूर नहीं होने देता उनसे
रह रह कर याद आते
जब भी मिलते हँस कर
मिलते
दिल को गुदगुदाते
कुछ वक़्त के लिए गुम
हो जाते
खिले फूल को मुरझाते
उनका अंदाज़ निरंतर
हैरान करता
ना जाने ऐसा क्यूं करते ?
दूर रहकर भी पास लगते
दिल के किसी कौने में
छुपे रहते
इसे मेरी चाहत कहूँ
किसी रिश्ते का नाम दूँ
या फिर मेरी फितरत कहूँ
साली बोली हँसमुखजी से(हास्य कविता)
साली बोली हँसमुखजी से
नाम आपका हँसमुख
फिर भी रोते से क्यों लगते?
हँसमुखजी तुनक कर बोले
छोटे मुंह बड़ी बात
नाम बेचारा क्या करेगा
जिसकी
बीबी तुम्हारी बहन हो
वो हंसता हुआ भी
रोता सा लगेगा
साली को लगा झटका
नहले पर मारा दहला
लपक कर बोली
हूर के बगल में लंगूर
हमेशा लंगूर ही रहता
शक्ल-ओ-सूरत का दोष
फिर भी हूर को देता
दहले पर पडा
हँसमुखजी का गुलाम
तपाक से बोले
गलती मेरी ही थी
तुम्हारी बहन के मुख से
बाहर झांकते दांतों को
मुस्काराहट समझ बैठा
शूर्पनखा को हूर समझ
ज़ल्दबाजी में हाँ कह बैठा
उसको तो सहना ही पड़ता
हूबहू अक्ल शक्ल की
साली को भी अब
निरंतर झेलना पड़ता
नहीं कह सकते वह बात
नहीं कर सकते
वह काम जो तुमको
पसंद है
नहीं कह सकते वह बात
जो सरासर झूठ है
दिन को दिन
रात को रात कहना
हमारी फितरत है
करेंगे नाराज़ बहुतों को
खायेंगे गालियाँ
पर बदलेंगे नहीं हम
नहीं बेच सकते ईमान
तुम्हें खुश करने के लिए
सिरफिरा भी कहोगे
तो खुशी से सुन लेंगे हम
बेईमान
होने से तो अच्छा है
अकेले सर
ऊंचा कर के जीना
खाते रहेंगे ज़ख्म
लोगों के
मगर बनेंगे नहीं
बहरूपिया
इस जन्म में हम
अभी तक आये नहीं,तो कोई बात नहीं
अभी तक आये नहीं
तो कोई बात नहीं
क्या बीतती है दिल पर
कैसे बताएं तुम्हें
फिर हम भी घबराए नहीं
आस दिल की अब तक
पूरी हुई नहीं
अकेले जीने की मजबूरी
अभी ख़त्म हुई नहीं
बेताब दिल
बेचैन आँखों को
राहत मिलेगी
जुदाई कभी तो
मिलन में बदलेगी
उम्मीद
अभी टूटी नहीं
अभी तक आये नहीं
तो कोई बात नहीं
दुनिया बदल गयी,फितरत बदल गयी
दुनिया बदल गयी
फितरत बदल गयी
रिश्तों में कडवाहट
भाई बहन में दूरियां
बढ़ गयी
हवा प्रदूषित हो गयी
चौपाल अब फेस बुक,
ट्विटर पर लगने लगी
अब पेन,
स्याही की चिंता
सताती नहीं
दीपावली मिलन
एस एम एस से होने लगा
मन की
बात कहने के लिए
ब्लॉग मिल गया
चिट्ठी पत्री के लिए
अब इ मेल हो गया
घर का शयन कक्ष
सिनेमा हॉल बन गया
दिन रात टी वी देखना
ज़रूरी हो गया
खेल के मैदानों में
कॉलोनियां बस गयी
खेलने के लिए
कंप्यूटर मिल गए
लडकी की बरात
लड़के के शहर जाने लगी
शादियाँ दो दिन में
निमटने लगी
दुनिया अब इंटरनेट की
मुट्ठी में समा गयी
हज़ार मील दूर से भी
शक्ल चुटकियों में
दिखने लगी
मोबाइल अब मूंछ का
बाल हो गया
छोटे से बड़े तक
हर शख्श के लिए ज़रूरी
हो गया
गाँव शहर में दूरी कम
हो गयी
पैसे कमाने की होड़
बढ़ गयी
लडकियां लडको से
आगे बढ़ रही
संतुष्टी कोसों दूर
चली गयी
दुनिया अब दिखावे की
रह गयी
इमानदारी आंसू बहा
रही
बेईमानों की चांदी
हो रही
राजनीति सत्ता तक
सीमित हो गयी
कर्तव्य,निष्ठा की बातें
पुरानी हो गयी
हमारी तुम्हारी
फितरत बदल गयी
आवाज़ देता हूँ
निरंतर
आवाज़ देता हूँ
दिल से बुलाता हूँ
तुम आती नहीं हो
या तो पहुँचती नहीं
मेरी आवाज़ तुम तक
या मजबूर हो
ज़माने से डरती हो
घबराती हो
कहीं टूट ना जाए
दिल का रिश्ता हमारा
खामोशी से सहती हो
दिन रात तड़पती हो
खुद आकर ले जाऊं
इस इंतज़ार में
बैठी हो
मोहब्बत के पिंजड़े में
मोहब्बत के
पिंजड़े में दिल
चुपचाप ग़मों को
सहता रहता
मजबूरी की
सलाखों के पीछे
दुखी होता रहता
इंतज़ार में
तड़पता रहता
उड़ने को बेचैन
मगर बेबसी में
परेशां होता रहता
कब पैगाम आयेगा?
दीदार उसका होगा
निरंतर ख्यालों में
डूबा रहता
उम्मीद में ना सो
पाता
ना जाग पाता
नए साल का शोर मच रहा है
शुभ कामनाओं का
दौर चल रहा है
नए साल का शोर
मच रहा है
हर व्यक्ति खुश हो रहा है
आस लगाए बैठा हैं
चमत्कार हो जाएगा
सब कुछ बदल जाएगा
इस प्रयास में लगा है
सब बदल जाएँ
पर खुद को
नहीं बदलना पड़े
मैं हैरान हूँ
समझ नहीं आ रहा
सब कैसे बदल जाएगा ?
कैसे समझाऊँ उन्हें ?
फितरत और सोच
बदले बिना
स्वार्थ को छोड़े बिना
कुछ नहीं बदला कभी
अब कैसे बदल जाएगा ?
नए साल में खुद को
बदलो
समय के साथ
सब बदल जाएगा
सोच
स्वछन्द आकाश में
विचरण करने वाली
पिंजरे में बंद कोयल
अब इच्छा से कूंकती
भी नहीं
कूँकना भूल ना जाए
इसलिए कभी कभास
बेमन से कूंक लेती
ना साथियों के साथ
खेल सकती
ना ही अंडे से सकती
खाने को जो दिया जाता
बेमन से खा लेती
उड़ने को आतुर
पिंजरे की दीवारों से
टकरा कर
लहुलुहान होती रहती
लाचारी में जीवन काटती
एक दिन सोचने लगी
इंसान इतना
निष्ठुर क्यों होता है?
खुद के
बच्चों के लिए जान देता
अपने शौक के लिए
निर्दोष पक्षियों को बंदी
बना कर रखता
इश्वर को मानने वाला
पक्षियों को क्यों मारता?
विधि का विधान कितना
निराला है
ताकतवर अपनी ताकत का
उपयोग
अपने से कमज़ोर पर ही
क्यों करता ?
पक्षियों के आँखों से
आंसूं भी तो नहीं आते
कैसे अपना
दर्द कहें किसी को?
अंतिम क्षण तक
घुट घुट कर जीने के सिवाय
कोई चारा भी तो नहीं
शायद परमात्मा उसकी
बात सुन ले
किसी तरह इंसान को
समझ आ जाए
कमज़ोर पर
अत्याचार करना छोड़ दे
उसे फिर से स्वतंत्र कर दे
आकाश में उड़ने दे
तभी मन में विचार आता ,
अब उड़ने की
आदत भी तो नहीं रही
कहीं ऐसा ना हो?
उड़ने के प्रयास में
कोई और
उसका शिकार कर ले
मैं यहीं ठीक हूँ
कम से कम जीवित तो हूँ ,
खाने के लिए भटकना तो
नहीं पड़ता
इश्वर की यही इच्छा है
तो फिर दुखी क्यों रहूँ
सोचते सोचते खुशी में
कोयल कूंकने लगी
तभी मालिक की
आवाज़ आयी
सुनते ही सहम कर
चुपचाप पिंजड़े के कौने में
सिमट कर बैठ गयी
फिर से अपने को बेबस
लाचार समझने लगी
सकारात्मक सोच से फिर
नकारात्मक सोच में
डूब गयी
लोग क्या कहेंगे ?
बड़े मन से मैंने
कोट का कपड़ा पसंद किया
फिर शहर के प्रसिद्द दरजी से
उसे सिलवाया
पहन कर यार दोस्तों के बीच
पहुँच गया
आशी थी सब कोट की
प्रशंसा करेंगे
मेरी पसंद की दाद देंगे
किसी ने प्रशंसा में
एक शब्द भी नहीं कहा
उलटा एक मित्र ने,
कोट को पुराने तरीके का
बता दिया
मन मसोस कर रह गया
आशाओं पर तुषारा पात
हो गया
घर लौटते ही उसे उठा कर
अलमारी में टांग दिया
तय कर लिया
अब उसे कभी नहीं पहनूंगा
जो पैसे खर्च हुए,उन्हें भूल
जाऊंगा
साल भर कोट अलमारी में
टंगा रहा
सर्दी आने पर अलमारी खोली
तो कोट नज़र आया
समारोह में जाना था
मन ने कहा तो
आज फिर उसे पहन लिया
समारोह स्थल पर पहुँचते ही
लोगों से मिलने जुलने लगा
कोट को भूल गया
मुझे यकीन नहीं हुआ
जब किसी ने कहा
आपने बहुत सुन्दर कोट
पहना है
फिर एक के बाद एक
कई लोगों ने कोट की प्रशंसा करी
मैंने भी तय कर लिया
हर समारोह में
इसी कोट को पहनूंगा
घर लौटते समय सोचने लगा
एक व्यक्ति ने कोट की
हँसी उडाई
तो मैंने उसकी बात को
ह्रदय में उतार लिया
कोट को भी मन से उतार दिया
आज इतने लोगों ने कोट की
प्रशंसा करी
तो गर्व से सीना फूल गया
क्यों थोड़ी सी प्रशंसा
सर पर चढ़ती ?
छोटा सा कटाक्ष बुरा लगता
क्यों हम लोगों के कहने को
इतना महत्व देते ?
अपनी पसंद को भी
किसी के कहने से छोड़ देते
ऐसे जीवन का क्या अर्थ?
जिसमें मनुष्य मन की इच्छा से
कुछ नहीं कर सकता
सदा लोग क्या कहेंगे की
चिंता में डूबा रहता
अनमने
भाव से जीता जाता
अपने ज़ज्बातों को कैसे छुपाऊँ?
अपने
ज़ज्बातों को कैसे
छुपाऊँ?
दिल की आग को कैसे
बुझाऊँ
चाहत को सीने में
दबा कर कैसे रखूँ?
ख्यालों के समंदर को
उफनने से कैसे रोकूँ?
ख्वाबों में उनसे कैसे
ना मिलूँ?
हसरतों को मचलने
कैसे ना दूं?
क्यूं ना उनसे ही
पूछ लूं?
ज़रिये नज़्म
हाल-ऐ-दिल बता दूं
या तो वो समझ जायेंगे
ज़रिये पैगाम
अपनी रज़ा बता देंगे
नहीं तो मोहब्बत पर
एक और नज़्म
समझ कर पढ़ लेंगे
मेरे अरमानों को
ठंडा कर देंगे
समाधान
शमशान में
वर्षों से खडा बरगद का
विशालकाय पेड़
आज कुछ व्यथित था
मन में उठ रहे प्रश्नों से
त्रस्त था
विचार पीछा ही नहीं
छोड़ रहे थे
एक के बाद एक
क्रमबद्ध
तरीके से चले आ रहे थे
क्यों उसका
जन्म शमशान में हुआ?
यहाँ आने वाला
हर व्यक्ति केवल जीवन ,
म्रत्यु और वैराग्य की
बात ही करता
उसकी छाया के नीचे
कोई सोना नहीं चाहता
ना ही आवश्यकता से अधिक
रुकना चाहता
शीघ्रता से घर लौटना
चाहता
बच्चे उसके आस पास
नहीं खेलते
ना ही कोई खुशी से
उसके पास आता
ना ही खुल कर हंसता
उसे निरंतर मनुष्यों का
क्रंदन ही सुनना पड़ता
रात में मरघट की शांती
उसे झंझोड़ती रहती
नहीं चाहते हुए भी
राख के ढेर में कुत्तों को
मानव अवशेष ढूंढते
देखना पड़ता
बरगद तय नहीं कर
पा रहा था
क्यों उसे जीने के लिए
शमशान ही मिला ?
क्या वो भी मनुष्यों जैसे
पिछले जन्म के
अपराधों की सज़ा काट
रहा?
या फिर उसके भाग्य में ही
ऐसा एकाकी,नीरस जीवन
जीना लिखा है ?
क्या निरंतर उदास
चेहरों कोदेखना ?
उनकी दुःख भरी बातों को
सुनना
हर दिन रोने बिलखने की
आवाज़ सुनना
उसके जीवन का सत्य है
तभी उसे नीचे बैठे
वृद्ध साधू की आवाज़
सुनायी दी
वो कह रहा था
परमात्मा ने जो भी दिया
जैसा भी दिया
जितना भी दिया
उसे शिरोधार्य करना चाहिए
निरंतर संतुष्ट रहने का
प्रयास करना चाहिए
जब तक जीना है
खुशी से परमात्मा की
इच्छा समझ कर
जीना चाहिए
व्यर्थ ही दुखी होने से
जीवन सुखद नहीं होता
उलटे अवसाद को
निमंत्रण मिलता
जीवन कंटकाकीर्ण
हो जाता
बरगद को लगा
उसे उसके प्रश्न का
उत्तर मिल गया
उसकी व्यथा का
समाधान हो गया
अब क्यों पहचानेगा कोई मुझको?
अब क्यों पहचानेगा
कोई मुझको
सहारा ले कर पहुँच गए
इतनी ऊंचाई पर
दिखता नहीं कोई उन्हें
वहां से
मैं जहां था वहीँ खडा हूँ
हाथ अब भी वैसे ही
बढा रहा हूँ
जिसे लेना है जी भर कर
ले ले सहारा मेरा
निरंतर
सफलता की सीढियां
चढ़ता जा
आकाश कीऊचाइयों को
छूता जा
याद करे तो फितरत
उसकी
नहीं करे तो इच्छा
उसकी
बस इतना सा याद
रख ले
उतरेगा जब भी नीचे
कोई ना पहचानेगा उसे
रोयेगा तो भी
कंधे पर हाथ नहीं
रखेगा
कोई उसके
उसूलों पर चलता हूँ
इमानदारी से जीता हूँ
झूठ नहीं बोलता हूँ
उसूलों पर चलता हूँ
कुछ मुझे धरती से
जुडा हुआ कहते
एक अच्छा
इंसान समझते
कुछ मेरी
इमानदारी पर
शक करते
मेरे उसूलों को
ढकोसला कहते
मुझे परवाह नहीं
कौन क्या कहता ?
मुझे तो जीवन यात्रा में
निरंतर परमात्मा के
उसूलों पर चलना है
इंसान बन कर जीना है
अच्छा लगे या बुरा
किसी के कहने से
अपना सोच नहीं
बदलना है
मत पूछो मुझ से मेरे दिल के अफ़साने
मत पूछो मुझ से
मेरे दिल के अफ़साने
की नहीं मोहब्बत जिसने
वो दर्द-ऐ दिल क्या जाने
ना जानते थे ना पहचानते थे
फिर भी
मुस्करा कर देखा उन्होंने
खिला दिए
फूल मोहब्बत के दिल में
दिखा दिए ख्वाब रातों में
क्या कह रही दुनिया
बेखबर इस से
हम हो गए उनके दीवाने
कब मिलेंगे,पास बैठेंगे
बातें करेंगे,मस्ती में झूमेंगे
इस ख्याल में अब डूबे हैं हम
कोई कहेगाबीमार-ऐ-इश्क हैं
क्या होता है इश्क
जिसने किया वो ही जाने
कब बुझेगी आग दिल की
अब खुदा जाने
हमें तो जीना है
इंतज़ार में उनके
आयेंगे या नहीं वो ही जाने
दिन बदला,तारीख बदली
दिन बदला
तारीख बदली
ना धूप बदली ना ही
हवा बदली
ना ही सूरज,चाँद बदला
ज़िन्दगी भी नहीं
बदलती
कभी होठों पर हंसी
कभी आँखों में
नमी होती
निरंतर नए रंग रूप
में आती
आशा निराशा के
भावों से
अठखेलियाँ करती
चैन की उम्मीद में
बेचैनी पीछा नहीं
छोडती
मुझे हक तो नहीं फिर भी नाराज़ हूँ
मुझे हक तो नहीं
फिर भी नाराज़ हूँ
तुमसे
रिश्तों की दुहाई दूं
या जो वक़्त साथ गुजारा
उसकी याद दिलाऊँ
वजह कुछ भी हो
तुम जानती हो तुम्हारी
रुसवाई वाजिब नहीं
मेरी वफाई पर कोई
दाग नहीं
तुमने ही उकता कर
किनारा कर लिया
इलज़ाम बेरुखी का
लगा दिया हम पर
ये भी ना सोचा कभी
तुम्हारे खातिर ही तो
हम खामोश रहते थे
बदनाम ना हो जाओ
इसलिए मिलने की
कोशिश नहीं करते थे
नहीं जानता मैं चाहता क्या हूँ
नहीं जानता
मैं चाहता क्या हूँ
नए लोगों से मिलता हूँ
उन्हें अपना बनाना
चाहता हूँ
पुरानों को अपने साथ
रखना चाहता हूँ
नए जब पुराने हो जाते
चेहरे साफ़ दिखने लगते
मुझे सवालों से घेरते
सच कह देता हूँ
सच पूछ लेता हूँ
चेहरे से पर्दा हटाने की
कोशिश में मुझसे
रुष्ट हो जाते हैं
खुद से लड़ता हूँ
खुद को समझाता हूँ
निरंतर सोचता हूँ
कैसे अपने साथ रखूँ ?
जितना मनाता हूँ
उतना ही दूर होता
जाता हूँ
असली चेहरे को
पहचानने लगता हूँ
नहीं जानता
मैं चाहता क्या हूँ
हँसमुखजी थे पान के शौक़ीन (हास्य कविता)
हँसमुखजी थे
पान के शौक़ीन
खाते थे
पांच मिनिट में तीन
पीक से भर कर
मुंह हो जाता गुब्बारा
होठ हो जाते लाल
कर रहे थे बात दोस्त से
ध्यान था कहीं ओर
किस्मत थी खराब
पूरे जोर से मारी
उन्होंने पीक की पिचकारी
बगल से जा रही थी
एक भारी भरकम नारी
पीक पडी उसकी साड़ी पर
महिला गयी भड़क
पहले तो दी गालियाँ
फिर चप्पल लेकर दौड़ी
डरते डरते हँसमुखजी ने
दौड़ लगाई सरपट
पैर पडा केले के छिलके पर
फ़ौरन गए रपट
महिला ने भी दे दना दन
मारी चप्पल पर चप्पल
कर दिया मार मार कर
हाल उनका बेहाल
हाथ जोड़ कर पैर पकड़ कर
माफी माँगी
और छुड़ाई जान
कान पकड़ कर कसम खाई
जीवन भर अब नहीं
खाऊंगा पान
डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर"
"GULMOHAR"
H-1,Sagar Vihar
Vaishali Nagar,AJMER-305004
Mobile:09352007181
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें