मंगलवार, 28 जून 2011

पहले मानसून की सौगात

वो क्या है कि किसी तरह भी चैन नहीं है। जनता भी खूब है, इधर आए दिन सरकार से मांग करती रहेगी कि हमारे लिए फलां जगह नाले पर रपट बनाओ, यहां तालाब बनाओ, वहां बांध बनाओ और जब सरकार प्रकृति की मदद से उनके लिए कुछ कर देगी तो लोग हल्ला मचायेंगे कि यह क्या कर दिया?
अब आप शहर के बस स्टैन्ड को ही लें, वहां एक ही बरसात में छोटा-मोटा तालाब बन गया बताते हैं, वह भी मुफ्त में। कुछ लोगों का कहना है कि घर बैठे गंगाजी आ ही गई है तो अब हरिद्वार जाने की क्या जरूरत है ? आपको मेरी बात का विश्वास न हो तो आप स्वयं जा कर यह कृत्रिम तालाब देख लें, यही तालाब अगर सरकार अपने विभाग के माध्यम से बनवाती तो सच बताना कितने पैसे लगते? कितने साल में बनता और कितने जांच कमीशन बैठाने पडते और फिर इन जांच कमीशनों की जांच हेतु एक और जांच कमीशन बैठाना पड़ता। खैर, अब तालाब बन ही गया है तो शोरगुल किस बात का? एक तो बस स्टैन्ड पर तालाब बन गया और ऊपर से हाय तौबा कि अरे! बस स्टैन्ड के पास तालाब? क्या जमाना आया है?
कृत्रिम तालाब बनवाना कोई नई बात नहीं है। वर्षों पहले करोड़ों रुपए लगा कर सरकार ने चंडीगढ के पास एक कृत्रिम झील सुखना का निमार्ण कराया था। वर्षा का पानी पास के पहाड़ों से बह कर वहां आ जाता था। सैलानी झील की सैर का आनन्द उठाते थे। इसी तरह गांव के गरीब किसानों को पांच सितारा होटलों की हवा खिलाने वाले बड़े-बड़े किसान नेता चाचा-ताऊ वगैरह हरियाणा में कोई डिजनी लैन्ड बनाने की सोच रहे थे। वहां भी ऐसी ही कोई झील अथवा तालाब बनाने का इरादा था, पर भाई लोगों ने सब गुड़-गोबर कर दिया। एक तो जनता की भलाई के लिए कुछ करो और ऊपर से डांट-फटकार का सामना करो। हद हो गई।
बस स्टैन्ड के पास वर्षा के पानी से तालाब बन गया है, तो मछली विभाग वाले बैठे-बैठे क्या कर रहे हैं? क्यों नहीं मछली पकडऩे के ठेके देने हेतु टेंडर आंमत्रित कर लेते हैं ताकि सौदे हो सकें वर्ना व्यर्थ में ही कई लोग अपने-अपने कांटे लेकर मछली पकडऩे वहां पहुंच जायेंगे, जैसे चुनाव के बाद हंग विधानसभा बनने पर कुछ नेता करते हैं और मछली पकडऩे का अवैध धन्धा चालू कर देते हैं। मछली विभाग वाले इस बहाने तरह-तरह की मछलियां पैदा करने की कोई लम्बी-चौडी योजना भी बना सकते हैं, जो करोडों रुपए की हो ताकि योजना आयोग को यह लगे कि देश के कोने-कोने में मछली पालन उद्योग को बढ़ावा देने हेतु बहुत कुछ किया जा रहा है। इस के लिए हिन्दी-इंगलिश के अखबारों मे मंत्रीजी की फोटो सहित बड़े-बड़े विज्ञापन भी दिए जा सकते हैं। इंडिया को शाइनिंग किया जा सकता है।
आखिर योजनाएं ही तो हैं, इस बहाने लगे हाथ अन्य विभाग भी सक्रिय हो जायेंगे। मसलन वाटर वक्र्स वालों को ही लें, उन्हें पानी का इससे ज्यादा नजदीक और दूसरा कौन सा स्रोत मिलेगा? इस तालाब के पानी को सोर्स मान कर अच्छी खासी जल प्रदाय योजना बनाई जा सकती है। विश्व बैंक अथवा एशिया विकास बैंक से ऋण लिया जा सकता है, इसी आशा में वो आया पानी, वो आया पानी कह कह कर जनता को बहलाया जा सकता है, जैसे कि यू पी में नोऐडा की जनता को बहलाया जा रहा है।
माना कि सिंचाई विभाग वालों ने इस तालाब को बनाने में कोई खास सहयोग नहीं दिया है, लेकिन जब बन ही गया है तो वह लोग अब इसका समुचित उपयोग कर ही सकते हैं। इस तालाब से दांयी और बांई ओर नहरें निकाल कर दूर-दूर तक के इलाकों की सिंचाई हेतु नहरों का जाल बिछाने की योजना बनाई जा सकती है और सम्पूर्ण योजना को 'बस स्टैन्ड तालाब कमांड ऐरियाÓ का नाम दिया जा सकता है। इसे योजना आयोग से शीघ्र पास करवाना हो तो इस योजना के नाम के आगे या पीछे किसी महान नेता या राज परिवार का नाम जोडऩा पडेगा। अगर ऐसा नहीं किया गया तो यह योजना ठंडेे बस्ते में चली जायेगी, देख लेना आप! रही बात बांध में दरार की तो चूंकि इस तालाब हेतु ठेकेदारों तथा इंजीनियरों ने मिल कर कोई बांध तो बनाया नही हैं, जिसमे दरार आने का भय हो। अत: इसकी सुरक्षा को कोई खतरा नहीं है। आप यह मान कर चलें।
बिजली विभाग वाले भी ऐसी ही मिलती-जुलती हाइडे इलैक्ट्कि योजना इस पानी से टरबाइनों की मदद से बिजली पैदा करने की बना सकते हैं क्योंकि उत्तरी ग्रिड में पावर की वैसे ही बहुत कमी है। न्यूक्लीयर एनर्जी की बिजली तो आयेगी जब आयेगी।
नगरपालिकाओं की खस्ता हालत किससे छिपी है? वहां पार्षदों के पास आए दिन पालिकाध्यक्ष के कपडे फाडऩे के अलावा क्या काम बचा है? लेकिन लगता है प्रकृति ने पालिकाओं की आर्थिक हालत सुधारने का बीड़ा उठा लिया है। अब तालाब बन ही गया है तो पालिका इसमे नावें चला सकती है, जिससे सैर-सपाटे के लिए जनता आएगी और पालिका को आमदनी होगी। तालाब के किनारे ठेले-खोमचे लगेंगे, उनसे नगर पालिका के कर्मचारी चौथ वसूल कर कम से कम फिफ्टी-फिफ्टी तो पालिका के खजाने मे जमा करायेंगे ही। रहा तालाब के किनारे पैदा होने वाले मच्छरों का प्रश्न तो उनके लिए 'मच्छरों दिल्ली छोडोÓ की तर्ज पर जगह-जगह तख्तियां लगाई जा सकती हैं, 'मच्छरों तालाब छोडोÓ और वे उसे पढ़ कर तालाब छोड़ देंगे, चाहें तो तख्तियों के मजमून का इंगलिश अनुवाद भी टांग सकते है क्योंकि आजकल सर्वत्र इंगलिश का ही बोलबाला है और उससे स्टैन्डर्ड भी बढ़ता है।
इधर जनता को भी सहयोग करना चाहिए। वैसे भी उन्हें नजदीक में ही सैर- सपाटे हेतु तालाब के रूप में पिकनिक स्पॉट का आनन्द प्राप्त हो रहा है। वहां जा कर दाल-बाटी-चूरमे का मजा लिया जा सकता है। ट्रेन में बैठे-बैठे ही रास्ते से गुजरने वाले जैसे प्रकृति का आनन्द उठाते हैं, वैसे ही बस के यात्री इस तालाब का आनन्द उठा सकते हैं। इस बहाने बस वाले उन पर कुछ सरचार्ज लगा सकते हैं कि मैरिन ड्राइव की सी हवा मुफ्त में खा रहे हो, लाओ कुछ टैक्स ही दो।
मेरे कहने का मकसद यह कि इस घटना से फायदा ही फायदा है। खुदा न खास्ता बिल्ली के भाग का छींका टूट ही गया है और प्रकृति ने एक ही बरसात में बस स्टैन्ड पर तालाब बना दिया है तो जनता शोरगुल किस बात का मचा रही है?
यह व्यंग्य लेख सेवानिवृत्त इंजीनियर श्री शिवशंकर गोयल ने भेजा है। उनका संपर्क सूत्र है -फ्लेट नं. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट नं. 12, सैक्टर .10, द्वारका, दिल्ली- 75, मोबाइल नंबर: 9873706333

सरकार को चुना लगाने पर मिले आरोप पत्र से बचने के लिये एक बाबू ने किया झूठा परिवाद

दो रोज पूर्व डूयटी ज्वोईन करने वाले आईएएस पर किया झूठा परिवाद
पुलिस की निष्पक्ष, निर्भिक जांच में हुआ खुलासा
सूचना के अधिकार 2005 ने किया एक बाबू के मनगढ़त, झूठे परिवाद का खुलासा
उदयपुर। डाक एवं तार विभाग, उदयपुर में दो रोज पूर्व ही नौकरी ज्वोईन करने वाले अपने ही विभाग के आला अफसर द्वारा सरकारी खजाने में लगातार राजस्व को चुना लगाने वाले तथा उसकी अनियमितताएं पकडऩे के एक सनसेनीखेज मामले में आला अफसर द्वारा दिये गये आरोप पत्र से बचने के लिये डाक एवं पोस्ट विभाग, उदयपुर के एक बाबू (पोस्टल अस्टिेण्ट) ने उनके विरूद्ध ही झूठा परिवाद दर्ज करवा कर उन्हें परेशान करने में कोई कसर नही छोडी। यही नहीं परिवाद दर्ज करवाने वाले इस बाबू ने इस प्रकरण में दिहाड़ी मजदूरी करने वाले अपने ही विभाग के दो लोगों के साथ स्वयं के झूठे बयान तक दिलवाये और उनकी कापियों को हंासिल कर आईपीएस के अधिकारी के विरुद्ध कैट में भी प्रकरण दर्ज करवाने की कोशिश की।
यह सनसनीखेज खुलासा हुआ है - पुलिस महानिरीक्षक कार्यालय के मार्फत मांगी सूचना के अधिकार 2005 के तहत एक प्रार्थना पत्र पर । पी एन टी कॉलोनी हिरण मगरी सेक्टर 4, उदयपुर निवासी एंव डाक एंव तार विभाग के बाबू एंव पासपोर्ट कार्यालय के सेवा केन्द्र में कार्यरत लीलाधर शर्मा उर्फ एल डी शर्मा ने गत दिनों एक परिवाद पुलिस महानिदेशक के मार्फ त प्रस्तुत कर अपने विभाग के आई पी एस केडर के प्रवर अधीक्षक श्री एस एन जोशी पर उसे परेशान करने, 15 हजार रूपये की प्रतिमाह रिश्वत नही देने पर उसका जीना हराम करने तथा उदयपुर से स्थानान्तरण कर उसे बर्बाद करने के संगीन आरोप लगाते हुये उचित कानून सम्मत कार्यवाही करने का आग्रह किया। परिवाद में एल डी शर्मा ने स्वयं को ईमानदार बताते हुये आईपीएस कैडर के प्रवर अधीक्षक पर उसे नौकरी कैसे करते है ? का सबक सिखाने, उसके बच्चों का भविष्य खराब कर देने के साथ कई संगीन आरोप लगाये । परिवाद को जांच के लिये आई जी ने हिरण मंगरी थाने को भिजवाया जिस पर पुलिस ने जांच शुरू की । जांच के दौरान एल डी शर्मा ने स्वयं अपने बयानों में उक्त आरोपों को पुलिस के समक्ष दोहराया ।
एल डी शर्मा ने इस परिवाद में स्वयं के बयान के अलावा चांदपोल 196 नागानगरी निवासी तथा प्राईवेट नौकरी करने वाले अनिस खान पुत्र पेशावर खान तथा सर्वोत्तम काम्पलैक्स सेक्टर 4 में हेयर कटिंग करने वाले रामलाल सेन के बयान अपने पक्ष में दिलवाये ं घटना के वक्त पोस्ट ऑफिस में एल आई सी व टेलीफोन बिलों को जमा कराने के काम करने वाले इस गवाह अनिस खान ने पुलिस को अपने बयान में बताया कि 18 दिसम्बर 2010 को प्रात : वह 9:30 पर पासपोर्ट सेवा केन्द्र कार्यालय की सफाई कर रहा था तभी प्रवर अधीक्षक ने अपने पद स्थापन के साथ ही पहले दिन एल डी शर्मा के कार्यालय में आकर सारा काम उनके हिसाब से करने 15 हजार रूपये की रिश्वत प्रतिमाह देने, ट्रांसफर करने, सस्पेड कर देने की बात कही। इसके बाद वह पुन: 10:30 पर विभागीय पोस्टमास्टर लक्ष्मीलाल मीणा के साथ आये और उक्त धमकियॉ देकर गये।
दूसरे गवाह राम लाल सेन ने अपने बयान में कहा कि वह एम बी चिकित्सालय में भर्ती अपने भाई से मिलने गया तभी उसने एल डी शर्मा को जाते हुये देखा। वह भी उनके पीछे पीछे पोस्ट आफिस पहुंचा। करीब 10 बजे की घटना बताते हुये रामलाल सेन ने कहा कि ऑफिस में पहले से शर्मा व अनिस खान बैठे हुये थे और प्रवर अधीक्षक एस एन जोशी हाथ जोड कर खडे एल डी शर्मा को सबके सामने डाट रहे थे और उक्त राशि नहीं देने पर धमकियां दे रहे थे । अधिकारी का नाम दो दिन बाद एल डी शर्मा ने मेरी दूकान पर आने के बाद बताया था ।
परिवाद की जांच कर रहे पुलिस अधिकारी ने एल डी शर्मा द्वारा लगाये आरोपों के बारे में जब पत्र लिख कर प्रवर अधीक्षक से उन आरोपों पर स्पष्टीकरण मांगा तो उसमें कई होश उड़ा देने वाले सनसनीखेज तथ्य उजागर हुये। प्रवर अधीक्षक ने अपने जबाब में थानाधिकारी हिरणमंगरी थाने को लिखे पत्र में बताया कि उन्होंने 16 दिसम्बर को प्रवर अधीक्षक के पद पर कार्य भार सम्भाला तथा रोजमर्रा की प्रक्रिया में मुख्य डाकघर उदयपुर व बी डी शाखा का आकस्मिक निरीक्षण किया। निरीक्षण के दौरान बी डी शाखा में कुछ गम्भीर अनियमितताए पाई गई जिसका विजिट नोट उन्होंने जारी किया। उसमें उन सभी अनियमितताओं को दर्ज किया गया। उन्होंने पत्र में बताया कि एल डी शर्मा द्वारा लगाये गये सभी आरोप मनगढ़त, बेबुनियाद, व असत्य है । उन्होंने पुलिस को कहा कि वे विभाग में आकर वहा कार्यरत एंव मुख्य डाकघर के पोस्टमास्टर से इस बारे में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं जो विजिट नोट लिखने के दौरान वहां मौके पर मौजूद थे।
प्रवर अधीक्षक ने अपने पत्र में बताया कि शर्मा को आरोप पत्र देने का सवाल है वह दुर्भावना से नही दिया गया बल्कि विजिट नोट 18 दिसम्बर 2010 एंव इसके बारे में सहायक अधीक्षक डाकघर, उदयपुर द्वारा की जांच के दौरान पाई गई गम्भीर अनियमितताएं, जिससे विभाग को भारी राजस्व की हानि हुई है, उसके कारण दिया गया । प्रवर अधीक्षक पर एल डी शर्मा द्वारा डाक विभाग के कई कर्मचारियों, अधिकारियों के साथ मिलकर उसके खिलाफ साजिश करने के लगाये आरोपों के बारे में पुलिस अधिकारी को लिखा कि ये सारे आरोप भी बेबुनियाद, मनगढ़त व असत्य हैं। इसके बारे में वह कर्मचारी संगठनों, व कर्मचारियों से आकर पूछताछ करे। प्रवर अधीक्षक ने सारे आरोप को नकारते हुये स्पष्ट लिखा कि एल डी शर्मा का इस तरह से शिकायत करना एक नये अधिकारी को परेशान करना की मुख्य उदेश्य है । जोशी ने बताया कि वह 17 दिसम्बर को जोधपुर से सूरत जा रहे थे तब भी एल डी शर्मा ने स्वयं के मोबाईल से फोन किया तथा कई लोगों से भी फोन करवा कर उन्हें परेशान किया। वह कर रहा है। होश उड़ा देने वाला तथ्य उजागर करते हुये प्रवर अधीक्षक ने बताया कि शर्मा ने कैट, जोधपुर में भी उसने दो प्रकरण दर्ज करवाये है तथा उनकी एल डी शर्मा से कोई मुलाकात भी नही है ना ही वह पहले कभी उदयपुर मण्डल में कभी कार्यरत थे या कार्य किया है।
प्रवर अधीक्षक के पत्र के बाद पुलिस अधिकारियों का माथा ठनका और और उन्होंने इसकी निष्पक्ष जांच की और विभाग के अधिकारी तथा उसके कार्यालय के आकस्मिक निरीक्षण करते वक्त साथ रहे प्रधान डाकघर लक्ष्मीलाल मीणा, विभाग से ही सेवानिवृत हुये छटाई सहायक तथा वर्तमान में दैनिक वेतनभोगी के पद पर कार्यरतï खेमराज मीणा व अखिल भारतीय डाक कर्मचारी गु्रप सी के मण्डल सचिव व सिस्टम मैनेजर विनय जोशी के बयान कलमबद्ध किये। सभी कर्मचारियों व अधिकारियों ने अपने बयान में बताया कि प्रवर अधीक्षक एस एन जोशी ने 16 दिसम्बर को पद भार सम्भाला तथा दो दिन बाद ही सभी ब्रंाचों का आकस्मिक निरीक्षण किया। निरीक्षण करते वक्त साथ रहे प्रधान डाकघर लक्ष्मीलाल मीणा ने बताया कि जब विजिट किया गया तब एल डी शर्मा से बी डी रजिस्टर (रेवेन्यू आय सम्बंधी रजिस्टर) मांगा व चैक किया तो उसमें एक दिसम्बर से रजिस्टर खाली था, जिसमें रोजाना इन्द्राज करना होता है जिस पर शर्मा को पूछा गया तो उसने गलती स्वीकार करते हुये कहा कि रह गया वह पूरा कर देगा। सरकारी राजस्व की 16 दिन की आय को लगातार दर्ज नही करना अत्यन्त ही गम्भीर प्रकृति का आरोप है, जिसमें वह हेराफेरी करना चाहता था। जिस पर विजिट नोट जारी किया गया। और बतौर इन्चार्ज उन्होंने स्पष्टीकरण मंागा। काउन्टर पर रुपये मांगने, डराने व धमकाने सम्बधी कोई बात नही हुई। काउन्टर पर ही कार्य करने वाले सेवानिवृत हुये छटाई सहायक तथा वर्तमान में दैनिक वेतनभोगी के पद पर कार्यरतï् खेमराज मीणा ने बताया कि प्रवर अधीक्षक ने सारा रिकार्ड चैक किया तथा डराने सम्बधी कोई बात नही हुई न ही किसी प्रकार की मांग की गई।
अखिल भारतीय डाक कर्मचारी गु्रप सी के मण्डल सचिव व सिस्टम मैनेजर विनय जोशी ने बताया कि कोई भी अधिकारी जब किसी भी कर्मचारी को नाजायज तंग व परेशान करता है तो वह यूनियन में शिकायत करता है पर शर्मा ने कोई शिकायत नहीं की, बल्कि उनके कार्य में त्रुटि पाये जाने पर चार्जशीट दी गई और स्पष्टीकरण मांगा गया । इसलिये शर्मा ने पुलिस को शिकायत की जो विभागीय नियमावली के खिलाफ है। पुलिस से इस जांच के दौरान शर्मा ने जल्दबाजी करते हुयेे पुलिस से सूचना के अधिकार के तहत स्वयं व अपनी ओर से कराये दो गवाहों के बयानों की कापियां भी मांग ली तथा उच्चाधिकारियों से फोन भी करवाये, जिस पर पुलिस का माथा ठनका। पुलिस को जांच में यह तथ्य भी पता चला कि वह इन बयानों को कैट जोधपुर में भेज कर उसकी बात नही मानने वाले प्रवर अधीक्षक को प्रभावित भी करना चाहता था।
पुलिस थाना हिरणमगरी ने शर्मा के बुरे खयालों व दुर्भावना को पहचानते हुये इस प्रकरण में दोनों पक्षों के बयानों के बाद अन्तिम निर्णय पर पहुंचे कि जो अधिकारी दो रोज पूर्व पहली बार उदयपुर आकर कार्य भार सम्भालता है तथा आकस्मिक निरीक्षण करते हुये शर्मा क ोराजस्व को हानि पहुचाने के मामले में चार्ज शीट देता है। शर्मा ने इस चार्जशीट से बचने के लिये अपने ही विभाग के आला अफसर के विरूद्ध मनगढ़त झूठा परिवाद पेश किया है।
तथ्य :
1 कोई भी अधिकारी जो कि आईपीएस कैडर का हो वह विभाग के बाबू से रिश्वत क्यो मांगेगा, जब कि वह दो रोज पूर्व पहली बार उदयपुर आया हो।
2 एल डी शर्मा का यह प्रयास उदयपुर की छवि को खराब करने वाला व आम जनता के विश्वास का प्रतीक डाक व तार विभाग की छवि को खराब करने वाला साबित हुआ ।
3 शातिर एल डी शर्मा ने जो गवाह पेश किये वह पब्लिक मेन होकर उसके हितेषी थे जिनके बयानों में भी विरोधाभास था।
4 अनिस खान ने अपने बयान में बताया कि प्रवर अधीक्षक ने अपने पद स्थापन के बाद पहले ही दिन शर्मा को धमकियां दी व रूपयों की मांग की इस पर भी जांच अधिकारी को सन्देह हुआ। उसके बयान में एक ही दिन में दो बार आकर आला अफसर द्वारा धमकिया दिया जाना भी विश्वसनीय नही प्रतीत हुआ।
यह रिपोर्ट वरिष्ठ पत्रकार श्री सुरेन्द्र चतुर्वेदी ने भेजी है।

रविवार, 26 जून 2011

मानसून से भगवान बचाये

कोई जमाना था, जब सब जगह मानसून को ईश्वर तुल्य माना जाता था। उसके आगमन की तैयारियों में कई तरह के अनुष्ठान किए जाते थे, कोई हवन कर रहा है, कोई भजन-कीर्तन, कोई पूजा-पाठ ही कर रहा है। यहां तक कि कहीं कहीं तो वैज्ञानिक भी कृत्रिम वर्षा के लिए कुछ रसायनों का छिड़काव बादलों पर किया करते थे। राजस्थान के गंावों, शहरों में छोटे-छोटे बच्चे मानसून को इस तरह गा-गाकर बुलाते थे, 'मेहं बाबा आजा, घी की बाटी खा जाÓ। यही बात पंजाब में बच्चे इस तरह गाते थे, 'रब्बा रब्बा मी बरसा, साढï्ढे कोठ्ठे दाने पा।Ó प्रसिद्ध शायर निदा फाजली अपनी बात इन शब्दों में कहते हैं:-'गरज बरस प्यासी धरती को फिर पानी दे मौला, बच्चों को गुड-धानी दे मौला!Ó
अब भी अधिकतर जगह किसान, व्यापारी एवं राज्य, तीनों की गाडी मानसून पर ही चलती है। तभी तो जाने-माने आर्थिक विशेषज्ञ ही क्या, स्वयं प्रधानमंत्री बार-बार यह कह कर महंगाई को डराते रहते हैं कि 'आने दे मानसून को फिर देखता हूं तेरे को, सौ दिन में ही भगा दूंगा।Ó कुछ अन्य नेता और मंत्री भी तगड़े मानसून का इंतजार करते रहते हैं ताकि बाढ़ पीडि़तों के नाम पर घडिय़ाली आंसू बहाते हुए हवाई यात्रा का मजा ले सकें। भगवान की मेहरबानी से इस बार शुभ संकेत भी मिल रहे हैं। इस बार कैर के पौधों पर बहुत ही अच्छी फ्लावरिंग हुई है। आम की पैदावार भी अच्छी है और टिटहरी ने अंडे भी ऊंचे स्थानों पर दिए हैं। चिडिय़ां बार-बार धूल में नहा रही है, जिसके लिए कहा जाता है कि 'चिड़ी जो न्हावे धूळ में, मेहा आवण हार, जळ में नहाये चिड़कली, मेहं विदातिण हार। इधर गिरगिट, राजनीति वाले नहीं, बाग बगीचे वाले, रंग बदल रहे हैं। मक्खियां मनुष्य की देह पर चिपकने लगी हैं तो लगता है कि अच्छी वर्षा होगी। 'गिरगिट रंग बिरंग हो, मक्खी चटके देह, मकडिय़ां चह-चह करें, जब अतजोर मेहं। उधर पुरवइयां भी अपना रंग दिखा रही हैं, 'पवन गिरी, छूट परवाई, घर गिर छोवेवा इंन्द्र छपाई। इन सब से उत्साहित होकर मानसून विभाग ने भी तरह-तरह की भविष्यवाणियां करनी शुरू कर दी हैं। कभी वे कहते हैं कि 95 प्रतिशत होगी, कभी कहते हैं कि 98 प्रतिशत होगी। खैर जो भी है, लेकिन अंदर ही अंदर कुछ लोग ऐसे भी हैं जो भगवान से यह प्रार्थना कर रहे हैं कि हे मालिक! हमें मानसून से बचा, इस बार मानसून को साइड से निकाल दे और आगे कहीं और जाकर बरसा वर्ना खामख्वाह हमारी नींद खराब होगी। इन लोगों में नगरपालिका अथवा निगम वाले भी हैं। उनको मालुम है कि वर्षा होगी तो बरसात का पानी गंदगी से भरे हुए नालों के ऊपर आकर बहेगा। सब जगह कीचड़ ही कीचड़ हो जायेगा। बरसात को आता देख कर पालिका के सफाई कर्मचारी हड़ताल का नारा देंगे, उनको समझाना-बुझाना पडेगा। अगर बरसात हो ही नहीं तो इस मगजमारी से बचा जा सकता है। न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी।
इधर कुछ वर्षों में उदारीकरण की हवा चल निकली है। विशेषज्ञों का कहना है कि इसके बगैर उन्नति हो ही नहीं सकती। सरकारी और गैर सरकारी दोनों ही वर्गों के चारण तमाम सार्वजनिक उद्योगों का विनिवेशीकरण करने का गुणगान कर रहे हैं, लेकिन ज्यों ही मानसून का आगमन होता है प्रशासन फ्लड कंट्रोल के नाम पर कंट्रोल रूम खोल देता है। अरे भाई! एक तरफ तो कंट्रोल खत्म कर रहे हो दूसरी तरफ कंट्रोल रूम खोल रहे हो, यह कैसा विरोधाभास?
अगर मानसून आए ही नहीं तो न वर्षा होगी न बाढ़ आयेगी और न बाढ़ को कंट्रोल करना पड़ेगा। इसलिए यह सभी लोग मन ही मन यह दुआ कर रहे हैं कि हे भगवान! हमे मानसून से बचा। मानसून याने बरसात के नाम से सबसे ज्यादा नींद खराब होती है सिंचाई विभाग की। न रात को नींद न दिन को चैन। वर्षा होते ही सबसे पहले तो सालभर से बेकार पड़े वर्षा मापने के यन्त्र, रेन-गेज आदि को हाथों-हाथ ठीक करवाना पड़ेगा। फिर वर्षा का माप लेने हेतु किसी कर्मचारी की डय़ूटी लगानी पडेगी। जिसकी ड्यूटी लगती है वह मन ही मन झल्लाता है। सालभर ऑफिस की मेज पर ताश खेलते अथवा सोते-सोते आराम से कट रही थी, अब मानसून आते ही रेनगेज से वर्षा मापने का झंझट हो गया। उधर कंट्रोल रूम में जिसकी ड्यूटी लग गई वह अलग से बड़बड़ाता है, 'कहां फंसा दिया?Ó विभाग के अधिकारियों की दौड़-भाग शुरू हो जाती है। कहां तो घर-कार्यालय तथा गाडी में ए.सी. की हवा खा रहे थे और कहां अब बांध पर जाना पड़ेगा, बोरों का इंतजाम करना पड़ेगा। उधर गांव वालों की नींद अलग से हराम क्योंकि जाने कब बांध में दरार आ जाए और बैठे बैठाए मुसीबत आ जाए।
बिजली विभाग वाले भी मानसून से खुश नहीं हैं। जाने कौन सी लाइन अथवा ट्रांसफार्मर में कब खराबी आ जाए? कहां के खम्भे पानी में डूब जाएं या उनमें करंट आ जाए? भैंस मरेगी तो अपने करमों से और अखबार वाले छाप देंगे कि बिजली का करंट लगने से मर गई। नाहक विभाग की बदनामी होगी। इससे तो अच्छा है कि मानसून देवता के दर्शन ही नहीं हों। सड़क विभाग वाले तो मानसून यानी वर्षा से नाखुश ही रहते हैं क्योंकि इसके आते ही उनकी नाजुक सड़कों की असलियत सामने आ जाती है। एक ही बरसात में ऐसे ऐसे गड्ढे् बन जाते है कि बच्चे तैरने लगते हैं। जगह जगह स्पीड ब्रेकर हड्डी ब्रेकर बन जाते हैं।
यही हाल टेलीफोन व रेलवे विभाग वालों का है। मानसून का समय सब राम- राम कर के निकालते हैं। रहा सवाल मौसम विभाग का तो उसके और मानसून के वैसे ही नहीं पटती है। दोनों में जब तब कुट्टी चलती रहती है। मानसून उसकी भविष्यवाणी नहीं मानता है और उसके साथ आंख-मिचौली खेलता रहता है। मसलन जब मौसम विभाग यह कहेगा कि अब मानसून ने दरवाजे पर दस्तक दे दी है और अगले 48 घन्टे में इस क्षेत्र में भारी वर्षा होगी तो उस अवधि में मानसून जान-बूझ कर गायब हो जायेगा और जब मौसम विभाग घोड़े बेच कर सो रहा होगा तो मानसून दरवाजे पर दस्तक देने की बजाय खिड़की के रास्ते अंदर घुस जायेगा और फिर विभाग वाले तरह-तरह के तकनिकी शब्द इस्तेमाल करते हुए सफाई देते रहेंगे कि बंगाल की खाड़ी अथवा पाकिस्तान पर बने चक्रवात या दवाब बिन्दु की वजह से ऐसा हुआ, वैसा हुआ। इससे विभाग की 'उज्ज्वलÓ छवि धूमिल होगी। अत: मौसम विभाग ने तो मानसून से बचने हेतु भगवान से मन्नत मांगी हुई है। व्यापारी ही कौन से मानसून के पक्ष में हैं? मानसून से पहले ट्रकों में उनका सामान इधर से उधर आसानी से भिजवाया जा सकता है। भाव बढ़ाने के लिए किस सामान की कहां कमी पैदा करनी है, यह काम आसानी से हो सकता है। लेकिन इधर वर्षा शुरू हुई और उधर सड़कों पर आवागमन रुका। कभी कहीं रास्ता जाम, तो कभी कहीं पुल टूटा। कहीं सड़क पानी में डूबी इत्यादि और व्यापारी की सारी प्लानिंग फेल। कहने का मतलब यह कि मानसून आते ही व्यापारी की मुसीबत ही मुसीबत।
यह मुसीबतें तो घर के बाहर की हैं, घर में तो इससे भी ज्यादा परेशानियां हंै। मकान आपने बनवाया है तो थोडी कम मुसीबत वरना यह हाउसिंग बोर्ड अथवा डीडीए का हुआ तो यही बुद्धिमानी है कि वर्षा ऋतु शुरू होने से पहले ही हर कमरे के लिए एक-एक टब की व्यवस्था कर लें, वरना आपकी रातें घड़ी देख-देख कर गुजर जायेंगी। गृहणियों की मुसीबतें भी कम नहीं हैं। पहले धोये कपड़े सूख ही नहीं रहे और दूसरे तैयार हैं। रसोई के सामान को बार-बार धूप में रखना पड़ता है। कोई एक मुसीबत हो तो आपको गिनाएं? सब की जुबान पर एक ही बात रहती है कि जल्दी से मानसून को विदा करें। इसलिए 'अधिक बुद्धिमानÓ लोग मन में यही तमन्ना करते रहते हंै कि हे भगवान! मानसून से बचा ताकि हमारे आराम में खलल न पड़े।
यह व्यंग्य लेख सेवानिवृत्त इंजीनियर श्री शिवशंकर गोयल ने भेजा है। उनका संपर्क सूत्र है -फ्लेट नं. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट नं. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75, मोबाइल नंबर: 9873706333

मंगलवार, 21 जून 2011

लोकतंत्र में महती भूमिका है भाजपा की


अपने आपको धर्मनिरपेक्ष बताने वाली कांग्रेस भले ही राजनीतिक दुर्भावनावश भारतीय जनता पार्टी को सांपद्रायिक करार दे कर बदनाम करने केलिए एडी-चोटी का जोर लगा रही है, लेकिन वस्तुस्थिति ये है कि हमारे देश के लोकतंत्र के लिए भारतीय जनता पार्टी अत्यंत महत्वपूर्ण है।
आइये, जरा इस पार्टी के गठन और संरचना पर एक नजर डालें। सब जानते हैं कि कांग्रेस की दमनकारी नीतियों और तानाशाही वृत्ति से देश से मुक्ति के लिए जनता पार्टी का गठन हुआ था, मगर बाद में एक विचारधारा विशेष के राजनीतिक चिंतकों व कार्यकर्ताओं ने जनता पार्टी को छोड़ कर नई पार्टी का गठन करने का निर्णय किया था। असल में वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की उस विचारधारा को छोडऩे को कत्तई तैयार नहीं थे, जिसके प्रणेता डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और पंडित दीनदयाल उपाध्याय थे। उनकी सोच के अनुरूप ही 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई थी। यही जनसंघ आपातकाल की तानाशाही को उखाड़ फैंकने के लिए नई गठित हुई जनता पार्टी में शरीक हुआ था। यह उस वक्त की जरूरत थी। जनता पार्टी सत्ता में भी आई, लेकिन गुटबाजी और समाजवादी नेता मधु लिमये द्वारा पूर्व जनसंघ के सदस्यों के राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के साथ संबंधों को लेकर दोहरी सदस्यता का जो मसला उछाला, उसके चलते जनता पार्टी टूटी और भारतीय सभ्यता व संस्कृति को सर्वाधिक तरजीह देने वाली भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ। उसका मूल दर्शन था पंडित दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानववाद। उसी के तहत राष्ट्रीयता व हिन्दुत्व की व्यापकता को आत्मसात करते हुए झूठी धर्मनिरपेक्षता पर जम कर प्रहार किए गए। भाजपा ने हिंदू शब्द को कभी संकीर्णता के दायरे में नहीं बांधा। सीधी और साफ सोच है कि हिंदू कोई धर्म नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति है। इस शब्द को दूषित करने की तथाकथित धर्मनिरपेक्षता के नाम पर कांग्रेस ने भरसक कोशिश की है और उसका षड्यंत्र आज भी जारी है। कांग्रेस ने सत्ता में रहते हुए भारतीय राजनीति में सिद्धांतविहीन परिवारवाद व व्यक्तिवाद को पोषित किया। ऐसे में भारतीय जनता पार्टी ही एक ऐसी पार्टी है कि जिसने वास्तविक धर्मनिपेक्षता के मूल्यों की रक्षा करते हुए आतंरिक लोकतंत्र को स्थापित किया। वस्तुत: यह दल एक विचारधारा, सिद्धांत और आस्था को केन्द्र में रख कर खड़ा हुआ और इससे जुड़े सभी कार्यकर्ता उसी विचारधारा के समर्थक होने के नाते पार्टी के साथ जुड़े, न किसी व्यक्ति या परिवार के प्रति आस्था के कारण। पिछले कुछ सालों पर नजर डालें तो कांग्रेस के बाद ऐसे अनेक दल उभर कर आए हैं, जो हैं तो कांग्रेसी के झूठे धर्मनिरपेक्षतावाद के पोषक, मगर उनकी संरचना व्यक्ति या परिवारवाद पर ही टिकी है। इनमें भाजपा अनूठी इस कारण है, क्यों कि वह केवल नैतिक मूल्यों और राष्ट्रवाद केलिए सतत प्रयत्नशील है।
पंडित दीनदयान उपाध्याय के एकात्म मानववाद को आत्मा में धारण किए हुए संविधान से धारा 370 हटाना, देश में समान नागरिक कानून लागू करना, मजहबी आधार पर तुष्टिकरण के बजाय सबको समान अधिकार और कर्तव्य देने का सिद्धांत प्रतिपादित करना, छल-बल और लालच से हिन्दुओं के मतांतरण का विरोध, गोहत्याबंदी, नवीन प्रौद्योगिकी का ग्रामीण हित में विस्तार आदि मुद्दों के लिए भाजपा पूरी तरह से समर्पित हो कर कार्य कर रही है। भारतीय राजनीतिक इतिहास में जनसंघ के नवीन अवतार के नाते भाजपा ने जितनी तीव्रता और जिस प्रभावी ढंग से अपनी पहचान बनायी है, वह विश्व के राजनीतिक इतिहास में अपना विशेष महत्व रखती है। यह ऐसा राजनीतिक आंदोलन है, जिसके बारे में आम जनता में यह विश्वास है कि वह राजनीतिक लाभ के लिए देश हित से समझौता करने को तैयार नहीं है। और उसका प्रमाण है, संघ के स्वयंसेवक से लेकर प्रधानमंत्री पद पर पहुंचे श्री अटल बिहारी वाजपेयी का वह प्रधानमंत्रित्वकाल, जिसे सभी राजनीतिक विचाररक देश की सुरक्षा, समृद्धि और टैक्नोलॉजी के क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। पोकरण-2, अमरीकी प्रतिबंधों की परवाह किए बिना स्वतंत्र राष्ट्रीय नीति का अवलम्बन, पड़ोसी देशों से अच्छे संबंध, कारगिल विजय और सैनिकों का सम्मान, स्वर्णिम चतुर्भुज के रूप में राजमार्गों का विस्तार और संचार क्रांति उनकी विशेषताएं रही हैं।
भाजपा सदैव ग्रामीण विकास, महिला सशक्तिकरण, बालिकाओं की शिक्षा, विदेशी खतरों के प्रति सजगता और जनजागरण, आतंकवाद के प्रति कठोर मानस पर खरी उतरी है। ऐसे यदि यह कहा जाए कि भाजपा ही इस देश की एकता और संप्रभुता के लिए वास्तविक लोकतांत्रिक पार्टी है तो उसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
-कंवल प्रकाश किशनानी,
जिला प्रचार मंत्री, शहर जिला भाजपा अजमेर
निवास-599/9, राजेन्द्रपुरा, हाथीभाटा, अजमेर
फोन-0145-2627999, मोबाइल-98290-70059 फैक्स- 0145-2622590

सोमवार, 20 जून 2011

पिता नमक की झील

लौटे हुए बसंत से, खुशबू के आलेख,
मुस्कानों के थे पिता, एक सुघड़ अभिलेख।
मतलब के सबंध थे, रिश्तों की तहसील,
कांधों पर ढोते रहे, पिता नमक की झील।
सम्मुख छोटी रेख के, बड़ी रेख एक खींच,
पिता जीये अपनी तरह, संघर्षों के बीच।
उम्मीदों के फ्रेम में, सपनों की तस्वीर,
पिता नदी से सरल थे, पर्वत से गंभीर।
घर से मीलों दूर जब, मन में घुला विषाद,
पिता समय की धूप में, बरबस आये याद।
दुर्दिन थे घर में सही, हर विपदा की चोट,
आई नही ईमान में, कभी पिता के खोट।
जब-जब अपनों ने किये, पहन नकाब प्रहार,
पिता बहुत बेबस दिखे, बहुत दिखे लाचार।
समीकरण सी जिन्दगी, जीवन कठिन सवाल,
पिता रहें ये सर्वदा, मीठे जल का ताल।
आंखों भर सच्चाइयां, बांहों भर विश्वास,
करुणा की पूंजी रही, सदा पिता के पास।
आतप, दुख, कठिनाइयां, अनगिन मुश्किल क्लेश,
पिता यहां हर दौर में, हंसते रहे दिनेश।
-दिनेश शुक्ल

या चाटुकारिता तेरा ही सहारा!

जब से कुछ समाचार पत्रों में यह खबर छपी है कि अब चाटुकारिता पर कानूनी प्रतिबंध लगाया जायगा, तभी से कतिपय 'हायर सर्किलÓ में चिंता व्याप्त है। धड़ाधड़ एसएमएस किये जा रहे हैं, मोबाइल पर फोन पर फोन हो रहे हैं कि अब क्या होगा? इनमें से कुछ का तो यह भी कहना है कि जो बात मुगलों के जमाने से चली आ रही है, वह यह सरकार ऐसे कैसे बंद करा सकती है?
अंग्रेजों के जमाने में भी कई राजा-महाराजा उनके तलुए चाटते थे। कई और लोग भी थे जिन्हें अंग्रेजों द्वारा राय बहादुर, खान बहादुर की पदवियों से नवाजा गया। बहुत लम्बी-चौड़ी लिस्ट है। अधिकतर राजा-महाराजा स्वतंत्रता के आंदोलन को दबाते थे। यही लोग ईद-दिवाली-क्रिसमस पर अंग्रेजों को डॉलियां, नजराना भेंट किया करते थे। इसलिए वह जाते-जाते इन्हें स्वतंत्रता दे गए कि चाहे तो आप भारत में मिलें, चाहे पाकिस्तान में मिलें और चाहें तो स्वतंत्र रहें। जम्मू-कश्मीर, जूनागढ, हैदराबाद इनके उदाहरण हैं, देखिए क्या इनाम दिया है? तभी तो कहा है, 'प्रति उपकार करो का तोरा, सन्मुख होय न सकत मन मोराÓ अर्थात आपने हमारे पर जो एहसान किया है, उसका बदला नही चुकाया जा सकता। देश आजाद हुआ तो अंग्रेज तो चले गए लेकिन यह लोग यहीं रह गए, लेकिन इन्होंने अपनी स्वामी भक्ति बदल कर नये राजाओं अर्थात मंत्रियों, सरकारी अफसरों इत्यादि के प्रति कर ली, जिससे कि इनकी पौ-बारह होती रहे। बहुत दूर जाने की आवश्यकता नहीं सिर्फ आपातकाल के समय से ही चलें। देश के सबसे बड़े दल के अध्यक्ष ने उन दिनों एक बार अपने ज्ञान का परिचय देते हुए कहा, 'इंडिया इज इंदिरा एंड इंदिरा इज इंडियाÓ। अब आप ही बतायें कि और क्या कहने-सुनने को बाकी रह गया? उसी अवधि के दौरान उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री ने अपनी स्वामी भक्ति का परिचय देते हुए एक नाला पार करते वक्त तत्कालीन 'युवा सम्राटÓ की चप्पलें उठाई थीं, तो राजस्थान में मुख्यमंत्री ने 'युवा सम्राटÓ को ऊंट पर सवारी में मदद करने हेतु अपना कंधा आगे कर दिया था। ऐसा नहीं है कि समय बीतने के साथ-साथ इस श्रेणी के लोगों की संख्या में कमी आई हो, बल्कि दिनों दिन इसमें इजाफा ही हुआ है, जिसकी झलक हमें कुछ दिनों पूर्व उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के ओरैया दौरे के दौरान देखने को मिली, जब उनके साथ गए डीएसपी ने उनके जूते साफ किए। इतना ही नहीं इस घटना पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए उत्तरप्रदेश के ही कैबिनेट सैक्रेट्री ने यहां तक कह दिया कि इसमें कुछ गलत नहीं है। अगर मैं वहां होता तो मैं भी यही करता।
कुछ दिन पूर्व एक नेताजी ने वर्तमान युवराज की तुलना जयप्रकाश नारायण से करके अपने अदभुत ज्ञान का परिचय दिया। इन नेताओं की छत्रछाया में पल रहे छुटभैये चाटुकारिता के माध्यम से येन केन प्रकारेण सप्लाई ऑर्डर, लायसेन्स, परमिट, कोटा इत्यादि प्राप्त कर लेते हैं। कुछ पेटोल पम्प, गैस ऐजेन्सियां हथिया लेते हैं, फ्लैट हथिया लेते हैं। इसी जमात के कुछ लोगों ने तरह-तरह की गैर सरकारी संस्थाएं, एनजीओ, बना कर विदेशी एवं सरकारी धन हथियाने एवं विदेश यात्रा करने के लिए अपना उल्लू सीधा करने का तरीका निकाला हुआ है। ऐसे में कोई तलवे चाटने को गैर कानूनी घोषित करने की मांग करेगा तो भला इनको सहन कैसे होगा?
तलवे चाटने वालों में जो ज्यादा घुटे हुए, रिफाइंड हैं, वे रक्षा सौदे में दलाली का काम करते हैं क्योंकि वह ऊंचे दर्जे की बातें हैं। चाटुकारों में से कुछ लोग जब तब सरकारी खर्च-खाते पर अपना इलाज कराने अथवा पत्नी सहित विदेश यात्रा करने का लुत्फ उठाते रहते हैं। कुछ लोग हिन्दी के विशेषज्ञ बन कर विदेशों में हिन्दी सम्मेलनों में जा कर उसे हिन्दू सम्मेलन बनाने की कोशिश करते हैं।
खेलों में चाटुकारों का कितना वर्चस्व है यह बात किससे छिपी है? आलेम्पिक में खिलाड़ी जायेंगे, पचास तो अधिकारी जायेंगे डेढ़ सौ और मैडल आयेंगे एक या दो। तलुवे चाटने वाले सरकारी मकहमे में तो भरे पड़े हैं। इनको दूसरो का हक मार कर मैरिट से प्रमोशन लेने की कला का बहुत ज्ञान है। जाति समाज में ऐसे लोग पैसे वालों तथा जिन्होंने सालों से धार्मिक स्थलों एवं ट्रस्टों तथा शिक्षण संस्थाओं पर कब्जा किया हुआ है, के इर्द-गिर्द मंडराते रहते हैं और उनकी जय-जयकार करते रहते हैं। ऐसे में इस कला को कौन गैर कानूनी घोषित होने देगा?
यह व्यंग्य लेख सेवानिवृत्त इंजीनियर श्री शिवशंकर गोयल ने भेजा है। उनका संपर्क सूत्र है -फ्लेट नं. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट नं. 12, सैक्टर .10, द्वारका, दिल्ली- 75, मोबाइल नंबर: 9873706333

शुक्रवार, 10 जून 2011

अब जूतों का समय है

सर्वविदित है कि जब अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज बुश अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में ईराक गए तो बगदाद में एक संवाददाता सम्मेलन में एक टीवी चैनल के पत्रकार ने उन पर जूते फैंके। इसके बाद तो ऐसी घटनाओं का जैसे सिलसिला ही चल पडा है, जिसमें हमारा देश भी पीछे नही है। पहले देश के गृहमंत्री पर एक पत्रकार ने जूता फैंका फिर हरियाणा के कांग्रेसी सांसद पर जूता फैंका गया और फिर बीजेपी के शीर्ष नेता पर उन्हीं के दल के एक पदाधिकारी ने भरी आम सभा में मध्यप्रदेश के कटनी में खडाऊ फैंक दी। हालांकि उनकी ही पार्टी के लोगों ने सफाई दी कि उसने चप्पल नहीं खडाऊ फैंकी थी और अब भ्रष्टाचार और नित नए उजागर होने वाले घोटालों के प्रति गुस्से का इजहार करते हुए एक नवयुवक ने कांग्रेसी प्रवक्ता को जूता दिखाया। इससे लगता है कि एक बार फिर जूतों का समय आ गया है।
आपको याद होगा कुछ साल पूर्व रात्रि समाचारों से पहले दूरदर्शन चैनल पर लिखा आता था 'शूज टाइमÓ अर्थात 'जूतों का समयÓ। उसे पढ़ कर लोग तरह-तरह के मतलब लगाते थे। कोई कहता था कि अब यानी रात्रि 8.40 बजे जूते का समय है, जैसे किसी के खाना खाने का समय निश्चित होता है तो कहते हैं कि खाने का समय हो गया, ऐसे ही किसी का पीने का, किसी के आने का, किसी के जाने का समय होता है और कोई निश्चित समय पर दवाई लेता है तो उसे याद कराया जाता है कि आपका दवाई का समय हो गया। इसी तरह दूरदर्शन हमें याद कराता था कि अब जूते का समय है।
इतिहास गवाह है कि इसकी शरुआत मध्यप्रदेश विधानसभा से हुई थी। कई साल पहले की बात है। तब वहां की विधानसभा में जनसंघ दल के उपनेता पंढारीराव कृदत ने सदन के अंदर ही विधानसभा उपाध्यक्ष श्रीवास्तव पर जूता फैंका, जो उनके सिर पर जाकर लगा। इसके बाद तो कई जनप्रतिनिधियों ने कई बार लोकतंत्र पर प्रहार किया। हाल के वर्षों में जूतें फैंकने की घटना हुई। उड़ीसा विधानसभा में वहां विधायकों ने आपस में जूतम-पैजार कर ली। 'उत्तम प्रदेशÓ में भी ऐसी घटनाएं होती रहती हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि जब कोई राजनैतिक दल चुनाव में हार जाता है और सत्ता से वंचित हो जाता है तो उनके यहां जूतियों में दाल बंटनी शुरू हो जाती हैं। कोई किसी को नोटिस देता है तो कोई किसी को दल से निकाल देता है। सरकार भी टीवी के माध्यम से कहती थी कि अब 'जूतें का समय हैÓ लेकिन यह खुलासा नहीं करती थी कि जूते दिखाने का समय है कि जूते सुंघाने का, या कि जूते मारने का, क्योंकि आंतकवादियों को प्रशिक्षण देने वालों, उन्हें उकसाने वालों, उन्हें शरण देने वालों को सरकार वर्षों से जूता दिखा रही है। उन्हें जूता सुंघाती क्यों नही है ? कई लोग इसे जूते उठाने का समय मानते थे, परन्तु यह बातें तो आपातकाल में ज्यादा हुई थीं, जब एक मुख्यमंत्री ने किसी गैर संसदीय हस्ती के जूते उठाये बताये। अब राजनीति में छुटभैये तरह-तरह के चापलूसी हथकंडे अपनाने लगे हैं। इन्हीं लोगों की देन है कि देश में अप्रैन्टिस प्रधानमंत्री हैं।
वैसे इस देश में प्राचीनकाल से ही जूतों की महिमा रही है। रामायण काल अर्थात त्रेता युग में भरतजी ने 14 वर्षों तक पादुकाओं को ही सामने रखकर राज्य चलाया था। द्वापर यानि महाभारत संग्राम के समय भी खडाउओं का जिक्र आया है। भीष्म पितामह से मिलने जाते वक्त कृष्ण ने द्रौपदी की खडाऊ अपने बगल में छिपाई थी।
वैसे जूतों की महिमा कम नही है। इसे चरण पादुका, खडाऊ, पगरख्या, मोचड़ी, बूट इत्यादि कई नामों से जाना जाता है। प्रथम महायुद्व के समय अंग्रेजों ने हिन्दुस्तान के लोगों को फौज में भर्ती करने हेतु निम्नलिखित गाना बनवाया था, जिसे फौजी बैंड आज भी बजाते हैं-
'थारो नाम लिखाद्यू रंगरूट, होजा पलटन म्हे अठे
मिलेली तन्हे फांटी जूत्या, कोई बठै मिलेला बूट
.... हो जा पलटन म्हेÓ
प्राचीनकाल में चीन मेंं लड़कियों को बचपन से ही लोहे के जूते पहना देते थे क्योंकि लडकियों के छोटे पैर वहां सुंदरता की निशानी मानी जाती है। शादी-ब्याह में सालियां जीजाजी के जूते छिपाने की रस्म किया करती हैं। फिल्म 'हम आपके हंै कौनÓ में तो जूतों को लेकर काफी नोंक-झोंक होती है। कई जगह बराती तेारण के समय जाते वक्त चेहरे से ज्यादा जूतों को चमकाते हैं। जूतों के निशान से खेाज कर खोजी लोग चोरों को पकड़ लेते थे। यह जूते की महिमा तो बाद में कम हुई है, जबकि लोग सिनेमा हॉल में धार्मिक पिक्चर लगने पर जूते हॉल के बाहर ही खोल कर जाने लगे तथा घरों में रामायण और महाभारत सीरियल देखते वक्त जूते-चप्पल उतार कर ही देखते थे। एक समय वह भी आया जब सांमतवादी युग में अपने को उच्च वर्ग कहलाने वाले कुछ लोग निम्न जातियों को पांव की जूती समझते थे। अब वह बंधन टूट रहे हैं तो तथाकथित उच्च वर्ग को गंवारा नहीं हो रहा है। उस समय देश का आम नागरिक जब टीवी पर जूते का समय देखता था तो उसे याद आता कि उसका कोई भी काम हो अपना जूता तो वह सरकारी कार्यालयों के चक्कर लगा-लगा कर पहले ही घिसा चुका है, जबकि धनवान लोग अपना काम चांदी के जूते से फौरन करवा लेते हैं। दोनो के आखिर जूते ही काम आते हैं। खुली अर्थ व्यवस्था के साये तले देश के नौजवान बेकारी के आलम में अपने जूते-चम्पल धिस ही रहे हैं। मेरा कहना तो इतना ही है कि अगर आप को टीवी पर दिखाना ही था तो जैसे महाभारत सीरियल में घटोत्कच को रूपा बनियान पहने दिखाया गया था और दूसरे में तक्षशिला के एक ब्रहचारी ने लक्खानी चपल पहन रखी थी। वहां तक तो ठीक है, लेकिन अब आप टीवी पर किसी को जूते दिखाते, मारते दिखायेंगे तो प्रचार चाहने वालों को बढ़ावा ही मिलेगा और इससे किसी के घर अथवा सभा-सोसायटी में जूते बजने शुरू हो गये तो इसकी जिम्मेवारी किसकी होगी? उस महाभारत को कौन संभालेगा?
यह व्यंग्य लेख सेवानिवृत्त इंजीनियर श्री शिवशंकर गोयल ने भेजा है। उनका संपर्क सूत्र है -फ्लेट नं. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट नं. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75, मोबाइल नंबर: 9873706333

गुरुवार, 9 जून 2011

अजमेर का ग्रामीण अंचल और हास्य रस

ऐसा नहीं है कि अजमेर के शहरी हलकों के लोग ही अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी में जब-तब हंसी-मजाक करते रहते हों, बल्कि इस इलाके के ग्रामीण अंचल के लोग भी हास्य रस का मजा लेने में किसी से पीछे नही रहते है। अब आप इस घटना को ही लें। यह उस जमाने की बात है, जब न केवल पुष्कर बल्कि आनासागर, फॉयसागर, बूढा पुष्कर इत्यादि सभी सरोवर कम से कम बरसात में तो लबालब भरे रहते थे। पुष्कर के आस-पास जमीन में भी पानी काफी ऊंचाई तक रहता था और इसी वजह से वहां गन्ने की खेती भी होती थी। कार्तिक मास में पुष्कर मेले पर गन्ने का खूब इस्तेमाल होता था। मेले के अवसर पर कवि सम्मेलन, सांस्कृतिक कार्यक्रम, प्रदर्शनी इत्यादि भी होते रहते हैं। ऐसे में एक बार रात्रि में एक कवि सम्मेलन चल रहा था। ग्रामीणों की भी अच्छी खासी भीड थी। इतने में मंच पर एक धाकड़ कवि आए और आते ही उन्होंने श्रोताओं को ललकारा 'किस रस में सुनना चाहते हो? शायद उनका तात्पर्य साहित्य के वीर रस, शृंगार रस, हास्य रस इत्यादि से रहा होगाा। कवि महोदय की ललकार सुन कर भीड में से एक ग्रामीण अपनी लाठी सहित उठा और बोला कि आज तो हमतो गन्ने के रस में सुनेंगे भाई! नतीजा यह हुआ कि इधर भीड़ तो ठहाके लगा रही है और उधर कवि महोदय खिसियानी हंसी हंस रहे हैं।
बीसवीं सदी के शुरू में जब दिल्ली-अहमदाबाद मीटर गेज लाइन बिछाई गई और उस पर पहले पहल जब भाप का इंजिन दौडाया गया तो कहते हैं कि अजमेर- मेरवाड़ा के मगरा क्षेत्र, ब्यावर के आस-पास के लोग भाग-भाग कर अपने घरों में छिप गए थे। बाद में उन्हें समझा-बुझा कर बाहर निकाला गया और उन्होंने पुलिस की मौजूदगी में इंजिन की पूजा की, तब कहीं जाकर उनका डर खुला। शुरू में लोग इस घटना को कपोल कल्पित मानते थे, लेकिन जब साठ के दशक में उदयपुर-हिम्मतनगर मीटर गेज लाइन डाली गई और जब उस लाइन पर सर्व प्रथम ट्रयल हेतु भाप का इंजिन चला तो रास्ते में पडऩे वाले बिच्छीवाड़ा गांव के आस-पास के आदिवासी लोग भी इंजन को भूत समझ कर भाग कर अपनी झोंपडिय़ों में जा छिपे थे, तब कहीं जाकर लोगों को उस पहली वाली बात पर विश्वास हुआ।
वर्षों पूर्व की बात है। तब अजमेर-मेरवाड़ा के गांवों में तो क्या कई कस्बों तक में बिजली नही पहुंची थी। गांवों के लोग घरों में कैरोसीन से चिमनी अथवा लालटेन जला कर रोशनी किया करते थे। एक बार ऐसा हुआ कि एक जगह मिट्टी का तेल घरों में भी खत्म हो गया और गांव के दुकानदार के यहां भी। बड़ी हाय-तौबा मची। हार-थक कर गांव के अधिकांश लोग पास के कस्बे में पहुंचे। उन्हें सड़कों पर नगरपालिका के लैम्प पोस्ट दिखाई पड़े। भीड़ में मौजूद विरोधी दल के एक नेता ने उन्हें उकसा दिया कि आप लोग इन खम्बों से घासलेट क्यों नहीं निकाल लेते? इतना कह कर वह नेता तो गायब हो गया और लोग एक खम्बे के पास इकट्ठा हो गए और गैंती-फावड़ों से उसे तोडऩे लगे। यह तो भला हो गांव के मास्Óसाब का जो उसी समय अपनी साइकिल पर उधर से निकल रहे थे, उनकी नजर उस पर पड़ी और उन्होंने माजरा समझ कर गांव वालों को समझाया कि यह तो नगरपालिका के बिजली के खम्बे हैं, इनमें घासलेट नहीं है, तब कहीं जाकर गांव वाले वापस हुए वर्ना उस रोज कुछ न कुछ होकर रहता।
पहले जब साल के कुछ दिनों खेतों में काम नहीं होता था, तब गांव वाले अक्सर ही चौपाल अथवा हथाई पर बैठ कर दुनियादारी की बातें करते रहते थे। एक बार की बात है कि लोग चौपाल पर बैठे हुए थे, तभी उधर से कुछ राहगीर निकले। उन्होंने जिज्ञासावश गांव वालों से पूछ लिया कि इस गांव के लोग क्या करते हैं? इस पर वहां बैठे एक ग्रामीण ने जवाब दिया कि सर्दियों में इस चबूतरे के पूरब की तरफ आकर बैठ जाते हैं और धूप के साथ-साथ सरकते हुए शाम होते-होते पच्छिम की तरफ पहुंच जाते हैं। और गर्मियों में, आगंतुक ने पूछा। गर्मियों में हम लोग मुंह अंधेरे ही पच्छिम की तरफ आ कर बैठ जाते हैं और सांयकाल होते-होते छाया के साथ सरकते हुए पूरब की तरफ पहुंच जाते हैं। इस पर आगंतुक यह कहते हुए चले गए कि बहुत व्यस्त रहते हो।
पुष्कर धार्मिक स्थल तो है ही, देशी-विदेशी सैलानियों के लिए भी काफी महत्वपूर्ण स्थल है। कभी-कभी विदेशी सैलानी पुष्कर के आस-पास के गांवों की तरफ भी निकल जाते हैं। एक बार की बात है कि कुछ विदेशी सैलानी गनाहेड़ा से कुछ आगे सिलोरा की तरफ निकल गए। वहां गांव की चौपाल पर बैठे कुछ लोगों से दुभाषिये की मार्फत उन्होंने पूछा कि क्या यहां कोई बड़ा आदमी पैदा हुआ है?
'साÓब! यहां तो सब बच्चे ही पैदा होते हैं। आज तक यहां कोई बड़ा आदमी पैदा नहीं हुआÓ गांव वालों ने कहा।
जैसा कि आप जानते ही हैं गांव में अक्सर पीने के साफ पानी की कमी रहती है, इसके लिए सरकार, चाहे दूर से ही लाए, पाइप लाइन डाल कर पानी लाती है। ऐसे में एक बार जलदाय विभाग के कुछ कर्मचारी सर्वेक्षण हेतु लेवल पेटी, नापने जोखने के कुछ यन्त्र, फीता इत्यादि लेकर गांव में पहुंचे। उन्हें देख कर गांव वाले वहां जमा हो गए। जिज्ञासावश उन्होंने कर्मचारियों से पूछा कि यह सब किसलिए? तो कर्मचारियों ने बताया कि जहां पानी उपलब्ध है वहां से गांव तक छोटे से छोटे रास्ते होते हुए पाइप लाइन बिछानी है। इस पर गांव वालों ने कहा कि इत्ती सी बात के लिए इतना ताम-झाम करने क्या जरूरत है, हमें तो जब ऐसे रास्ते की खोज करनी होती है तो हम एक गदे को डंडा मार कर उस ओर हांक देते हैं, वह जिस रास्ते होकर जाता है, वही छोटे से छोटा रास्ता होता है। चाहें तो आप भी आजमा लें।
सरकार का कहना है कि वह गांव वालों के लिए कई कार्यक्रम चलाती है, परन्तु जनता उसमें हिस्सा ही नहीं लेती। उदाहरणार्थ एक बार गांव में साक्षरता अभियान चलाया गया। इसके लिए जगह-जगह पोस्टर लगाए गए, जिसमें लिखा था गांव वाले साक्षर बनने के लिए डायरेक्टर, साक्षरता कार्यक्रम को प्रार्थना पत्र भेजें। उसमें अपना नाम, उम्र एवं पता स्पष्ट शब्दों में लिखें। लिफाफे पर टिकट भी लगा दें।
एक और सच्ची घटना सुनें। गांव वाले सरकार द्वारा समय-समय पर चलाये जा रहे कार्यक्रमों में भी हिस्सा लेने लगे हैं। ऐसे ही परिवार नियोजन के एक कैम्प में एक छोटे से गांव के सभी पुरुषों ने अपने-अपने ऑपरेशन करवा लिए, जब विभाग वाले जाने लगे तो तीन कुंआरे नौजवान उनके पास आए और अपने आप को ऑपरेशन के लिए पेश किया। कर्मचारियों ने उन्हें समझाया कि हमें नौजवानों और वह भी कुंआरों के ऑपरेशन करने की मनाही है। पहले भी युवक सम्राट के आदेश पर आपातकाल के दौरान ऐसे केसेज हुए थे तो हमारे विभाग के कई लोगों पर मुकदमे दायर हुए थे, जिनकी कोर्ट-कचहरी में अभी तक तारीखें चल रही हैं, इसलिए हम यह ऑपरेशन नही करेंगे, फिर भी उन्होंने युवकों से पूछा कि आप लोग ऑपरेशन हेतु इतनी जिद क्यों कर रहे हैं? इस पर उन्होंने जवाब दिया कि 'साÓब आपने गांव के सभी पुरुषों के ऑपरेशन कर दिए अब खुदा न खास्ता गांव में कुछ उल्टा-सीधा हो गया तो उसके लिए हमी को जिम्मेवार ठहराया जायगा। फिर न पंचायत हमारी कुछ सुनेगी और न पुलिस। तब कहीं जाकर विभाग वालों के बात समझ में आई।
गांवों में अब भी आखातीज पर छोटे-छोटे बच्चों की थोक में शादियां होती हैं। ऐसी शादियों में नेता तो शामिल होते ही हैं, जागरूक नागरिक भी कुछ नहीं करते। पुलिस थाने के सामने से बरात निकल रही है और कोई कुछ नहीं कहता। पुलिस का कहना है कि कोई हमें लिखकर दे कि ऐसी शादी हो रही है तभी कुछ किया जा सकता है क्योंकि आम जनता का मामला हो तो हर चीज पुलिस लिखित में मांगती है और रसूखदार का मामला हो तो मूक जुबानी आदेश मानती है। खैर, ऐसी ही एक शादी की बात है। रात्रि में खाना खाकर दूल्हा-बराती सभी सो गए। जब आधी रात को फेरे की रस्म का मौका आया तो दूल्हे के बाप ने दूल्हे को झकझोरा और कहा 'चल उठ, फेरा खालैÓ, दूल्हा गहरी नींद में था, उसने आधी नींद में ही जवाब दिया 'म्हनै भूख कोनी, थे ही खाल्योÓ, लेकिन लडके का बाप आसानी से हार मानने वाला नहीं था। उसने लडके को फिर झकझोरा, 'अरे! उठ जा फेरे खाकर फिर सो जाना।Ó लडृके ने इस बार अपना पैंतरा बदला और कहा कि कांदा कै साथ खाऊं। अब कंवर साहब के लिए कांदा यानि प्याज की खोज होने लगी। इसीलिए दूल्हे को राजा कहते है, चाहे एक दो दिन का ही हो।
एक बार ब्यावर तहसील के टाटगढ के पास किसी गांव में रामभरोसे के घर डाका पडा। दो-तीन रोज बाद पुलिस आई और बड़े रौब से थानेदार साहब ने रामभरोसे से पूछा-
...क्या तुमही रामभरोसे हो?
...हुकुम! मैं ही क्या अब तो सारा परिवार ही रामभरोसे है।
...डकैती पडी तब क्या वक्त था?
...बुरा वक्त था हुजूर! रामभरोसे मिमियाया
...ओहो! मैं पूछता हंू बजा क्या था? थानेदार साहब ने झुंझलाते हुए कहा
...सिर पर लाठी बजी थी, सरकार!
...अबे! घडी में क्या बजा था, एक सिपाही बोला।
...घडी में अलार्म बजा था, रामभरोसे बोला।
यह सुनकर थानेदार साहब झुंझला कर मकान के बाहर आ गए और
तफ्सीस साथ के सिपाही को सौंप दी।
तो यह थी अजमेर के ग्रामीण अंचल की चंद हास्य रस की घटनाएं, जो आपको बताई हैं, ताकि सनद रहे और वक्त बेवक्त काम आएं।
यह व्यंग्य लेख सेवानिवृत्त इंजीनियर श्री शिवशंकर गोयल ने भेजा है। उनका संपर्क सूत्र है -फ्लेट नं. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट नं. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75, मोबाइल नंबर: 9873706333

शुक्रवार, 3 जून 2011

साम्यवाद के जनक श्री कृष्ण


आधुनिक साम्यवाद के प्रणेता कार्ल माक्र्स, लेनिन एवं माओत्से तुंग के समय से भी काफी पहले भारतवर्ष में एक ऐतिहासिक महापुरुष का प्रादुर्भाव हुआ था, जिन्होंने न केवल गरीब, असहाय एवं दलितों पर होने वाले अत्याचारों का विरोध किया, उनके हितों के लिए संघर्ष किया बल्कि तत्कालीन धार्मिक पाखंड एवं थोथे कर्म कांडों का भी विरोध किया और बदले में समाज में उचित रीति रिवाजों के प्रचलन के लिए लोगों को प्रेरणा दी। वह महापुरुष थे श्री कृष्ण, जिनको हिन्दू परायण जनता भगवान का अवतार मानती है। जैसा कि सर्वविदित है साम्यवाद की मूलभूत धारणा है, मनुष्य मनुष्य सब समान हैं, इनमे ऊंच-नीच का कोई भेद नहीं है और जो समाज के कमजोर तबकों पर अत्याचार करता है, उसे सजा मिलनी ही चाहिए। इसके साथ ही हमारी कोशिश हो कि हम एक ऐसे समाज का निमार्ण कर सकें, जिसमे स्वार्थपरकता, एक ही व्यक्ति अथवा परिवार का निरकुंश एवं ठाट-बाट का शासन नहीं हो। न ही किसी तरह का उत्पीडऩ हो। श्री कृष्ण ने अपने काल में यही सब किया। उनके जीवन से हमें यह शिक्षा मिलती है कि कैसे उन्होंने आज से 5000 साल पहले इन सिद्धान्तों एवं विचारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दर्शायी थी। अगर कोई गीता का समुचित अध्यन करे तो यह पायेगा कि उसके सर्जक श्रीकृष्ण, कार्लमाक्र्स से भी अधिक साम्यवादी थे। यहां तक कि यह कहना भी गलत नहीं होगा कि साम्यवाद के जनक श्रीकृष्ण ही थे। श्रीकृष्ण ने उस समय चारों ओर फैले अंध धार्मिक कट्टरपन के विरुद्ध आवाज उठाई। यह भी सर्वविदित है कि उस समय लोगों में यह धारणा फैली हुई थी कि इन्द्र को प्रसन्न करने हेतु किसी जीव की बली देना आवश्यक है। श्री कृष्ण ने इस प्रथा का विरोध किया और लोगों के स्वाभिमान को जगाया। श्रीकृष्ण ने ही गायों की पूजा शुरू करवाई, जो कि हमारे तत्कालीन कृषि जीवन का आधार थी। श्रीकृष्ण ने सर्वजन के भूख की निवृत्ति हेतु अन्नकूट की प्रथा शुरू करवाई ताकि सबके लिए अन्न की व्यवस्था हो और कोई भूखा नहीं सोए। श्रीकृष्ण ने उन लोगों का भी विरोध किया जो हर बात में वेदों का उदाहरण देकर अपनी बात मनवाने का प्रयास किया करते थे। श्रीकृष्ण ने गीता में विस्तार से वर्णन किया है कि जो व्यक्ति अंध विश्वास के वशीभूत होकर अपनी छोटी-छोटी कामनाओं की पूर्ती हेतु विभिन्न देवी-देवताओं के निमित तरह-तरह के कर्मकांड करते हैं, वे मूढ़ हैं। उन्होने यह भी कहा कि जो कई देवी-देवताओं की पूजा करते हैं, धार्मिक अंध विश्वास एवं थोथे रीति-रिवाजों को मानते है, उन्हें अधिक बुद्धिमान नहीं माना जा सकता। श्रीकृष्ण ने जिन्दगी के हर क्षेत्र का अध्ययन करने के पश्चात यह निष्कर्ष निकाला और अर्जुन से कहा कि तू सब धर्मों का त्याग करके मेरी शरण में आ जा। जैसा कि बाद में कार्ल माक्र्स ने भी कहा था कि, थोथे कर्म कांडों वाला धर्म आम लोगों के लिए अफीम के समान है, परन्तु धर्म से भी आगे बढ़ कर सत्य की खोज करने की प्यास हमेशा से रही है। आदमी के जेहन में सवाल उठता रहा है कि मृत्युपरान्त आदमी कहां जाता है? इसका उत्तर श्रीकृष्ण अर्जुन के माध्यम से गीता में सबको देते हैं, जो कि अध्यात्म का हिस्सा है, लेकिन आधुनिक साम्यवाद के ग्रन्थों में इसकी झलक देखने को नहीं मिलती है। गीता को पढऩे से इंसान को सृष्टि के सृजनात्मक पहलू की गहरी जानकारी प्राप्त होती है, जिसके बगैर जिन्दगी शुष्क बन कर रह जाती है। यहीं आकर धर्म एवं अध्यात्म का भेद प्रकट होता है, जो कि साम्यवाद के ग्रन्थों में नदारद है और यह पहलू सिर्फ श्रीकृष्ण की गीता में उपलब्ध है। साम्यवाद किसी भी अवस्था में श्रीकृष्ण को नही भुला सकता है क्योंकि साम्यवाद के तमाम सिद्धान्तों में श्रीकृष्ण पहले से ही कारगर ढंग से मौजूद हैं। इस बात को हम नजर अंदाज नहीं कर सकते और अगर करते हैं तो हम पायेंगे कि हमने सिर्फ एक धर्म की जगह दूसरे धर्म को, जिसका कि नाम साम्यवाद है, रख दिया है। मुझेे आश्चर्य होता है कि कम्युनिस्ट विचारधारा के लोगों ने अभी तक भी श्रीकृष्ण को क्यों नहीं अपनाया है?
गीता में स्वयं श्रीकृष्ण ने कई बार कहा है कि जो व्यक्ति प्रत्येक जीव में मेरी छवि देखता है, प्रत्येक व्यक्ति में अपनी स्वयं की मूरत देखता है, वह सत्य के दर्शन करता है और यही तथ्य साम्यवाद का मूल सिद्धान्त है, यानि आम व्यक्ति को अपना मान कर उसकी भलाई की कोशिश करना। केले के छिलके की उपयोगिता तभी तक है, जब तक कि उसके अंदर केला मौजूद है, परन्तु ज्योंही हम केले का इस्तेमाल कर लेते हैं तो हम केले को कूड़ेदान में फैंक देते हैं। ठीक इसी तरह कर्मकांड का धर्म हमें हमारे लक्ष्य, अंतिम सत्य तक नहीं ले जाता। उसके लिए व्यक्ति को अपने मन की गहराई में उतर कर वैज्ञानिक अध्यात्मवाद की तरफ जाना पड़ता है। यहां आकर तथाकथित धर्म बाहर ही खड़ा रह जाता है और व्यक्ति शुद्ध मानवता, शुद्ध देवत्व की ओर बढ़ता है। यही वह सार तत्व है, जिसे कृष्ण ने गीता में प्रतिपादित किया है। पश्चिम में वैज्ञानिकों पर अक्सर यह दबाब डाला जाता रहा है कि वे धार्मिक ग्रन्थों की अवधारणाओं पर उंगली न उठाएं, उन पर प्रश्न न करें, जबकि इसके विपरीत भारत के अधिकांश धर्म ग्रन्थ सवाल-जबाब के रूप में ही लिखे हुए हैं। गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को अपनी बात कहने के उपरान्त सुझाव देते हैं कि तुम स्वतंत्र रूप से इन बातों पर गौर करो और तुम्हें इस बात की पूरी आजादी है कि तुम इससे सहमति प्रकट करो या इन्हें ठुकरा दो। श्रीकृष्ण ने कहीं भी अपने विचार अर्जुन पर नहीं थोपे। साम्यवाद भी लगभग इन्ही विचारों का पोषक है, लेकिन कहीं कहीं सुनने में आता है कि इस विचारधारा को मानने वाले कुछ कट्टर लोग अपने से भिन्न विचारों को पसंद नहीं करते। विभिन्न विषयों पर अपने विचार प्रकट करने के साथ ही श्रीकृष्ण ने युद्ध के मैदान में अर्जुन को अत्याचारों को सहने की बजाय उनके विरुद्ध उठ कर युद्ध करने की प्रेरणा दी, जैसा कि कम्युनिस्ट भी अधिकतर करते हैं। उन्होंने अर्जुन को कहा कि इस युद्ध को विवेक बुद्धि का इस्तेमाल करते हुए कर्तव्यरूप समझ कर लड़े, न कि गुस्से अथवा घृणा के साथ लड़े। साम्य वाद की जो खूबियां हैं, उसमें से एक है बंटवारा। अगर हम श्रीकृष्ण का बाल्यकाल देखें तो हम पायेंगे कि वह बचपन से ही बिना किसी भेदभाव के अपने ग्वाल-बालों के बीच माखन-मिश्री का बंटवारा करके खाते थे। बाद में उन्होंने सम्पत्ति का बंटवारा किया। साम्यवाद की सबसे बड़ी खूबी है कि बिना किसी भेदभाव के सम्पूर्ण समाज के हित में काम करना और यही श्रीकृष्ण ने भी किया। उनका मानना था कि जो मनुष्य वास्तव में बुद्धिमान है, वह समाज में किसी को ब्राह्मण एवं किसी को अछूत नहीं समझेगा। कम्युनिस्ट जातिवाद के सतत विरुद्ध है, परन्तु आप चाहे इसे पसंद करें अथवा नहीं परन्तु यह हर काल में किसी न किसी रूप में सर्वत्र व्याप्त है। यह जल्मजात भी है और मनुष्य द्वारा अपनाये गए कर्मों के अनुसार भी। ऐसे भी उदाहरण हमें मिल जायेंगे जिसमें कि किसी का जन्म तो किसी अन्य जाति में हुआ, लेकिन उसने अपने पर परागत धन्धे को न अपना कर अन्य कोई कार्य किया। उदाहरण के लिए हम वेद व्यास को लें, जिनका जन्म तो एक मछुआरे के यहां हुआ, लेकिन उन्होंने इतिहास प्रसिद्ध बड़े-बड़े धार्मिक ग्रन्थों की रचनाएं की। हमें आश्चर्य तो तब होता है, जबकि हम पाते हैं कि हमारे ज्ञात हजारों ऋषि-मुनियों में से कुछ लोग ही तथाकथित सवर्ण वर्ग के थे। यह दुख की बात है कि कुछ दिखावटी लोग जो साम्यवाद की बात करते हैं, लेकिन वे स्वयं आलीशान जिन्दगी जीते हैं, परन्तु श्रीकृष्ण ने कभी ऐसा नहीं किया.। वे स्वयं कभी राजा नहीं बने, हालांकि कुछ लोग उन्हें द्वारकाधीश पुकारते हैं। वे द्वारका के सेवक की तरह रहे। वे राजमुकट के बिना ही राजा रहे। उन्होंने सदैव गरीबों के हितों के लिए कार्य किया और आमजन में अपनी तस्वीर देखी, इसलिए सदियां बीत जाने पर आज भी वे याद किये जाते हैं, परन्तु आजकल अचानक रामायण, महाभारत इत्यादि को सिर्फ महाकाव्य, साहित्यिक रचना घोषित करने की बातें होने लगी हैं। कुछ लोग इन ग्रन्थों को कथा-कहानियों के रूप में लेने लगे हंैं, मानो इनमें वर्णित घटनाएं कोरी कपोल कल्पित हो। यह घारणा हास्यास्पद है क्योंकि सिर्फ पौराणिक कथा-कहानियों से सम्पूर्ण क्षेत्र और यहां तक कि देश-विदेश में भी बिना किसी प्रचार प्रसार के समुचित साधनों के, इनका प्रभाव देखा-सुना जा सकता है। रामायण एवं महाभारत का सम्पूर्ण सभ्यता पर इतना व्यापक प्रभाव एक आश्चर्य का विषय है। संस्कृ त के शब्द 'इतिहासÓ का तात्पर्य ही यही है कि ऐसा हुआ था, ऐसा हुआ है। संसार के प्रत्येक प्राणी को अपने समकक्ष मानना हृदय की बात है और हृदय की यह उमंग अध्यात्म से आ सकती है। यह कोरी विद्वता की बात ही नहीं है कि आपने पढ़ा और आप इस पर काम करने लगे, यह भावना की बात है और भावनाओं का विकास अध्यात्म से होता है। इसलिए एक सच्चा कम्युनिस्ट बनने के लिए यह आवश्यक है कि आपके हृदय में दया एवं प्रेम की लहर उमड़े। आधुनिक साम्यवाद धर्म के वर्तमान, कर्मकांडों की बाहुल्यता वाले स्वरूप को स्वीकार नहीं करता है और आपको शून्य में विचरण करने के लिए छोड़ देता है। अगर आप पर अध्यात्म का प्रभाव नहीं है तो आप अपने उदेश्यों से भटक जायेंगे और आप में प्रतिहिन्सा की ज्वाला प्रज्ज्वलित हो सकती है या आप में अवसाद-विषाद आ सकता है, जो कि आत्महत्या का रास्ता है। आप दूसरे किसी की तब तक सेवा नहीं कर सकते, जब तक कि आप उसे अपना नहीं मानें। सिर्फ अध्यात्म ही आपमें यह सेवाभाव, बांट कर सेवन करना अथवा साम्यवाद की भावना ला सकता है। साम्यवाद में इसी अध्यात्म की कमी है, जिसके लिए श्रीकृष्ण प्रसिद्ध थे, परन्तु अब यह देखा गया है कि कम्युनिस्ट केरल में गुरूवयूर मंदिर जाने लगे हैं और बंगाल में दुर्गा पूजा महोत्सव मनाने में भी झिझक नहीं दिखा रहे हैं।
श्री श्री रविशंकर-आर्ट ऑफ लिविंग हिन्दुस्तान टाइ स 13.6.2004 अनुवादक: शिव शंकर गोयल

गुरुवार, 2 जून 2011

अब मैं दादा हो गया हूं

जब मुझे स्टेट यानि अमेरिका, स्टैन्डर्ड बढ़ाने हेतु मैं अमेरिका को स्टेट ही कहता हंू, से मेरे पुत्र द्वारा खबर मिली कि मैं अब दादा हो गया हूं तो लगा कि जिन्दगी के सफर में सीनियरिटी की एक पायदान और चढ़ गया, वरना मेरी मां ने तो बचपन में मेरा घरेलू नाम छोट्या उर्फ छोटू रख कर मुझे सबसे 'जूनियरÓ ही बना डाला था। उस वजह से मैं ताजिन्दगी उसके लिए ही क्या, सब के लिए छुटकू ही रहा। यहां तक कि मुझे सरकारी नौकरी में भी किसी ने बड़कू अर्थात 'सीनियरÓ नहीं माना। खूब कोर्ट-कचहरियां कर लीं, कभी सर्विस ट्रिब्यूनल तो कभी कोर्ट, लेकिन नतीजा वही ढ़ाक के तीन पात।
ऐसा कैसे हुआ, वह बातें अब आप न पूछें तो ही ठीक है वर्ना कहीं कुछ कह दिया तो कौन जाने कब मानहानि के दावे के लिए बुलावा आ जाए। यह तो भला हो बैंक और रेलवे का, जिसने बाद में 60 की उम्र में बिना कुछ कहे सुने मुझे 'सीनियर सिटीजनÓ मान लिया, वरना इन्कम टैक्स वाले तो मुझे 65 वर्ष का होने तक इंतजार करवाते रहे। केन्द्र सरकार एक और उसके दोनों विभागों के वरिष्ठ नागरिकता के नियम अलग-अलग, है ना मजेदार बात, लेकिन यही तो अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री की खूबी है!
जब मैंने अपने बचपन के लंगोटिया दोस्त को टेलीफोन पर यह बात बताई कि अब मैं दादा हो गया हूं तो पहले तो वह मानने को ही तैयार नहीं हुआ फिर उसने फोन पर ही मुझे कहा कि तू कभी सुधरेगा या नहीं। इस उम्र में दादागिरी करने की सूझी है? पुलिस को पता लगा तो फिर क्या होगा। मैं उसे बता ही रहा था कि यह बात नहीं है, लेकिन वह कुछ भी सुनने को तैयार नहीं था। वह बोलता रहा कि बस-बस रहने दे। यह उम्र भगवान का नाम लेने की है और तू दादा बन रहा है, कहीं पुलिस ने थाने में बुलवा लिया तो रही सही इज्जत भी मिट्टी में मिल जानी है। घबरा कर मैंने फोन बंद कर दिया।
हां, तो मैं आपको दादा बनने के बारे में बता रहा था। जैसा कि आप स्वयं जानते हैं कि बचपन में बनी धारणा अथवा संस्कार आसानी से नहीं जाते। एक बार जब मैं पांचवी-छठी क्लास में पढ़ा करता था तब हमारे एक सहपाठी के बारे में सुना कि वह दादा बन गया है, परन्तु हम में से कइयों को इस बात पर विश्वास नहीं हुआ, हालांकि हम उसे देखा करते कि वह अक्सर गले में रुमाल बांधे रखता, कभी कमीज अथवा बुशर्ट की कॉलर ऊपर चढ़ाए रखता अथवा उनके ऊपर के एक-दो बटन खुले रख कर घूमा करता। इतना ही नहीं, चलते वक्त हाथों को दोनों ओर फैलाए रखता तथा हरदम लडऩे-झगडऩे को आतुर रहता था। फिर भी हममें से कइयों ने उसे 'दादाÓ की मान्यता नहीं दी, लेकिन एक रोज किसी बात पर मास्साब ने उसकी खूब पिटाई की तो 'कन्फर्मÓ हो गया कि वह वाकई दादा है क्योंकि कहावत है कि 'दादा, मार खावै ज्यादा।Ó यह बात अलग है कि वह मार घर पर, स्कूल में या थाने पर, इनमे से कहां ज्यादा खाता है। दादा लोग सिर्फ दादा ही नहीं कहलाते, 'दादागिरÓ भी कहलाते हैं। इनका पुलिस और नेताओं से सीधा संबंध होता है। जैसे जनप्रतिनिधियों के अपने-अपने क्षेत्र होते हैं, इनके भी अपने इलाके होते हैं, जहां यह रंगदारी, पैसा ऐंठना इत्यादि का कार्य अंजाम देते रहते हैं। कहीं-कहीं चुनाव के दिनों में भी इनकी सेवाएं ली जाती हैं। अक्सर यह लोग माफियों और नेताओं के साथ काम करते हैं। इनकी वजह से उपरोक्त पुरानी कहावत 'दादा, मार खावै ज्यादाÓ धीरे-धीरे पुरानी पड़ती जा रही है और इसकी जगह 'दादा, माल खावै ज्यादाÓ का प्रचलन बढ़ रहा है। तभी तो हम देश के राजनीतिक दृश्य पटल पर नेताओं, अफसरों एवं कतिपय पत्रकारों के साथ-साथ असरदार लोगों, दादाओं के कारनामे देख रहे हैं, जो देश को चूना लगाने में एक-दूसरे से होड़ लगा रहे हैं। भगवान जाने कब ऐसे दादाओं से देश को निजात मिलेगी? इसलिए जब से मैंने यह सुना कि अब मैं दादा हो गया हंू तो मैं सोचता रहता हूं कि यह काम मैं कैसे कर पाऊंगा? मैं डर रहा हूं कि अब मैं क्या करूंगा? मेरे से तो यह सब होगा नहीं। मैं कमीज बुशर्ट के बटन खोल कर कैसे घुमूंगा? मैं बिना पुलिस की मदद के दादा कैसे बनूगां और फिर मेरा तो कोई राजनीति में गॉडफादर भी नहीं है, इसलिए इस बात को छिपाता फिर रहा हूं, लेकिन बीबी-बच्चे समझा रहे हैं कि आपको मूल का ब्याज मिला है। उनका कहना है कि दादा शब्द तो आदर का है। इसे घर-परिवार में जहां पिता के पिता के लिए इस्तैमाल किया जाता है, वहीं यह कहीं-कहीं बड़े भाई के लिए भी प्रयुक्त होता है। महाराष्ट्र में तो इस नाम-पदवी के साथ कई विभूतियां हुई हैं, जैसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी दादा भाई नौरोजी, न्यायाधिकारी दादा धर्माधिकारी, फिल्मों के दादा फाल्के, जिनके नाम से पुरस्कार दिए जाते हैं। यहां तक कि वहां के मुख्यमंत्री तक बसंत दादा पाटिल हुए हैं, इसलिए कहीं-कहीं दादा शब्द सम्माननीय भी है और जहां दादा का सम्मान है, वहां भला दादी कैसे पीछे रह सकती है। अत: कई पारिवारिक पत्रिकाओं ने अपने अपने पृष्ठों में 'दादी मां के नुस्खेÓ नामक लोकप्रिय स्तम्भ चलाए हुए हैं। अत: आपका यह छिपाव करना गलत है। वे कहते हैं कि 'कहीं कुलड़ी मेंं गुड़ फूटा हैैंÓ अर्थात कहीं कोई ऐसी बात छिपी रही है? लगता है इस बहाने आप इष्ट मित्रों को मिठाई खिलाने से बचना चाहते हैं, परन्तु मेरा कहना है कि ऐसा नहीं है, है ना?
यह व्यंग्य लेख सेवानिवृत्त इंजीनियर श्री शिवशंकर गोयल ने भेजा है। उनका संपर्क सूत्र है -फ्लेट नं. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट नं. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75, मोबाइल नंबर: 9873706333

पाराशर जी का चौथा विकल्प

जय भगवान जी का पूरा नाम जय भगवान पाराशर था। वे पुष्कर के रहने वाले थे और हमारे ही मकहमे यानि पीएचईडी में लिपिक के पद पर काम करते थे, परन्तु किसी के पूछने पर पीएचडी ही बतलाते। मेरी उनसे पहली मुलाकात विभाग में ही हुई थी। हम एक ही सैक्शन में थे। अक्सर उनकी बातें बड़ी दिलचस्प होती थीं। एक रोज की बात है कि हमारे ही विभाग का कोई कर्मचारी अपने तबादले हेतु भीलवाड़ा से हमारे कार्यालय अर्थात मुख्यालय जयपुर आया। उसे लेकर हम सभी कार्यालय के बाहर किशन चाय वाले की थड़ी पर पहुंचे। किशन को चाय का ऑर्डर देने के बाद सामने ही कड़ाही में गर्मा-गर्म कचौरियों को तैयार होते देख कर उनका जिक्र चल पड़ा। सभी कचौरियों के बारे में बातें करने लगे। तभी पाराशर जी ने रहस्योद्घाटन किया कि एक बार वे 72 कचौरियां तक खा चुके हैं। उनका यह दावा सुन कर हम सभी एकाएक शंका करने लगे और उन्हें कहा कि एकबारगी में 72 कचौरियां खाना नामुमकिन है, लेकिन वे अपनी बात पर अड़े रहे और कहा कि वाकई मैंने 72 कचौरियां ही खाई हैं। अपनी बात के समर्थन में उन्होंने यह भी बताया कि यह बात अजमेर की मशहूर चाट की दुकान विद्या कचौरी वाले की है। हम सभी द्वारा पाराशर जी के दावे को खारिज होते देख थोड़ी देर बाद वह कुछ नरम पड़े और अपना क्लेम कुछ ढीला कर दिया और कहा कि 72 नहीं तो 60-65 तो थी ही, इससे कम का तो सवाल ही पैदा नही होता। हमारे ही एक साथी ने जब उन्हें चैलेंज किया और कहा कि एक साथ 60-65 कचौरियां भी खाना सम्भव नहीं है और अगर वह फिर से खाकर दिखा दे तो वे उन्हें 100 रुपए देंगे और अगर नहीं खा सकेंगे तो दुगने पैसे देने पडेंगे। उस समय 100 रुपए की कीमत होती थी। इतने में ही चाय आ गई और हम लोग चाय पीने लगे। कुछ देर बाद हम सबने मिल कर फिर उन्हें ललकारा तो पाराशर जी कहने लगे कि इस बाबत आप चाहें तो जगदीश जी से भी पूछ सकते हैं। ऊपर मैं आपको यह बताना भूल गया था कि हमारी उक्त गोष्ठी में पाराशर जी के परम मित्र जगदीश जी भी मौजूद थे, जो इस वार्ता के दौरान अधिकांश समय मुस्करा रहे थे। जब पाराशर जी ने 40 का आंकड़ा फिर दोहराया और कहा कि जगदीश जी ने स्वयं गिनी हैं। यहां पर कनखियों से मैंने देखा कि जगदीश जी आंख मार कर पाराशरजी को कुछ और कम करने के लिए इशारा कर रहे हैं। इस पर पाराशर जी बिफर पड़े और कहा कि मैं अब और कम नहीं कर सकता क्योंकि अब तो कचौरियां गिन भी ली गई हैं। तभी चपरासी ने आकर बताया कि पाराशर जी को साहब याद कर रहे हैं तो हम सब दफ्तर की तरफ चल दिए और इस तरह उस दिन अनिर्णित बहस का समापन हुआ।
पाराशर जी के बारे में कई किस्से मशहूर थे। कहते हैं कि उनकी युवावस्था में जब वह शादी के लायक थे तब कई लोग उन्हें देखने, उनके बारे में जानकारी लेने आते थे। इस बारे में जगदीश जी ने एक सच्ची घटना सुनाई। हुआ यह कि एक रोज कुछ लोग शादी का प्रस्ताव लेकर उन्हें देखने-जानने आए। मुलाकात किसी जानकार के घर पर हुई। औपचारिक भेंट एवं नाम इत्यादि पूछने के बाद उनसे पूछा गया कि बेटा! कितना पढ़े हो, तो उन्होंने जबाब दिया कि एमए साइंस हूं। लड़की वालों ने फिर पूछा कि क्या करते हो, कोई दुकान है या नौकरी है, तो उन्होंने जवाब दिया कि पीएचडी में हूं। अपना कोई मकान वगैरह भी होगा, इस पर यह बोले कि दो-दो कोठियां हैं। एक मोदियाना गली में है दूसरी रक्त्या गली में। उम्र कोई बीस- बाईस होगी, मैं 35 साल का हूं। इतने में इनको खांसी आ गई तो लडकी वालों ने प्रसंगवश पूछ लिया कि क्या खांसी है, तो यह बोले कि नहीं, दमा है। कहने का तात्पर्य यह कि हर बात को अपने ही ढंग से बढ़ा-चढ़ा कर कहने की आदत पाराशर जी की थी। विभाग में काम करते-करते जब काफी अर्सा हो गया तो उनकी बातों में परिपक्वता आने लगी। एक बार दफ्तर समय में साथियों के बीच धूप सेकते-सेकते बात चल पडी तो उन्होंने अपनी युवावस्था का एक किस्सा सुनाना शुरू कर दिया।
यह बात आप उन्ही के शब्दों में सुनेंगे तो ज्यादा आनंद आयेगा। एक बार हम कुछ दोस्त गोठ करने पंचकुंड, जो कि पुष्कर के पास नाग पहाड की तलहटी में स्थित महाभारतकालीन ऐतिहासिक स्थल जो कभी घने वन से घिरा रहता था, गए। वर्षा ऋतु में कोई छुट़टी का दिन था। गोठ का जरूरी सामान लेकर हम वहां पहुंचे और हममें से कुछ लोग रसोई बनाने में जुट गए, कुछ लोग नहाने-धोने में पांचों कुन्डों की तरफ निकल गए। मैं अपने एक दोस्त के साथ जंगल में बरसाती नाले की तरफ चला गया। बातों ही बातों में हम काफी दूर निकल गए और नाले के एक किनारे स्थित टीले पर बैठ कर बातें करने लगे। बातों में हमें यह भी ध्यान नहीं रहा कि कुछ देर पहले जंगल के पशु-पक्षी अपनी अपनी बोलियों में चिल्ला कर कुछ संकेत कर रहे थे। थोड़ी देर बाद बिलकुल सन्नाटा छा गया। इतने में हमने देखा कि एक शेर चारों तरफ देखता हुआ धीरे-धीरे नाले की तरफ बढ़ रहा है। वह स्थान हमारे बैठने के स्थान के ठीक सामने ही था। सिर्फ कुछ झाडिय़ां ही हमारी ओट बनी हुई थीं। शेर को इतना करीब देख कर एकबारगी तो हमारी सांसें ही जैसे थम गईं, लेकिन दम साधे हम लोग बैठे रहे। इतने में एक काले मुंह के बंदर ने हूप-हूप की आवाज करते हुए एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर छलांग लगाई ,जिससे अचकचा कर शेर पीछे मुड़ कर जंगल की तरफ भागा। इधर हम दोनों भी अपनी जान बचा कर पुष्कर की तरफ भाग आए। पाराशर जी ने उपरोक्त किस्सा कोई एक बार ही हमें नहीं सुनाया, एक और मौके पर उन्होंने इसी घटना को विस्तार से फिर सुनाया, मानो कोई नई बात सुना रहे हों। हां, उसका उत्तराद्र्ध यानि बाद का हिस्सा बदल दिया। हो सकता है ऐसा उन्होंने अनजाने में कर दिया हो क्योंकि ऐसी घटनाएं दुबारा सुनाते वक्त अक्सर वक्ता को यह याद नहीं रहता कि पहले क्या सुनाया था? खैर, दूसरी बार सुनाते वक्त उनका कहना था कि शेर जब पानी पी चुका, तभी अचानक कहीं से टिटहरी की आवाज हुई, जिसे सुन कर शेर चौंक गया और उसने हमारी ओर देखा। यह दृश्य देख हमारे होश उड़ गए और हम दोनों सिर पर पांव रख कर वहां से भागे तो पुष्कर की बड़ी बस्ती में आ कर ही दम लिया। एक और अवसर पर यही किस्सा तीसरी बार सुनाते वक्त उनका बाद वाला विकल्प फिर बदल गया। इस बार उनका कहना था कि जब शेर पानी पी चुका तो अचानक एक कव्वे की आवाज सुनाई दी, जिसे सुनकर शेर चौकन्ना हो गया ओर वह जंगल की तरफ भागा और इधर जान बचा कर हम भी भागे और पुष्कर की छोटी बस्ती में आकर ही दम लिया। यानि इस बार दोनों ही पक्ष विपरीत दिशाओं में पलायन कर गए।
मैं कई बार यह सोचता रहता हंू कि कहीं पाराशरजी को एक बार और शेर मिल जाता तो उनका चौथा विकल्प, यानि दोनों ही भागने की बजाय आमने-सामने हो जाते, तो क्या होता? परन्तु हमारे देश में तो हर कोई तीसरे विकल्प तक ही आकर ठहर जाता है। चाहे राजनीति हो चाहे जैन्डर भेद यानि स्त्रीलिंग-पुल्लिंग एवं शबनम मौसी वाला वर्ग। इससे आगे कोई बढ़ता ही नहीं। मेरा मानना है कि पाराशर जी के साथ चौथा विकल्प हो जाता तो शायद वही होता जो एक अन्य व्यक्ति के साथ हुआ। हुआ यह कि एक बार वह व्यक्ति घने जंगल के बीच से गुजर कर कहीं जा रहा था कि उसका सामना एक शेर से हो गया। फिर तुमने क्या किया, मित्र ने पूछा। मुझे क्या करना था, जो कुछ करना था उस शेर को ही करना था। वह बोला, खुदानखास्ता ऐसी बात पाराशर जी के साथ हो जाती तो वे मुझे कैसे बताते और जब वे मुझे नहीं बताते तो मैं भी फिर आपको क्या सुनाता?

यह व्यंग्य लेख सेवानिवृत्त इंजीनियर श्री शिवशंकर गोयल ने भेजा है। उनका संपर्क सूत्र है -फ्लेट नं. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट नं. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75, मोबाइल नंबर: 9873706333

द्वारका विच रैयाही नही, उनानै दिल्ली रैणदा मजा नहीं चख्या!

यह तो मेरी किस्मत अच्छी थी, जो मुझे द्वारका में आकर रहने का मौका मिला वरना, जिन्दगी में मलाल ही रह जाता। वैसे यहां आकर रहने में यह फायदा है कि आपका स्टैन्डर्ड बढता है। यहां आने से हिन्दुओं के चार धामों- बद्रीनाथ, पुरी, रामेश्वरम और द्वारका में से एक की यात्रा अपने आप ही हो जाती है। एक ओर जहां देश के छोटे-छोटे शहरों, कस्बों में जब कभी कोई हवाई जहाज आकाश में आवाज करता हुआ निकलता है तो बच्चे-बूढ़े सभी आकाश की ओर कौतुहल एवं हसरत भरी निगाहों से देखने लगते हैं, लेकिन यहां द्वारका में रहने वाले तो सौभाग्यशाली हैं, जिन्हें रोजाना ही हर दस-बीस मिनट में एक हवाई जहाज उतरता या चढ़ता हुआ दिखाई दे जाता है। इसलिये लोग तो कहते हैं कि यहां के निवासी किस्मत वाले हैं। कहते हैं कि महाभारत के युद्ध के बाद भगवान श्री कृष्ण भी द्वारका में ही जाकर रहने लगे थे।
यहां ऊंचे-ऊंचे अपार्टमेन्ट्स हैं, जिनके भाव भी ऊंचे हैं और उनके किराये भी ऊंचे हैं। वैसे सरकारी विभागों की मेहरबानी से अधिकांश फ्लैट खाली पड़े हैं। यहां खाने-पीने की चीजों के भावों का अन्दाजा आपको एक बात से लग जायगा। एक बार मैं एक बाजार में एक किरयाने की दुकान पर दालों के भाव लगे देख कर सहम गया। दालें अब किलो के हिसाब से नहीं, बल्कि उनके दाने नग के हिसाब से मिल रहे थे। उदाहरणार्थ अरहर, दाल के दाने दो रुपए दर्जन, मूंग छिलका डेढ़ रुपए दर्जन इत्यादि। यह देख कर मैं घबरा कर आगे बढ गया। फल-सब्जी वाले भी किसी तरह कम नहीं हैं। थोक मंडी से यहां लाते-लाते उनके भाव चौगुने कर देते हैं। पिछले मंगलवार को जब मैं साप्ताहिक सब्जी मंडी गया तो यह देख कर हैरान रह गया कि पालक-मेथी के पत्ते तक गिनती से मिल रहे हैं। मसलन पालक एक रुपए के 5 पत्ते, मेथी एक रुपए के बीस पत्ते इत्यादि-इत्यादि। और जब चलते-चलते एक ठेले वाले से पूछा कि नींबू क्या भाव दिए तो वह बोला बीस रुपए के चार। मैंने उसे कहा भाई! कुछ कम करो तो वह बोला-अच्छा साÓबजी! बीस रुपए के तीन ले जाओ। आस-पास खड़े सभी हंस दिये और मैं भी खिसियानी हंसी हंस कर आगे बढ़ गया।
जानकार लोग बताते हैं कि आम जरूरत की चीजों के भाव बढ़ाने में जहां केन्द्र की सरकार का 'हाथÓ है तो वहीं दिल्ली की 'लोकप्रियÓ सरकार भी इसमें अपना 'हाथÓ बंटा रही है और मजे की बात देखिए कि इस बढ़ती महंगाई से लोगों का ध्यान हटाने हेतु यह लोग तरह-तरह के दूसरे मुद्दे उछालते हैं। द्वारका में बड़े-बड़े 'इन्टरनेशनलÓ स्कूल भी हैं। इन स्कूलों की फीस भारी भरकम होती है। अलबत्ता अधिकांश बच्चों को माक्र्स 90 प्रतिशत से अधिक ही मिलते हैं, चाहे वह पढऩे में कैसा ही हो। यहां कई संस्थाएं इन्टरनेशनल हो रही हैं, जिनके अध्यक्ष-उपाध्यक्ष सब इन्टरनेशनल हैं। दिलचस्प है कि एक मेट्रो स्टेशन के पास पेड़ के नीचे एक नाई ने अपने सैलून का नाम ही 'इन्टरनेशनल कटिंग सैलूनÓ रख दिया है। यहां के अधिकांश सैलून भी अन्तर्राष्ट्रीय हैं क्योंकि उनके रेट्स भी उसी स्तर के हैं।
डीडीए द्वारा स्थापित इस उपनगरी में हर चीज ऊंची यानि भारी है। अब आप पीने के पानी को ही लें। यहां का पानी भी गुणों में बहुत भारी है। अगर तकनीकी भाषा में कहे तो इसका टीडीएस अर्थात टोटल डिजोल्वड सोलिड दिल्ली के किसी भी क्षेत्र के मुकाबले कहीं ज्यादा है। उसकी वजह से सरकार का जल बोर्ड डर के मारे इधर तो कुछ कर नहीं रहा, बल्कि 'यमुना में जान डालनेÓ का अभियान चला रहा है। यहां के निवासियों का भी स्टैन्डर्ड कोई कम नहीं है। यहां सभा-सोसाइटी में 'फाइनलÓ शब्द को 'फिनालेÓ ही बोला जाता है।
आसपास के क्षेत्रों से अथवा बाहर के किसी प्रान्त से आकर यहां बसने वाले जयकिशन नामक व्यक्ति यहां आते आते मि. जैक्सन हो जाते हैं और बात-बात में इंगलिश बोल कर अपने हाव-भाव दर्शाते हैं। जाहिर है कि बिना नाम बदले स्टैन्डर्ड कैसे बढ़ेगा? कहना पड़ेगा कि जहां दिल्ली का कतिपय इलाका 'ल्यूटियंस जोनÓ कहलाता है तो द्वारका कम से कम 'लुटियन जोनÓ तो है ही। आप भी मानते हैं ना?
और अधिक आपको क्या बतायें, आदमी तो आदमी यहां मच्छरों तक की साइज भी अपेक्षाकृत और जगहों से बड़ी है। कद-काठी में कोई इनसे टक्कर ले सकता है तो तराई इलाके के मच्छर ही ले सकते हैं। इसलिए यहां के लोगों को बीमारियां भी बड़ी-बड़ी ही होती हैं। किसी को सर्दी-जुखाम नहीं होता। या तो डेंग्यू होगा या कोई ज्यादा माडर्न हुआ तो उसे स्वाइन फ्लयू होगा। यहां बुखार होने पर किसी को भी टैम्प्रेचर 104-105 से कम नहीं होता। इन बीमारियों के मुकाबले हेतु आस पास बड़े-बड़े इंटरनेशनल निजी अस्पताल हैं, जहां कहते हैं कि मरीज को बिना क्लोरोफार्म सुंघाए ही ऑपरेशन किए जाते हैं। पूछने पर एक जानकार ने बताया कि इसके लिए उनके पास सीधा सा तरीका है। वह ऑपरेशन टेबल पर ही मरीज को बिल पकड़ा देते हैं, जिसे देखते ही वह बेहोश हो जाता है यानि बिना हींग-फिटकरी लगे ही रंग चौखा आ जाता है।
खुशी की बात यह है कि यहां के अधिकांश लोग खुशमिजाज हैं और जिनके पास बाइक या कारें हैं, वह अधिकांशत: तेजी से दौड़ाते हैं क्योंकि कोई रोक-टोक करने वाला नहीं है। जैसे एक विशेष ब्रांड के च्यवनप्राश में सोना-चांदी की कमी नहीं होती है, यहां द्वारका में भी 'सोनाÓ 'चांदीÓ की कमी नहीं है। जहां पुलिस वालों का ध्यान अपराधों की रोकथाम की बजाय थाने में 'सोनेÓ की तरफ है, वहीं दूसरी ओर चोरों एवं झपटमार बाइक सवारों की 'चांदीÓ हो रही है।
यह व्यंग्य लेख सेवानिवृत्त इंजीनियर श्री शिवशंकर गोयल ने भेजा है। उनका संपर्क सूत्र है -फ्लेट नं. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट नं. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75, मोबाइल नंबर: 9873706333