सर्वविदित है कि जब अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज बुश अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में ईराक गए तो बगदाद में एक संवाददाता सम्मेलन में एक टीवी चैनल के पत्रकार ने उन पर जूते फैंके। इसके बाद तो ऐसी घटनाओं का जैसे सिलसिला ही चल पडा है, जिसमें हमारा देश भी पीछे नही है। पहले देश के गृहमंत्री पर एक पत्रकार ने जूता फैंका फिर हरियाणा के कांग्रेसी सांसद पर जूता फैंका गया और फिर बीजेपी के शीर्ष नेता पर उन्हीं के दल के एक पदाधिकारी ने भरी आम सभा में मध्यप्रदेश के कटनी में खडाऊ फैंक दी। हालांकि उनकी ही पार्टी के लोगों ने सफाई दी कि उसने चप्पल नहीं खडाऊ फैंकी थी और अब भ्रष्टाचार और नित नए उजागर होने वाले घोटालों के प्रति गुस्से का इजहार करते हुए एक नवयुवक ने कांग्रेसी प्रवक्ता को जूता दिखाया। इससे लगता है कि एक बार फिर जूतों का समय आ गया है।
आपको याद होगा कुछ साल पूर्व रात्रि समाचारों से पहले दूरदर्शन चैनल पर लिखा आता था 'शूज टाइमÓ अर्थात 'जूतों का समयÓ। उसे पढ़ कर लोग तरह-तरह के मतलब लगाते थे। कोई कहता था कि अब यानी रात्रि 8.40 बजे जूते का समय है, जैसे किसी के खाना खाने का समय निश्चित होता है तो कहते हैं कि खाने का समय हो गया, ऐसे ही किसी का पीने का, किसी के आने का, किसी के जाने का समय होता है और कोई निश्चित समय पर दवाई लेता है तो उसे याद कराया जाता है कि आपका दवाई का समय हो गया। इसी तरह दूरदर्शन हमें याद कराता था कि अब जूते का समय है।
इतिहास गवाह है कि इसकी शरुआत मध्यप्रदेश विधानसभा से हुई थी। कई साल पहले की बात है। तब वहां की विधानसभा में जनसंघ दल के उपनेता पंढारीराव कृदत ने सदन के अंदर ही विधानसभा उपाध्यक्ष श्रीवास्तव पर जूता फैंका, जो उनके सिर पर जाकर लगा। इसके बाद तो कई जनप्रतिनिधियों ने कई बार लोकतंत्र पर प्रहार किया। हाल के वर्षों में जूतें फैंकने की घटना हुई। उड़ीसा विधानसभा में वहां विधायकों ने आपस में जूतम-पैजार कर ली। 'उत्तम प्रदेशÓ में भी ऐसी घटनाएं होती रहती हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि जब कोई राजनैतिक दल चुनाव में हार जाता है और सत्ता से वंचित हो जाता है तो उनके यहां जूतियों में दाल बंटनी शुरू हो जाती हैं। कोई किसी को नोटिस देता है तो कोई किसी को दल से निकाल देता है। सरकार भी टीवी के माध्यम से कहती थी कि अब 'जूतें का समय हैÓ लेकिन यह खुलासा नहीं करती थी कि जूते दिखाने का समय है कि जूते सुंघाने का, या कि जूते मारने का, क्योंकि आंतकवादियों को प्रशिक्षण देने वालों, उन्हें उकसाने वालों, उन्हें शरण देने वालों को सरकार वर्षों से जूता दिखा रही है। उन्हें जूता सुंघाती क्यों नही है ? कई लोग इसे जूते उठाने का समय मानते थे, परन्तु यह बातें तो आपातकाल में ज्यादा हुई थीं, जब एक मुख्यमंत्री ने किसी गैर संसदीय हस्ती के जूते उठाये बताये। अब राजनीति में छुटभैये तरह-तरह के चापलूसी हथकंडे अपनाने लगे हैं। इन्हीं लोगों की देन है कि देश में अप्रैन्टिस प्रधानमंत्री हैं।
वैसे इस देश में प्राचीनकाल से ही जूतों की महिमा रही है। रामायण काल अर्थात त्रेता युग में भरतजी ने 14 वर्षों तक पादुकाओं को ही सामने रखकर राज्य चलाया था। द्वापर यानि महाभारत संग्राम के समय भी खडाउओं का जिक्र आया है। भीष्म पितामह से मिलने जाते वक्त कृष्ण ने द्रौपदी की खडाऊ अपने बगल में छिपाई थी।
वैसे जूतों की महिमा कम नही है। इसे चरण पादुका, खडाऊ, पगरख्या, मोचड़ी, बूट इत्यादि कई नामों से जाना जाता है। प्रथम महायुद्व के समय अंग्रेजों ने हिन्दुस्तान के लोगों को फौज में भर्ती करने हेतु निम्नलिखित गाना बनवाया था, जिसे फौजी बैंड आज भी बजाते हैं-
'थारो नाम लिखाद्यू रंगरूट, होजा पलटन म्हे अठे
मिलेली तन्हे फांटी जूत्या, कोई बठै मिलेला बूट
.... हो जा पलटन म्हेÓ
प्राचीनकाल में चीन मेंं लड़कियों को बचपन से ही लोहे के जूते पहना देते थे क्योंकि लडकियों के छोटे पैर वहां सुंदरता की निशानी मानी जाती है। शादी-ब्याह में सालियां जीजाजी के जूते छिपाने की रस्म किया करती हैं। फिल्म 'हम आपके हंै कौनÓ में तो जूतों को लेकर काफी नोंक-झोंक होती है। कई जगह बराती तेारण के समय जाते वक्त चेहरे से ज्यादा जूतों को चमकाते हैं। जूतों के निशान से खेाज कर खोजी लोग चोरों को पकड़ लेते थे। यह जूते की महिमा तो बाद में कम हुई है, जबकि लोग सिनेमा हॉल में धार्मिक पिक्चर लगने पर जूते हॉल के बाहर ही खोल कर जाने लगे तथा घरों में रामायण और महाभारत सीरियल देखते वक्त जूते-चप्पल उतार कर ही देखते थे। एक समय वह भी आया जब सांमतवादी युग में अपने को उच्च वर्ग कहलाने वाले कुछ लोग निम्न जातियों को पांव की जूती समझते थे। अब वह बंधन टूट रहे हैं तो तथाकथित उच्च वर्ग को गंवारा नहीं हो रहा है। उस समय देश का आम नागरिक जब टीवी पर जूते का समय देखता था तो उसे याद आता कि उसका कोई भी काम हो अपना जूता तो वह सरकारी कार्यालयों के चक्कर लगा-लगा कर पहले ही घिसा चुका है, जबकि धनवान लोग अपना काम चांदी के जूते से फौरन करवा लेते हैं। दोनो के आखिर जूते ही काम आते हैं। खुली अर्थ व्यवस्था के साये तले देश के नौजवान बेकारी के आलम में अपने जूते-चम्पल धिस ही रहे हैं। मेरा कहना तो इतना ही है कि अगर आप को टीवी पर दिखाना ही था तो जैसे महाभारत सीरियल में घटोत्कच को रूपा बनियान पहने दिखाया गया था और दूसरे में तक्षशिला के एक ब्रहचारी ने लक्खानी चपल पहन रखी थी। वहां तक तो ठीक है, लेकिन अब आप टीवी पर किसी को जूते दिखाते, मारते दिखायेंगे तो प्रचार चाहने वालों को बढ़ावा ही मिलेगा और इससे किसी के घर अथवा सभा-सोसायटी में जूते बजने शुरू हो गये तो इसकी जिम्मेवारी किसकी होगी? उस महाभारत को कौन संभालेगा?
यह व्यंग्य लेख सेवानिवृत्त इंजीनियर श्री शिवशंकर गोयल ने भेजा है। उनका संपर्क सूत्र है -फ्लेट नं. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट नं. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75, मोबाइल नंबर: 9873706333
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