शनिवार, 12 मार्च 2011

वार्तालाप

गली के कोने पर पड़े कचरे के ढेर के पास एक गाय खाने की वस्तुएं ढूंढकर चर रही थी। थोड़ी देर बाद एक और गाय वहां और वह भी खाने की चीजें ढूंढने लगी। इस दौरान दोनों बातें करने लगीं। पहली- और बहन क्या हाल है? दूसरी- बस चल रहा है। आजकल मकान ज्यादा होते जा रहे हैं, पेड़-पौधे कम होते जा रहे हैं। इंसान बढ़ रहे हैं, इंसानियत घट रही है। जो मिल जाता है चर लेते हैं। पहली- हां बहन, पहले हमें इंसान खाने के लिए रोटी दिया करते थे, लेकिन आजकल ऐसे लोग कम ही बचे हैं जो गाय को माता मानते हैं और खाने को देते हैं। अब तो जगह-जगह कचरे के ढेर मिल जाते हैं, गुजारा करने के लिए उन्हीं में मुंह मारना पड़ता है। इन ढेरों में कई बार प्लास्टिक की थैलियों में भरे हुए खाद्य पदार्थ भी मिल जाते हैं। उसे खाने के लिए प्लास्टिक को फाडऩे में बड़ी मेहनत करनी पड़ती है। कुछ बहनें तो पेट भरने के थैलियों को आधा-अधूरा फाडक़र प्लास्टिक थैली भी चर जाती हैं। मैं उन्हें ऐसा नहीं करने से मना करती हूं, लेकिन वे मानती ही नहीं हैं।
दूसरी- सही कह रही हो बहन, मेरी एक सहेली भी ऐसा ही करती थी। उसने खाने की चीजों के साथ इतनी प्लास्टिक खा ली कि एक दिन उसकी मृत्यु हो गई। कई औरों का अंजाम भी ऐसा ही हुआ है। आज का इंसान खुद की सुविधा के लिए हर वस्तु को प्लास्टिक में पैक करके बेचने लग गया है। छोटी से छोटी वस्तु प्लास्टिक में पैक मिलने लगी है। खरीदने वाला काम की चीज तो काम ले लेता है और प्लास्टिक को फेंक देता है। यही फेंकी हुई प्लास्टिक आज हर नाली-नालों में, गलियों में, सडक़ों पर पड़ी दिख जाती है। इनके कारण नाली-नालों का पानी जाम हो जाता है और वे उफनने लग जाते हैं। प्लास्टिक जल्दी से गलती भी नहीं हैं और इसे जलाओ तो वातावरण में प्रदूषण को बढ़ावा मिलता है। इंसान को चाहिए कि वह इसका इस्तेमाल सोच-समझकर ही करे। इंसान के साथ-साथ प्लास्टिक हमारी भी जान की दुश्मन बनती जा रही है।
पहली- तुमने गौर किया है, कुछ महीनों से कचरे के ढेर में प्लास्टिक की थैलियों में पटकी गई खाद्य सामग्री कम ही देखने को मिल रही है, लगता है इंसान अब अपनी आदत में सुधार करते हुए प्लास्टिक का इस्तेमाल कर रहा है।
दूसरी- चलो अच्छा है, इस प्लास्टिक के कारण अब हमें अपनी सखियों-बहनों को नहीं खोना पड़ेगा।
यह मेरे मित्र श्री प्रवीण कुमार की रचना है