बुधवार, 28 सितंबर 2011

नारी को कितना सहना होता,सिर्फ नारी ही जानती


घर से बाहर निकलती,
मिठाई पर मक्खियाँ भिनकती
वैसे ही मनचलों की नज़रें
उसे घूरती
खाने को लपलपाती रहती
कहीं से सीटी बजती,
कभी कोई फब्ती सुनाई देती
हवास के दीवानों से बचती बचाती
सहमती हुयी,,किसी तरह बस पकडती
बस में भी बहुत कुछ सहती

उसके पास बैठे, उम्मीद में
हर निगाह गिद्ध सी द्रष्टि से देखती
कोई कोहनी शरीर को छूती
किसी हाथ की नापाक हरकत होती
वो निरंतर खून का घूँट पीती
किसी तरह बर्दाश्त करती
उसे नारी क्यूं बनाया
परमात्मा से सवाल करती
सकुशल गंतव्य पर पहुँचने की
दुआ करती
निरंतर आशंकित सहमती
जीवन जीती जाती
खुश किस्मत अपने को मानती
जब तक किसी गिद्ध के चंगुल में
ना फंसती
नारी को कितना सहना होता
सिर्फ नारी ही जानती
डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर" "GULMOHAR"
H-1,Sagar Vihar
Vaishali Nagar,AJMER-305004
(डा. राजेंद्र तेला निरंतर पेशे से दन्त चिकित्सक हैं। कॉमन कॉज सोसाइटी, अजमेर के अध्यक्ष एवं कई अन्य संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। समाज और व्यक्तियों में व्याप्त दोहरेपन ने हमेशा से उन्हें कचोटा है । अपने विचारों, अनुभवों और जीवन को करीब से देखने से उत्पन्न मिश्रण को कलम द्वारा कागज पर उकेरने का प्रयास करते हैं। गत 1 अगस्त 2010 से लिखना प्रारंभ किया है।) उनका संपर्क सूत्र है:- rajtelav@gmail.com www.nirantarajmer.com www.nirantarkahraha.blogspot.com

हमारे यहां शुद्ध व ताजा दूध मिलता है !

आपतो जानते ही है कि आजकल नौकरियां आसानी से मिलती नही
इसलिए नई नई बन रही वैध-अवैध कॉलोनियों में मकान भी बन रहे है और
खूब दुकानें भी खुल रही है. संयोग की बात देखिए ऐसी ही एक नई बसने
वाली कॉलोनी में एक छोटा सा मार्केट बनना षुरू हुआ और उसमें नुक्कड से
छठंे नम्बर की दुकान में एक दूधवाले ने अपना काम धन्धा षुरू किया. धीरे-धीरे
वह मषहूर होने लगा और कॉलोनीवाले भी उसे छठे नम्बर की दुकान से जानने
लगे. कई लोगबाग, गृहस्थी की महिलाएं अक्सर ही अपने बच्चों को यह कह
कर दूध लेने भेज देती कि जा, छठी का दूध लेआ. हालांकि छठी का दूध याद
आ जाना मामूली बात नही है बहरहाल दुकानदार की दुकान चलने लगी तो पास
पडौसवालों ने सलाह दी कि दुकान का साइनबोर्ड बनवालो. रोज रोज की
टोकाटोकी से तंग आकर कुछ दिन बाद दुकानदार ने एक साइनबोर्ड बनवाने की
सोची जिस पर यह लिखा जाना था
‘हमारे यहां षुद्धुद्ध एवं ताजा दूध्ूध मिलता है’ै’
उसने पेंटर से बात की, पेंटर बोला लिखने को तो मैं आप जो कहोगे वह
लिख दूंगा लेकिन आपने दूध की दुकान खोली है तो दूध बेचोगे ही कोई खैरात
तो बांटोगे नही इसलिए मेरी राय में तो ‘मिलता है’ षब्द की जगह ‘बिकता है’
लिखवाये ंतो ज्यादा सही रहेगा, आगे जैसी आपकी इच्छा. दुकानदार को पेंटर
की सलाह जंच गई और उसी के अनुसार नया बोर्ड बनकर टंग गया जिस पर
लिखा था ‘हमारे यहां षुद्धुद्ध एवं ताजा दूध्ूध बिकता है’ै’
लेकिन जैसा कि आप जानते है भाई लोगों को किसी तरह भी चैन नही
है. आप दुनियां में चलकर देख लीजिए, जैसेही बोर्ड टंागा गया पास पडौसवाले
मांगे-बिन मांगे तरह तरह के सुझाव सलाह देने लगे. ऐसे ही एक सज्जन आए
और दुकानदार से कहा ‘मियां ! आपने यहां मार्केट में दुकान खोली है यह बात
सबको मालुम है और आप यहां दूध बेच रहे है यह भी सब जानते है फिर
आपने बोर्ड पर यह ‘हमारे यहां’ षब्द क्यों लिखवाया है ? जो कुछ है आपके
यहां ही है. कही और थोडेही है इसलिए मुझे तो यह अनावष्यक जान पडता हैकृ
पा करके ‘हमारे यहां’ं’ षब्द को हटवादे तो अच्छा रहेगादुकानदार
को यह बात जंच गई. उसने पेंटर को बुलाकर कहा ‘भाईजान
! इस साइनबोर्ड पर से ‘हमारे यहां’ षब्द को हटादेंपेंटर
अब बोर्ड पर लिख लाया ‘षुद्धुद्ध एवं ताजा दूध्ूध बिकता है’ै’
कुछ दिन ग्राहक आते जाते रहे. बोर्ड की तरफ देखते और मुस्कराते. एक
दिन इनमे से एक ग्राहक से रहा नही गया तो सौदा लेने के बाद उसने
दुकानदार से कहा कि यहां मार्केट में जितने भी दुकानदार है सभी अपना2 माल
बेचते है ऐसे ही आप भी दूध बेचते है कोई फोकट में तो देते नही फिर इसमे
लिखने जैसी क्या बात है ? दुकान परतो चीजें बेची ही जाती है अतः आप मेरी
मानो तो बोर्ड परसे ‘बिकता है’ षब्द हटवादें, नाहक ही इतना बडा बोर्ड बनवा
लिया है उल्टा भद्धा और लगता हैदुकान
मालिक भ्रम में पड गया. इतनी बडी सलाह और वह भी बिना
मांगे मुफत में, ऐसा तो मेरे देष में ही हो सकता हैं. उसने उसी समय पेंटर को
बुलाकर सारी बात समझाई और अब नया बोर्ड बनकर आ गया जिस पर लिखा
था ‘षुद्धुद्ध एवं ताजा दूध्ूध’
एक बात ओैर, आजकल हर कॉलोनी में कई छोटे मोटे छुटभैये नेता
कुकरमुत्तें की तरह पैदा होगए है. यह लोग आए दिन हर समस्या पर अखबारों
में स्टैटमेन्ट देते रहते है. हर किसी को तरह तरह की सलाह देना भी इनका
काम है. ऐसे ही एक नेता इस कॉलोनी में भी हैं. एक रोज वह दूध की इस
दुकान पर आ पहुंचें और दुकानवाले से बोले ‘भाई साहब ! आपने अपनी दुकान
पर लगे बोर्ड पर ‘दूध्ूध’ षब्द के पहले यह ‘षुद्धुद्ध एवं ताजा’ षब्द क्यों लिखवाया
है ? इससे तो उल्टा लोगो को षक हो रहा है कि गोया यह षख्स दुकानदार
षुद्ध एवं ताजा दूध ही देता हैे या इसका इरादा कुछ और ही हैे ? मेरी मानो तो
इस बोर्ड परसे ‘षुद्ध एवं ताजा’ षब्दों को हटवादें वरना खामेखा लोगों को षक
होगाअब
दुकानदार घबराया. उसे लगा कि नेताजी ठीक ही कह रहे होंगे
इसलिए उसने तुरन्त बोर्ड को उतरवाया और स्वयं ठेले पर लादकर पेंटर के
पास ले गया और इस बार जो बोर्ड लाकर टांगा गया उस पर लिखा था सिर्फ
एक षब्द ‘दूध्ूध’
अब ग्राहक आते और पहले दुकान के उपर झांकते जहां बोर्ड पर लिखा
था ‘दूध’ ओर उधर नीचे दुकानदार दूध बेच रहा होता. एक बार उसके पडौसी
ने उसे समझाया कि भाई साहब ! यह क्या नाटक कर रहे हो ?
क्यों क्या हुआ ? दूधवाले ने कहा
उपर बोर्ड पर आपने लिखा हुआ है ‘दूध्ूध’ और इधर नीचे आप दूध बेच
रहे है. सबको दिख रहा है, इसमें बोर्ड पर लिखवाने जैसी क्या बात है ? मेरी
मानो तो दूध षब्द लिखवाने की जरूरत ही नही हैइस
पर दुकानदार ने दूध षब्द ही क्या बोर्ड ही हटवाने का ईरादा बना
लिया क्योंकि बिना कुछ लिखवायें बोर्ड टंगवाता तो और किसी के षक के घेरें में
आता. इस तरह लोगों ने बेचारे का पूरा साइनबोर्ड ही हटवा दियाकुछ
दिनों तो ऐसे ही चला लेकिन पब्लिक कहां चुप बैठने वाली थी.उनमे
से कुछ ने पहले कानाफूसी की फिर दुकानदार से कहाकि मियां दुकान पर बोर्ड
तो लगवाइये बिना बोर्ड के दुकान का ‘षो’ नही आता. ग्राहकों को पता नही
पडता कि आपकी दुकान में क्या क्या बिकता है ?
अब आप ही बतायें कि बेचारा दुकानदार क्या करें ?
-ई. शिव शंकर गोयल,
फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,
प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.
मो. 9873706333

मंगलवार, 27 सितंबर 2011

कुछ कुंठाएं जीवन भर दबी रहती


कुछ कुंठाएं
जीवन भर दबी
रहती
बुल बुले सामान
उठती फूटती रहती
निरंतर मन को
विचलित करती
कैसे बाहर निकले?
कोशिश चलती रहती
कोई पथ दिख दे
मन की बात समझ ले
इच्छाएं पूरी करा दे
आँखें निरंतर
खोज में लगी रहती
कुंठा रहित
जीवन की इच्छा
अंतिम सांस तक
समाप्त नहीं होती
कुछ कुंठाएं
जीवन भर दबी
रहती
डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर" डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर" (डा. राजेंद्र तेला निरंतर पेशे से दन्त चिकित्सक हैं। कॉमन कॉज सोसाइटी, अजमेर के अध्यक्ष एवं कई अन्य संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। समाज और व्यक्तियों में व्याप्त दोहरेपन ने हमेशा से उन्हें कचोटा है । अपने विचारों, अनुभवों और जीवन को करीब से देखने से उत्पन्न मिश्रण को कलम द्वारा कागज पर उकेरने का प्रयास करते हैं। गत 1 अगस्त 2010 से लिखना प्रारंभ किया है।) उनका संपर्क सूत्र है:- rajtelav@gmail.com www.nirantarajmer.com www.nirantarkahraha.blogspot.com

रविवार, 25 सितंबर 2011

ऐसे थे हमारे हैड साहब !

हमारे दफतर के बडे बाबूजी यानि हैड साहब यथा नाम तथा गुण थे. हैड
साहब नौकरी लगने के दिनों से ही हर काम में अपनी दिमागी कसरत किया
करते थे. अकसर सरकारी कार्यालय की परम्परा के अनुसार नए नए लगे
बाबूओं को रिसिप्ट-डिस्पैच-पत्र भेजने व प्राप्त करने-के कार्य में लगाया जाता हैं,
इसलिए जब हैड साहब को, हालांकि तब वह हैड नही थे, इस काम में लगाया
गया तो उन्होंने यहां भी अपना दिल दिमाग एक कर दिया. ष्यहां तक कि
उसका असर उनके घर पर भी पडने लग.
एक बार वह किसी के निमंत्रण पर सांयकाल का भोजन करने कही गए,
जाते वक्त घरवाली से कह गए कि तुम खाना खा लेना. जब वह वापस लौटे तो
घरवाली भी खाने के काम से निपट चुकी थी. हैड साहब जब सोने की तैयारी
कर रहे थे, तभी उनका कोई मित्र बाहर से उनके घर आ गया. हैड साहब ने
औपचारिकतावष उससे खाने का आग्रह किया और इस बाबत अपनी बीबी से
बात की. जब उन्हें मालूम हुआ कि बीबी ने कोई रोटी बचाकर नही रखी है तो
वे काफी नाराज हुए. उन्होंने चिल्ला चिल्लाकर सारा पास पडौस इकटठा कर
लिया. उनका कहना था कि जैसे ऑफिस में पत्रों की ‘ओसी’ -ऑफिस कॉपी
अर्थात बचा हुआ पत्र- रखी जाती है तो घर में भी रोटियों की ‘ओसी’ रखी
जानी चाहिए ताकि सनद रहे और वक्त बेवक्त काम आएंरिसीप्ट-
डिस्पैच के बाद उन्हें कार्यालय की लेखा षाखाके बजट बनाने के
काम में लगाया गया था. उन्ही दिनों एक अन्य सैक्षन के ऑफीसर ने इन्हें
बुलाकर पूछा कि तुम क्या काम करते हो ? इस पर इन्होंने तत्काल अपनी बुद्धि
का परिचय देते हुए उत्तर दिया कि सर ! मुझे ‘बुडजट’-बजट- बनाने का कार्य
दिया गया हैं. ऑफीसर ‘बुडजट’ षब्द सुनकर पहले तो थोडा अचकाया लेकिन
बाद में उसे जब बात समझ आई तो वह मुस्कराए बिना नही रह सका और
बोला कि अच्छा-अच्छा आप ‘बुडजट’ बनाते हैं.
पहले नौकरी, फिर षादी की सीढी दर सीढी चढते हुए जब उन्हें पुत्र रत्न
की प्राप्ति हुई तो उन्होंने बडे जोष-खरोष से अपने साथियों को दोपहर के खाने
पर न्यौता दिया. प्रत्येक को निमंत्रण देते हुए कहा कि कल दोपहर हमारे यहां
‘डिनर’ हैं आपको जरूर आना हैं. इधर दोस्तों ने भी जवाब दिया ‘आएंगे भई,
जरूर आएंगे. कल आपके यहां ‘दोपेपहर के डिनर’ पर अवष्य आएंगे’.
नौकरी के ही षुरूआती दिनों की बात है, एक बार एक ऑफीसर को
किसी सरकारी आदेष की प्रति देखनी थी. उन्होंने अपने हैड साहब को बुलाकर
कहा कि आप 5 मई 1969 का सर्कुलर लेकर आओ. अब हैड साहब सारे
कार्यालय में इधर उधर खूब घूम लिए लेकिन उन्हें ऐसा कोई भी पत्र नही मिला
जो, उनकी समझ से, सर्कुलर-गोलाकार- हो, सारे सरकारी कागज पत्र
आयताकार थे. आखिर हार थककर उन्होंने अपनी षंका अपने एक साथी से
जाहिर की कि फाइलों में तो सभी पत्र आयताकार है, सर्कुलर तो एक भी पत्र
नही है, जबकि साहब 5 मई का सर्कुलर मांग रहे है. उनके साथी ने मुस्कराते
हुए उन्हें समझाया कि सरकार के किसी आदेष विषेष को जो सब कार्यालयों
को भेजा जाता है उसे सर्कुलर कहते हैं.
एक बार हैडसाहब को बस द्वारा नजदीक ही किसी जगह जाना था.जब
उस जगह बस पहुंची, तभी वहां उतरने के लिए वे अपनी सीट से उठे. उसी
समय उनके ऑफीसर जिन्हें अचानक किसी काम से कही जाना था बस में घुसेऑफीसर
ने ज्योंही उन्हें सीट से उठते हुए देखा तो षिष्टाचारवष कन्धा
पकडकर बैठा दिया कि अरे-अरे बैठो-बैठो. आग्रह के बावजूद ऑफीसर खडे
रहे. थोडी देर बाद बस अगले स्टॉप पर पहुंची तो हैड साहब फिर उतरने के
लिए अपनी सीट से उठे, लेकिन इस बार फिर ऑफीसर ने उन्हें फिर सीट पर
बैठा दिया. जब बस रवाना हुई तो उन्होंने हैड साहब से पूछा कि ‘आप कहां
जा रहे है ?’
इस पर हैड साहब ने बताया कि ‘मुझे तो पिछले स्टॉप पर ही उतरना
था, आपने मुझे जबरदस्ती वापस बैठा दिया’.
उन दिनों हैड साहब की पोस्टिंग विभाग के मुख्यालय में थी औेर विभाग
में आमूलचूल परिवर्तन होने वाले थे. विभाग बोर्ड के रूप में बदलनेवाला था. जो
भी मुख्यालय में आता बोर्ड की ही चर्चा करता और पूछता कि बोर्ड कब तक
बन जायगा. संयोग से उन्ही दिनों मुख्यालय में भंवरलाल नामक कारपेंटर भी
काम कर रहा था. उसे चीफ इंजीनियर के कमरे में टांगने हेतु लकडी का एक
बोर्ड बनाने हेतु कहा गया था. एक रोज बाहर से एक अधिकारी आया और
बोर्ड के बारे में पूछने लगाा कि बोर्ड कब तक बनेगा ? इस पर हैड साहब ने
बताया कि पिछवाडे भंवरलाल से जाकर पूछ लो कि बोर्ड कब तक बन जाएगाहैड
साहब अपने ऑफीसरों के आदेषों का पालन करने में बडे पाबंद थे
ओैर अक्षर-अक्षर उनका पालन करते थे. एक बार उनके ऑफीसर ने उन्हें
किसी दूसरें स्थान से टं्ककॉल पर कहा कि मैं बस से आ रहा हंू या तो मैं
सांयकाल 6.00 बजे पहुंचूंगा या रात 9.00 बजे, इसलिए ड्ाईवर को बस
स्टैन्ड भेज देना वह देख लेगा. हैडसाहब ने ड्ाईवर को बुलाकर आदेष दिया कि
तुम्हें साहब को लेने बस स्टैन्ड जाना हैे तथा साहबने सांय 6.00 बजे अथवा
रात्रि 9.00 बजे आने को कहा हैं. दोनो ही समय जाकर देखना हेैं. ड्ाईवर
द्वारा यह कहने पर कि मैं 6.00 बजे साहब को लेने पहुंच जाउॅगा और साहब
आ गए तो ठीक वर्ना 9 बजे जाकर देख लूंगा तो हैड साहब ने उससे कहा कि
6.00 बजे भी जाना हेै और 9.00 बजे भी. चाहे साहब 6.00 बजे आएं
चाहे न आएं, साहब का आदेष हैंसमय
के साथ साथ हैडसाहब का काम बढने लगा. वह अक्सर
मिलने-जुलने वालों से कहा करते थे कि ‘मैं आजकल बहुत बूषी-बिजी-हूं’.
इंगलिष में ‘व्यस्त’ माने ‘बिजी’ इस तरह लिखा जाता है कि कम पढा लिखा
व्यक्ति उसे ‘बिजी’ की जगह ‘बूषी’ पढ सकता हैंउन्ही
दिनों उनके मातहत एक बाबू को कार्यालय में मच्छर दिखाई दिए,
उसने अपनी षिकायत लिखकर हैडसाहब को भिजवादी. हैडसाहब ने जब यह
नोटषीट देखी तो उस पर कई प्रष्न पूछ डाले. मसलन मच्छर एक था या कई
कई थे ? वे आज ही दिखाई दिए या पहले भी दिखाई दिए थे ? वे गजेटेड थे
या नान गजेटेड थे ? सीधी भर्ती वाले थे या प्रमोटी थे ? वे कही से ट्ांसफर
होकर तो यहां नही आए ? उनकी ज्वायनिंग रिर्पोट कहां है ? इत्यादि इत्यादि
कई प्रष्न उन्होंने पूछ डाले और मसला फाइलों में ही दबकर रह गयाइसी
तरह एक बार कार्यालय के रिकार्डकीपर को कार्यालय में एक चूहा
दिखाई दिया. उसने पहले तो मौखिक रूप् से हैड साहब को बताया लेकिन उनके
द्वारा जाकर दिए जाने पर रिकार्डकीपर ने उन्हें लिखकर दिया कि रिकार्ड में एक
चूहा दिखाई दिया हैं. अगर वह ऑफिस का रिकार्ड खा गया तो उसकी समस्त
जिमेवारी आपकी, यानि हैड साहब की, होगीहैड
साहब ने इस मामले को गंभीरता से लिया. उन्होंने ऑफीसर को
नोटषीट पर लिखकर भेजा कि कार्यालय के रिकार्ड में एक चूहा देखा गया है,
हो सकता है कि वहां चूहों ने कोई अवैध कॉलोनी बना ली हो अतः इस बारें में
नगर परि द तथा यूआइटी को तत्काल कार्यवाही के लिए लिखना उचित होगाहैड
साहब ने सोचा कि एक बार वहां से जवाब आ जाए तो आगे कार्यवाही
करें. इधर दूसरें ही रोज सफाई करते हुए रामू सफाई वाले को रिकार्डरूम में
चूहा दिखई दिया तो उसने अपनी झाडू से तत्काल उसे ठन्डा कर दियाकायर्
ालय की चाहरदिवारी पर प्रवेष हेतु एक बडा गेट एवं उसके साथ ही
एक छोटा गेट भी था. अकसर बडे गेट से वाहन एवं छोटे गेट से पैेदल लोग
प्रवेष किया करते थे. एक बार की बात है कि छोटे गेट की चाबी चौकीदार से
खोगई इसलिए वह उसे खोल नही पाया सिर्फ बडा गेट ही खुला था. जब हैड
साहब कार्यालय आए तो रोज की तरह उन्होंने छोटेगेट से प्रवेष करना चाहा
लेकिन वह बन्द था. उन्होंने चौकीदार को बुलाया और गेट नही खुलने का
कारण जानना चाहा जब चौकीदार ने उन्हें बताया तो उन्होंने कहा कि अब
लोग अंदर कैसे आएंगे ?
इस तरह के सैकडों किस्सें लिए हैड साहब कुछ ही दिनों पूर्व रिटायर हुए हैंई.
षिव षंकर गोयल
फलेट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स
सोसायटी, प्लाट न. 12, सैक्टर न.10,
द्वारका, दिल्ली- 75.
मो. 9873706333

कोई मोहब्बत ना करे


आशिक ने दम तोड़ा
लोगों ने घर का
दरवाज़ा तोड़ा
लाश को बाहर निकाला
दाढी बड़ी हुयी थी ,
सूरत पिचक गयी थी
आँखें गड्डे में धंस गयीं थी
निरंतर भूखे रहने से
जिस्म कंकाल हो गया था
कमरे में देखा तो
चंद सूखे हुए फूल
करीने से रखे थे
ढेर सारे खत कमरे में
बिखरे पड़े थे
हर दीवार पर माशूक का
नाम लिखा था
कमरा उसकी
तस्वीरों से भरा था
अंतिम इच्छा का
एक खत
अलग से पडा था
उसमें लिखा था
सारे फूल ,
सारे खत,सारी तसवीरें
मेरे साथ दफ़न कर देना
मेरी मज़ार पर लिख देना
कोई मोहब्बत ना करे
करे तो बेवफायी से ना डरे
अंजाम के लिए तैयार रहे
मेरी कब्र की बगल में
तुम्हारी भी कब्र बना लेना
मोहब्बत की कीमत
तुम भी चुका देना

डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर"
डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर" (डा. राजेंद्र तेला निरंतर पेशे से दन्त चिकित्सक हैं। कॉमन कॉज सोसाइटी, अजमेर के अध्यक्ष एवं कई अन्य संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। समाज और व्यक्तियों में व्याप्त दोहरेपन ने हमेशा से उन्हें कचोटा है । अपने विचारों, अनुभवों और जीवन को करीब से देखने से उत्पन्न मिश्रण को कलम द्वारा कागज पर उकेरने का प्रयास करते हैं। गत 1 अगस्त 2010 से लिखना प्रारंभ किया है।) उनका संपर्क सूत्र है:- rajtelav@gmail.com www.nirantarajmer.com www.nirantarkahraha.blogspot.com

शनिवार, 24 सितंबर 2011

मेरी बात सुनकर दांत मत दिखाइये

बताते हैं कि किसी स्थान पर एक परिवार की चार पीढिय़ां गुजर गईं, लेकिन परिवार वालों के दांत नहीं उगते हैं। यह बडी दिलचस्प खबर है। आप तो जानते ही हैं कि दांत शरीर के अन्य अवयवों के मुकाबले में ज्यादा ही धोखेबाज होते हैं। जन्म के समय आपके साथ आयेंगे नहीं, चोला छोड़ोगे तब तक साथ रहेंगे नहीं और तो और बीच में भी एक-दो बार अपना रंग-रूप बदल देंगे। अब आप ही बताइये ऐसों का क्या विश्वास, क्या ठिकाना?
इस बारे में गोस्वामीजी ने रामायण के सुन्दर कांड में इसका खुलासा किया है। जब हनुमानजी सीता माता की खोज में लंका गए थे, तब वहां उनकी मुलाकात विभीषण से होती है। दोनों में वार्तालाप होता है। पहले हनुमानजी अपना परिचय देते हैं, उसके बाद विभीषण अपनी बात उनको बताता है और कहता है:-
'सुनउं पवनसुत रहिन हमारी,
जिमि दसनन्हि महु जीभ बिचारीÓ
अर्थात हे! हनुमानजी हमारा रहना भी क्या रहना? हम तो लंका में ऐसे रहते है जैसे दांतों के बीच में जीभ रहती है। विद्वान लोग इस बात का कई प्रकार से गूढ़ अर्थ निकालते हैं और बताते हैं कि विभीषण ने अपनी उपमा जीभ एवं दांतों की उपमा राक्षसों से क्यों की? सब जानते हैं कि दांत दगाबाज होते हैं, सर्वथा साथ नहीं देते और बीच-बीच में अपना स्वरूप बदलते रहते है। दांतों का काम चीरना, फाडऩा, कुचलना है और ये सभी लक्षण राक्षसों के हैं। अब बताइये कि अगर किसी परिवार को अपने आप दांतों अर्थात राक्षसों से छुटकारा मिल गया तो उसे तो अल्लाह का शुक्रगुजार होना चाहिए न?
यह भी सब जानते हैं कि दांत नहीं होने की वजह से व्यक्ति को अधिकतर किसी न किसी पेय पर निर्भर रहना पड़ता है। यह तो उल्टे अच्छी बात है। इक्कीसवी सदी में चारों तरफ तरह-तरह के पेय पदार्थों का जोर है। आए दिन टी.वी. पर अपने फिल्मी और क्रिकेट सितारे विभिन्न पेय की बोतलें लिए उछलकूद करते रहते हैं और कहते है 'ये दिल मांगे मोरÓ। इतना ही नहीं, एक टी. वी. विज्ञापन में तो विशेष पेय पदार्थ 'सोमरसÓ के लिए एक सितारा दावा करता है कि 'हम सोमरस पीनेवालों की बात ही कुछ और है।Ó हां भाई, वास्तव में आप पीने वालों की तो बात ही कुछ और है। सोमरस पीकर ही कई लोग बड़ी बडी 'बहादुरीÓ के कारनामे कर रहे हैं।
अगर किसी व्यक्ति के दांत नहीं हैं तो बचपन में किसी से झगड़ा होने पर किसी ने उसे धमकी नहीं दी होगी कि तेरी बत्तीसी तोड़ दूंगा क्योंकि जब कोई चीज होगी ही नहीं तो तोड़ेगा क्या?
बत्तीसी की बात पर एक किस्सा याद आ गया। दो व्यक्ति लड़ रहे थे। तीसरा व्यक्ति आया और बीच में पड़ कर उन्हें छुड़ाने लगा। लड़ते-लड़ते पहला बोला मैं तेरे बत्तीस तोड़ दूंगा तो दूसरे ने कहा कि मैं चौंसठ तोड़ दूंगा। इस पर वहां खड़े तमाशबीनों में से एक ने पूछा कि दांत तो बत्तीस ही होते हंै, आप चौंसठ कैसे तोड़ दोगे तो उसने जबाब दिया कि बत्तीस मुझसे लडऩे वाले के और बत्तीस बीच में टपकने वाले के।
यह परिवार तो भाग्यशाली है जो इन सब से बच गया वर्ना रोज-रोज की धमकियां कौन सुने? बिना दांत वाला किसी पर भी चाहे जितना हंस ले, उसे कौन डांट पिला सकता है कि 'क्यों बत्तीसी दिखा रहे हो ?Ó उसे तो खूब जम कर हंसना चाहिए। दस तरह की स्टाइल है, किसी भी हास्य क्लब में जाकर यह स्टाइल सीख लें।
आदमी की जिन्दगी में दांतों की अमूमन एक उम्र मुकर्रर है। पहले दूध के दांत आयेंगे, फिर दूसरे दांत आयेंगे, फिर 16 से 18 की उम्र के बीच अक्ल दाढ़ आयेगी अर्थात उसमें अक्ल आनी शुरू होगी। बिना दांत वाले इस परिवार पर यह कोई पाबंदी नही है। सबसे बड़ा फायदा तो इस परिवार वालों को यह है कि यह हाथी और नेताओं की पंक्ति में नही हैं। हाथी के दो तरह के दांत होते हैं, खाने के और दिखाने के और। जैसे कई नेताओं के दो रूप होते हैं, दिखने के और एवं असली में कुछ और।
कहते हैं कि आदमी गुस्से में दांत पीसता है, लेकिन जब दांत होंगे ही नहीं तो क्या पीसेगा? और जब दांत पीसेगा नहीं तो गुस्सा जहां से आया था, वही चला जायेगा। बंदर और कभी-कभी आदमी दांतों से ही घुड़की, झूठ-मूठ का गुस्सा दिखाता है। दांत न होने की अवस्था में इस समस्या से भी बच गए। इन सब के अलावा बचपन में दांत निकलने से लेकर बुढ़ापे में दांत गिरने की अनगिनत-सी तकलीफों से भी सामना नहीं होगा., क्योंकि न होगा बांस तो न बजेगी बांसुरी। इसलिए अगर किसी परिवार में किसी के दांत नहीं आए हैं तो यह सुनकर आपको दांत दिखाने, खीसें निपोरने, की आवश्यकता नही है।
-ई. शिव शंकर गोयल,
फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,
प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.
मो. 9873706333

शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

कोई मेरे पंख लगा दे


कोई मेरे
पंख लगा दे
मुझे उड़ना सिखा दे
सपनों की दुनिया से
यथार्थ की दुनिया में
पहुंचा दे
मेरा भ्रम मिटा दे
मुझे सत्य से अवगत
करा दे
उद्वेलित ह्रदय को
प्रेम से भर दे
उदिग्न मन को
शांत कर दे
निरंतर चैन से
जीने दे
कोई मेरे

पंख लगा दे
मुझे उड़ना सिखा दे


कुछ लोग छिप कर मुस्काराते
कुछ लोग
छिप कर मुस्काराते
अकेले में याद करते
ख़्वाबों में खोते हैं
निरंतर खुद भी तड़पते
चाहने वालों को भी
तड़पाते
किस बात से शरमाते ?
क्यों इतना घबराते हैं ?
ज़ज्बात को छिपाते
कोई समझाए उन्हें
क्यों दर्द-ऐ-दिल
बढाते ?

जाने से अनजाने अच्छे जाने से
अनजाने अच्छे
देख कर मुस्काराते
ना शक रखते
ना कयास लगाते
ना खार खाते
ना मतलब ढूंढते
दिल की बात को
ध्यान से सुनते
निरंतर तहजीब से
पेश आते
ना उम्मीद करते ,
ना उम्मीद देते
खुशनुमा बातों से
होंसला बढाते
कुछ लम्हों के लिए
ही सही
दिल को सुकून देते
डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर" (डा. राजेंद्र तेला निरंतर पेशे से दन्त चिकित्सक हैं। कॉमन कॉज सोसाइटी, अजमेर के अध्यक्ष एवं कई अन्य संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। समाज और व्यक्तियों में व्याप्त दोहरेपन ने हमेशा से उन्हें कचोटा है । अपने विचारों, अनुभवों और जीवन को करीब से देखने से उत्पन्न मिश्रण को कलम द्वारा कागज पर उकेरने का प्रयास करते हैं। गत 1 अगस्त 2010 से लिखना प्रारंभ किया है।) उनका संपर्क सूत्र है:- rajtelav@gmail.com www.nirantarajmer.com www.nirantarkahraha.blogspot.com

गुरुवार, 22 सितंबर 2011

हँसमुखजी पत्नी व्रत थे ( हास्य कविता)


हँसमुखजी पत्नी व्रत थे
पत्नी के हिस्से के
सारे काम करते थे
कपडे से
बर्तन तक धोते थे
पत्नी भी
पूर्ण पतीव्रता थी
पत्नी धर्म
श्रद्धा से निभाती थी
रात
कितनी भी हो जाए
ठण्ड
कितनी भी बढ़ जाए
बर्तन धोने के लिए
निरंतर गरम पानी
तैयार रखती थी
जब तक
पूरे ना धुल जाएँ
ना खुद सोती ना
उन्हें सोने देती
रजाई में घुस कर
होंसला बढाती
थक जाओ तो दो कप
चाय बना लेना
पहले मुझे पिला देना
फिर खुद पी लेना
नहीं थको तो आकर
मेरे पैर दबा देना
कह कर पत्नी धर्म
निभाती थी

हमें देख कर मुस्कारायेंगे
ना नज़रें मिलाते
ना देख कर मुस्कराते
निरंतर
चेहरा अपना छुपाते
खामोशी से निकल जाते
निरंतर सवालों के
घेरे में छोड़ जाते
उनकी बेरुखी
हम समझ ना सके
इतने खुदगर्ज़ होंगे
ये भी ना मानते
उनकी भी ज़रूर होगी
कोई मजबूरी
या गलत फहमी होगी
हमें यकीन खुदा पर
इक दिन ये फासला
कम होगा
पाक रिश्तों के
दामन पर
कोई दाग ना होगा
वो चेहरा फिर से
दिखाएँगे
हमें देख कर
मुस्कारायेंगे

कब ऋतु बदलेगी

कब ऋतु बदलेगी
नफरत की आंधी
रुकेगी
बदले की अग्नी
भुजेगी
शस्त्रों की पूजा
बंद होगी
धरती रक्त से लाल
ना होगी
रिश्तों की होली नहीं
जलायी जायेगी
प्यार भाईचारे की
दीपावली आयेगी
निरंतर प्रेम की हवा
बहेगी
इंसान के जीवन में
खुशी होगी


डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर" (डा. राजेंद्र तेला निरंतर पेशे से दन्त चिकित्सक हैं। कॉमन कॉज सोसाइटी, अजमेर के अध्यक्ष एवं कई अन्य संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। समाज और व्यक्तियों में व्याप्त दोहरेपन ने हमेशा से उन्हें कचोटा है । अपने विचारों, अनुभवों और जीवन को करीब से देखने से उत्पन्न मिश्रण को कलम द्वारा कागज पर उकेरने का प्रयास करते हैं। गत 1 अगस्त 2010 से लिखना प्रारंभ किया है।) उनका संपर्क सूत्र है:- rajtelav@gmail.com www.nirantarajmer.com www.nirantarkahraha.blogspot.com

शनिवार, 17 सितंबर 2011

चुनाव की सरगर्मी और अजमेर

वैसे तो भूतपूर्वकाल में राजनीतिक जागरूकता में यह नगर कभी भी किसी से पीछे नही रहा, लेकिन कालांतर में दोनों ही प्रमुख दलों के चुने हुए नेताओं की निष्क्रियता की वजह से यह क्षेत्र पिछड़ गया। पहले प्रान्त की राजधानी का दर्जा गया, कोटा-अजमेर, अजमेर-मेड़ता रेलवे की योजनाएं समय से काफी पिछड़ गईं, एचएमटी एवं रेलवे के कारखानों का महत्व कम हुआ और अब एक-एक करके आईआईटी, ऐम्स और आईआईएम हाथ से निकल गए। हालांकि चुनाव आयोग ने इस नगर को फिरकी की तरह पूर्व-पश्चिम से उत्तर-दक्षिण घुमा दिया, लेकिन राजनीतिज्ञों की मानसिकता सिन्धी-मारवाड़ी, गूर्जर-रावत अथवा बनिया-ब्राह्मण से आगे नही बढ पाई है। नतीजतन लोग सीकर, उदयपुर से ही नहीं दिल्ली तक से आकर चुनाव लड़ कर चले जाते हैं। इन सब से छला जाकर भी यह नगर चुनाव के दिनों में भी अपनी विनोदप्रियता से बाज नही आता।
सन् 1947 से लेकर आज तक अधिकांश समय राज करने वाले दल, जिसे यह गलतफहमी है कि सिर्फ उसी ने देश को आजादी दिलाई है, ने पहले बैलों की जोड़ी फिर गाय बछड़े एवं फिर हाथ के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लडा। इस दल के अधिकांश नेता चुनाव के दिनों में भी आम जनता की समस्याओं को चुटकी बजाते ही किस तरह सुलझाते हैं, इसका एक वाकया देखिए-
एक बार नगर की कच्ची बस्ती वालों ने बड़े उत्साह और उमंग से इस दल के नेताओं को अपनी बस्ती में आमंत्रित किया। वहां लोगों ने उम्मीदवार नेताजी का स्वागत करते हुए उन्हें अपने आवास की समस्या बताई। नेताजी ने अपने भाषण में कहा कि समस्या का हल निकालने के लिए आपको उसकी बुनियाद में जाना चाहिए। आगे उन्होंने कहा कि रहने की समस्या का सबसे अच्छा हल है कि हम ईंट-पत्थर के घरों की चिंता छोड़ कर परस्पर एक-दूसरे के दिलों में रहें, इससे आपस में प्यार बढ़ेगा, भाईचारा बढ़ेगा आदि आदि। इस बात पर आमसभा में आगे बैठे हुए बच्चों ने खूब देर तक तालियां बजाईं। इसी दौरान कुछ छुटभैया नेताओं ने भारतमाता की जय और कुछ ने जवाहरलाल नेहरू की जय के नारे भी लगवाये।
चुनाव के दिनों में ही एक बार इसी पार्टी के एक नेताजी सुबह पहले ही जयपुर से चलकर अजमेर पधारे। औपचारिकतावष मेजबान ने उन्हें चाय-पानी के लिए आंमत्रित करते हुए राजस्थानी में कहा, 'नाश्तो करल्योÓ तो मेहमान ने भी बेबाक ढंग़ से जवाब देते हुए उत्तर दिया 'जयपुर में करके आया हूं।Ó इस संवाद को जब वहां खड़े कार्यकर्ताओं ने सुना तो कुछ मुस्कराए, जबकि कुछ अचंभित हुए क्योंकि पिछली रात ही जयपुर में उनके दल के मुख्यालय में टिकट बंटवारे को लेकर मारपीट तक हो गई थी।
आम चुनाव के दिनों की ही बात है। हिन्दू संस्कृति का अकेले दम भरने वाली पार्टी के पंजाब के एक नेता की नया बाजार, मुखर्जी चौक, पर पब्लिक मिटिंग थी। उन्होंने अपने भाषण में शासक दल की नीतियों की मुखालफत करते हुए भाखड़ा नंगल योजना का विरोध किया। उन्होंने लोगों को बताया कि जिस तरह दूध का दही बना कर उसमें से मक्खन निकाल लिया जाता है वैसे ही बांध का पानी जब नंगल बिजलीघर की मशीनों, टरबाइन से निकलेगा तो बिजली बनाने में उसका सारा सत्व सोख लिया जायगा और इसके बाद जो बचा हुआ पानी बाहर निकलेगा वह छाछ के समान होगा, जो किसानों के खेतों को नुकसान पहुंचायेगा। इस रहस्योद्घाटन पर सभा में आए लोगों ने उनको खूब सराहा और उनके ज्ञान की भूरि-भूरि प्रशंसा की।
एक बार एक बड़े नेताजी का दिल्ली से आना हुआ। वह धर्म-कर्म में ज्यादा ही विश्वास करने वाले व्यक्ति थे। जब वह स्टेशन से मेजबान के घर आए तो शिष्टाचारवश अपनी चप्पलें घर के बाहर ही खोलने का उपक्रम करते हुए उन्होंने मेजबान से पूछा 'क्या जूते-चप्पल चलेंगे?Ó तो मेजबान ने उन्हें जवाब दिया कि 'अभी नही, शाम को जब मीटिंग होगी तब चलेंगे।Ó
तीसरा चुनाव-सन् 1962-आते आते नीले ध्वज पर तारे को लेकर एक और पार्टी का उदय हुआ था। इस पार्टी में अधिकांशत: राजा-महाराजा होने के कारण सब करीब-करीब स्वतंत्र ही थे। इन्हें अपने किले, महल, राजपाट एवं प्रिवीपर्स को बनाये रखने की स्वतंत्रता चाहिए थी। उन्हें जब लगा कि उनके हितों पर आंच आने वाली है तो वे पार्टी बना कर आ गए और जनता को नारा दिया कि लोकतंत्र खतरे में है।
चुनाव के दिनों की ही बात है। मदारगेट पर आयोजित शासकदल के एक नेताजी विरोधी दल पर प्रहार कर रहे थे। उन्होंने बताया कि यह पार्टी हर चुनाव में अपना मुद्दा बदल देती है। कभी वह हिन्दी भाषा का मुद्दा पकड़ती है, कभी गाय का। इस विषय में उन्होंने एक पैरोडी की निम्न लाइनें भी सुनाईं-
'जब भी चुनाव आता है,
गाय इनकी माता है,
वरना सालभर, गलियों में,
कौन क्या खाता है,
खाने दो, इनका क्या जाता है ?
गाय इनकी माता है !Ó
आगे उन्होंने बताया कि जहां तक हमारा सवाल है, हम कभी अपने सिद्धांत नही बदलते। हमने अपने घोषणापत्र में वर्षों पहले गरीबी हटाओ का नारा दिया था, हम आज भी उस पर कायम है और आगे भी कायम रहेंगे।
प्रंात के मुख्य 2 दलों के नेता चुनाव के दिनों में कई इलाकों का दौरा करते रहते थे। एक बार शासक दल के एक नेताजी जीप में सवार होकर बीहड़ से निकल रहे थे। रास्ते में डाकुओं के एक दल ने उन्हें रोक लिया, परन्तु नेताजी ने डाकुओं द्वारा 'हैन्ड्स अपÓ कहते ही तुरन्त जवाब दिया और कहा 'स्टाफÓ, जिसका तात्पर्य था कि हम भी आपके ही आदमी हैं। यह सुनते ही डाकुओं ने उन्हें जाने दिया।
'कौन बनेगा करोड़पतिÓ के नवीनतम कार्यक्रम में अमिताभ बच्चन एक प्रश्न पूछते हैं कि निम्नलिखित चारों में क्या समानता है? 1.जयललिता, 2. मायावती, 3. ममता बनर्जी एवं 4.नवीन पटनायक, तो प्रतियोगी ने सही उत्तर देते हुए कहा कि इनमें से किसी ने भी शादी नहीं की है। जैसे कि आप जानते हैं कि हमारे देश की संस्कृति में शादी न करने वाली महिला के नाम के आगे 'सुश्रीÓ लगाया जाता है। ऐसे में एक बार एक राजनीतिक पार्टी की एक नेता अजमेर पधारने वाली थीं। उनके स्वागत हेतु नगरा में आमसभा का आयोजन किया गया था। मंच पर उद्घोषक बार-बार जो घोषणा कर रहा था, वह आप भी सुनिए- 'सुसरी....जी पधारने ही वाली हैं। कृपया आप अपना स्थान ग्रहण कीजिये।
ऐसा नहीं कि सिर्फ दोनों प्रमुख दलों के उम्मीदवार ही चुनाव में खड़े होते रहे हैं। एक बार एक निर्दलीय भी खड़ा हुआ, जिसका चुनावचिन्ह साईकिल था। एक रोज वह अपने समर्थकों के साथ अपना चुनाव प्रचार करता करता एक घर में गया। वहा बड़े से आंगन में एक वृद्धा मां बैठी कुछ काम कर रही थी। उम्मीदवार ने उसे कहा अम्मा, साईकिल का ख्याल रखना। इस पर वृद्धा बोली-बेटा ! कहां खडी की है ? ताला लगाा कर यहां अंदर आंगन में खड़ी कर दे, बाहर से तो कोई ले जायेगा। इस बात पर सभी मुस्कराने लगे और उम्मीदवार झेंप गया।
एक बार जब ब्यावर से प्रसिद्ध क्रंतिकारी नेता स्वामी कुमारानंदजी कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर विधायक बने तो प्रदेष के झुंझुनूं निवासी राजस्थानी के प्रसिद्ध कवि विमलेशजी ने एक कवि सम्मेलन में 'भाग्य कम्युनिस्टां का जाग्या, बीनणी वोट देबां चालीÓ सुना कर श्रोताओं को लोट-पोट कर दिया था।
चुनाव की तैयारियां दोनों तरफ से चलती रहती हैं। चुनाव लडऩे वालों की भी और चुनाव लड़ाने वालों यानि चुनाव आयोग की भी। अब आप दूसरी तरफ की दास्तान सुनिये। एक बार एक सरकारी अधिकारी के नाम जोनल मैजिस्ट्ेट नियुक्त होने के दो-दो ऑर्डर आ गए। एक एम.एल. शर्मा के नाम से और दूसरा मांगीलाल शर्मा के नाम से, और मजे की बात यह कि दोनों में ही उसे वैधानिक चेतावनी दी गई थी कि अगर वह चुनावी डयूटी पर नहीं आया तो उसके विरुद्ध सख्त कार्यवाही की जायेगी।
बहुधा सिविल अधिकारियों को कानूनी एवं पुलिसिया शब्दावली इत्यादि का पूरा ज्ञान नहीं होता। एक बार की बात है कि एक जॉनल मैजिस्ट्ेट बना ऐसा अधिकारी अपने साथ के पुलिस दल को अस्थायी मुख्यालय पर ठहरा कर चुनाव बूथ के दौरे पर था कि उसे डिप्टी कलेक्टर साहब मिल गए। उन्होंने उसे रोक कर पूछा कि जाब्ता कहां है? उस अधिकारी ने जवाब दिया कि उसने अभी तक किसी का कुछ भी जब्त नही किया है। यह सुन कर डिप्टी कलेक्टर साहब को गुस्सा तो आया लेकिन फिर वह मुस्कराते हुए बोले कि जाब्ता यानि आपके साथ के पुलिस दल के बारे में पूछ रहा हूं, तब कहीं जाकर उसने उन्हें बताया।
कई बार अति उत्साह में बड़े अधिकारी ऐसी बात कर बैठते हैं कि स्थिति हास्यास्पद हो जाती है। एक बार की बात है कि एक जोनल मैजिस्ट्ेट पॉलिंग पार्टियों के रवानगी स्थल, पटेल मैदान, अजमेर से उन्हें रवाना कराके उनके गंतव्य स्थान पुष्कर तक छोड़ कर मुख्यालय लौट रहे थे कि रास्ते में एसडीएम साहब मिल गए। एसडीएम साहब ने उन्हें पूछा कि क्या सभी पॉलिंग पार्टियां रवाना हो चुकी हैं, तो जॉनल मैजिस्ट्ेट साहब ने उन्हें बताया कि सर! सब पार्टियां रवाना होकर अपने अपने गंतव्य स्थान तक पहुंच चुकी है। इस पर एसडीएम साहब ने फिर पूछा कि क्या वह रीजनल कॉलेज के चौराहे, पुष्कर एवं अजमेर के बीच की जगह से गुजर चुकी हैं, तो उन्होंने फिर जवाब दिया कि सर! सब पार्टियां अपने-अपने निर्धारित स्थानों पर पहुंच गई है, लेकिन फिर भी एसडीएम साहब यही कहते रहे कि वे पार्टियां रीजनल कॉलेज के चौराहे से गुजरी या नहीं, यह बताया जाए।
चुनाव के दिनों में ही नगर में मुख्यमंत्री का आगमन था, इसलिए मदारगेट पर सार्वजनिक अभिनन्दन किया जा रहा था। मंच पर उद्घोषक स्थानीय कॉलेज के हिन्दी विभाग के प्रोफेसर साहब थे। मुख्यमंत्री जी को मालाएं पहनाने के पूर्व प्रोफेसर साहब ने अपने शुद्ध हिन्दी के लहजे में कहा, 'आदरणीय मुख्यमंत्री जी यह हमारा सौभाग्य है कि आप हमारे नगर में पधारे हैं. अब आप हार स्वीकार कीजिए। उनके इतना कहते ही सभी लोग आश्चर्य से प्रोफेसर साहब की तरफ देखने लगे, लेकिन तब भी उनके समझ में यह नहीं आया कि उन्होंने क्या कह दिया है।
एक बार कांग्रेस के टिकट पर एक वकील साहब ने चुनाव लड़ा। सभी तरह के हथकंडे आजमाने के बावजूद वे हार गए। एक दिन उन्होंने बार रूम में अपने संगी साथियों को उलाहना दिया और कहा कि आपने मुझे वोट नहीं दिया तो उनके मित्रों ने अपनी सफाई देते हुए कहा कि आपने स्वयं ने ही अपने हैंड बिल में छपवाया था कि 'आगामी विधानसभा चुनाव में श्री...... को मत देंÓ, हम आपका हुकम कैसे टालतें?
गनीमत है कि इस क्षेत्र में वैसा वाकया कभी नहीं हुआ, जो एक बार जयपुर के दूदू विधानसभा क्षेत्र में हुआ था। चुनाव से दो रोज पहले एक पोलिंग पार्टी जयपुर से चली और अपने बूथ पर पहुंची। सांयकाल जोनल मैजिस्ट्रेट साहब भी चैकिंग हेतु उस गांव में पहुंचे तो क्या देखते हैं कि एक पियोन को छोड़ कर सभी लोग नदारद हैं। हालांकि वह भी पीए हुए था लेकिन पूछने पर उसने सच सच बता दिया कि सभी लोग पास के रैडलाइट एरिया बांदरासिंदरी गए हैं। जोनल मैजिस्टे्रट साहब जीप में वहां पहुंचे। सभी ने पी रखी थी। किसी तरह पकड़ कर उन्हें वापस उसी गांव में लाए और हिदायत देकर आगे बढ़ गए। दो तीन घंटे बाद मैजिस्टे्रट साहब को लगा कि एक बार और देख लेते हैं कि गोया वह लोग गांव में ही हैं या नहीं। वे वहां पहुंचे तो क्या देखते हैं कि उसी पियोन के अलावा सभी फिर से गायब हैं। वे फिर बांदरा सिंदरी गए तो पूरी पार्टी वहीं अपनी स्वयं की डयूटी पर मिल गई। फिर तो जो होना था वही हुआ।
एक बूथ पर दो पार्टियों के ऐजेंटों के बीच कुछ कहासुनी बढ़ते- बढ़ते झगड़े में बदल गई। हंगामा होते देख पोलिंग पार्टी के पीठासीन अधिकारी वहां से भाग गए। कुछ देर बाद जब शांति स्थापित हुई तो लोगों ने उन्हें पूछा कि आप पीठ दिखा कर क्यों भाग गए थे तो उन्होंने उत्तर दिया कि मैं पीठासीन अधिकारी हूं, इसलिए पीठ दिखा कर भागा था।
इतना सब होने के बावजूद यहां न तो एक बार भी हरियाणा के विधायकों द्वारा किए गए 'आयाराम गयारामÓ जैसा खेल हुआ न ही उत्तरप्रदेश अथवा बिहार के कतिपय हिस्सों में चुनाव बूथों को लूटने की जैसी घटनाएं हुई हैं, तभी तो प्रसिद्ध कवि श्री सूर्यकुमार पांडेय ने अपनी एक कविता में अपने उद्गार निम्न प्रकार से प्रकट किए हैं-
'कतहुं सुरक्षा-चक्र न टूटा,
गुन्डा एकहु बूथ न लूटा.
शातिरवान, पड़ा भय-पटटा,
धरे रह गए लाठी कट्टा.
झींकत रहे सकल भगवंता,
हाय! न बोगस वोट पडंता
अजब गजब परिणाम न आवे,
लीडर देवी देव मनावे.
आश्रम, बाबा, औलियां, पंडित पीर मजार,
दर दर पर सर टेकता, प्रत्याशी बेजारÓ.
-ई. शिव शंकर गोयल,
फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,
प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.
मो. 9873706333

एक अभिनेत्री को हो गया बाबा हँसमुखजी से प्यार


एक अभिनेत्री को
हो गया
बाबा हँसमुखजी से प्यार
उसने खुले आम कर दिया
ऐलान
विवाह उनसे ही करूंगी
पीछा नहीं छोडूंगी
बाबा हंसमुखजी हुए परेशान
भेष बदल कर पहुँच गए
अभिनेत्री के घर
बहन मेरी राखी बांधों
भैया मुझे बना लो
निरंतर रक्षा तुम्हारी
करूंगा
अच्छा सा वर भी ला दूंगा
अभिनेत्री थी बड़ी पटाखा
तुरंत बाबा से बोली ,
मैंने तुम्हें पहचान लिया
बाबा हँसमुख दास
राखी तो बांधूंगी
पीछा फिर भी ना छोडूंगी
शादी तुमसे ही करूंगी
पहले भी मैंने
भाई बनाए हज़ार
बहुतों से किया
बीबी जैसा प्यार
मन भर गया तो ,
कर दिया
लात मार कर बाहर
अब तुम पर दिल आया है
विवाह तुम्ही से रचाना है
यह सुन कर हो गयी
बाबा हँसमुख दास की
सिट्टी पिट्टी गुम
तेज़ी से भाग लिए
बचा कर अपनी दुम
अभिनेत्री के नाम से भी
डरते हैं
भरी गर्मी में भी थर थर
कांपते हैं
बाबा का चोला फैंक दिया
चले गए बहुत दूर
अब ठान लिया है ,
नहीं करेंगे शादी
करे कितना भी कोई
मजबूर

किसे व्यथा ह्रदय की सुनाऊ ?कैसे पीड़ा मन की बताऊँ ? किसे व्यथा
ह्रदय की सुनाऊ ?
कैसे पीड़ा
मन की बताऊँ ?
कौन मेरी मानेगा ?
कौन विश्वाश करेगा?
जब अपने ही
पराया समझने लगे
निरंतर
आरोप मुझ पर
लगाने लगे
किसी और से आशा
क्या करूँ?
अब दोस्त दुश्मन
एक हो गए
पल पल वार कर रहे
कैसे अपने को
बचाऊँ ?
किसे व्यथा
ह्रदय की सुनाऊ ?
कैसे पीड़ा
मन की बताऊँ
ढूंढता रहता हूँ
हर दिन नया
चाँद निकलता है
अपनी रोशनी से
मुझे नहलाता है
मैं सोचने लगता हूँ
अब हर पल
रोशनी में डूबा रहूँगा
बरसों के अँधेरे से
बाहर निकल जाऊंगा
खुशी के कुछ पल भी
देख नहीं पाता
ठीक से मुस्करा भी
नहीं पाता
पूर्णिमा का चाँद
अमावस का बन जाता
अन्धेरा मुझे फिर से
ढक लेता है
निरंतर नए चाँद की
तलाश में
मैं सदा की तरह
भटकता रहता हूँ
आशाओं के समुद्र में
चैन की सीपियों को
ढूंढता रहता हूँ
डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर"
(डा. राजेंद्र तेला निरंतर पेशे से दन्त चिकित्सक हैं। कॉमन कॉज सोसाइटी, अजमेर के अध्यक्ष एवं कई अन्य संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। समाज और व्यक्तियों में व्याप्त दोहरेपन ने हमेशा से उन्हें कचोटा है । अपने विचारों, अनुभवों और जीवन को करीब से देखने से उत्पन्न मिश्रण को कलम द्वारा कागज पर उकेरने का प्रयास करते हैं। गत 1 अगस्त 2010 से लिखना प्रारंभ किया है।) उनका संपर्क सूत्र है:- rajtelav@gmail.com www.nirantarajmer.com www.nirantarkahraha.blogspot.com

शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

कबाड़ी को बेच दो ( हास्य कविता)



हँसमुखजी की पत्नी
उनके तकिया कलाम से बहुत दुखी थी
हर बात पर कहते “कबाड़ी को बेच दो”
अगर शिकायत करती
बच्चे शैतानी बहुत करते हैं
जवाब में कहते थे ,
कबाड़ी को बेच दो”
आज अखबार नहीं आया
जवाब होता अखबार वाले को
कबाड़ी को बेच दो
एक दिन हँसमुखजी दफ्तर में
काम के बोझ से परेशान होकर आये
आते ही पत्नी से बोले
काम से दिमाग खराब हो गया है
एक कप चाय पिला दो
जली भुनी पत्नी
मौके की तलाश में थी
फ़ौरन बोली ,कबाड़ी को बेच दो
हँसमुखजी का पौरुष जाग गया
असली रूप उजागर हुआ
भन्नाते हुए बोले बेच दूंगा ,
बहुत होशियार बनती हो
यह भी बता दो, नया कहाँ मिलेगा
पत्नी लोहा लेने के लिए पूरी तरह तैयार थी
फ़ौरन अग्नी बाण दाग दिया
नया खरीद भी लोगे
तो तुम्हारे थर्ड क्लास शरीर में आते ही
अच्छा खासा दिमाग भी खराब हो जाएगा
तुम्हें तो कोई कबाड़ी भी नहीं खरीदेगा
गलती से खरीद भी लिया तो
धंधा चौपट करवाएगा
कबाड़ की कीमत तो होती है
तुम्हें लेने के लिए
तो पैसे भी मांगेगा

कल रात उनसे गुफ्तगू हो गयी ना जान पहचान थी
ना मुलाक़ात थी
फिर भी कल रात
उनसे गुफ्तगू हो गयी
ज़िन्दगी में
नयी शुरुआत हुयी
उनका अचानक
मिलना
नियामत हो गयी
हँस, हँस कर
उनसे बात हुयी
कुछ मन की
कुछ दिल की
सांझा हुयी
निरंतर ठहरी हुयी
ज़िन्दगी में हलचल
हुयी
दिल को खुशी
मन को तृप्ति हुयी
कल रात उनसे
गुफ्तगू हो गयी


बादल किस के ,आकाश किस का बादल किस के
आकाश किस का
वायु अग्नी पर नहीं
आधिपत्य किसी का
पंछी देश देश में
विचरण करते
वर्षा आज यहाँ कल
वहां बरसती
फिर झगडा किस
बात का
धरती के टुकड़े के लिए
सेनाएँ क्यों आपस में
लडती
निरंतर मार काट
दुनिया में होती
मनुष्य के अहम् ,
और स्वार्थ की
कोई सीमा नहीं होती
उसे संतुष्टी
कभी नहीं मिलती

सपने , सपने ही रह जाते सपने
हर रात को आते
नए पुराने चेहरे
दिखते
कुछ हँसाते कुछ
रुलाते
कुछ धुंधले हो
जाते
कुछ सुबह तक
याद रहते
मन को तडपाते
दिल को रुलाते
निरंतर जहन में
रहते
फिर दिख जाएँ
उम्मीद में रात का
इंतज़ार करते
दिल दुखाने को
सपने
सपने ही रह जाते

डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर"
(डा. राजेंद्र तेला निरंतर पेशे से दन्त चिकित्सक हैं। कॉमन कॉज सोसाइटी, अजमेर के अध्यक्ष एवं कई अन्य संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। समाज और व्यक्तियों में व्याप्त दोहरेपन ने हमेशा से उन्हें कचोटा है । अपने विचारों, अनुभवों और जीवन को करीब से देखने से उत्पन्न मिश्रण को कलम द्वारा कागज पर उकेरने का प्रयास करते हैं। गत 1 अगस्त 2010 से लिखना प्रारंभ किया है।) उनका संपर्क सूत्र है:- rajtelav@gmail.com www.nirantarajmer.com www.nirantarkahraha.blogspot.com

गुरुवार, 15 सितंबर 2011

उसे चैन नहीं था


उसे चैन नहीं था

अनगिनत

इच्छाएं रखता था

निरंतर

सपने बुनता था

इच्छाओं पर

नियंत्रण ना था

एक पूरी होती

दूसरी के लिए रोता था

सदा असंतुष्ट रहता था

उसे पता नहीं था

चैन रेगिस्तान में

मरीचिका

सामान होता

मृग सा मन खोज में

भटकता रहता

निरंतर अतृप्त रहता

चैन पाना

तो मन मष्तिष्क को

वश में रखना होगा

संतुष्टी को

उद्देश्य बनाना होगा

जीवन को

सादा बनाना होगा

थोड़े में जीना होगा
डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर"
(डा. राजेंद्र तेला निरंतर पेशे से दन्त चिकित्सक हैं। कॉमन कॉज सोसाइटी, अजमेर के अध्यक्ष एवं कई अन्य संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। समाज और व्यक्तियों में व्याप्त दोहरेपन ने हमेशा से उन्हें कचोटा है । अपने विचारों, अनुभवों और जीवन को करीब से देखने से उत्पन्न मिश्रण को कलम द्वारा कागज पर उकेरने का प्रयास करते हैं। गत 1 अगस्त 2010 से लिखना प्रारंभ किया है।) उनका संपर्क सूत्र है:- rajtelav@gmail.com www.nirantarajmer.com www.nirantarkahraha.blogspot.com

बुधवार, 14 सितंबर 2011

कविताएँ


संतुष्टी जीवन का मूल मन्त्र

संतुष्टी जीवन का

मूल मन्त्र

इच्छाएँ रखना भी

आवश्यक

नियंत्रण उन पर

अत्यावश्यक

बिना कर्म के कुछ नहीं

मिलता

सफलता मिलना

निश्चित ना होता

हिम्मत फिर भी नहीं

हारना

म्रदु व्यवहार सबको

भाता

अभिमान मनुष्य का

नाश करता

क्रोध जीवन को

भस्म करता

स्वार्थ सुख नाशक

होता

दुखों को बुलावा देता

दिनचर्या के नियम

बनाओ

व्यवहार में अपने

संयम लाओ

होड़ अपने से दूर

भगाओ

सदाचार से जीना सीखो

धन बिना काम नहीं

चलता

भविष्य का भी ध्यान करो

आवश्यकतानुसार

संचय करो

येन केन प्रकारेण

ना संचय करो

निरंतर इश्वर का

नमन करो

छोटों को प्यार

बड़ो का सम्मान

करो

खुल कर हंसा करो

कम से कम रोया करो

समय सदा

इकसार नहीं रहता

ये बात भी जान लो

दर्द जीवन में आयेंगे

दर्द सहना सीख लो

14-09-2011

1502-74-09-11

अपनों की जान लेता रहा

सूरज ने

सदा चाँद को

चाँद ने

सदा सूरज को

विदा किया

सदियों से निरंतर

यही क्रम चल रहा

वैमनस्य दोनों में

कभी ना रहा

किसी को सत्ता खोने

का दुःख नहीं हुआ

पृथ्वी पर

एक दिन में

राज करता रहा

दूसरा रात का

राजा बना रहा

विधी की विडंबना है

धरती के छोटे से

टुकड़े के लिए

मनुष्य निरंतर

लड़ता रहा

अपनों की जान

लेता रहा

लोग जहर उगलते रहे ,हम खुशी से निगलते रहे


जब भी मुस्कराए

किसी की नज़र के

शिकार हो गए

दो कदम आगे बढाए

जालिमों ने कांटे

बिछा दिए

हम खामोशी से

बैठ गए

लोगों ने मसले खड़े

कर दिए

लोग जहर उगलते रहे

हम खुशी से निगलते रहे

निरंतर नफरत से

लड़ते लड़ते

हम हँसना भूल गए

जीने की चाहत में

हम फिर भी ना रोए

हिम्मत से सहते रहे

धीरे धीरे चलते रहे

उनकी तंगदिली पर

हँसते रहे


मुझे खुशी से विदा कर दो

ना मेरे साथ रोओ

ना मेरे साथ हँसो

मुझे साथ रोने दो

हँसी में साथ हँसने दो

जो ले सको मुझ से

ले लो

तुम मुझे कुछ ना दो

निरंतर मन में पल रही

नफरत से मुक्त कर दो

थोड़ा सा प्यार दे दो

जाते समय ह्रदय में

बोझ ना रहे

इतना सा अहसान

मुझ पर कर दो

मुझे खुशी से विदा

कर दो

हँसते हुए जाने दो



कल रात फिर सुबह हो गयी

कल रात फिर सुबह

हो गयी

वो सपने में दिख गयी

खिजा में बहार

लौट आयी

निरंतर उदास चेहरे पर

रौनक आ गयी

हसरतें फिर जाग गयी

दिल की उम्मीदें परवान

चढ़ने लगी

ठहरी हुयी ज़िन्दगी में

रवानी आ गयी

मंजिल फिर से नज़र

आने लगी

उनकी याद फिर से

सताने लगी

मन मेरा चंचल बहुत ,कैसे इसे समझाऊँ ?

मन मेरा चंचल बहुत

कैसे इसे समझाऊँ ?

इच्छाएँ बहुत संजोता

स्वप्नलोक में खोता

कैसे वश में करूँ ?

हर आशा पूरी नहीं होती

सत्य कैसे इसे बताऊँ ?

ना थकता ना रुकता

निरंतर चलता रहता

अविरल विचारों में बहता

समुद्र की लहरों सा

उफनता

कैसे विराम लगाऊं ?

मन मेरा चंचल बहुत

कैसे इसे समझाऊँ ?


मनुष्य कर्मों से जाना जाता
सूर्य धरती को

चकाचोंध करता
ऊर्जा से जीवों को

जीवित रखता
अस्त होने पर

अस्तित्व का प्रतीक

भी नहीं छोड़ता

सूर्य का प्रताप सदैव

याद रहता

निरंतर उसे पूजा जाता
क्यों मनुष्य

सूर्य से नहीं सीखता ?

निरंतर नाम के लिए जीता
मन में इच्छाएँ संजोता
येन केन प्रकारेण

नाम की चाहत में जीता
किसी तरह

उसकी म्रत्यु के बाद

लोग उसे याद करते रहे
उसे पूजते रहे
निरंतर मनोइच्छा की

उथल पुथल में

भूल जाता
मनुष्य कर्मों से

जाना जाता
कर्मों से विमुख को

कोई याद नहीं करता
डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर"
(डा. राजेंद्र तेला निरंतर पेशे से दन्त चिकित्सक हैं। कॉमन कॉज सोसाइटी, अजमेर के अध्यक्ष एवं कई अन्य संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। समाज और व्यक्तियों में व्याप्त दोहरेपन ने हमेशा से उन्हें कचोटा है । अपने विचारों, अनुभवों और जीवन को करीब से देखने से उत्पन्न मिश्रण को कलम द्वारा कागज पर उकेरने का प्रयास करते हैं। गत 1 अगस्त 2010 से लिखना प्रारंभ किया है।) उनका संपर्क सूत्र है:- rajtelav@gmail.com www.nirantarajmer.com www.nirantarkahraha.blogspot.com

कविताएं


कुछ रिश्ते....

कुछ रिश्ते

दिल से होते

मन में बसते

चाहे अनचाहे

अनजाने में बनते

किसी रिश्ते से

कम नहीं होते

निरंतर मिलने की

ख्वाइश तो होती

मुलाक़ात हो ना हो

दूरियां उनमें

खलल नहीं डालती

नजदीकियां

दिल की होती

इक कसक दोनों

तरफ होती

दिल से दुआ

एक दूजे के लिए

निकलती

कमी दिल में सदा

खलती

याद से रौनक

चेहरे पर आती

जहन में सुखद

अनुभूती होती

कुछ रिश्ते....







गीत,जीवन,हिम्मत ,होंसला,कर्म,



दिल दर्द से भरा

जहन

निरंतर फ़िक्र से अटा

कुछ हसरतें फिर भी

बाकी है

खिजा को बहारों की

उम्मीद अभी बाकी है

काँटों से

दोस्ती बहुत कर ली

फूलों से

दोस्ती की तमन्ना

अभी बाकी है

अंजाम की फ़िक्र नहीं

खोने को कुछ बचा नहीं

दिल की आग अभी

बुझी नहीं

ज़िन्दगी के जुए में

एक दाँव अभी बाकी है

कश्ती को साहिल की

आस अभी बाकी है



दूर पहाड़ों में

टिमटिमाती बत्तियां

गगन में जगमगाते

तारों सी दिखती

निमंत्रण देती

छोड़ दो अब

लुटी हुयी धरती को

पैसे के लिए

कटे हुए पेड़ों और

कंक्रीट के जंगल को

निरंतर धूल मिट्टी से

पीछा छुडाओ

आ जाओ पहाड़ों में

बादलों से

अठखेलियाँ करो

ठंडी,ताज़ी हवा के

झोके खाओ

मन के गीत गाओ

पंछियों से बातें करो

प्रकृति की गोद में

जीवन बिताओ

जो नहीं कर सके

धरती पर

वो पहाड़ों में करो

इश्वर के वरदान का

सम्मान करो

धन लोलुप इंसानों से

पहाड़ों की रक्षा करो
डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर"
(डा. राजेंद्र तेला निरंतर पेशे से दन्त चिकित्सक हैं। कॉमन कॉज सोसाइटी, अजमेर के अध्यक्ष एवं कई अन्य संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। समाज और व्यक्तियों में व्याप्त दोहरेपन ने हमेशा से उन्हें कचोटा है । अपने विचारों, अनुभवों और जीवन को करीब से देखने से उत्पन्न मिश्रण को कलम द्वारा कागज पर उकेरने का प्रयास करते हैं। गत 1 अगस्त 2010 से लिखना प्रारंभ किया है।) उनका संपर्क सूत्र है:- rajtelav@gmail.com www.nirantarajmer.com www.nirantarkahraha.blogspot.com

सोमवार, 12 सितंबर 2011

उनका मुस्काराना हुआ, इक नज़्म का जन्म हुआ


उनका

मुस्काराना हुआ

इक नज़्म का

जन्म हुआ

ख्याल

उड़ान भरने लगे

लफ्ज़ अपने आप

जहनमें आने लगे

अरमान

कुलांचें भरने लगे

कलम बिना रुके

निरंतर चलती रही

उनकी ख़ूबसूरती

ख्यालों में उतर आयी

उनकी तारीफ़ में लिखी

नज़्म वजूद में आयी

दिल की ख्वाइश

अब आम हो गयी


क्यों हार से घबराता है ?

क्यों हार से घबराता है ?

व्यथित हो कर रोता है

ये भी ता ध्यान कर

सूर्य भी चमक अपनी

खोता

शाम तक मंद होता

फिर अस्त होता

आकाश पर रात भर

चाँद का आधिपत्य होता

भोर होते होते चाँद भी

थक कर पस्त होता

नए चमकते सूर्य को

स्थान देता

हार जीत जीवन का मर्म

क्यों ह्रदय से लगाता है ?

बहुत रो लिया

बहुत कर लिया विश्राम

अब उठ खडा हो जा

कर्म अपना करता चल

इक दिन तूँ भी सफल होगा

भाग्य तेरा भी उदय होगा

सूर्य सा चमकेगा

हिम्मत ना हार

जीवन जैसा भी आये

गले लगाता चल

निरंतर आगे बढ़ता चल

बिना रुके तूँ चलता चलचाहिए
डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर"
(डा. राजेंद्र तेला निरंतर पेशे से दन्त चिकित्सक हैं। कॉमन कॉज सोसाइटी, अजमेर के अध्यक्ष एवं कई अन्य संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। समाज और व्यक्तियों में व्याप्त दोहरेपन ने हमेशा से उन्हें कचोटा है । अपने विचारों, अनुभवों और जीवन को करीब से देखने से उत्पन्न मिश्रण को कलम द्वारा कागज पर उकेरने का प्रयास करते हैं। गत 1 अगस्त 2010 से लिखना प्रारंभ किया है।) उनका संपर्क सूत्र है:-
rajtelav@gmail.com
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खुद को औकात से ज्यादा समझने लगा था


ख्यालों की
दुनिया में खोने लगा था
हवाई किले बनाने
लगा था
नामुमकिन को मुमकिन
बनाने चला था
खुद ही कयास लगाने
लगा था
खुद को सबसे बेहतर
समझने लगा था
निरंतर रात को दिन
समझने लगा था
हर चाल पर मात खाने
लगा था
रंजो गम में जीने
लगा था
आइना देखना भूल
गया था
खुद को औकात से
ज्यादा समझने
लगा था
डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर"
(डा. राजेंद्र तेला निरंतर पेशे से दन्त चिकित्सक हैं। कॉमन कॉज सोसाइटी, अजमेर के अध्यक्ष एवं कई अन्य संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। समाज और व्यक्तियों में व्याप्त दोहरेपन ने हमेशा से उन्हें कचोटा है । अपने विचारों, अनुभवों और जीवन को करीब से देखने से उत्पन्न मिश्रण को कलम द्वारा कागज पर उकेरने का प्रयास करते हैं। गत 1 अगस्त 2010 से लिखना प्रारंभ किया है।) उनका संपर्क सूत्र है:-
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रविवार, 11 सितंबर 2011

उनसे अपनत्व का आभास हुआ


निरंतर

नीरस जीवन को

सुखद अवसर प्राप्त हुआ

उनसे अपनत्व का

आभास हुआ

स्नेह से दो शब्द कहे

ह्रदय से आशीर्वाद दिया

मन से वो प्रसन्न हुए

कोटि कोटि धन्यवाद दिया

मुझे नया विश्वास मिला

मन के परिवार में

एक साथी जुड़ गया

जीवन में नयी आशा का

संचार हुआ

मन में प्रश्न खडा हुआ

मुझे झकझोर दिया

क्यों ना बड़े छोटों को

आशीर्वाद प्रदान करें

छोटे बड़ों का सम्मान करें

रिश्तों को प्रघाड करें

उत्कृष्ट व्यवहार और

अपनों सा प्यार करें

वैमनस्य को दूर करें

सब मिल कर हँसते रहें

परमात्मा के सपने को

साकार करें
डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर"
(डा. राजेंद्र तेला निरंतर पेशे से दन्त चिकित्सक हैं। कॉमन कॉज सोसाइटी, अजमेर के अध्यक्ष एवं कई अन्य संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। समाज और व्यक्तियों में व्याप्त दोहरेपन ने हमेशा से उन्हें कचोटा है । अपने विचारों, अनुभवों और जीवन को करीब से देखने से उत्पन्न मिश्रण को कलम द्वारा कागज पर उकेरने का प्रयास करते हैं। गत 1 अगस्त 2010 से लिखना प्रारंभ किया है।) उनका संपर्क सूत्र है:-
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जीने के लिए ज़िन्दगी में दर्द भी चाहिए


जीने के लिए

ज़िन्दगी में दर्द भी

चाहिए

मर मर कर भी जीना

चाहिए

लाख उम्मीदें टूटें

उम्मीद

फिर भी रखनी चाहिए

ग़मों को सहना सीखना

चाहिए

अश्क कई बार बहेंगे

हर बार पोंछ कर

आगे बढना चाहिए

जीत के लिए कभी

हार भी होनी चाहिए

रोना हो तो

अकेले में रोना चाहिए

दिखाने को निरंतर हँसना

चाहिए

जो भी प्यार से गले मिले

गले लगाना चाहिए

दुश्मन को भी दोस्त

समझना चाहिए

जीने के लिए

ज़िन्दगी में दर्द भी

चाहिए
डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर"
(डा. राजेंद्र तेला निरंतर पेशे से दन्त चिकित्सक हैं। कॉमन कॉज सोसाइटी, अजमेर के अध्यक्ष एवं कई अन्य संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। समाज और व्यक्तियों में व्याप्त दोहरेपन ने हमेशा से उन्हें कचोटा है । अपने विचारों, अनुभवों और जीवन को करीब से देखने से उत्पन्न मिश्रण को कलम द्वारा कागज पर उकेरने का प्रयास करते हैं। गत 1 अगस्त 2010 से लिखना प्रारंभ किया है।) उनका संपर्क सूत्र है:-
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ज़िन्दगी बहुत कुछ सहती रहती


ज़िन्दगी बहुत कुछ सहती रहती

आँखों से दूर तक

छोर नहीं दिखता

जिसका

ज़िन्दगी उस सागर सी

नज़र आती

निरंतर कभी ज्वार

कभी भाटा जीवन में

आता रहता

कभी खामोश कभी

क्रोध से उफनता

भावनाओं की लहरें

कभी छू कर चली जाती

कभी मन मष्तिष्क को

सरोबार करती

मन की गहराइयों में

पीड़ा और प्यार की

जुगलबंदी

बनती बिगडती रहती

बिना शोर मचाये

सागर सी रहस्मय

ज़िन्दगी बहुत कुछ

सहती रहती
डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर"
(डा. राजेंद्र तेला निरंतर पेशे से दन्त चिकित्सक हैं। कॉमन कॉज सोसाइटी, अजमेर के अध्यक्ष एवं कई अन्य संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। समाज और व्यक्तियों में व्याप्त दोहरेपन ने हमेशा से उन्हें कचोटा है । अपने विचारों, अनुभवों और जीवन को करीब से देखने से उत्पन्न मिश्रण को कलम द्वारा कागज पर उकेरने का प्रयास करते हैं। गत 1 अगस्त 2010 से लिखना प्रारंभ किया है।) उनका संपर्क सूत्र है:-
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ऐ दोस्त ....इससे ज्यादा निरंतर कुछ कह ना सकेगा


ऐ दोस्त मुझे
तेरे दोस्ती पर हमेशा
नाज़ रहेगा
तेरे साथ गुजारा वक़्त
कभी ना भूलेगा
तुझे याद रहे ना रहे
मुझे निरंतर याद रहेगा
तुझ पर यकीन बरकरार
रहेगा
तेरा कहा एक एक लफ्ज़
मेरे जहन में रहेगा
तेरी मोहब्बत का अहसास
दिल में बसा रहेगा
तेरी रुसवाई से आँखों से
बहना नहीं रुकेगा
अब मुस्कराना मुमकिन
ना होगा
तेरे बगैर जीना
मौत से गले लगाना होगा
मेरे हमनशीं तेरी दोस्ती पर
मुझे हमेशा गुमाँ रहेगा
मरने के बाद भी दिल तुझे
याद करता रहेगा
ऐ दोस्त ...........
इससे ज्यादा निरंतर कुछ
कह ना सकेगा
डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर"
(डा. राजेंद्र तेला निरंतर पेशे से दन्त चिकित्सक हैं। कॉमन कॉज सोसाइटी, अजमेर के अध्यक्ष एवं कई अन्य संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। समाज और व्यक्तियों में व्याप्त दोहरेपन ने हमेशा से उन्हें कचोटा है । अपने विचारों, अनुभवों और जीवन को करीब से देखने से उत्पन्न मिश्रण को कलम द्वारा कागज पर उकेरने का प्रयास करते हैं। गत 1 अगस्त 2010 से लिखना प्रारंभ किया है।) उनका संपर्क सूत्र है:-
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शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

गधी, घोडी बराबर हो गयी


नाम में क्या रखा है
काम कुछ भी करो
नाम कैसा भी रख लो
आज कल यही हो रहा है
दिग्विजय
हारे हुए सा आचरण
कर रहा
बेसिर पैर की बातें
कर रहा
मनमोहन ने मोहना बंद
कर दिया
देश को दुखी कर दिया
मनीष
बुद्धीहीनता का परिचय देता
जुबान का
बेजाँ इस्तेमाल करता
खुद के पैरों पर खुद ही
कुल्हाड़ी मारता
किरण भ्रष्टाचार के अँधेरे से
लड़ रही
विशेषाधिकार की वेदी
पर चढ़ गयी
सांसदों को उससे चिढ
हो गयी
पहले अफसर थी
अब संसद की मुलजिम
हो गयी
अरविन्द काँटों से भिड रहा
हर दांव का जवाब दे रहा
शातिरों को धूल चटा रहा
कपिल का चेहरा उजागर
हो गया
पीले,भूरे की जगह काला
हो गया
अब परदे के पीछे से वार
कर रहा
प्रतिभा की प्रतिभा नज़र
नहीं आती
आकाओं से बिना पूछे दो
शब्द नहीं कहती
अन्ना बड़े भाई से पिता
हो गए
नटखट बच्चों को सबक
दे रहे
राहुल बुद्ध को व्यथित
कर रहा
औरों का लिखा भाषण
पढ़ रहा
कुटिल सलाहकारों से
घिर गया
ममता कठोर आचरण
कर रही
मार्क्सवादियों को दुखी
कर रही
राजा जेल में बंद है
२ जी उसकी ख़ास पसंद है
मायावती माया बर्बाद
कर रही
हवाई जहाज से सैंडल
मंगा रही
ललिता डी ऍम के को डायन
सी दिख रही
करुना पर करुना नहीं
दिखा रही
नरेन्द्र अच्छा राज़ कर रहा
कांग्रेस की नींद हराम
कर रहा
जिसे दिन रात केवल नरेंद्र
दिख रहा
अमर सिंह की अमर वाणी
खामोश हो गयी
आजकल फुसफुसाहट भी
सुनायी नहीं दे रही
सुरेश पैसा पैसा खेल रहा था
ज्यादा सम्हाल नहीं पाया
अब जेल में आराम कर रहा
सोनिया बीमार क्या हुयी
कांग्रेस जैसे अनाथ हो गयी
छुटभैयों को छूट मिल गयी
चिदंबरम खुद को शिव
समझ रहा
सी बी आई पुलिस से
तांडव करवा रहा
खाली पीली
हाथ पैर मार रहा
प्रणव ॐ से
संकट मोचक हो गया
कांग्रेस की गलतियों को
सुधारते सुधारते थक गया
ठण्ड पड़े या गर्मी
शरद
क्रिकेट खेलने में मग्न
प्रफुल्ल
कैग रिपोर्ट से पस्त
एयर
इंडिया के घपले से त्रस्त
लाल कृष्ण अपनों से
परेशान
यदुरप्पा,रेड्डी भाजपा के लिए
कोढ़ में खाज
सुषमा राज घाट पर
कुरूप नाच दिखाती
कविता कहानी लिख रही
शशी उजाला फैला रही
लता बिना
सहारे के चढ़ रही
आम के पेड़ में नीम की
निम्बोली लग रही
नामों की दुर्गती हो गयी
गधी,घोडी बराबर हो गयी
08-09-2011
1468-40--09-11

(हास्य व्यंग्य रचना है ,दिल से ना लगायें ,किसी व्यक्ति विशेष के बारे में दुष्प्रचार या गरिमा को ठेस पहुचाने का उद्देश्य नहीं है,फिर भी भावनाओं को ठेस पहुंचे तो क्षमा प्रार्थी हूँ जिन्हें बुरा लगे उनसे हाथ जोड़ कर माफी,जिन्हें अच्छा लगे उन्हें धन्यवाद )
कपिल= पीलापन लिए भूरा
दिग्विजय=विश्व विजेता
चिदंबरम=शिव का घर
नरेंद्र=राज कुमार
किरण= रोशनी
अन्ना =बड़ा भाई
शरद=सर्दी
अरविन्द=कमल
प्रफुल्ल=उल्लास से पूर्ण,खुश
शशि=रात
ललिता=सुन्दर
ममता=स्नेह
प्रतिभा =गुण
प्रणव=ॐ ,ओम
राहुल=बुद्ध के पुत्र का नाम,निपुण
मनीष =बुद्धीजीवी
सुषमा=सुन्दर
डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर"
(डा. राजेंद्र तेला निरंतर पेशे से दन्त चिकित्सक हैं। कॉमन कॉज सोसाइटी, अजमेर के अध्यक्ष एवं कई अन्य संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। समाज और व्यक्तियों में व्याप्त दोहरेपन ने हमेशा से उन्हें कचोटा है । अपने विचारों, अनुभवों और जीवन को करीब से देखने से उत्पन्न मिश्रण को कलम द्वारा कागज पर उकेरने का प्रयास करते हैं। गत 1 अगस्त 2010 से लिखना प्रारंभ किया है।) उनका संपर्क सूत्र है:- rajtelav@gmail.com www.nirantarajmer.com www.nirantarkahraha.blogspot.com

गुरुवार, 8 सितंबर 2011

कहाँ गए वो लोग


कहाँ गए वो लोग
जो पराये दर्द में भी
रोते थे
अपनों से ज्यादा
अपने होते थे
हर नाज़ नखरा
उठाते थे
निरंतर हिम्मत और
सहारा देते थे
खुद ग़मों के
दरिया में बहते थे
दूसरों को हंसाते थे
परायों को अपना
कहते
किनारे पहुंचाते
खुद डूब जाते थे
मोहब्बत से सरोबार
होते थे
खुद से ज्यादा
दूसरों के लिए
डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर"
(डा. राजेंद्र तेला निरंतर पेशे से दन्त चिकित्सक हैं। कॉमन कॉज सोसाइटी, अजमेर के अध्यक्ष एवं कई अन्य संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। समाज और व्यक्तियों में व्याप्त दोहरेपन ने हमेशा से उन्हें कचोटा है । अपने विचारों, अनुभवों और जीवन को करीब से देखने से उत्पन्न मिश्रण को कलम द्वारा कागज पर उकेरने का प्रयास करते हैं। गत 1 अगस्त 2010 से लिखना प्रारंभ किया है।) उनका संपर्क सूत्र है:-
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मंगलवार, 6 सितंबर 2011

अजमेर से दिल्ली रेल का सफरनामा

कहते हैं कि कहावतें यों ही नहीं बन जातीं। इसके पीछे ज्ञान एवं मकसद होता है। अब आप इस कहावत को ही लें, जिसमें कहा गया है कि 'यथा राजा, तथा प्रजाÓ अर्थात जैसा राजा होगा वैसा ही माहौल राज में सब तरफ हो जाता है।
कुछ समय पूर्व रेलवे में हर तरफ हंसी-मजाक का माहौल था। ऐसे माहौल में एक बार मुझे अचानक अजमेर से दिल्ली जाना पड़ा, इसलिए अपना सामान इत्यादि ले कर अजमेर रेलवे स्टेशन पहुंचा और टिकट लेने हेतु लाइन में खड़ा हो गया। मेरे आगे भी क्यू में कुछ लोग थे। सभी को जल्दी थी, लेकिन लाइन धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी। पूछने पर पता पड़ा कि बुकिंग विंडो के बाबू का सभी को एक ही जवाब था, 'मेरे पास छुट्टे पैसे नहीं हैÓ, जिसका नतीजा यह निकल रहा था कि कइयों के पैसे उस के पास छूट रहे थे। इतने में ही हड़बड़ाहट में एक व्यक्ति वहां आया और बुकिंग विंडो के बाबू से बोला कि एक टिकट नंडू खां का देना नंडू खां का?
वह कहां है? बाबू ने उत्सुकतावश पूछा।
वह बाहर सामान के पास खड़ा है, उस व्यक्ति ने हाथ के इशारे से
बतलाया।
इतना सुनते ही सब मुस्कराने लगे।
लाइन में लगे हुए एक और व्यक्ति ने बुकिंग विंडो पर दिल्ली का तत्काल टिकट मांगा, लेकिन बाबू ने कहा कि 'तत्कालÓ टिकट नहीं है, इस पर लाइन में लोग चर्चा करने लगे कि पिछले चुनाव के दिनों जब ऐक्टर धर्मेन्द्र ने बी.जे.पी. से बीकानेर का तत्काल याने ऐन मौके पर टिकट मांगा था तो उसे मिल गया। इसी तरह जब गोविन्दा ने कांग्रेस से मुम्बई का टिकट मांगा तो उसे मिल गया, लेकिन आम लोगों के लिए कहीं का भी तत्काल टिकट नहीं है, क्या यही लोकतन्त्र है?
कुछ देर बाद अपना टिकट ले कर मैं प्लेटफार्म में दाखिल हुआ। टे्रन का समय तो हो चुका था, लेकिन टे्रन अभी आई नहीं थी। थोड़ी दूर आगे चलने पर देखा कि एक स्थान पर एक व्यक्ति कुछ ढूूंढ रहा है, तभी वहां खड़े एक दूसरे व्यक्ति ने उत्सुकतावश उससे पूछा, 'क्यों भाई साहब क्या ढूंढ रहे हैं?Ó
'मेरा सूटकेस अभी-अभी यहीं पड़ा था, कुछ ही मिनटों में न जाने कौन ले गया?Ó पहला व्यक्ति बोला
आप उस समय क्या कर रहे थे?
मैं सामने वाला बोर्ड पढ रहा था जिस पर लिखा है, 'यात्री अपने
सामान की स्वयं देख भाल करें।Ó उस यात्री ने जवाब दिया। इतना सुनने के बाद सभी मुस्कराने लगे, लेकिन कोई कुछ बोला नहीं। थोड़ी देर बाद मैं वहां से चल दिया और बैठने हेतु खाली बैंच ढूंढऩे के लिए आगे बढ़ गया। प्लेटफार्म पर बैठने की बैंचें बहुत कम थीं और मुसाफिर बहुत थे, मुझे प्यास भी लग रही थी, लेकिन रेलवे की तरफ से पीने के पानी की कोई व्यवस्था नहीं थी। हां, तरह-तरह के बोतल बन्द पानी, मिनरल वाटर के नाम पर जरूर बिक रहे थे। इसी तरह जगह-जगह यह तो जरूर लिखा था कि यहां पेशाब करना मना है, लेकिन यह कहीं नहीं लिखा था कि यहां पेशाब कर सकते हैं। यात्रियों के समझ में यह बात नहीं आती कि किसी भी आइलैंड, बीच के, प्लेटफार्म पर अमूमन टायॅलेट की सुविधा क्यों नही होती है? कुछ दूर आगे चलने पर मैं फस्र्ट क्लास वेटिंग रूम के सामने से गुजरा। वहां एक यात्री वेटिंग रूम के बाहर बैठे एक कर्मचारी से पूछ रहा था कि जब टे्रनें इतनी लेट होती हैं तो टाइम टेबल का क्या फायदा? कर्मचारी ने जवाब दिया, 'अजी साहब टाइम टेबल इसलिए बनाये जाते हैं ताकि यात्रियों को पता लग जाए कि टे्रन कितनी लेट है? उसी रोज मुझे पता पड़ा कि रेलवे ने टाइम टेबल एवं वेटिंग रूम क्यों बनाये हैं। सम्भवत: इन्हीं का महत्व बढ़ाने के लिए टे्रनें लेट की जाती हैं। हालांकि मुझे मालुम था कि स्टेशन पर रिटायरिंग रूम भी बने हुए हैं, लेकिन शायद ही कोई रिटायर आदमी उसमें ठहरता हो? होना तो यह चाहिए कि रिटायर्ड आदमियों को रियायती दरों पर ठहरने की सुविधा वहां उपलब्ध होती, लेकिन ऐसा कहां है? सिर्फ उन्हें सीनियर सिटीजन का खिताब दे दिया है और मजे की बात देखिए कि रेलवे 60 साल की उम्र वाले को सीनियर सिटीजन मानता है, जब कि इन्कम टैक्स विभाग 65 साल वाले को सीनियर सिटीजन मानता आया है।
थोड़ी देर में ही स्टेशन पर माइक से घोषणा हुई कि 'अहमदाबाद-हरिद्वार मेलÓ प्लेटफार्म नम्बर एक पर आ रही है।Ó जैसे ही टे्रन अपनी निर्धारित लाइन पर आती दिखाई दी, एक सज्जन जो प्लेटफार्म पर खड़े थे, उस लाइन पर कूद गए। वह तो भला हो एक नवयुवक का जो वहीं प्लेटफार्म पर खड़ा था। उसने कूद कर उन सज्जन को बचा लिया, वर्ना उस रोज दुर्घटना होने में कोई कसर बाकी नहीं थी। थोड़ी देर में ही वहां काफी भीड़ इकट्ठी हो गई, बाद में उन सज्जन से यह पूछने पर कि उन्होंने आत्महत्या का प्रयास क्यों किया ? उन्होने जवाब दिया, 'बादशाहों! कौन सी आत्महत्या? माइक पर अनाउन्स हुआ था कि अहमदाबाद-हरिद्वार वाली गड्डी प्लेटफार्म नम्बर एक पर आ रही है, मैं उत्थे प्लेटफार्म पर ही खड़ा था, अपनी जान बचाने के लिए वहां से लाइन पर कूद गया, जान सबको प्यारी होती है। इतना सुन कर सब मुस्कराते हुए तितर-बितर हो गए।
प्लेटफार्म एवं गाडी में काफी भीड थी, कुली अपनी अपनी चादरें लिए हुए अनारक्षित डिब्बों में जगह घेरने की कोशिश कर रहे थे। प्लेटफार्म पर वैन्डर वहीं अपनी आलू की छिलके वाली सदाबहार, स्वादिष्ट सब्जी-पूरी की आवाजें लगा रहे थे। चाय वाले आवाजें तो चाय की लगा रहे थे, लेकिन असल में चाय के नाम पर गरम पानी ही बेच रहे थे। टे्रन में ही खाने के लिए चलने वाली पेंट्री कार के खाने का कटु अनुभव मुझे पहले से ही था, इसलिए मैं अपना खाना घर से ही ले कर चला था, अत: इनकी तरफ ध्यान दिये बगैर जगह के लिए किसी तरह एक डिब्बे में प्रवेश किया और थोडी कोशिश के बाद एक सीट घेर कर बैठ गया। थोड़ी ही देर में डिब्बा पूरा भर गया और कहीं जगह खाली नहीं बची। जिस सीट पर मैं बैठा था, उसके सामने वाली सीट पर एक नवयुवक बैठा था। थोड़ी देर बाद वह शायद कुछ खाने-पीने का सामान लेने नीचे उतरा। इसी बीच एक अन्य यात्री आ कर उस सीट पर बैठ गया। थोड़ी देर बाद जब वह नवयुवक वापस लौटा तो उसने दूसरे यात्री से सीट खाली करने का आग्रह किया, लेकिन काफी प्रयास के बाद भी उसका कोई नतीजा नहीं निकला तो नवयुवक ने नम्रतापूर्वक उस नये यात्री से पूछा कि आपका नाम क्या है?
'मेरा नाम रामलाल हैÓ उसने जवाब दिया
तब उस नवयुवक ने फिर उससे पूछा, 'आपके पिताजी का क्या नाम है?Ó
'मेरे पिताजी का नाम श्याम लाल हैÓ उसने बताया।
इस पर उस नवयुवक ने उस यात्री से कहा कि 'क्या यह सीट श्याम लाल जी की है, जो आप इसे खाली नहीं कर रहे हैं?Ó लड़ाई करने का आधुनिक एवं रिफाइंड तरीका देख कर वहां बैठे सभी व्यक्ति मुस्कराने लगे और आखिरकार उस व्यक्ति को नवयुवक के लिए सीट खाली करनी पड़ी। जब तक गााडी स्टेशन पर खड़ी रही सब अपनी-अपनी जगह रोकने एवं सामान को सहेज कर रखने में लगे रहे। जैसे ही गाडी अपने निर्धारित समय के बाद चली तो मेरे पास की सीट पर बैठे एक व्यक्ति ने बातचीत का सिलसिला शुरू करते हुए सामने वाले यात्री से पूछा, 'कहा तक जायेंगे?Ó वह बोला।
'मैं दिल्ली जा रहा हूं।Ó कुछ और पूछने पर उसने बताया कि वह एक सॉफ्टवेयर इजीनियर है और वहां किसी कम्पनी में नौकरी करता है, धीरे-धीरे कम्प्यूटर संबंधी बातें होने लगीं और यह बात बार-बार दोहराई जाने लगी कि देश इन्फोरमेशन टैक्नोलोजी में काफी तरक्की कर चुका है। कुछ देर बाद मेरे पास वाले सज्जन ने ही सामने की तरफ ऊपर बर्थ पर पांव पसारे लेट रहे व्यक्ति से पूछा, 'आप भी दिल्ली जा रहे हैं?Ó
वह बोला कि मैं तो अहमदाबाद जा रहा हूं। नीचे की बर्थ पर बैठे सभी विस्मय से एक-दूसरे को देखने लगे, लेकिन कोई कुछ बोला नहीं। थोड़ी देर बाद पास के हिस्से से किसी ने कमेंट किया कि 'यह आई. टी. का ही कमाल है कि एक ही डिब्बे में ऊपर की बर्थ अहमदाबाद जा रही है और नीचे की बर्थ दिल्ली जा रही है, जिसे सुन कर सब मुस्कराने लगे। अब तक ऊपर की सीट पर पसरा हुआ व्यक्ति समझ चुका था कि टे्रन जब प्लेटफार्म पर लग ही रही थी तो हड़बड़ाहट में उसने गलत ट्रेन में ऊपर की बर्थ पर अपनी चादर बिछा दी थी, लेकिन अब क्या हो सकता था, अब तो अगले स्टेशन यानि फुलेरा पर ही उतर कर गाडी बदली जा सकती थी।
सह यात्रियों के बीच बातचीत फिर आगे चल पड़ी। उन दिनों भारत- पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच की धूम मची हुई थी। वहां बैठे एक नवयुवक ने अति उत्साह में अपने पास वाले सह यात्री से पूछा, 'आपका क्या ख्याल है कि हम पाकिस्तान को हरा देंगे?Ó
'भैया हम किसी झगड़े में नहीं पड़ते। उस यात्री ने टेलीग्राफिक रिप्लाई दी। मैने जब यह सुना तो मुझे सालों पहले देखी फिल्म 'अनपढ़Ó याद आ गई, जिसमें एक उद्दंड लड़का, जिसका मन पढऩे में नहीं लगता था, इतिहास की क्लास से झुंझला कर मास्टर साहब की गैर हाजिरी में अपने साथियों के साथ गाना गाता है, जिसके बोल हैं, 'सिकन्दर ने पोरस पर, की थी चढ़ाई, की थी चढ़ाई, तो मैं क्या करूं? कौरव और पांडव में हुई हाथापाई तो मैं क्या करूं?Ó
थोडी देर में ही टीटी आ गया और सीट पर बैठे यात्रियों से टिकट मांगने के लिए हाथ बढ़ाया। सब अपनी-अपनी जेबें टटोलने लगे। इसी बीच उसने दूसरी ओर ऊपर की बर्थ पर लेटे हुए नेता सरीखे एक व्यक्ति से कहा, टिकट? वह बोला, 'टिकट? टिकट कहां है? वही तो लेने दिल्ली जा रहे हैं।Ó उनके इस उत्तर से डिब्बे का वातावरण हास्यमय हो गया। इन्ही के साथ एक वृद्ध सज्जन, जिन्हें शायद रेवाड़ी जाना था, बैठे थे। इस बार टीटी ने उनसे टिकट मांगा तो वह अपना जूता उतारने लगे, जिससे एक बार तो ऐसा लगा कि बात कहीं बढ़ न जाय, खैर टीटी तो इसे अनदेखा कर दूसरों से टिकट मांगने लगा, लेकिन बाद में पता पड़ा कि वृद्ध सज्जन ने अपना टिकट जूतों में संभाल कर रखा हुआ था।
टीटी के जाने के बाद थोड़ी देर के लिए सन्नाटा छा गया। हालांकि रात गहरा रही थी और यात्रियों के सोने का समय हो चला था, फिर भी समय बिताने हेतु कुछ सहयात्रियों के बीच बातचीत चालू थी। एक सज्जन, जो कि रेलवे से ही सेवानिवृत्त थे, बताने लगे कि एक बार विश्व मेडीकल सेमीनार के समय तरह-तरह के दिमागों की प्रदर्शनी लगी। उसमें एक भारतीय के दिमाग को पहला इनाम मिला। पूछने पर पता लगा कि वह एक रेलवे के रिटायर्ड ऑफीसर का दिमाग था और उसके फस्र्ट आने का कारण था कि चूंकि रेलवे में लिखित में इतने कायदे-कानून होते हैं कि ऑफीसर को अपने पूरे सेवाकाल में अपना दिमाग काम में लेने की आवश्यकता ही नही पड़ी, अत: वह दिमाग बिलकुल तरोताजा याने फे्रश था और इनाम पा गया।
एक और यात्री अपनी शेखी बघार रहा था कि कैसे उसने एक बार रेलवे को चकमा दिया। उसने बताया कि मैंने दिल्ली से चेन्नई का टिकट तो खरीद लिया, लेकिन सफर किया ही नहीं। रेलवे वाले मुझे लगातार दो-तीन दिन ढूंढ़ते रहे होंगे। थोड़ी देर बाद ही जयपुर स्टेशन आ गया। एक सहयात्री को चाय की तलब हुई। उसने खिड़की में से मुंह निकाल कर प्लेटफार्म पर दूर खड़े एक चाय वाले को आवाज लगा कर एक चाय मांगी, लेकिन ठेले पर भीड़ होने के कारण उसने कोई ध्यान नहीं दिया। ऐसा उसने कई बार किया लेकिन उसका कोई फायदा नहीं हुआ। इस पर उसने प्लेटफार्म पर ही खड़े एक व्यक्ति से कहा कि यह लो दस रुपए और एक चाय आप भी पी लेना। 'यानि दो चाय ले ले, एक मुझे दे दे, एक आप ले ले। वह व्यक्ति चाय वाले के पास गया और एक चाय ले कर पीने लगा। इस पर डिब्बे वाला यात्री चिल्लाया तो उस व्यक्ति ने पांच रुपए उसे लौटाते हुए कहा कि आपने कहा था सो एक चाय मैंने पी ली है।
जयपुर के बाद गााडी दौसा स्टेशन पर रुकी और फिर बान्दीकुई। बान्दीकुई पर एक जी.आर.पी. का सिपाही एक बेटिकट यात्री को पकड़ कर ले जा रहा था कि हवा के तेज झोंके से उसकी टोपी उड़ गई। इस पर उस यात्री ने सिपाही को कहा कि साब आप यहां ठहरें, मैं आपकी टोपी ले कर आता हूं, तो सिपाही ने उसे कहा वाह! बच्चू मुझे बेवकूफ बनाता है, तू यहीं ठहर, मैं ले कर आता हूं और सिपाही उसे वहीं छोड़ कर अपनी टोपी लेने चल दिया। इधर वह आदमी भी अपने ठिकाने की तरफ चल दिया।
गाडी अपने गंतव्य स्थान के लिए फिर चल पड़ी। बान्दीकुई के बाद कुछ किन्नर भी गाडी में चढ़े और यात्रियों से जबरन पैसे मांगने लगे और नहीं देने पर तंग करने लगे। यह तो अच्छा हुआ कि सफर रात का था, वर्ना डिब्बों में गाना गाने वालों का तांता लग जाता। अधिकांश यात्री जैसे-तैसे अपनी नींद निकाल रहे थे। कुछ देर बाद अलवर स्टेशन आ गया। गाडी रेंगते-रेंगते अभी प्लेटफार्म पर रुकी ही थी कि एक कुली ने अपना सिर डिब्बे की खिड़की में लगा कर आवाज लगाई, 'उतारू।Ó उसका आशय शायद सामान उतारने से था। एक बहुत मोटी औरत जो वहां उतर रही थी, वह बोली, 'नहीं मैं अपने आप उतर जा
ऊंगी।Ó
अलवर के प्लेटफार्म पर ही मुझे वहां का प्रसिद्ध मावा बेचने का वेन्डर का यह तरीका देखने-सुनने का मौका मिला, जिसमें वह आवाजें लगा रहा था 'मावा, सब मिल कर खावा।Ó
आगे रेवाडी स्टेशन आ गया, यहां से बहुत से नवयुवक डिब्बे में चढ़े। उनमें से कुछ लोगों ने अपने बैठने हेतु जगह बनाने के लिए डिब्बे में लेटे- अधलेटे यात्रियों को उठा-उठा कर धमकाना चालू किया कि जानते नहीं यह हरियाणा है? उनमें से एक नवयुवक हमारे पास ही आ कर बैठ गया। गाडी चलने पर समय काटने के लिए मैने उससे पूछा, बेटे! कहां जा रहे हो? उसने कहा अंकल, मैं दिल्ली जा रहा हूं। मैने कहा दिल्ली कैसे जा रहे हो? अपने हाथ का फार्म दिखाते हुए वह बोला, अंकल नौकरी का फार्म भरना है। मैने उससे कहा कि यह फार्म तो अपने घर से ही भर कर भिजवा सकते थे। इसमें दिल्ली जाने की क्या जरूरत है? वह बोला, अंकल इसमें लिखा है, 'फिल इन कैपीटलÓ, इसलिए इसे कैपीटल अर्थात दिल्ली में जा कर भरूंगा।
भौर हो गई थी। इतने में अधिकांश यात्रियों ने अपनी-अपनी खिड़कियां बन्द कर ली। पूछने पर किसी ने बताया कि सुबह-सुबह पालम स्टेशन से पुरानी दिल्ली स्टेशन तक लाइन के दोनों ओर बसी झुग्गी वासियों की 'ऑपन एयर टॉयलेटÓ है, इसलिए उस दृश्य को देखने की बजाय खिड़कियां बन्द कर लेना ही उचित है। थोड़ी देर में ही आखिर गाडी दिल्ली पहुंच गई। मजे की बात यह थी कि टे्रन में बैठे यात्री कह रहे थे कि दिल्ली आ गई और प्लेटफार्म पर खड़े व्यक्ति कह रहे थे कि गाडी आ गई, राम जाने कि दोनो में से कौन एक ठीक है? या दोनों ही ठीक हैं? इस तरह उस रोज मेरा यह रेल सफर पूरा हुआ।
यह व्यंग्य लेख सेवानिवृत्त इंजीनियर श्री शिवशंकर गोयल ने भेजा है। उनका संपर्क सूत्र है -फ्लेट नं. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट नं. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75, मोबाइल नंबर: 9873706333

नेताओं को एक जगह इकट्ठा करा दे


नेताओं को एक जगह इकट्ठा करा दे, आपस में भिड़ा दे
एक
शेर जंगल में
एक नेता के सामने पडा
नेता को देख
जोर से रोने लगा
फिर घबरा कर भाग गया
एक पत्रकार को घटना का
पता लगा
उसने शेर को ढूंढा
साक्षात्कार उस का लिया
रोने,घबराने का कारण पूंछा
शेर सहमते हुए बोला
सिर्फ नेताओं से घबराता हूँ
कब सत्ता पलट दे
डरता हूँ
जंगल में अमन शांती है
कब दंगा करा दें
जानवरों को दल बदलवा दें
रिश्वत खा कर जंगल
लुटवा दें
निरंतर,किस्से इनके हूनर के
सुने है
अपने देश को नहीं छोड़ा
जंगल को क्या ख़ाक छोड़ेंगे
इसलिए घबराता हूँ
परमात्मा से रोज़ प्रार्थना
करता हूँ
इनका अलग देश बसा दे
नेताओं को एक जगह
इकट्ठा करा दे
आपस में भिड़ा दे
इनकी दवा से इनका ही
इलाज करा दे
डॉ. राजेन्द्र तेला निरंतर (डा. राजेंद्र तेला निरंतर पेशे से दन्त चिकित्सक हैं। कॉमन कॉज सोसाइटी, अजमेर के अध्यक्ष एवं कई अन्य संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। समाज और व्यक्तियों में व्याप्त दोहरेपन ने हमेशा से उन्हें कचोटा है । अपने विचारों, अनुभवों और जीवन को करीब से देखने से उत्पन्न मिश्रण को कलम द्वारा कागज पर उकेरने का प्रयास करते हैं। गत 1 अगस्त 2010 से लिखना प्रारंभ किया है।) उनका संपर्क सूत्र है:- rajtelav@gmail.com
www.nirantarajmer.com
www.nirantarkahraha.blogspot.com

मैं बाबा बनना चाहता हूँ


मैं बाबा बनना चाहता हूँ नाम के आगे पूज्य,श्री और भगवान्
लगाना चाहता हूँ
मैं
बाबा बनना
चाहता हूँ
नाम के आगे
पूज्य,श्री और भगवान्
लगाना चाहता हूँ
परमात्मा को
पाने के तरीके बताना
चाहता हूँ
ऊंचे आसन पर बैठ
बात ज़मीन की,
करना चाहता हूँ
मुकुट सर पर पहन
सादगी से जीना,
सिखाना चाहता हूँ
अपने पापों को
छिपाना चाहता हूँ
अब छुप कर पाप करना
चाहता हूँ
भक्तों को इंतज़ार ना
करना पड़े
जल्द पहुँचने के लिए
बड़ी गाडी में बैठना
चाहता हूँ
भक्तों की सुविधा के लिए
कई आश्रम बनाना
चाहता हूँ
आश्रम चलाने के लिए
धन अर्जन करना
चाहता हूँ
मुझे कष्ट होगा
भक्तों को दुःख होगा
इसलिए ए सी में
रहना चाहता हूँ
आम आदमी का भला
सोचता हूँ
दुःख दूर करना
चाहता हूँ
समस्याओं से ध्यान हटा
अपनी और आकृष्ट
करना चाहता हूँ
मुझे धन देते रहे,
सपने खरीदते रहे,
उम्मीद में जीते रहे
मुझे पूजने का प्रसाद
मिल जाए
दर्शन परमात्मा के
हो जाएँ
इसलिए बाबा बनना
चाहता हूँ
डॉ. राजेन्द्र तेला निरंतर (डा. राजेंद्र तेला निरंतर पेशे से दन्त चिकित्सक हैं। कॉमन कॉज सोसाइटी, अजमेर के अध्यक्ष एवं कई अन्य संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। समाज और व्यक्तियों में व्याप्त दोहरेपन ने हमेशा से उन्हें कचोटा है । अपने विचारों, अनुभवों और जीवन को करीब से देखने से उत्पन्न मिश्रण को कलम द्वारा कागज पर उकेरने का प्रयास करते हैं। गत 1 अगस्त 2010 से लिखना प्रारंभ किया है।) उनका संपर्क सूत्र है:- rajtelav@gmail.com
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रविवार, 4 सितंबर 2011

ओस्कर बेकार है-जो देते है-उनको धिक्कार है

ओस्कर बेकार है
जो देते है,उनको धिक्कार है


मेरे देश के सबसे बड़े अभिनेता
मेरे नेता को,अभी तक नहीं दिया


उस पुरस्कार का क्या आधार है?


जिसने,जनता को लुभाएँ कैसे?
झूठें वादों में फंसायें कैसे?
गरीब को गरीब रहने दो


जैसी असंख्य फिल्मों का
निर्माण और निर्देशन किया है


गीत,संगीत और कहानी में भी,
पूर्ण योगदान दिया है


बहु आयामी व्यक्तित्व वाले
मौके बेमौके,निरंतर अभिनय की क्षमता वाले
नेता को हमने तो पहचाना,
तुम भी पहचान लो,


उनके अभिनय की दाद दो
जल्दी से ओस्कर प्रदान कर दो


डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर
(डा. राजेंद्र तेला निरंतर पेशे से दन्त चिकित्सक हैं। कॉमन कॉज सोसाइटी, अजमेर के अध्यक्ष एवं कई अन्य संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। समाज और व्यक्तियों में व्याप्त दोहरेपन ने हमेशा से उन्हें कचोटा है । अपने विचारों, अनुभवों और जीवन को करीब से देखने से उत्पन्न मिश्रण को कलम द्वारा कागज पर उकेरने का प्रयास करते हैं। गत 1 अगस्त 2010 से लिखना प्रारंभ किया है।) उनका संपर्क सूत्र है:-rajtela1@gmail.com°www.nirantarajmer.com
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छुट्टे नहीं हैं(लघु हास्य कथा)

चौक से स्टेशन का ऑटो पकड़ा
सामान बहुत था,किसी तरह बैठ गया
स्टेशन पहुंचा ,ऑटो का किराया तेरह रूपये हुआ
मैंने पंद्रह रूपये दिए
ऑटो वाला बोला छुट्टे नहीं हैं
दो रूपये का नुक्सान बर्दाश्त नहीं था
सो कहा आगे लेलो छुट्टे करवा लो
दो सौ कदम आगे बढे
किराया चौदह रूपये हो गया पर छुट्टा नहीं मिला
फिर वही समस्या
अब एक रुपया भी पास खुल्ला नहीं था
क्या करता ,थोड़ा और आगे चलने को कहा
किराया सोलह रूपये हो गया,दिमाग परेशान हो गया
जो नुकसान होना था हो गया
स्टेशन तक सामान के साथ जाना संभव नहीं था
सो उसे लौटने को कहा
वो बोला बाबूजी सर्कल से मोड़ना पडेगा
मरता क्या ना करता ,हाँ में सर हिलाया
घूम कर स्टेशन पहुंचा
किराया बढ़ कर इक्कीस रूपये हो गया
सर भन्ना गया
निरंतर होशयारी में दस का पत्ता साफ़ हो गया
समस्या फिर वही छुट्टा नहीं है,
कह कर ऑटो वाला मुस्कराया
कहने लगा बाबूजी इसी को कहते हैं
चौबेजी छब्बे जी बन ने गए दूबेजी रह गए
मैं खीसें निपोरने लगा
मन मसोस कर पच्चीस रूपये दे कर ,पीछा छुडाया
अब कसम खाली
बिना छुट्टे पैसों के घर से नहीं निकलूंगा
छुट्टे नहीं होंगे ,तो दिमाग नहीं लगाऊंगा
दो चार रूपये ,दान धर्म समझ कर दे दूंगा


डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर
(डा. राजेंद्र तेला निरंतर पेशे से दन्त चिकित्सक हैं। कॉमन कॉज सोसाइटी, अजमेर के अध्यक्ष एवं कई अन्य संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। समाज और व्यक्तियों में व्याप्त दोहरेपन ने हमेशा से उन्हें कचोटा है । अपने विचारों, अनुभवों और जीवन को करीब से देखने से उत्पन्न मिश्रण को कलम द्वारा कागज पर उकेरने का प्रयास करते हैं। गत 1 अगस्त 2010 से लिखना प्रारंभ किया है।) उनका संपर्क सूत्र है:-rajtela1@gmail.com°www.nirantarajmer.com
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