शनिवार, 30 जून 2012

अल्पसंख्यक आरक्षण: कोटे की नीयत पर सवाल?

उत्तरप्रदेश समेत पाँच विधानसभा चुनावों के दौरान केंद्र सरकार ने जब केंद्रीय शिक्षण संस्थाओं के प्रवेश के लिए निर्धारित पिछड़ा वर्ग के आरक्षण में ही मुस्लिम छात्रों को साढ़े चार फीसदी आरक्षण देने का ऐलान किया था तो इसमें कम से कम राजनीतिक दलों को राजनीति ही नजर आई थी। संविधान मजहब-आस्था के आधार पर किसी भी किस्म के आरक्षण का निषेध करता है, लेकिन केंद्रीय सत्ता ने ठीक ऐसा ही किया और अल्पसंख्यक तबकों विशेष रूप से मुस्लिम समुदाय को आकर्षित करने के लिए उसने आनन-फानन आधिकारिक ज्ञापन के जरिये साढ़े चार फीसद आरक्षण की घोषणा कर दी। यह घोषणा तब की गई जब निर्वाचन आयोग चुनाव कार्यक्रम घोषित करने की तैयारी कर रहा था। सर्वोच्च न्यायालय ने जिस तरह यह कहा कि अल्पसंख्यक आरक्षण के लिए जिस आधिकारिक ज्ञापन का सहारा लिया गया उसका कोई संवैधानिक या वैधानिक आधार ही नहीं है उससे यह स्वत: सिद्ध हो जाता है कि केंद्रीय सत्ता अपने इस फैसले के जरिये वोटों की फसल काटना चाहती थी। हालांकि उसके फैसले का विरोध हर स्तर पर हुआ, लेकिन उसने यह तर्क दिया कि उसने इस तरह के आरक्षण का वायदा 2009 के अपने चुनाव घोषणा पत्र में किया था। वह अभी तक यह स्पष्ट नहीं कर सकी है कि उसने अपने चुनावी वायदे को पूरा करने में तीन साल की देर क्यों की ? उसके पास इस सवाल का भी जवाब नहीं कि क्या चुनावी घोषणा पत्र में दर्ज बातों को वैधानिक दर्जा हासिल हो जाता है ? यदि चुनावी घोषणा पत्र इस तरह संवैधानिक प्रावधानों को नकारने लगेंगे तो फिर जिसके जो मन आएगा वही करेगा। सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से यह सही सवाल पूछा है कि क्या वह आस्था के आधार पर आरक्षण दे सकती है ? उसे इस सवाल का जवाब न केवल न्यायपालिका, बल्कि देश की जनता को भी देना होगा। इसके साथ ही केंद्रीय सत्ता के नीति-नियंताओं को इस पर चिंतन-मनन भी करना होगा कि नीतिगत मामलों में उन्हें बार-बार मुंह की क्यों खानी पड़ रही है ? यह आश्चर्यजनक है कि सर्वोच्च न्यायालय से राहत न मिलने के बावजूद सरकार अभी भी यह मानने के लिए राजी नहीं कि उससे कहीं कोई भूल हुई है अथवा यह काम इस तरह से नहीं किया जाना चाहिए था। उसके इस रवैये का नतीजा यह है कि अल्पसंख्यक समुदाय खुद को छला हुआ महसूस कर रहा है। सबसे बड़ी समस्या उन छात्रों के समक्ष है जिन्होंने अल्पसंख्यक आरक्षण के जरिये आइआइटी प्रवेश परीक्षा में स्थान हासिल कर लिया है। सर्वोच्च न्यायालय चाहकर भी इन छात्रों को राहत नहीं दे सकता। सरकार को न केवल इन छात्रों, बल्कि अल्पसंख्यकों की मायूसी को दूर करने के लिए ऐसे उपायों पर काम करना चाहिए जो संविधान सम्मत हों। इस संदर्भ में यह नजरिया सही नहीं कि संविधान संशोधन का सहारा लिया जाना चाहिए। ऐसा करना एक और भूल होगी। इसे पहले आंध्रप्रदेश हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया और जब इसके खिलाफ केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट गई तो उसने भी हाईकोर्ट के फैसले को ही फिलहाल जायज ठहराया है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपनी मर्यादाओं में रहते हुए केंद्र सरकार से मुख्यतः तीन सवाल पूछे हैं। पहला ये कि 27 फीसद ओबीसी कोटे में से किस आधार पर उपकोटा निर्धारित किया गया दूसरा इसके लिए पिछड़ा वर्ग आयोग से कोई सलाह की गई और तीसरा कि क्या इसके लिए कोई अध्ययन कराया गया। तीनों ही सवालों का जवाब केंद्र सरकार के पास नहीं है। विपक्षी दलों खासकर बीजेपी और शिवसेना का आरोप है कि कोटा में कोटा देने का फैसला दरअसल संविधान की उस भावना के विपरीत है जिसमें धार्मिक आधार पर आरक्षण देने का विरोध किया गया है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट में दिए तर्क में सरकार ने कहा है कि उसने अपने आदेश में अल्पसंख्यक शब्द का इस्तेमाल किया है जिसका अर्थ सिर्फ मुस्लिम नहीं होता है। सुप्रीम कोर्ट के इन सवालों ने केंद्र सरकार के लिए कोई मौका नहीं छोड़ा है। आरक्षण के जरिए वंचित और कमजोर तबके को मुख्यधारा में लाने और अधिकार संपन्न बनाने में मदद मिली है लेकिन यह भी उतना ही सच है कि इस हथियार का इस्तेमाल दलों ने अपने राजनीतिक हित साधने के लिए किया है। सुप्रीम कोर्ट के इन सवालों ने भी राजनीतिक दलों के वोट लुभाने वाले खेल को ना सिर्फ उजागर किया है बल्कि उसका दस्तावेजीकरण भी कर दिया है। सवाल यह है कि क्या सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद भी अल्पसंख्यकों के वोट बैंक की राजनीति करने वाले दल फिर ऐसा कदम उठाने से बाज आएँगे। अतीत के अनुभव तो इस सवाल का जवाब ना में ही देते हैं। शाहबानो प्रकरण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए संवैधानिक संशोधन ही ला दिया गया था। समाज के कमजोर और वंचित तबके को आगे बढ़ने का मौका मुहैया कराना सरकारों का दायित्व है। लेकिन इसके लिए देखना होगा कि ऐसा करते वक्त दूसरे के हक न मारे जाएँ लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा होता नजर नहीं आ रहा।
Muzaffar Bharti
Cell:no 8764355800

शुक्रवार, 29 जून 2012

अल्पसंख्यक का दर्जा देने से मुसलमान को क्या मिला?

इस देश में सरकारी आंकड़ों के हिसाब से 17 से 20 करोड़ मुस्लमान हैं। इनमें से एक भी यदि ये बता दे की इस अल्पसंख्यक शब्द का उसे या किसी और को कुछ लाभ आज तक मिला हो, मैं नहीं समझता की किसी को भी कोई लाभ आज दिन तक मिला हो, फिर क्या विड़म्बना है, क्यों हमें अलग थलग करने की सजिश रची गयी है? क्या हमें किसी तरह का शिक्षा या नौकरी या अन्य कोई लाभ आजादी से आज तक मिला, नहीं तो फिर क्या मतलब है हमारी इतनी बड़ी आबादी को देश के दुसरे लोगो से दूर रखने का।
दोस्तों ये सारा षडयंत्र है। हमें सब से काटे रखने का। जब किसी तरह का कोई अलग से प्रावधान नहीं तो क्यों कांग्रेस ने ये अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक में हमे विभाजित करने की सजिश रची। मैं पूर्व संघ प्रमुख के इस बयान से पूर्णतया सहमत हूं की मुस्लमान इस देश में जब बहुसंख्यक है तो उसे अल्पसंख्यक क्यों कहा जाये और पूरे देश में अलग-थलग क्यों किया जाये। आखिर हम सब कुछ तो बहुसंख्यकों की तरह ही कर रहे हैं, फिर ये दागीला टीका किस लिए? मित्रों, इस देश में सरकार ने केंद्र हो या राज्य, सभी में अल्पसंख्यक आयोग बना रखे हैं, लेकिन उनका काम और उनको अधिकार के नाम पर कुछ भी नहीं है। राजस्थान अल्पसंख्यक आयोग का वार्षिक बजट सिर्फ 15 - 20 लाख रुपए है, जो सिर्फ अधिकारी और कर्मचारियों की तनख्वाह में चला जाता है, वे विकास की मोनिटिरिंग और सलाह क्या देंगे? क्यों कि उसके लिए राज्यभर में आयोग की गतिविधियां होना आवयशक है, परन्तु सरकार का बजट ही नहीं है। ये है सरकार की चिंता अल्पसंख्यकों के प्रति। मित्रों मैं ये बात इस विश्वास से यूं कह रहा हूं क्यों की पिछली सरकार में, में स्वयं राजस्थान अल्पसंख्यक आयोग में बतोर सदस्य कार्य कर चुका हूं और पूरे राज्य में हमने जनसुनवाई की और लोगों की परेशानियों को मुख्यमंत्री तक पहुंचाया। वो तो मुख्यमंत्री महोदय संवेदनशील थीं, जो हमारी भावनाओं को समझ कर जल्द से जल्द निपटारा कर देती थीं, लेकिन उससे पहले आयोगों की दुर्दशा मात्र एक सरकारी दफ्तर के अलावा कुछ भी नहीं थी। मित्रों कहने का तात्पर्य ये है की आज अल्पसंख्यक खास कर मुस्लिम इलाकों की जो दुर्दशा है, वह किसी से छुपी हुई नहीं है। गन्दगी, बेरोजगारी, गरीबी, शिक्षा का अभाव, आखिर क्यों?
अगर आप (कांग्रेस) कहते हैं कि हम अल्पसंख्यक हैं तो हम में आपने ऐसे क्या सुर्खाब लगा दिए? बतायें कब और किस जगह आप ने विकास करवा दिया। सिर्फ राजस्थान ही नहीं पूरे देश में कोई एक शहर बता दें, जहा आप ने शिक्षा या रोजगार के लिए ईमानदारी से प्रयास किये हों? फिर ये ढोंग किस बात के लिए? क्यों हमे पूरे समाज से काटे रखा? उनमें इस भावना को जगाया की अरे ये सरकार तो सब कुछ सिर्फ अल्पसंख्यकों खास कर मुसलमानों के हितों की ही बात करती है। इस देश में हिन्दू दोयम दर्जे का नागरिक बना के रख दिया है, परन्तु मैं अपने हिन्दू भाइयों को बताना चाहूंगा कि इस कांग्रेस और दूसरे तथाकथित धरमनिरपेक्ष दलों ने ही मुसलमानों को तरक्की नहीं करने दी। मात्र असुरक्षा की भावना को पनपाये रखा। वरना 35 वर्ष तक बंगाल में शासन करने वाले कम्युनिस्ट के राज में तो मुसलमान बहुत तरक्की करना चाहिए था, पर मित्रों इस शासन में मुस्लमान गरीब से भिखारी बन गया। मित्रों, मैं खुद एक राष्टीय पार्टी की अल्पसंख्यक मोर्चे की रष्ट्रीय कार्यसमिति का सदस्य और राजस्थान की प्रदेश कार्यसमिति में उपाध्यक्ष हूं,परन्तु में खुद अपनी पार्टी के राष्टीय अध्यक्ष के सामने भी इस बात को ले के आऊंगा के ये अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक क्या है? हम अगर किसी पार्टी के सदस्य हैं, तो विभेद कैसा? अगर हम भी विभेद करेंगे तो जनता को क्या सन्देश देंगे? आखिर हम कहते हैं कि हमारे लिए राष्ट्र सर्वेप्रथम है, फिर विभेद क्यों?
मित्रों, हम सब को मिल कर इस विभेद को दूर करना होगा और सरकारों व राजनीतिक पार्टियों को चेताना होगा कि इस भेदभाव को दूर किया जाये और वाकई हम से प्रेम है, हमारा विकास चाहते हो तो सब से पहले हम सब को एक प्लेटफार्म पर आने दो, फिर मिल कर हमारे विकास की बातें करो। हमें अलग करने की इस योजना पर कार्य करना बंद करें अन्यथा हमारे बीच की ये दूरी हमारे बीच गृह युद्ध की नौबत न ला दे, जो शायद ये सरकार भी चाहती है कि इस देश में हर मजहब का व्यक्ति आपस में लड़ता रहे। हीन भावना से ग्रसित रहे कि किसी के हक को मार के दूसरे को दिया जा रहा है परन्तु वास्तविकता कुछ और है। इनकी सब बातों को ले कर कुछ लोग तुष्टिकरण की बात करते हैं, मित्रों वह भी गलत नहीं है क्यों कि जिस योजनाबद्ध तरीके से कांग्रेस हमारा फर्जी हितैषी बन कर खड़ी होती है, सब को लगता है की सारी की सारी थाली मुसलमानों को ही परोसी जा रही है परन्तु सच्चाई इस से कोसों दूर है। बेचारा (माफ कीजियेगा, इस शब्द पर भी कुछ लोग आपत्ति जताते हैं) मुस्लमान तो दोनों तरफ से पिस रहा है। पहली सरकार की गलत नीतियां, बाद में अपने ही लोगों के ताने, उसे ऐसे में बेचारा न लिखूं तो आप ही सुझायें की क्या लिखा जाये?
आज देश का कानून एक है, सविधान एक है, तो फिर विभेद किस का, हमें क्यों इस देश और हमारे अधिकारों से जानबूझ कर अलहदा किया जा रहा है? जब हमें अल्पसंख्यक होने का कोई लाभ नहीं तो फिर ये साजिश किसलिए।
-सैयद इब्राहिम फखर, एडवोकेट

बेचारा मुस्लिम

गरीब मुस्लमान की हालत उस बेचारे की तरह है जिसे जब चाहा जिसने चाहा इस्तेमाल किया और काम निकलने के बाद फैक दिया जिस में सब से ज्यादा कांग्रेस ने आज़ादी से ले कर आज तक सिर्फ वोट बैंक समझा नाकी इन्सान सुरक्षा के नाम पे डराते रहे और हमारी दुरिया हमारे भाइयो से बढ़ाते रहे ये जानते थे की हमारे बीच दूरिया अगर ख़तम हो जाएँगी तो इनकी राजनीती पे फर्क पड़ेगा मगर दोस्तों फर्क तो अब जरूर पड़ेगा इन्हें तो सबक सिखाना ही पड़ेगा की तुमने इस देश को बोहुत लूट लिया बस अब तुम्हारे पाप का गड़ा भर चूका है !
मित्रो कांग्रेस क्यों की विदेशी विचारधारा से संचालित होती है इसलिए इनको इस देश की मिटटी और देश की जनता से कोई सरोकार नहीं है इनकी मंशा तो बस इस देश को लूट कर यूरोपिये देशो को मालामाल करना मात्र है इनको हिन्दू मुस्लमान किसी से कोई मतलब नहीं ये तो बस अंग्रोजो के उस विचार से प्रेरित है की फूट डालो और शासन करो ! तभी तो इन्होने हिन्दू और मुस्लमान जो इस देश की दो आँखे है उनमे से एक आँख को कभी खुलने नहीं दिया हमेशा अपने भाइयो से दूर रखा की यदि मुस्लिम वर्ग पड़ लिख जायेगा तो अपने अधिकार की मांग करेगा जो की इनको नापसंद है लेकिन स्वयम के पर्यासों से ही सही अब ये वर्ग सचेत हो गया है और तुम्हारी हर चाल का जवाब देने को तैयार है अरे फरेबी धरमनिर्पेश्वादियो तुम हज्ज में रियायत की बात करते हो हमने तो तुमसे रियायत कभी मांगी भी नहीं , क्यों के हज्ज हर मुस्लिम का फ़र्ज़ है अपनी मेह्नत की कमाई से हज्ज करे ना की किसी की इमदाद से और फिर तुम जो इमदाद दे रहे हो वोह वापस उन ticketo में दाम बड़ा के ले रहे हो और हमारे हिन्दू भाइयो में सन्देश ये देना चाहते हो की तुम मुस्लिम हितेषी हो अगर तुम देश की जनता से इतना ही प्रेम करते हो तो हिन्दू और मुस्लिम की तथाकथित नितीया अलग अलग बना के क्या दर्शाना चाहते हो की तुम हिन्दुओ से दोगलापन करके मुस्लिम हितेषी हो सकते हो कभी नहीं ,बेचारे गरीब मुस्लमान को तो अपनी दो जून की रोटी के चक्कर में कुछ भी नहीं पता की कब तुम क्या घोषणा करते हो और मीडिया के मित्र कब उसपे बेवजह की बहस शुरू कर देते है !
मित्रो अगर कांग्रेस और ये दुसरे दल जो अपने आप को मुस्लिम हितेषी साबित करने में लगे हुए है उनसे पूछो की अगर तुम इतने हितेषी थे तो फिर भी गरीब मुस्लमान भूंख और गरीबी में क्यों ज़िन्दगी जी रहा है विगत ६५ सालो में तो उसकी हालत बद्से बदतर ही हुई है ! में उन गुलामी में जकड़ी हुई मानसिकता लिए हुए मुस्लिम लीडरो से भी पूछता हु इन ६५ सालो में कभी तुमने आत्ममंथन किया की तुम ने कोम को क्या दिया या इस कांग्रेस और छदम धराम्निर्पेश दलों ने हमे कहा ला के छोड़ दिया है क्यों हम ने कुछ राजनीतिक दलों को अचुत समझ रखा है आखिर वोह भी हमारे ही देश के लोग है लेकिन एक बात बिलकुल सच है की ये दल कांग्रेस की तरह आस्तीन में सांप नहीं है इनकी नीतिया बिलकुल स्पष्ट है तो इसमें बुराई भी क्या है अगर हिन्दू अपने हित की बात हिंदुस्तान में नहीं करेगा तो मित्रो क्या इटली में जाके करेगा में इसमें कोई बुराई नहीं समझता ,राष्ट्र की बात करना कया गलत है ? अगर गलत है तो हां में राष्ट्रवादी हु आखिर हम भी हिंदुस्तान से प्यार करते है क्यों की इस बात को हर व्यक्ति जानता है की आज़ादी के पश्चात् हमारे भाई हिन्दुओ के पास कोई विकल्प नहीं था भारत में रहने के अलावा परन्तु हमारे पास विकल्प होते हुए भी हम ने भारत को चुना यही हमारा प्यार और नमन है इस मिटटी को इस लिए अब समय नहीं है एक दुसरे को शक की नजरो से देखने का, आओ मिल कर एक नए भारत के निर्माण के लिए तैयार हो जाये ,माँ भारती हमे पुकार रही है अपनी आहुति के लिए मित्रो इस वक़्त देश में एक क्रांति की आवयेशकता है उसमे हम सब को मिल कर आहुति देनी है जिस से ये देश वापस भंय, भूख से मुक्त पुन सोने की चिड़िया बने!
मित्रो अगर लेखनी में गलती हो तो माफ़ कीजियेगा! जय भारत जय माँ भारती
-सैयद इब्राहीम फखर अधिवक्ता

पानी इत्थे आहे?

खबर है कि सारे उत्तरी भारत और विषेषकर देष की राजधानी में इन दिनों पानी के लिए हाहाकार मचा हुआ है. हर कोई पूछ रहा है कि पानी कहां है?, पानी कित्थै आहे? दिल्ली सरकार के नुमाइंदे इसके लिए हरियाणा को दोष दे रहे हैं तो हरियाणा वाले दिल्ली सरकार को, ताकि इस दोषारोपण में किसी तरह टाइमपास हो जाए और तब तक मानसून आ जाए. मजे की बात है कि दिल्ली सरकार बार बार अनाउंस कर र्रही है बूंद बूंद पानी बचाइये. जनता पूछ रही है कि छह छह रोज में तो प्रानी आ रहा है तब कोई क्या पीये और क्या बचाये? कहा भी है कि .....क्या नहाये और क्या निचोड़े?
कुछ लोगों ने खोजबीन की है और उन्होंने विश्वस्त सूत्रों से पता लगाया है कि पानी तो पोस्ट आफिस में रखे तथाकथित गोंद के डिब्बों में है। वहां गोंद है ही नहीं सिर्फ पानी है. वह खुद यह देखकर आए हैं, चाहे तो आपभी जाकर पता कर लें। कुछ पानी की मात्रा कतिपय राजनीतिक दलों ने अपने अपने कार्यालयों में इक_ी कर रखी है. बताते हैं कि वह यह पानी देश के कुछ क्षेत्रों में अब तक हुई प्रगति पर पानी फेरने के काम में लेंगे. मसलन देश में वर्षों बाद साम्प्रदायिक सौहार्द बनने लगा है. लोगों ने मंदिर-मस्जिद विवाद में दिलचस्पी लेना कम कर दिया है. भाषायी उन्माद थमा हुआ है. प्रांतीयता का हव्वा सिवाय मुंबई के और जगह नदारद है, प्रंातों का सीमा विवाद ठंडे बस्ते में है, लेकिन यह तत्व मौके की तलाश में रहते हैं और अवसर मिलते ही फिर इस स्थिति पर पानी फेर सकते हैं और इसके लिए पानी तो चाहिएगा न? वही इन्होंने स्टोर कर रखा है। कुछ पानी की मात्रा कोल्ड ड्रिक तथा बोतल बंद पानी का व्यापार करने वालों ने अपने यहां एकत्रित कर रखा है, जिसे यह लोग जरीकेन और बोतलों में भरकर तरह तरह के नामों से बेचकर एक के चार कर रहे हैं. मजे की बात है कि यह सब सरकार की नाक के नीचे हो रहा है. किसे फुरसत है कि इस पानी की रसायनिक जांच-टीडीएस इत्यादि की जांच-हो. उन्हें निहित स्वार्थों के हितों की चिंता है या आम जनता की?
बताने वाले तो यहां तक बता रहे हैं कि चुनाव की संभावना भांप कर जब से सरकार ने विभिन्न कच्ची बस्तियों के नियमन का ऐलान किया है तबसे ही लालचवश पानी की कुछ मात्रा उन्होंने भूमाफियों के मुंह में देखी है. राम जाने कहां तक सही है? वैसे होने को पानी देश की अधिकांश गरीब और असहाय जनता की आंखों में भी है, जब वह सुनती है कि एक तरफ तो 60 प्रतिशत जनता टायलेट की सुविधा से वंचित है, वही दूसरी ओर हमारा हाथ गरीब के साथ कहने वाली सरकार की नाक के नीचे योजना आयोग सिर्फ दो टायलेट पर 35 लाख रुपए खर्च करता है.
आजादी के 65 साल बाद भी सिर पर मैला ढ़ोने की प्रथा चालू है. हर वर्ष लू, शीत लहर और बाढ़ से मरने वालों की संख्या में बढ़ोतरी क्यों हो रही है ? पानी नारी की आंखों में भी हैं. अभिनेता आमिर खां के सत्यमेव जयते में दिखाये जाने वाले विभिन्न एपिसोड से वह बात फिर सिद्ध हो रही है, जो एक प्रसिद्ध कवि ने वर्षों पूर्व इन पंक्तियों में लिख दी थी-नारी जीवन हाय तेरी यही कहानी, आंचल में है दूध और आंखों में पानी. अब यह बात समाज और सरकार पर है कि वह नारी को उसका उचित सम्मान दिलाए. रही बात पानी की मात्रा की तो उसकी कही कोई कमी नहीं है, सवाल है 'नदी जोड़ो योजना पर पुन: विचार कर उसे, टुकड़ों टुकड़ों में ही सही, शुरू करें और फिलहाल उपलब्ध पानी को सिर्फ लुटियन जोन वालों को ही न लूटने दें और पानी का उचित वितरण करें.
-ई. शिव शंकर गोयल
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शुक्रवार, 22 जून 2012

भारत को एक रखने के लिए बलिदान हुए मुखर्जी

भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारत को पूरी तरह एक बनाए रखने के लिए बलिदान दिया था। जम्मू कश्मीर को भी शेष भारत के समान दर्जा दिए जाने के प्रबल पक्षधर डॉ. मुखर्जी पंडित जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमंडल के सदस्य थे। कश्मीर के मामले में नेहरू जी के साथ उनके गंभीर मतभेद थे, जिनकी परिणति पहले उनके इस्तीफे में और फिर 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना में हुई। जम्मू-कश्मीर में परमिट प्रणाली का विरोध करते हुए वे बिना अनुमति वहां गये और वहीं उनका प्राणान्त हुआ।
डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के पिता श्री आशुतोष मुखर्जी कलकत्ता विश्वविद्यालय के संस्थापक उपकुलपति थे। उनके देहांत के बाद केवल 23 वर्ष की अवस्था में श्यामाप्रसाद जी को वि.वि. की प्रबन्ध समिति में ले लिया गया। 33 वर्ष की छोटी अवस्था में ही वे कलकत्ता वि.वि. के उपकुलपति बने।
डॉ. मुखर्जी ने जम्मू-कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय के लिए बलिदान दिया। परमिट प्रणाली का विरोध करते हुए वे बिना अनुमति वहां गये और वहीं उनका प्राणान्त हुआ।
कश्मीर सत्याग्रह क्यों?
भारत स्वतन्त्र होते समय अंग्रेजों ने सभी देशी रियासतों को भारत या पाकिस्तान में विलय अथवा स्वतन्त्र रहने की छूट दी। इस प्रक्रिया की देखभाल गृहमंत्री सरदार पटेल कर रहे थे। भारत की प्राय: सब रियासतें स्वेच्छा से भारत में मिल गयीं। शेष हैदराबाद को पुलिस कार्यवाही से तथा जूनागढ़, भोपाल और टोंक को जनदबाव से काबू कर लिया; पर जम्मू-कश्मीर के मामले में पटेल कुछ नहीं कर पाये क्योंकि नेहरू जी ने इसे अपने हाथ में रखा।
मूलत: कश्मीर के निवासी होने के कारण नेहरू जी वहां सख्ती करना नहीं चाहते थे। उनके मित्र शेख स्वतंत्र जम्मू-कश्मीर के प्रधान बनना चाहते थे, दूसरी ओर वह पाकिस्तान से भी बात कर रहे थे। इसी बीच पाकिस्तान ने कबाइलियों के वेश में हमला कर घाटी का 2/5 भाग कब्जा लिया। यह आज भी उनके कब्जे में है और इसे वे 'आजाद कश्मीर कहते हैं।
नेहरू की ऐतिहासिक भूल
जब भारतीय सेनाओं ने कबायलियों को खदेडऩा शुरू किया, तो नेहरू जी ने ऐतिहासिक भूल कर दी। वे 'कब्जा सच्चा, दावा झूठा� वाले सामान्य सिद्धांत को भूलकर जनमत संग्रह की बात कहते हुए मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गये। सं.रा. संघ ने सैनिक कार्यवाही रुकवा दी। नेहरू ने राजा हरिसिंह को विस्थापित होने और शेख अब्दुल्ला को अपनी सारी शक्तियां सौंपने पर भी मजबूर किया।
शेख ने शेष भारत से स्वयं को पृथक मानते हुए वहां आने वालों के लिए अनुमति पत्र लेना अनिवार्य कर दिया। इसी प्रकार अनुच्छेद 370 के माध्यम से उन्होंने राज्य के लिए विशेष शक्तियां प्राप्त कर लीं। अत: आज भी वहां जम्मू-कश्मीर का हल वाला झंडा फहरा कर कौमी तराना गाया जाता है।
जम्मू-कश्मीर के राष्ट्रवादियों ने 'प्रजा परिषद के बैनर तले रियासत के भारत में पूर्ण विलय के लिए आंदोलन किया। वे कहते थे कि विदेशियों के लिए परमिट रहें; पर भारतीयों के लिए नहीं। शेख और नेहरू ने इस आंदोलन का लाठी-गोली के बल पर दमन किया; पर इसकी गरमी पूरे देश में फैलने लगी। 'एक देश में दो विधान, दो प्रधान, दो निशान- नहीं चलेंगे� के नारे गांव-गांव में गूंजने लगे। भारतीय जनसंघ ने इस आंदोलन को समर्थन दिया। डॉ. मुखर्जी ने अध्यक्ष होने के नाते स्वयं इस आंदोलन में भाग लेकर बिना अनुमति पत्र जम्मू-कश्मीर में जाने का निश्चय किया।
जनसंघ के प्रयास
इससे पूर्व जनसंघ के छह सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल को कश्मीर जाकर परिस्थिति का अध्ययन भी नहीं करने दिया गया। वस्तुत: शेख ने डॉ. मुखर्जी सहित जनसंघ के प्रमुख नेताओं की सूची सीमावर्ती जिलाधिकारियों को पहले से दे रखी थी, जिन्हें वह किसी भी कीमत पर वहां नहीं आने देना चाहते थे। यद्यपि अकाली, सोशलिस्ट तथा कांग्रेसियों को वहां जाने दिया गया। कम्युनिस्टों ने तो उन दिनों वहां अपना अधिवेशन भी किया। स्पष्ट है कि नेहरू और शेख को जनसंघ से ही खास तकलीफ थी।
कश्मीर की ओर प्रस्थान
डॉ. मुखर्जी ने जाने से पूर्व रक्षा मंत्री से पत्र द्वारा परमिट के औचित्य के बारे में पूछा; पर उन्हें कोई उत्तर नहीं मिला। इस पर उन्होंने बिना परमिट वहां जाने की घोषणा समाचार पत्रों में छपवाई और 8-5-1953 को दिल्ली से रेल द्वारा पंजाब के लिए चल दिये। दिल्ली स्टेशन पर हजारों लोगों ने उन्हें विदा किया। रास्ते में हर स्टेशन पर स्वागत और कुछ मिनट भाषण का क्रम चला। इस यात्रा में डॉ. मुखर्जी ने पत्रकार वार्ताओं, कार्यकर्ता बैठकों तथा जनसभाओं में शेख और नेहरू की कश्मीर-नीति की जमकर बखिया उधेड़ी। अम्बाला से उन्होंने शेख को तार दिया, ''मैं बिना परमिट जम्मू आ रहा हूं। मेरा उद्देश्य वहां की परिस्थिति जानकर आंदोलन को शांत करने के उपायों पर विचार करना है। इसकी एक प्रति उन्होंने नेहरू को भी भेजी। फगवाड़ा में उन्हें शेख की ओर से उत्तर मिला कि आपके आने से कोई कार्य सिद्ध नहीं होगा।
गिरफ्तारी
अब डॉ. मुखर्जी ने अपने साथ गिरफ्तारी के लिए तैयार साथियों को ही रखा। 11 मई को पठानकोट में डिप्टी कमिश्नर ने बताया कि उन्हें बिना परमिट जम्मू जाने की अनुमति दे दी गयी है। वे सब जीप से सायं 4.30 पर रावी नदी के इस पार स्थित माधोपुर पोस्ट पहुंचे। उन्होंने जीप के लिए परमिट मांगा। डिप्टी कमिश्नर ने उन्हें रावी के उस पार स्थित लखनपुर पोस्ट तक आने और वहीं जीप को परमिट देने की बात कही।
सब लोग चल दिये; पर पुल के बीच में ही पुलिस ने उन्हें बिना अनुमति आने तथा अशांति भंग होने की आशंका का आरोप लगाकर पब्लिक सेफ्टी एक्ट की धारा तीन ए के अन्तर्गत पकड़ लिया। उनके साथ वैद्य गुरुदत्त, पं0 प्रेमनाथ डोगरा तथा श्री टेकचन्द शर्मा ने गिरतारी दी, शेष चार को डॉ. साहब ने लौटा दिया। डॉ. मुखर्जी ने बहुत थके होने के कारण सवेरे चलने का आग्रह किया; पर पुलिस नहीं मानी। रात में दो बजे वे बटोत पहुंचे। वहां से सुबह चलकर दोपहर तीन बजे श्रीनगर केन्द्रीय कारागार में पहुंच सके। फिर उन्हें निशातबाग के पास एक घर में रखा गया। शाम को जिलाधिकारी के साथ आये डॉ. अली मोहम्मद ने उनके स्वास्थ्य की जांच की। वहां समाचार पत्र, डाक, भ्रमण आदि की ठीक व्यवस्था नहीं थी। वहां शासन-प्रशासन के अधिकारी प्राय: आते रहते थे; पर उनके सम्बन्धियों को मिलने नहीं दिया गया। डॉ. साहब के पुत्र को तो कश्मीर में ही नहीं आने दिया गया। अधिकारी ने स्पष्ट कहा कि यदि आप घूमने जाना चाहते हैं, तो दो मिनट में परमिट बन सकता है; पर अपने पिताजी से मिलने के लिए परमिट नहीं बनेगा। सर्वोच्च न्यायालय के वकील उमाशंकर त्रिवेदी को 'बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका प्रस्तुत करने के लिए भी डॉ. मुखर्जी से भेंट की अनुमति नहीं मिली। फिर उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप पर यह संभव हो पाया।
हत्या का षड्यन्त्र
19-20 जून की रात्रि में डॉ. मुखर्जी की पीठ में दर्द एवं बुखार हुआ। दोपहर में डॉ. अली मोहम्मद ने आकर उन्हें 'स्टैप्टोमाइसिन� इंजैक्शन तथा कोई दवा दी। डॉ. मुखर्जी ने कहा कि यह इंजैक्शन उन्हें अनुकूल नहीं है। अगले दिन वैद्य गुरुदत्त ने इंजैक्शन लगाने आये डॉ. अमरनाथ रैना से दवा के बारे में पूछा, तो उसने भी स्पष्ट उत्तर नहीं दिया। इस दवा से पहले तो लाभ हुआ; पर फिर दर्द बढ़ गया। 22 जून की प्रात: उन्हें छाती और हृदय में तेज दर्द तथा सांस रुकती प्रतीत हुई। यह स्पष्टत: दिल के दौरे के लक्षण थे। साथियों के फोन करने पर डॉ. मोहम्मद आये और उन्हें अकेले नर्सिंग होम ले गये। शाम को डॉ. मुखर्जी के वकील श्री त्रिवेदी ने उनसे अस्पताल में जाकर भेंट की, तो वे काफी दुर्बलता महसूस कर रहे थे। 23 जून प्रात: 3.45 पर डॉ. मुखर्जी के तीनों साथियों को तुरंत अस्पताल चलने को कहा गया। वकील श्री त्रिवेदी भी उस समय वहां थे। पांच बजे उन्हें उस कमरे में ले जाया गया, जहां डॉ. मुखर्जी का शव रखा था। पूछताछ करने पर पता लगा कि रात में ग्यारह बजे तबियत बिगडऩे पर उन्हें एक इंजैक्शन दिया गया; पर कुछ अंतर नहीं पड़ा और ढाई बजे उनका देहांत हो गया।
अंतिम यात्रा
डॉ. मुखर्जी के शव को वायुसेना के विमान से दिल्ली ले जाने की योजना बनी; पर दिल्ली का वातावरण गरम देखकर शासन ने उन्हें अम्बाला तक ही ले जाने की अनुमति दी। जब विमान जालन्धर के ऊपर से उड़ रहा था, तो सूचना आयी कि उसे वहीं उतार लिया जाये; पर जालन्धर के हवाई अड्डे ने उतरने नहीं दिया। दो घंटे तक विमान आकाश में चक्कर लगाता रहा। जब वह नीचे उतरा तो वहां खड़े एक अन्य विमान से शव को सीधे कलकत्ता ले जाया गया। कलकत्ता में दमदम हवाई अड्डे पर हजारों लोग उपस्थित थे। रात्रि 9.30 पर हवाई अड्डे से चलकर लगभग दस मील दूर उनके घर तक पहुंचने में सुबह के पांच बज गये। इस दौरान लाखों लोगों ने अपने प्रिय नेता के अंतिम दर्शन किये। 24 जून को दिन में ग्यारह बजे शवयात्रा शुरू हुई, जो तीन बजे शवदाह गृह तक पहुंची। इस घटनाक्रम को एक षड्यन्त्र इसलिए कहा जाता है क्योंकि डॉ. मुखर्जी तथा उनके साथी शिक्षित तथा अनुभवी लोग थे; पर उन्हें दवाओं के बारे में नहीं बताया गया। मना करने पर भी 'स्टैप्टोमाइसिन का इंजैक्शन दिया गया। अस्पताल में उनके साथ किसी को रहने नहीं दिया गया। यह भी रहस्य है कि रात में ग्यारह बजे उन्हें कौन सा इंजैक्शन दिया गया? उनकी मृत्यु जिन संदेहास्पद स्थितियों में हुई तथा बाद में उसकी जांच न करते हुए मामले पर लीपापोती की गयी, उससे कई सवाल खड़े होते हैं। यद्यपि इस मामले से जुड़े प्राय: सभी लोग दिवंगत हो चुके हैं, फिर भी निष्पक्ष जांच होने पर आज भी कुछ तथ्य सामने आ सकते हैं।
-बलराम हरलानी
दुर्गा भवानी, 108, शास्त्रीनगर, अजमेर
फोन : 0145-2420868, मोबाइल : 9829125072

भारत स्वाभिमान : एक परिचय

भारत स्वाभिमान आन्दोलन वर्ष २००९ में गठित किया गया , स्थापना के साथ ही दो माह के अन्दर ही भारत स्वाभिमान संगठन की इकाइयां देश के ६०० जिलों में स्थापित की गयी, इसी संगठन को आगे विस्तृत करते हुए जून २००९ तक संगठन की इकाइयां लगभग ४००० से अधिक तहसीलों तक विस्तृत की गयी, आज सम्पूर्ण देश में भारत स्वाभिमान के प्रत्येक जिले में १०००० से ५०००० कार्यकर्ता सदस्य है तथा देश के लगभग १२० करोड़ लोग इससे प्रेम करते है तथा भावनात्मक रूप से इस संगठन से जुड़े हुए है. वर्ष २००९ से ही भारत स्वाभिमान के कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण की कार्यशालाएं हरिद्वार में प्रारंभ की गयी, जिसमें अप्रैल २००९ से लेकर सितम्बर २०१० तक लगातार सात- सात दिवसीय कार्यशालाएं आयोजित की गयी जिसमे प्रत्येक प्रान्त से ७००० से १५००० सक्रिय कार्यकर्ताओं ने योग, स्वदेशी, एक्युप्रेशर, आर टी आई, नशामुक्ति, संभाषण कला, ग्राम विकास, जड़ी बूटियों व भ्रष्टाचार मुक्ति, व्यवस्था परिवर्तन का गहन प्रशिक्षण पूज्य स्वामी रामदेव जी महाराज, आचार्य बाल-कृष्ण जी महाराज , पूज्य आचार्य प्रधुमन जी महाराज, भाई राजीव जी व अलग अलग विषयों के विद्वानों ने प्रदान किया. सम्पूर्ण भारत में तथा विश्व में यह एक अनूठा प्रयोग था जिसमें संपूर्ण देश से कार्यकर्ता एक स्थान पर आकर देश के सबसे बड़े ऑडिटोरियम में एकत्रित होकर राष्ट्रसेवा का संकल्प लेते थे.( आप भी पतंजलि में आकर इस ऑडिटोरियम का अवलोकन कर सकते है) इस प्रकार लगभग ३ लाख से अधिक लोगो को ७-७- दिनों के आवासीय शिविरों के प्रशिक्षण से तैयार कार्यकर्ताओं ने पूरे देश के ६ लाख ३८ हज़ार ३६५ गाँवों तक भ्रष्टाचार के विरूद्ध आवाज़ पहुंचानें की शपथ ली तथा इन कार्यकर्ताओं ने जाकर अपने अपने जिले व तहसीलों में दुसरे कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण देकर तैयार किया, ( आप भी अपने जिले की भारत स्वाभिमान की इकाई से संपर्क कर प्रशिक्षण प्राप्त कर सकते है).
भारत स्वाभिमान संगठन की इकाइयां देश के ६०० से अधिक जिलों में स्थापित की गयी, इसी संगठन को आगे विस्तृत करते हुए जून २००९ तक संगठन की इकाइयां लगभग ४००० से अधिक तहसीलों तक विस्तृत की गयी, आज सम्पूर्ण देश में भारत स्वाभिमान के प्रत्येक जिले में १०००० से ५०००० कार्यकर्ता सदस्य है तथा देश के लगभग १२० करोड़ लोग इससे प्रेम करते है तथा भावनात्मक रूप से इस संगठन से जुड़े हुए है. लगभग 11 करोड़ से अधिक लोग पूज्य स्वामी जी के योग शिविरो मे भाग ले चुके है।

स्वतंत्र शर्मा
जिला महामंत्री
पतंजलि योग समिति जिला अजमेर राजस्थान

शौक ही शौक में बन गया एक घर संग्रहालय


भारत ने संगीत को बहुत ऊंचाई दी है. यहाँ संगीत और उसके वाद्य यंत्रो को महज मनोरंजन तक सीमित नहीं रखा गया बल्कि उसे मंदिर और मठ से होते हुए विज्ञान की प्रयोगशाला तक ले जाया गया. जयपुर के अब्दुल अजीज को संगीत की तालीम विरासत में मिली है. लेकिन उन्होंने अपना समय वाद्य यंत्रो के संरक्षण और संग्रह को समर्पित कर दिया. अजीज का घर नायाब वाद्य यंत्रो से पटा पड़ा है. उनके पास कोई 600 से ज्यादा साज है. इनमें बौद्धकाल से लेकर मुगल और राजपूत राजाओं के समय के साज शामिल है. अजीज खोज-खोज कर वाद्य यंत्रो का संग्रह करते रहते हैं.
जयपुर के रामगढ़ मोड़ में उपेक्षित सा अजीज का घर दुर्लभ वाद्य यंत्रो के संग्रहालय में तब्दील हो गया है. कहीं सितार, सारंगी और तानपुरा है तो कहीं अफगानी रबाब, सरोद के साथ सुस्ता रहे हैं. अजीज का घर अब इन संगीत उपकरणों का बसेरा है. वो रियासत का दौर था जब अजीज के पुरखे दरबार की दावत पर जयपुर आए और नक्कारखाने में मुलाजिम हो गए. अजीज उस विरासत को अभी भी सहेजे हुए हैं.
हर तरह के साज
अजीज कहते हैं, ''मेरे पास सभी तरह के साज हैं. मुगलकाल और उससे भी पुराने दौर के है. मैं टूटे-फूटे साज भी लाता हूँ और फिर उन्हें वापस ठीक कर लेता हूँ. साज तीन तरह के होते हैं, खाल, गाल और बाल. तार वाले सारे साज बाल में आते है. खाल में वो साज आते है जिनमे रिदम है. गाल में वो वाद्य यंत्र आते हैं जो फूंक से बजते है. इनमें मेरे पास लकड़ी से लेकर लोहा, तांबा और पीतल तक सब तरह के साज हैं.'' अजीज के मुताबिक तार के वाद्य यंत्रों में रबाब, ताशा रबाब, तानसेन रबाब, रूहानी रबाब, सितार , तानपूरा, मयूर सितार जैसे यंत्र है. अजीज के पास रिदम में पखावज है- एक कपड़े से बना बाया है जो कपड़े से ही बजाया जाता है, कपड़े की ढोलक है. उनका कहना है कि उन्हें नहीं मालूम कि उनके पास किस-किस तरह के साज है. वे कहते हैं, ''मेरे पास प्लेट तरंग है, शहनाई में कई तरह के यंत्र है. घुंघरू में करीब सौ तरह की श्रेणियां है. झांझ छोटी से लेकर ढाई किलो तक की है.''
स्नानघर में भी साज
अजीज कोई धनी व्यक्ति नहीं है. उनके लिए इन वाद्य यंत्रो के लिए मुफीद जगह का इंतजाम सबसे मुश्किल काम है. वे कहते हैं, ''मेरे घर में हर जगह यंत्र भरे हुए हैं. हम सयुंक्त परिवार से है. मैंने सारे भाइयों की जगह ले ली और उसमे यंत्र भर दिए. यहाँ तक कि स्नानघर में भी वाद्य यंत्रो का डेरा है. हाँ अब परिवार का दबाव है कि इतनी जगह नहीं दी जा सकती.'' ये वो साज है जो कभी महफिलों की रौनक बने, राजसी महलों में दिल बहलाव किया, किसी नृत्यांगना के कदमों की थिरकन का साथ दिया, मंदिर और खानकाहों में इबादत का हिस्सा बने.
इनमे रणसिंघा जैसे साज भी हैं, जो सैनिक छावनियों से चल कर जंगे मैदान तक आए और योद्धाओं में अपनी संगीतक ध्वनि से शौर्य का भाव भरा. अब अरसा हुआ, जब इन वाद्य यंत्रो को किसी फनकार के साथ संगत का मौका मिला. अब्दुल अजीज जब हमारे साथ इन यंत्रो के बीच से दर गुजर हुए तो लगा संगीत के ये साज खुद को अभिव्यक्त करने को तड़प रहे हैं.
फिल्मों में उपयोग
अजीज ने उनमें से कुछ पर संगीत की धुनें भी निकाली. इनमे एक जलगान था. वे बताते है कि ये एक ऐसा यंत्र है जिसे कांसी की थाली में पानी भर कर मिट्टी के उपकरण से इसे बजाया जाता है. इन वाद्य यंत्रो ने हिंदी फिल्मों में भी अपनी मौजूदगी दर्ज कराई है. समय-समय पर फिल्म निर्माता इन यंत्रो को फिल्मी दृश्यों में दिखाते रहे हैं. जयपुर में त्रिमूर्ति संस्थान के संतोष शर्मा को संगीत का अच्छा ज्ञान है. वे अजीज वाद्य यंत्र संग्रह की परियोजना से जुड़े हैं. वे कहते कि भारत में किसी एक व्यक्ति के पास वाद्य यंत्रो का इतना अच्छा और विविधता भरा संग्रह नहीं है. संतोष शर्मा कहते हैं, ''नौशाद साहिब ऐसे यंत्रो को पसंद करते थे. जैसे रबाब है अफगानी और रूहानी, जैसे बट्टा वीणा है जो बट्टे से बजाई जाती थी. अब वो काम में नहीं ली जाती है. मयूर सितार है जो कहते है शाहजहाँ के दौर में था. ये सब यहाँ मौजूद हैं.''
संगीत के विद्यार्थी संतोष इतिहास में झांक कर देखते है और बताते है, ''इनमें कपड़े से बने साज भी हैं. जैसे तबला है. एक समय था जब ब्राह्मण तबला तो बजाते थे मगर चमड़े के हाथ नहीं लगते थे. सो कपड़े से तबला बनाया जाता था. उसकी ध्वनि भी ऐसी ही होती थी, फिर मुगल काल आया तो फिर चमड़े का इस्तेमाल होने लगा. इसमें यहाँ चार बौद्धकालीन साज भी हैं.''
अजीज के घर वाद्य यंत्र ऐसे ही रखे है गोया भारतीय रेल के तीसरे दर्जे के डिब्बे में ठसाठस मुसफिर भरे हो. जिसे जहाँ जगह मिली, वही केंद्रित हो गया. दुर्लभ दो तारा, जमगान, दुक्कड, दिलरुबा, विचित्र वीणा और सारंगी जैसे साज यूँ संग-संग खड़े बैठे थे. गोया समय के साथ नियति में आए फेर को स्वीकार कर लिया हो. शाही दरबार, नाच गाने, रौशनी से सराबोर मंच और अब बंद कमरों की दुनिया. साज तो फनकार की सांस, खुली हवा और थाप के तलबगार है. अजीज में संगीत की साधना तो बहुत है, मगर साधन नहीं है.
वे कहते है अब इलेक्ट्रोनिक साज और आ गए हैं. इससे भी इन पारंपरिक यंत्रो की बेकद्री हो रही है. ये वाद्य यंत्र हर मांगलिक उत्सव में इंसान के साथ रहे है तो गमे जिंदगी के संगीत में भी कभी इंसान को तनहा नहीं छोड़ा. इन वाद्य यंत्रो को इंसान से बिछोह का दर्द है. मगर क्या इंसान को भी उतना ही दर्द है.

लेखक श्री नारायण बारेठ राजस्थान के जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार हैं और लंबे समय से बीबीसी से जुड़े हैं

ये है शब्दश: बौद्धिक सरसंघचालक मोहन भागवत जी का

सिंधुपति महाराजा दाहरसेन के बलिदान दिवस पर अजमेर में महाराजा दाहरसेन स्मारक पर गत 16 जून को आयोजित विशाल श्रद्धांजलि समारोह में मुख्य वक्ता के रूप में मौजूद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने सिंध और महाराजा दाहरसेन की प्रांसगिकता पर जो बौद्धिक दिया, उसे आपकी जानकारी में लाने के लिए यहां शब्दश: दिया जा रहा है:-
परम श्रद्धेय, परम वंदनीय, संत वृंद, मंच पर उपस्थित भारतीय सिंधु सभा के सभी माननीय पदाधिकारी, कार्यकर्ता, सम्माननीय अतिथि, उपस्थित नागरिक सज्जन एवं माता भगिनी। महाराजा दाहरसेन का जमाना 13सौ वर्ष पूर्व का जमाना है। आजकल दुनिया में ऐसा कहने वाले लोग मिलते हैं कि बीती को बिसर जाओ, और जो है उसके साथ चलो, पुरानी बातें भूल जाओ। कभी कभी मेरे मन में आता है कि उनको पूछें कि आपका नाम कितने साल पुराना है, तो कोई कहता है 40 साल पूर्व रखा गया था, 50 साल पूर्व रखा गया था, 60 साल पूर्व, तो मैं कहता हूं आप तो उसको भूलते नहीं। बात बात पर अपना हस्ताक्षर उसी नाम से करते हैं। 50 साल बाद कोई आपको उसी नाम से पुकारे तो आप देखते हैं, अन्यथा नहीं देखते। तो ये बात सही है कि जमाने के साथ चलने में, कुछ बातों को बिसारना पड़ता है। लेकिन कुछ बातें ऐसी होती हैं, जो अपने जीवन के प्रत्येक क्षण में और मृत्यु के समय में भी याद रखनी पड़ती है। आदमी अपनी मृत्यु के क्षण में अपने सत्य स्वरूप को याद करता है तो तर जाता है। भूल जाता है जो जन्म जन्मांतर के फेर में फिर से फंस जाता है, और इसलिए मुझे जब पता चला, भारतीय सिंधु सभा के कार्यकर्ताओं ने कहा, वैसे उनका काम बहुत छोटा है, मैं यहां पर अपने व्यस्त सारे निर्धारित कार्यक्रमों में समय निकाल कर आया हूं। संघ शिक्षा वर्ग के प्रवास को संघ में कभी बदला नहीं जाता है, लेकिन मैंने अपने प्रवास को एक दिन कम करके यहां पर समय दिया है। इसका कारण क्या है, इसका कारण ये है, कि ये प्रसंग याद करने का प्रसंग है, और ऐसी बातों को याद करने का प्रसंग है, जिसे कभी भूलना नहीं चाहिए।
महाराजा दाहरसेन का बलिदान क्यों हुआ था? वैसे तो उस समय के भारत वर्ष में अलग-अलग राज्य थे। अलग-अलग राजा थे। महाराजा दाहरसेन झगड़ा करने के बजाए संधि करा लेते, तो उनका भी जीवन बच जाता था, समर के संहार से हम सब बचाव उस समय हो जाता था। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, वो लड़े। ऐसे भी अपने इतिहास में उदाहरण हैं कि ऐसी संधि लोगों ने की है। सिकंदर के सामने पौरस लड़ा, लेकिन आंभी ने उसके साथ संधि कर दी। हम पौरस को याद करते हैं और आंभी के प्रकरण को भूल जाना चाहते हैं। कोई हमारे इतिहास में आंभी का उल्लेख करता है तो हमको अच्छा नहीं लगता, पौरस की कथा बताए तो हमारा सीना अभिमान से फूल जाता है। ऐसा क्यों है? क्योंकि अभी सभी संतों ने, जिस मानवता का, जिस धर्म का उल्लेख किया, अपने जीवन के आचरण के नियम की दृष्टि से, उसके लिए भारतवर्ष खड़ा है, और लड़ाई से मुसलमान और हिंदुओं के बीच में नहीं थी, या दो राजाओं के बीच में नहीं थी। ये भूमि की लड़ाई नहीं थी। ये तो मूल्यों की लड़ाई थी। भारत वर्ष मानता है सारी दुनिया अपनी है, सारी दुनिया अपना परिवार है, वसुधैव कुटुंबकम। भारत के बाहर के लोग ऐसा नहीं मानते। आज भी दुनिया को एक करने की बात को लेकर भारत के बाहर के लोग चलते हैं। तब वो कहते हैं कि सारी दुनिया को बाजार बनाएंगे। याने सबका आचरण बाजारू आचरण हो जाएगा। ईमान को भी खरीद सकेंगे, ऐसी दुनिया बन जाएगी। भारत वर्ष को ये मंजूर नहीं है, वो ये नहीं कहता सारी दुनिया को एक बाजार बनाकर एक करें। वो कहता है सारी दुनिया को एक परिवार के आत्मीयता के सूत्र में बांधेंगे। वसुधैव कुटुंबकम, ऐसा एक विश्व खड़ा करेंगे। और जहां परिवार है, वहां अलग-अलग होने के बाद भी एकता होती है। एक परिवार में 7 भाई हैं, सबके स्वभाव अलग हैं। सबका अपना अपना परिवार है। सबके अपने-अपने बाल बच्चे हैं। सबका अपना-अपना कारोबार है, लेकिन सब मानते हैं कि ये सब सबका है। ये सब मेरा ही है। और मेरा जो है, वो हम सबका है। उसमें विविधता में एकता रहती है। दुनिया इस एकता को देख नहीं पाती, क्योंकि उसको इन सब बातों को विविधताओं को जोडऩे वाला जो सूत्र है, वो केवल भारतीयों के पास है। भारतीय संतों ने उसको अभी तक सुरक्षित रखा है।
भारत में ये व्यवस्था है कि वो सत्य के साथ साक्षात होकर समाज में आम लोगों में रह कर आम लोगों के जीवन में उस सत्य को उतारने वाले संतों की पंरपरा अभी भी चल रही है। और भारत का यही काम है, सारी दुनिया जब भटक जाती है, भूल जाती है, तो याद दिलाना अपने जीवन से सिखाना, ये भारत को करना होगा। उस भारत की इस भारतीयता को, हिंदुत्व को, सनातनत्व को, नष्ट करने के लिए आक्रमण था। एक नई बात लेकर लोग आए थे कि हम ही सही है, बाकी सब गलत हैं। सबको सही होना है तो हमारे ही रास्ते पर आना पड़ेगा। हम कहते हैं ऐसा नहीं है भई अपने-अपने रास्ते से चलो। मिलजुल कर रहो किसी को दुख मत पहुंचाओ, अहिंसक बनकर रहो, किसी को बदलने की कोशिश मत करो, जो बदल चाहिए वो अपने आप में करो। अच्छा है तो वो सारी दुनिया अपने आप बदल लेगी। इस तरीके से चलो ये उपदेश करने वाले हम और नहीं सारी दुनिया केा एक रंग में रंग देंगे बाकी सबको नष्ट करेंगे। हमारी ही चलेगी, हमारे ही जैसा रहना पड़ेगा, ऐसा मानने वालों की लड़ाई थी। इसलिए राजा दाहर ने ये विचार नहीं किया कि ये मेरे राज्य पर आक्रमण है। उसने ये विचार किया यह हमारी जीवन पद्धति पर आक्रमण है। ये मानवता पर आक्रमण है। ये सनातन धर्म पर आक्रमण है। ये हिंदुत्व पर आक्रमण है। उन्होंने ऐसा विचार किया, मुझे सपने में आकर बताया, ऐसा नहीं। ये विचार केवल पुस्तकों में नहीं था। ये विचार केवल भाषणों में नहीं था। ये विचार राजा दाहर जैसे राजाओं के जीवन में था। राज्य करने की पद्धति में था।
आज तो उनकी पुण्यतिथि है, इसलिए उनके बलिदान का स्मरण विशेष रूप से हो रहा है, और होना भी चाहिए, लेकिन जो जीवन उन्होंने अपने देश, धर्म, संस्कृति की रक्षा के लिए दांव पर लगाया, वो जीवन उसी देश, धर्म, संस्कृति के उदाहरण का प्रत्यक्ष प्रतीक था। उन्होंने कैसा राज्य चलाया? उन्होंने धर्म का आचरण कैसे किया, लेागों के और स्वयं के धर्म को बचाकर कैसे चले? लेागों में और स्वयं के जीवन में उस धर्म को बढ़ाकर कैसे चले? ऐसे ये सारे राजा थे। और इसलिए उस धर्म के मूल में जो तत्व है जिसको कोई ईश्वर कहता है, काई जड़ मानता है, कोई चेतन मानता है, कोई आत्मा कहता है, काई नहीं कहता है। कोई शून्य कहता है। उस तत्व को साक्षात करने वाले के मार्गदर्शन में ये राजा चलते थे। इसलिए उनके साथ संतों के रुचियों के नाम अपरिहार्य रूप से आते हैं। इसको हम धर्मराज्य कहते हैं। धर्मराज्य यानि किसी पोथी के नियमों को मानकर चलना नहीं है। धर्मराज्य याने जिन्होंने उस तत्व को अपने जीवन में साक्षात किया है। और अपने जीवन से लेागों को सिखा रहे हैं। उनकी राय को सुनकर चलना। उस मानवता को मानकर चलना है। उन्नति सबकी करनी है, एक की नहीं है, एक के साथ सबकी, सबके साथ एक की। इस प्रकार विकास करना है। ये मानकर चलना है। ऐसा राजा दाहर का राज्य भी धर्मराज्य था और राजा दाहर का अपना जीवन भी हिंदु गृहस्थ के धर्माचरण का उदाहरण है। और जब ये बारी आई के अब उस जीवन को फेंक देना पड़ेगा रण मैदान में। उस वैभव को उस परिवार के सुख को मिट्टी में मिला देना पड़ेगा, तभी देश की रक्षा होगी। मेरे मरने से ही लोग जीने की प्रेरणा लेंगे। ये जब उन्होंने जाना तो इस नश्वर संसार के उस माया के खेल को उन्होंने उतना ही नश्वर मानकर अपने तलवार की नोंक पर लटका कर फेंक दिया। हिंदू ऐसे जीता है, जब जीता है। तब जीने में रस लेकर ऐसे जीता है कि लोग कहें कि जियो तो ऐसे जियो, और जब उस माया के खेल को अंतिम सत्य के लिए दांव पर लगा कर फेंकने की बारी है तो ऐसे फेंकता है कि जुआरी जुए का पासा भी फेंकने में थोड़ा हिचकिचाएगा। हिंदु अपने जीवन को फेंकने में हिचकिचाएगा नहीं। ये हिंदु जीवन का आदर्श बचाने के लिए राजा दाहर का बलिदान हुआ। और इसलिए राजा दाहर उनकी भूमि, उनकी प्रजा ये कौन है? ये सब भारत के हैं।
आज हम लोग सिंध की उस भूमि पर नहीं हैं। भारत अखंड नहीं है लेकिन भारत है। सिंध की भूमि पर आज भी सिंधी हिंदू रहते हैं। अधिकांश लोगों को इधर आना पड़ा है। लेकिन जैसे तैसे अपने को बचाकर वहां सिंधी अपने आप को कहते हुए, और हिंदू अपने आप को कहते हुए एक व्यक्ति जब तक जीवित है, तब तक वहां भी भारत जीवित है। और इसलिए मैं कहता हूं कि अखंड भारत है। भारत अखंड नहीं है, लेकिन अखंड भारत है। हम भारत को अखंड बनाएंगे। तो अखंड भारत दुनिया के वैभव को ज्ञयान की बुलंदी पर चढ़ कर सारी दुनिया को सुख शांति का रास्ता देने में समथ्य होगा, क्योंकि आखिर मैं संघ का कार्यकर्ता हूं। संपूर्ण हिंदू समाज को संगठित करता हूं। तो छोटे सम्मेलनों में हम नहीं जाते। भाषाओं के, जातिपंथ विशेष के ऐसे सम्मेलनों में जाने के हमको रुचि नहीं रहती। लेकिन यहां मैं आया हूं, क्यों आया हूं, ये बताने के लिए आया हूं। जैसे बांग्लादेश के हिंदुओं की समस्या संपूर्ण हिंदू समाज की संपूर्ण भारत वर्ष की समस्या है। जैसे कश्मीर की समस्या, कश्मीरी पंडितों की समस्या संपूर्ण भारत की समस्या है, वैसे सिंध के हिंदुओं की समस्या चाहे वो यहां हो या वहां हो, वो संपूर्ण भारत की समग्र हिंदु समाज की समस्या है। ये हिंदू समाज के और भारत के विभाजन के कारण पैदा हुए। ये हिंदू समाज के और भारत के एकीकरण की समस्या है। और उसके वैभव संपन्नता को प्राप्त करने के मार्ग में आने वाली बाधाओं की समस्या है।
हमारे सिंधी भाई अगर राजा दाहर को स्मरण करते हैं, सिंधी भाषा को बचाने का प्रयास करते हैं, सिंधी की भूमि पर फिर से हम बस जाएं, उसी तरह स्वतंत्र होकर अगर बस जाएं, ऐसा प्रयत्न करते हैं तो वो सिंधी भाइयों के हित का प्रयत्न नहीं है, वो भारत के हित का प्रयत्न है। हम सब सिंधी भाषी को लोगों को भी और भारत वर्ष के बाकी सब लोगों को भी इसको समझना चाहिए। ये सूत्र नहीं छूटना चाहिए। भारत की हर भाषा, भारतीय भाषा। भारत की हर भाषा मेरी मातृभाषा है, अगर मैं वहां रहता हूं।
हमारे संघ में परिचय चलता है। हर बार परिचय होता है। परिचित लोगों का भी फिर से परिचय होता है। तो परिचय में कभी कभी लोग बोलते हैं, जैसा रिवाज है, मूलत: मैं यहां का रहने वाला हूं, मूलत: मैं वहां का रहने वाला हूं मैं कहता हूं भई मूलत: तुम कहां के रहने वाले हो, मूलत: तो तुम भारत के रहने वाले हो। भारत का कोई व्यक्ति कहां जाएगा, वो भारत में कहीं भी जा सकता है। सिंध से उजड़ा गया तो कहां गया। हम अमरीका में नहीं गए, हम भारत की ओर, कुछ लोग गए, बाहर भी गए, लेकिन वहां जाने के बाद भी आने की चाह इधर ही रखते हैं और अधिकांश लोग तो इधर चले आए क्यों क्योंकि ये स्वाभाविक बात है।
सारा भारत मेरा घर है तो मूलत: भारत क्या है? लेकिन भारत क्या है? भारत एक भाषा नहीं है, भारत एक प्रांत नहीं है, भारत एक पंथ संप्रदाय नहीं है। सब पंथ संप्रदाय है, सब भाषा भाषी, सब प्रांत मिलकर भारत बनता है। भारत के वो अभिन्न जैसे पानी और पानी की बूंद अलग नहीं हो सकते। बूंद अलग हो गई बूंद सूख जाएगी पानी रहेगा। लेागों बूंदों का पानी नहीं कहेगे। पानी की बूंदें कहेंगे। पानी में बूंदें हैं। दिखती नहीं अलग लेकिन निकाल सकते हैं। निकालने के बाद उनका अस्तित्व नहीं रहता। मिलकर रहती हैं बूंदों से ही पानी बनता है। घड़े को भरना है तो बूंद बूंद से ही भरना पड़ता है। बूंद और पानी अलग नहीं हैं। आप बूंद को नकार के पानी को नहीं बना सकते। पानी को नकर के बूंद को जीवंत नहीं रख सकते। और इसलिए भारत वर्ष से कोई बूंद छिटक जाए, बिखर कर जाए, अलग हो जाए, भारत वर्ष अधूरा है। एक बूंद पानी कम हो जाएगा। वो कभी भी पूरा पानी नहीं कहलाएगा। एक बूंद कम पानी ही कहलाएगा। और इसलिए भारत को अखंड होना आवश्यक है। और ये अपरिहार्य भी है अनिवार्य भी ये होना ही है। क्यों, क्योंकि ये नहीं रहा तो दुनिया नहीं बचेगी। दुनिया चल पड़ी गलत राह पर, सुख के पीछे। और सुख के इतने सारे प्रयोग 2000 वर्षों में कर लिए लेकिन दुनिया को सुख नहीं मिल रहा है। इसलिए सारी दुनिया के समझदार लोग अब भारत वर्ष की ओर देख रहे हैं, कि भारत वर्ष खड़ा हो। लेकिन लंगड़ा लूला आदमी खड़ा नहीं हो सकता। दुर्बल आदमी खड़ा नहीं हो सकता। बीमार आदमी खड़ा नहीं हो सकता। वैसे बीमार देश, लंगड़ा लूला देश, दुर्बल देश खड़ा नहीं हो सकता। और इसलिए पूर्ण अंग बनकर अपने समस्त अंगों को फिर से जोड़कर भारत को खड़ा होना पड़ेगा। इस दृष्टि से आप यहां जो प्रयास कर रहे हो वो बहुत महत्वपूर्ण प्रयास है। आखिर भारत की हर भाषा भारत के स्वत्व तक पहुंचाती है। मूल एकता तक पहुंचाती है। भारत का हर प्रांत, भारत का हर पंथ संप्रदाय, भारत की हर जाति अपने में से भारत के मूल को पहुंचाती है। हर एक का सबल होना और सबल होते समय हम एक पूर्ण के घटक हैं। इसका भान रखना भारत की सबलता में मदद करना है। अब अपने स्वत्व की पहचान कर रहे हैं। आप अपनी मातृ भाषा का उद्धार करना चाहते हैं, करना हि चाहिए क्योंकि बिना मातृ भाषा के आदमी माता का पुत्र नहीं बन सकता। भाषा के साथ भाव आता है। हम चाहे जितनी अच्छी अंग्रेजी बोल लेंगे। हमारे भाव जगत को हम व्यक्त नहीं कर सकते। अंग्रेजी भाषा में हमारे कई भावों के लिए शब्द नहीं हैं। जैसे अंग्रेजी के कई भावों के लिए हमारे यहां शब्द नहीं हैं। हमारे मूल्यों और जीवन के जिन मूल्यों में से अंग्रेजी भाषा आई है, वो मूल्य अलग अलग हैं, इसलिए कई बातें वहां हो नहीं सकती। जो हमारे यहां होती है। जो हमारे यहां हो नहीं सकती, वहां जो होती है। कोई महिला अगर वहां जाएगी तो लोग उसकी सुंदरता की प्रशंसा करेंगे, सार्वजनिक रूप से, सबके सामने, उसके भी सामने। आंखें कितनी सुंदर हैं, बदन कितना कोमल है, कपड़े कितने अच्छे फबते हैं, ऐसा कहेंगे। तो वो महिला गुस्सा नहीं होगी, लोग भी गुस्सा नहीं होंगे, महिला उल्टा लेागों को धन्यवाद देगी, थैंक यू कहेगी। हमारे यहां महिला की अनुपस्थिति में भी चार सभ्य लेागों में ऐसी चर्चा कोई करे तो लोग जूता मारेंगे। चार लोगों में पति भी अपनी पत्नी को बच्चे की मां के नाम से पुकारता है। रामू की मां को बुलाओ ऐसा कहता है। वो चार लोगों में भी अपनी पत्नी को पत्नी नहीं कहता, क्योंकि हमारी धारणा है कि समस्त महिला वर्ग मातृ वर्ग है। हम महिलाओं में माता को देखते हैं। वहां महिलाओं को एक भोग की वस्तु मानते हैं, जिसके सिवाए जीवन का उपभोग पूर्ण नहीं होता, ऐसा एक अनिवार्य साथी है, इतना ही मानते हैं। हम ये नहीं मानते हम ये मानते हैं ये जगत जननी जगदम्बा का रूप है। इसलिए कुमारी पूजन होता है। कुंवारी कन्याओं को तो चरण स्पर्श भी नहीं करते देते। लोग उनका चरण स्पर्श करते हैं। ऐसे रिवाज अपने यहां पर हैं, अब ये मूल्यों का अंतर है। इसको भाषा में कहना है तो अंग्रेजी भाषा में व्यक्त नहीं कर सकते। उसके लिए हमारी ही भाषा चाहिए। हमारे भाव का विकास अगर करना हो तो हमारी मातृ भाषा को जीवित रहना चाहिए। आप यहां पर बुजुर्ग लोग बैठे हैं, उनको मुझे ये उपदेश करने की आवश्यकता नहीं। आप सिंधी भाषा को अच्छी तरह जानते हैं। लेकिन अपने घर में ध्यान दीजिए, नई पीढ़ी उसको भूल रही है। भूलना नहीं है, आने वाली नई पीढ़ी अपने मूल निवास स्थान को नहीं भूले। अपने पूर्वजों को न भूले। अपनी भाषा को नहीं भूले। राष्ट्र इसी में से जीवित रहता है। और सिंधी भाषा की स्मृति, सिंधी भाषा का ज्ञान, सिंध की स्मृति और सिंध के महापुरुषों का इतिहास, ये भारतीय भाषा का ज्ञान है। भारतीय पूर्वजों का इतिहास है, भारत के भूभाग की स्मृति है। उसको भूल जाऊंगा, तो मैं अपने कंधों को भूल जाऊंगा। मैं मेरे पैर की चिंता करना भूल गया, बाकी सब अच्छा हूं और चल रहा रहा हूं। और पैरों को टेढ़ा मेढ़ा डाल दिया, तो पैर मोच खाता है और मेरे शरीर को बैठ जाना पड़ता है। बिस्तर में लेटना पड़ता है। दो तीन दिन चलने फिरने लायक नहीं रहता हूं। जब तक वो ठीक नहीं हेाता, तब तक मेरा चलना फिरना बंद हो गया। तो सभी को याद रखना है और हमको तो विशेष रूप से याद रखना है क्योंकि हमको सीधी वो विरासत मिली है। उस विरासत को याद रखना क्योंकि आज दुनिया में फिर से वो ही लड़ाई है। सारे दुनिया के मानव उसी लड़ाई को लड़ रहे हैं और उनको कोई सेनापति दूसरा मिलेगा नहीं भारत के सिवा। भारत को सेनापति बनकर खड़ा होना है।
सारी दुनिया में कट्टरपन और उदारता की लड़ाई चल रही है। दुनिया की जो लड़ाइयां चल रही हैं, वो कट्टरपन और उदारता की लड़ाई चल रही हैं। कपट और सरल धर्मयुद्ध की लड़ाई चल रही है। धर्मयोद्धा की और कपट योद्धा की लड़ाई चल रही है। सारी दुनिया में चल रही है। सारी दुनिया में एकांतिक कट्टरपन की दृष्टि और सबको साथ लेकर चलने वाली एक के साथ सबका और सबके साथ एक का विकास साधने वाली दृष्टि। उसकी लड़ाई चल रही है। सारी दुनिया में सब देशों के लोग लड़ रहे हैं, लेकिन उनको रास्ता दिखाने वाला, व्यूह रचना समझाने वाला, अपने युद्ध को जीतने के लिए अपनी कला कैसे हो ये समझाने वाला सेनापति नहीं है। सेनापति देने का काम भारत वर्ष का है। तो भारत वर्ष को खड़ा होना पड़ेगा। और भारत वर्ष बिना अपनी सब भाषाओं के बिना, अपने सब प्रांतों के लेागों के बिना, अपने सब प्रातों के भूभाग के खड़ा नहीं हो सकता। और इसलिए आज भारत अखंड नहीं है। लेकिन अखंड भारत है। वहां के हिंदुओं के हृदय में और हमारे हृदय में सुरिक्षत है। उसको इतना बलवान बनाना है कि अपने भौतिक रूप को भी भूमि सहित लेकर वो वैभव संपन्न, शक्ति संपन्न, समरस बनकर खड़ा हो।
हमको सत्य को प्रकट करना है। हमको और कुछ नहीं करना है। सत्य के पीछे हमारे जीवन की ताकत खड़ी रहेगी तो सत्य की विजय निश्चित है। सत्य कभी मरता नहीं। सत्य की जीवंत रहने की ताकत है। सत्य अमर है क्योंकि सत्य ईश्वर का अंश है। ईश्वर ही सत्य है, सत्य ही ईश्वर है। लेकिन उसको साकार रूप में दुनिया में सबल होकर खड़ा रहने की उसको शक्ति चाहिए। और शक्ति उसका आचरण करने वाले मनुष्यों की शक्ति होती है। वो हम लेाग मुनष्य है। संपूर्ण हिंदु समाज है। अपने सब भाषा भाषी लोगों के साथ वो हिंदू समाज खड़ा है। अपनी विरासत को ध्यान में रखे, अपनी विरासत के जीवन को आज के अपने जीवन से फिर से जीवित करे। अपने भूमि का प्रकट करे। अपनी भूमि पर खड़ा हो। ये हो जाए तो सारी दुनिया को सुख शांति देने वाला एक सेनापति मिल जाएगा। सारी दुनिया का जीवन सुंदर हो जाएगा। सारी दुनिया का जीवन अखंड हो जाएगा। मानवता सारी एक कुटुंब के रूप में आचरण करते हुए परमात्मा की ओर कदम बढ़ाएगी। यही बात अपने संत कहते हैं। अपने संतों की इच्छा सीमित नहीं रहती है, एक भूभाग की नहीं रहती है, देश के लिए नहीं रहती है। वो कहता है संपूर्ण विश्व सुखी होना चाहिए। सर्वे तु सुखि न संतु सर्वे संतु निरामया सर्वे भद्राणी पश्चंतु मा काश्चित दुख भाग भवेद। किसी को दुख न हो, सबको अच्छा ही देखने को मिले। द्यो: शांति, अंतरिक्ष शांति, पृथ्वी शांति, शांति भी शांत हो जाए। सारे विश्व के मंगल की कामना करने वाले ऋषि मुनियों के हम वंशज हैं। उनकी विरासत को अपने जीवन में उतार कर चलना है, ऐसा चलने में संघर्ष अपरिहार्य है। भगवान सबकी परीक्षा लेता है। हमारी भी ले रहा है और लेते रहेगा। परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए पेपर को कैसे देना चाहिए, उत्तर कैसे लिखना चाहिए, राजा दाहरसेन जैसे हमारे महापुरुषों ने अपने जीवन से बताया है, उसको भूलना नहीं। ये जीवन हमको सिखाया अपने भूमि में। आप कल्पना कीजिए दुनिया में हमको जीना है, और अगर भूमि मिली है अरबस्तान जैसी और अगर भूमि कुछ नहीं दे रही तो हमारे सामने क्या चारा रहता? हम भी रेगिस्तान से आने जाने वाले व्यापारी काफिलों की सेवा करते, छोटे छोटे काम ईमानदारी से, सस्ते में ज्यादा समय लगाकर प्रामाणिकता से करते, क्योंकि वो कोई परमानेंट नौकरी नहीं है। आज का काम कल फिर से मिलना चाहिए। और ये नहीं करते बनता अहंकार प्रचंड है तो हाथ में तलवार लेकर उनका लूटते, हम लुटारू होते तो हमको भी लूटने वाले पैदा होते, तो हमको सदा तैयार रहना पड़ता। ऐसे ही हमारा स्वभाव बनता। हमारा स्वभाव ऐसा नहीं बना, क्यों नहीं बना? हिमायल की दोनों भुजाओं में सागर पर्यन्त फैली यह हमारी भारत भूमि विविधता से भरी हुई है। सब कुछ देती है, सबको देती है, सबके लिए पर्याप्त है। लड़ाई झगड़े करने की जरूरत नहीं है अपनी मेहतन करो, अपनी भूमि में। खूब कमाओ, खूब खाओ, सबको देते जाओ। बाहर से आए दो चार लोग तो हम पूछते नहीं तुम्हारी भाषा क्या है, तुम्हारा पंथ संप्रदाय क्या है? क्योंकि हमको विविध पंथ संप्रदायों में जीने की आदत है। विविध भाषाओं के बोलने वाले हम सब लोग एक कुटुंब के नाते इकट्ठा रह सकते हैं। ये हमारी आदत है। हम उनको भी नहीं पूछते, आओ बसो, तुम भी बसो, तुम भी खाओ। हमको मतांतरण करने की जरूरत नहीं है। सारी दुनिया मिलकर कैसे चल सकती है, इसका नमूना हमारा जीवन है, हमारे जीवन की विरासत है। क्यों, क्योंकि हमारी भूमि ऐसी है। उस मातृ भूमि को नहीं भूलना, उसके बिना हमारा धर्म संस्कृति भी नहीं है क्योंकि उसी ने हमको इस दिशा में भेजा। उसी ने हमको कहा कि बिना लड़ाई झगड़े के अगर जीवन चलता है तो क्यों खतरे में पड़ते हो? क्यों अपने मन को खराब करते हो कटुभावनाओं से। सत्य पर चलो, अहिंसा पर चलो, प्रेम से रहो, मिलजुलकर चलो, ऐसा करते करते हमने सारी दुनिया के मूल को, ईश्वर को साक्षात कर लिया। उस भूमि का प्रताप है। वो जगत जननी माता हमारा पोषण केवल देह का नहीं करती, हमारे मंद बुद्धि स्वभाव को भी उसी ने हमको दिया है। इसलिए हम भारत माता कहते हैं। उस भूमि को भूलना नहीं, उसका एक अंग उधर है आज। अपने बाजुओं के पुरुषार्थ पर कल उसको वापस लाएंगे। जैसा वापस ला सकते हैं, वापस लाएंगे। प्रेम से आ सकता है प्रेम से आएगा, नहीं संघर्ष करना पड़ेगा, संघर्ष करेंगे, लेकिन पहले हम तैयार तो हो जाएं। हम याद तो रखें, क्या क्या हमारा था। हम याद तो रखें कि हमारा जो था उसको हमारा ही रखने के लिए हमारे महापुरुषों ने कैसा-कैसा इतिहास रचा है। कैसे-कैसे बलिदान दिए हैं। नई पीढ़ी में ये ज्ञयान संक्रमित करना बहुत आवश्यक है। क्योंकि ये संघर्ष एक दो वर्षों का नहीं है। ये हजार वर्षों से चल रहा है। और आज मुझे लगता है, मेरा अपना हिसाब है, वो गलत भी हो सकता है, लेकिन मुझे लगता है कि और 50-60 साल चलेगा। उसमें विजयी होना है, तो और आगे की दो-तीन पीढिय़ां इसी भावना से इस संघर्ष को करे। अपना जीवन जले। अपना जीवन जलाए। भारत वर्ष के जीवन में आज एक क्षरण नजर में आ रहा है। बाकी कोई खतरा हमारे लिए नहीं है। बाकी खतरे तो हमारे यहां हजार वर्षों से नाच रहे हैं। हमने उनको अपने इतिहास में और वर्तमान में दस-दस बार पछाड़ा है, और हमको समाप्त नहीं कर सकते, लेकिन जिस कारण हजार वर्ष के संघर्ष के बाद भी वो नाच रहे हैं, वो हमारी अपनी दुर्बलता है। वो दुर्बलता को दूर हटाना है। हमारी अपनी कमियों को दूर करना है। और हमारी अपनी कमियों को तभी दूर कर सकेंगे, जब हमारी कुलकीर्ति का ज्ञान हमको होगा। अपने पूर्वजों का ज्ञान हमको होगा। राजा जन्मेजय के सर्प यज्ञ में हिंसा हो रही थी, उस हिंसा को रोकने के लिए ऋषि आए उन्होंने उसको बंद करवाया और राजा जन्मेजय के यहां कथा करवाई। उस कथा में क्या बताया? राजा जन्मेजय के पूर्वजों की कथा पांडवों, कौरवों की कथा बताई। धर्म आचरण पर कैसे दृढ़ रहना उसके लिए संघर्ष कैसे करना फिर भी मन में अहिंसा प्रेम को ही कैसे पालना, कटुता कैसे नहीं आने देना ये बताया। राजा रामचंद्र को वनवास के दिनों में ऋषियों ने कहानियां बता बताकर रघुवंश की महत्ता बताई। हनुमान जी का बल जागृत करने में, हनुमान जी को जामवंत जी ने उन्हीं की कथा सुनाई। उन्हीं के पूर्व पराक्रम का ज्ञान दिया। हमको भी अपना पूर्व इतिहास याद करना है। अपने महापुरूषों को याद करना है। उनके जीवन को याद करके अपने जीवन में उतारना है। नई पीढ़ी में उतारना है। इस भावना को और इस संघर्ष को आगे बढ़ाते-बढ़ाते सारी दुनिया के सुख शांति के लिए, आज हमारी दुश्मन बनकर जो शक्तियां खड़ी हैं, उनकी भी भलाई के लिए, उसको यशस्वी करना है। इस दृष्टि से आपका यह प्रयास उस प्रयास में बड़ा महत्वपूर्ण योगदान देने वाला प्रयास है। और इसलिए मैंने भारतीय सिंधु सभा के कार्यकर्ताओं ने एक-दो बार कहने पर अपेन कार्यक्रम को एक दिन कम करके यहां आना मान लिया। यहां आने पर जब मैंने देखा कि यहां सब सारे संत वृंद विद्यमान हैं तो मुझे लगा कि मैं यहां नहीं आता तो भी चलता, क्योंकि जो मुझ कहना है उसकी याद उन्होंने आपको दूसरे शब्दों में अभी मेरे सामने दी है। उनके इस संदेश को हृदयंगम कीजिए। अपने स्मृति को पूर्ण साबुत रखिए। आपने आरचण को उस स्मृति के अनुसार गढि़ए। और अपने नई पीढिय़ों को उस स्मृति के संस्कारों में पालिए। अपने देश के, दुनिया के और अपने स्वयं के उद्धार का यही मार्ग है। भूलना नहीं है इसलिए इस स्मारक पर हम आए हैं। स्मरण हमको करना है, याद दिलाने का काम स्मारक कर रहा है, बहुत अच्छी तरह बना है। सारा इतिहास यहां पर है, एक बार देख लेंगे तो तरोताजा हो जाएगा। लेकिन उस इतिहास को अपने हृदय में कायम रखकर नया इतिहास रचने के लिए उन ऐतिहासिक महापुरुषों जैसी जीवन की प्रखरता को तेजस्विता को उत्पन्न करना अपने हाथ में है। उसको उत्पन्न करने का और नई पीढिय़ों में भी उसका संस्कार डालने का संकल्प लेकर हम यहां से जाएं। संतों के आदेश को सिरोधार्य करके उसका पालन करें इतना एक और आपके प्रति अनुरोध करता हुआ, आपका धन्यवाद करता हुआ, संतों को नमन करता हुआ मैं अपने चार शब्द सामाप्त करता हूं।

-कंवल प्रकाश किशनानी
9829070059
599/9, राजेन्द्रपुरा हाथीभाटा, अजमेर

रब वसदा उस घर जिस घर होवे इक निक्की जई कुड़ी

रब वसदा उस घर
जिस घर विच होवे
इक निक्की जई कुड़ी
जेड़े वेले वेखो
खेडदी कुडदी
खिलदी खिलाँदी
रोन्दी पर रोण नीँ डेन्दी
वडे वडाँ वास्ते
तकलीफाँ दूर करण लई
इक इ दवा दी पुड़ी
इक निक्की जई कुड़ी
जेठ विच जदोँ तपदी दुपैरी
झल झल पखा
थक जान्दी दादी
राणी जगदी
सोन्दी बान्दी
वेड़े विच खेडदी
नचदी टपदी
बण आन्दी ठँडी हवा
दे जान्दी निन्दर दा झोँका
इक निक्की जई कुड़ी
निक्के काके दी हँसी
पापे दी खुशी
माँ दी लाड़ली
भरावाँ दी अखाँ दा तारा
बुआ लई गुड्डे दी गुड्डी
इक निक्की जई कुड़ी
ताँ ई ताँ केन्देन साडे बाबा
रब वसदा उस घर
जिस घर विच होवे
इक निक्की जई कुड़ी
-मोहन थानवी

सीमा की सुरक्षा के लिए शहीद हो गए महाराजा दाहरसेन

विशाल भारत की विशाल सीमाओं पर समय-समय पर घुसपैठ व अतिक्रमण होते-होते अब खंडित भारत का नक्शा हमारे सामने है। कितना संकुचित छोटा भारत जा कर बचा है। भारत की उत्तर-पश्चिम सीमा से प्राचीन समय से आक्रमण होते आए हैं। सिंध प्रांत पर खैबर से आक्रमण होते थे। इस कारण कहावत बन गई कि सिंधुड़ी सिंधुड़ी आप को खैबर से खतरा। 
327 वर्ष ईस्वी पूर्व अत्याचारी सिकंदर बादशाह ने अचानक सिंध पर आक्रमण किया। बादशाह सिकंदर बड़ा बलशाली था। उसकी सेना भी अन्य देशों को रौंधती सिंध प्रांत होते हुए सोने की चिडिय़ा भारत को निगलना चाहती थी। लेकिन सीमा पर सिंध और पंजाब की सेनाओं ने इनका कड़ा मुकाबला किया। सिकंदर को घायल कर दिया। अंत में उसने सीमा पर ही प्राण त्याग दिए।
सिकंदर के बाद 163 वर्ष ईस्वी पूर्व मगध, गुजरात, काठियावाड़, पंजाब, मथुरा, सिंध आदि पर मनिन्दर का आक्रमण हुआ। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार मनिन्दर के बाद सात यवन बादशाहों के आक्रमण हुए। उन सब को सिंध के प्राचीन महाराजाओं ने मौत के घाट उतार दिया। इन यवन राजाओं के अलावा तुषार (शक) जाति के राजाओं ने भी आक्रमण किया। संस्कृत ग्रन्थों में इन्हें तुषार, निशक और देवपुत्र के नाम से संबोधित किया गया है। उस समय हिंदुओं की पाचन क्रिया प्रबल थी। उन्होंने इन सब को परास्त कर आत्मसात कर लिया। 
सिंध पर अरबों के आक्रमणसे लगभग डेढ़ सदी पूर्व रायदेवल नामक एक हिंदू राजा सिंध पर राज करता था। उसके बाद राय सहरास पहला, राय सहरास दूसरा सिंहासन पर बैठे। राय घराने के उन राजाओं ने कुल 137 साल तक राज्य किया। चच, राय सहिरास दूसरे के मंत्री थे। राजा के मरने के बाद चच ने उनकी विधवा रानी संहदी से विवाह किया और सन् 622 ईस्वी में सिंहासन पर बैठे। राजा चच ने अपने छोटे भाई चंद को प्रधानमंत्री बनाया और स्वयं अपने राज्य की निगरानी करने और भारी सेना साथ लेकर राज्य की सीमाएं बढ़ाने निकल पड़े। थोड़े समय बाद राजा चच मकरान की ओर बढ़े। इस प्रांत पर भी अपना झंडा फहराया। सिंध पर राजा चच का राज्य सन् 671 ईस्वी तक बड़े न्याय, ठाठ और शांति से चला।
दाहरसेन ने बारह वर्ष की अल्पायु में बागडोर संभाली। उनकी तरुणावस्था होने तक उनके चाचा इन्द्र राज्य की व्यवस्था सुचारु रूप से चलाने में सहयोग दे रहे थे, किन्तु ऐसा अधिक समय तक नहीं हो सका। दाहरसेन के सिंहासनारूढ़ होने के छह वर्ष बाद ही इन्द्र की मृत्यु हो गई। तब मात्र 18 साल की आयु में ही राज्य के संचालन की सम्पूर्ण जिम्मेदारी दाहरसेन पर आ गई।
सिंधुपति महाराजा दाहरसेन ग्रीष्मकाल का समय रावर नामक स्थान पर व्यतीत किया करते थे और सर्दी में ब्राह्मणवाद और बसंत ऋतु में अलोर (अरोद्रा) में बिताते थे। पांचवीं सदी से पहले अरब देशों की ओर से हिन्दुस्तान एवं सीमावर्ती प्रांत सिंध पर आक्रमण शुरू हो गए थे। उन दिनों आक्रमणकारियो को बार-बार मुंह की खानी पड़ती थी और जान से हाथ धोना पड़ता था। अंत में 710 ई. में अरब के खलीफा ने अपने नौजवान भतीजे व नाती इमाम अल्दीन मोहम्मद बिन कासिम को सिंध पर आक्रमण के लिए भारी सेना के भेजा। यह सेना कुछ समुद्री मार्ग से और कुछ मकरान के रास्ते सिंध की ओर बढ़ी। अंत में मोहम्मद बिन कासिम का भारी लश्कर 711 ईस्वी में मुहर्रम माह की दसवीं तारीख को सिंध के देवल बंदरगाह पर पहुंचा। धोखा देकर मोहम्मद बिन कासिम ने देवल बंदरगाह को अपने कब्जे में कर लिया। शिरोमणि सिंधुपति महाराजा दाहरसेन भारत के वीर, सरहद के राखा, हिंदू कुल के रक्षक तीरंदाजी में प्रसिद्ध थे। उनके पास भारी मजबूत शूल था, जिसमें सुदर्शन चक्र की तरह चक्र था, जो शत्रु का सिर काट कर वापस चुंबक की तरफ जैसे लोहा आता है, वैसे लौटता था। उन्होंने गांव-गांव संदेश भेज कर सेना बढ़ाई और मोहम्मद बिन कासिम का मुकाबला किया और उनका पीछे खदेड़ दिया। इस पर मोहम्मद बिन कासिम की अरब सेना के कुछ सैनिक महिलाओं के वस्त्र पहन कर सहायता के लिए चिल्लाने लगे। दाहरसेन से फरेब किया गया था। वे दयावश उनकी सहायतार्थ अपनी सेना को छोड़ कर उस करुणा भरी आवाज की ओर बढ़े। अरब सेना ने उन्हें अकेला देख कर उनके हाथी पर अग्नि बाण छोड़े। मस्त हाथी ने नदी में जा कर सम्राट को पटका। वहां अंधेरे में से आपको सैनिक महल में ले आए, जहां 16 जून 712 ईस्वी में आपने शहादत दी। उसके बाद उनकी पत्नी श्रीमती लाडली देवी, दो कन्याओं व बेटे जयसिंह कुमार ने भी बलिदान दिया। इस प्रकार प्रथम स्वतंत्रता सेनानी ने भारत मां को पूरे परिवार के साथ आहुति दी।
सन् 1997 में अजमेर नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष ओंकार सिंह लखावत के अथक प्रयासों वे अजमेर के हरिभाऊ उपाध्याय नगर विस्तार में सिंधुपति महाराजा दाहरसेन का स्मारक खड़ा करवाया। इस रमणीक स्थान पर स्वामी विवेकानंद, गुरु नानकदेव, झूलेलाल, संत कंवरराम एवं हिंगलाज माता की मूर्तियां भी अलग-अलग पहाडिय़ों पर स्थापित करवार्इं। दीर्घाओं में सम्राट दाहरसेन के बलिदानी संघर्ष की कहानी चित्रों में दर्शायी गई है। प्रत्येक प्रतिमा को कांच से ढ़का गया है। यहां आकर्षक फव्वारे और प्राकृतिक गुफाएं देखने लायक हैं। यहा हर साल दाहरसेन के बलिदान दिवस व जयंती पर कार्यक्रम होते हैं। इसके अतिरिक्त यह शहर का दर्शनीय स्थल भी है, इस कारण यहां पर्यटकों आना-जाना रहता है।
-कंवल प्रकाश किशनानी
9829070059
599/9, राजेन्द्रपुरा हाथीभाटा, अजमेर

बना दे बहरा मुझे भगवान, बना दे बहरा!

शहर के कई मंदिरों एवं देवालयों में आजकल यह भजन अकसर सुनने को मिल रहा है. इसमें भक्तगण माईक लगाकर जोर जोर से समवेत स्वरों में ईश्वर से यह मांग करते है कि तू हमें बहरा बना दे. इन भक्तों में उम्र के दूसरे पड़ाव के वह लोग भी शामिल हैं, जिनके सिर पर हालांकि बाल नहीं हैं लेकिन उनकी मांग है कि हे परमेश्वर! हमें बहरा बना दे. बिना बालों के मांग? थोडा अजीब तो लगता है लेकिन मांग है तो है। खैर, ऐसे भजन कीर्तन में जाकर बैठने से कई गुर की बातें पता पडी. बिना कोई स्टिंग आपरेशन अथवा सीबीआई जांच किए कई रहस्योदघाटन हुए.
मसलन यहां बताया गया कि बहरा बनने की मांग के पीछे स्वान्तह सुखाय अर्थात खुद का सुख का सिद्धांत भी है और यह भी कि जो सुख चावै जीव को तो बुद्धु बन कर रह. थोडी देर के लिए मान लीजिए कि भगवान ने आपकी प्रार्थना सुन ली तो सबसे बड़ा फायदा तो आपको अपने घर में ही होगा. बीबी आप पर लाख चिल्लायें, झल्लायें लेकिन आप पर उसका कोई असर नही होगा, उल्टे आप मुस्कराते रहेंगे. इससे आपका स्वास्थ्य भी अच्छा रहेगा वह आपको सब्जी लाने के लिए कुछ कहती रहेगी, लेकिन आप झूठ-मूठ समझने की ऐक्टिंग करते हुए गरदन हिलाते रहेंगे. यह बात दीगर है कि भलेही आप बाजार से अपनी मन मरजी या दुकानदार की इच्छा से आलू की जगह प्याज या प्याज की जगह टमाटर उठा लाएं, आखिर सब्जी ही तो बननी हैं.
घर में सास-बहू दोनों इस फंडे पर चलने लगें तो सोने में सुहागा वरना दोनों में से कोई एक भी इसे अपना ले तो कलह धीरे धीरे कम होते होते समाप्त प्राय: हो जायेगी. मुझे यह रहस्य जिस व्यक्ति ने बताया उसका दावा था कि यह नुस्खा आजमूदा है अर्थात आजमाया हुआ है. उसने तो यहां तक दावा किया कि भगवान तो सुनेगा जब सुनेगा आपतो आजसे ही यह मानकर चले कि आपको कम सुनाई देता है. फिर देखना आप इसका आनंद!
कीर्तन मंडली में बैठे एक अन्य सज्जन, जो हाव-भाव से सरकारी अफसर-कर्मचारी लग रहे थे, हमारी बातचीत के बीच में ही कूद पडे और बोलें, आप क्या बात करते हैं? बहरा बनने का सबसे बडा फायदा जनसेवा से जुड़े सरकारी विभाग के लोगों को है. यह लोग इस फंडे पर बिलीव करते है कि लोगों का काम है शिकायत करना, करते रहेंगे. शहर में पानी नहीं आ रहा है, बार बार पावर कट हो रहा है, नगर में गुंडागर्दी बढ़ रही है इत्यादि और न जाने क्या क्या समस्याएं हैं, जिनके लिए दफतर में टेलीफोन आ रहे हैं, लोग दफतरों के चक्कर लगा रहे है, धरना-जुलूस हो रहे हैं, परन्तु आपको इससे क्या? आपको तो कुछ सुनाई ही नहीं देता, है ना?
इतना ही नहीं पास ही बैठे एक बुजुर्ग से सज्जन ने तो यह रहस्योदघाटन तक कर दिया कि मैं तो इस थ्योरी पर विश्वास करता हूं, जिसमें कहा गया है कि नशा करै तो ऐसा कर, जैसे पीली भंग. घर के जाणै चला गया आप करै आनंद।
बुद्धिमानों, जानकारों की कहीं कोई कमी नही हैं. षासकीय हलकों से जुड़े एक सज्जन, जो कीर्तन में जोर जोर से ताली बजा रहे थे, हालांकि आंखें मूंदे हुए थे लेकिन कभी कभी कनखियों से मेरी तरफ देख लेते थे, बोले कि अधिकांश जनप्रतिनिधि, मंत्री, पार्षद इत्यादि भी उस फार्मूले पर काम करते हैं, जिसका वर्णन एक कवि-श्री कृष्ण कल्पित- ने अपनी निम्न कविता में किया है:-
राजा रानी प्रजा मंत्री, बेटा इकलौता,
मां से सुनी कहानी जिसका अंत नहीं होता.
...............................
राजा राज किया करता था,
राजा राज करै प्रजा
भूख मरा करती थी,
प्रजा भूख मरै मैं
भी अब इस कहानी का दर्द नही सहता. राजा रानी....
और इस फंडे पर तब ही काम किया जा सकता है जब कि हम बहरे बन जाएं और जब तक भगवान हमारी सुने कम से कम तब तक हम बहरा बनने का नाटक तो करें। मैंने उन्हें कहा, नहीं, नहीं वह सबकी सुनता है, अत: आपकी भी सुनेगा आप तो गाते रहिए-बना दे बहरा मुझे भगवान, बना दे ....
ई. शिव शंकर गोयल
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