शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

कृपया आप भी शाही कलेंडर लाकर टांग लें!


मैं तो आपको यह उपयोगी सलाह इसलिए दे रहा हूं कि सनद रहे और वक्त बेवक्त आपके काम आए। वर्षों पूर्व एक प्रमुख राजनीतिक दल ने लोकसभा चुनाव में एक नारा उछाला था दूर दृष्टि एवं पक्का इरादा। कहीं आप यहां दूर दृष्टि का मतलब नजरों की दूर के दृष्टिदोष से न लगा लें, जिसे चिकित्सा शास्त्र में मायोपिया रोग के नाम से जाना जाता है।
यहां दूर दृष्टि का मतलब है अपने भविष्य के नफे नुकसान की सोचकर चलना। लोगों का मानना है कि जिनके पास दूर दृष्टि नहीं है, वह जिन्दगी में भारी भूल कर रहे हैं। बड़े बूढे तो यहां तक कह गए हैं कि गुजरा वक्त और कमान से निकला तीर वापस नहीं आता, इसी को देखते हुए मेरा तो यही कहना है कि अगर आपको दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को मजबूत करना है तो दूर दृष्टि के साथ साथ अपना इरादा पक्का करले कि पहले येन केन प्रकारेण पांचवी पीढी अर्थात युवराज को गद्दी सौंपनी है। रहा सवाल छठी पीढ़ी की ताजपोशी का तो यह काम आप आपकी आने वाली पीढ़ी को सौंप जाएं। आप तो फिलहाल उनका तरोताजा कलेंडर, जिसमें उन्हें आसन्न चुनाव में अमेठी में स्टेज पर बड़ी बड़ी वजनी माला पहने हुए दिखाया गया है, लाकर अपने ड्राइंग रूम में टांग लें, बाकी बातों के लिए अभी काफी समय है।
खबर है कि बाजार में तरह तरह के कलेंडर आ गए हैं। मैं उन सरकारी महकमों अथवा विभिन्न संस्थानों के आलीशान कलेंडरों की बात नहीं कर रहा हूं, जो रेवडिय़ों की तरह बंटते रहे हैं और जिनके लिए कहा जाता है कि अंधा बांटे रेवडिय़ा और फिर फिर अपनों को दे। यह सब सरकारी खर्च खाते पर होते हैं। मैं उन कलेंडरों की बात कर रहा हूं, जो आम जनता के लिए बाजार में बिकने हेतु आते हैं। इनमें तीज-त्यौहारों के साथ साथ सरकारी छुट्टियों को भी दर्शाया जाता है।
एक बार मैं बाजार में एक स्टेशनरी की दुकान पर कुछ खरीदने गया, तभी वहां एक व्यक्ति आया और दुकानदार से बोला कि भाई साहब कोई अच्छा सा कलेंडर हो तो दिखाओ। दुकानदार ने उससे पूछा कि आपको कैसा कलेंडर चाहिए, तो वह बोला कि जिसमें ज्यादा से ज्यादा छुट्टियां हों। दुकानदार ने उसे अंदर से निकाल कर दस रुपए वाला कलेंडर बीस रुपए में दिया और कहा कि इसी कलेंडर में सबसे ज्यादा छुट्टियां हैं। वह उसे लेकर बहुत खुश हुआ। उसी दौरान दुकानदार ने उससे पूछा कि आप किस डिपार्टमेंट में हो, तो उसने बताया कि मैं भेड़ एवं ऊन डिपार्टमेंट में हूं। उसके जाने के बाद जिज्ञासावश मैंने दुकानदार से पूछा कि आपने कैसे जाना कि वह व्यक्ति सरकारी कर्मचारी है, तो दुकानदार बोला ये लो, यह भी कोई मुश्किल काम है, उसने ज्यादा से ज्यादा छुट्टियों वाला कलेंडर मांगा था। यह इस बात का पक्का सबूत था कि वह सरकारी कर्मचारी है।
उसी समय दुकानदार ने एक महत्वपूर्ण बात बताई कि इस साल कलेंडर कुछ ज्यादा ही बिक रहे हैं। इसका कारण है इस वर्ष सरकारी छुट्टियों की अधिकता। इसके सबूत के रूप में उसने मध्यप्रदेश सरकार का राजकीय गजट निकाल कर, बताया जिसमें वर्षभर के अवकाशों का लेखा जोखा था। एक अनुमान के अनुसार सब कुछ मिलाकर एक कर्मचारी साल भर में 102 दिन छुट्टियों-अवकाश, ऐच्छिक अवकाश, सीएल, पीएल इत्यादि का लुत्फ उठा सकता है। उसने तो यहां तक बताया कि इस मामले में यह सरकार इस बार सब राज्यों में प्रथम रही है। उस अवसर पर मेरे मुंह से भी निकल गया वाकई यह उनका प्रशंसनीय कार्य है। चलते चलते दुकानदार ने एक रहस्यपूर्ण बात और बताई। उसने बताया कि मई 2007 में एक कैलेंडर में राजस्थान की तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे को अन्नपूर्णा देवी के रूप में दिखाया गया था, तब कई ग्राहक आ आ कर उस बारे में पूछने लगे तो हमने भी भारी मांग को देखते हुए थोक में कलेंडर-पोस्टर मंगवा लिये। कुछ दिन उनकी बिक्री भी हुई लेकिन निगोड़ी जनता का कोई क्या भरोसा करे। राज जाते ही, कसम भगवान की, जो एक भी कलेंडर बिका हो। सारा स्टाक बिना बिके पड़ा है। लागत तक के पैसे नहीं मिले और अब ऊपर से चूहे कबाड़ा और कर रहे हैं, लेकिन आजकल तो उस शाही कलेंडर की बम्पर एडवांस डिमांड है, जिसमें राज परिवार की छठी पीढ़ी तक की फोटो होंगी।
हालांकि इस कलेंडर का पहला संस्करण अक्टूबर 2006 में निकला था, जिसे उसी परिवार द्वारा यह ऐतराज, बच्चों को इस तरह सार्वजनिक करने से हमारी निजता पर आंच आती है, करने पर उस समय वह कलेंडर प्रकाशकों, दुकानदारों एवं पार्टी कार्यालय में पड़े रह गए थे, लेकिन अब जबकि यूपी चुनावों में स्वयं उसी परिवार ने छठी पीढ़ी को सार्वजनिक मंच पर उतार दिया है तो उनकी फोटो लगे कलेंडर मार्केट में आने वाले हैं। दूर दृष्टि एवं पक्के इरादे वालों से यही अपेक्षा है कि वे जल्दी करें और खरीद कर घर ले आएं, वर्ना कहीं ऐसा न हो कि बाद में पछताना पडे।
-ई. शिव शंकर गोयल
फ्लेट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75

शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2012

महान विचारक पंडित दीनदयाल उपाध्याय


पंडित दीनदयाल उपाध्याय सन् 1953 से 1968 तक भारतीय जनसंघ के नेता रहे। वे एक प्रखर विचारक, उत्कृष्ट संगठनकर्ता तथा एक ऐसे नेता थे, जिन्होंने जीवनपर्यन्त अपनी व्यक्तिगत ईमानदारी व सत्यनिष्ठा के उच्चतम
मानकों को अक्षुण्ण रखा। वे भारतीय जनता पार्टी के जन्म से ही पार्टी के लिए वैचारिक मार्गदर्शन और नैतिक प्रेरणा के स्रोत रहे हैं। उनकी पुस्तक एकात्म मानववाद (इंटीगरल ह्यूमेनिज्म), जिसमें साम्यवाद और पूंजीवाद, दोनों की समालोचना की गई है, में मानव जाति की मूलभूत आवश्यकताओं और सृजन कानूनों के अनुरुप राजनीतिक कार्रवाई हेतु एक वैकल्पिक सन्दर्भ दिया गया है।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म सोमवार, दिनांक 25 सितम्बर 1916 को बृज के पवित्र क्षेत्र मथुरा जिले के नंगला चन्द्रभान गांव में हुआ था। उनके पिताजी एक प्रसिद्ध ज्योतिषी थे। वे एक ऐसे ज्योतिषी थे, जिन्होंने उनकी जन्म कुंडली देखकर यह भविष्यवाणी कर दी थी कि यह लड़का एक महान शिक्षा-शास्त्री एवं विचारक, निस्वार्थ कार्यकर्ता और एक अग्रणी राजनेता बनेगा, लेकिन वह अविवाहित रहेगा। जब भरतपु में एक त्रासदी से उनका परिवार प्रभावित हुआ, तो सन् 1934 में बीमारी के कारण उनके भाई का देहान्त हो गया। बाद में वे हाई स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के लिए सीकर चले गए। सीकर के महाराजा ने पं उपाध्याय को एक स्वर्ण पदक, पुस्तकों के लिए 250 रुपये तथा प्रतिमाह 10 रुपये की छात्रवृत्ति दी।
पंडित उपाध्याय ने पिलानी में विशिष्टता के साथ इंटरमीडिएट परीक्षा पास की और बी.ए. करने के लिए कानपुर चले गये। वहां पर उन्होंने सनातन धर्म कालेज में दाखिला लिया। अपने मित्र श्री बलवंत महाशब्दे के कहने पर वे सन् 1937 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आए। उन्होंने सन् 1937 में प्रथम श्रेणी में बी.ए. परीक्षा पास की। पंडित जी एम.ए. करने के लिए आगरा चले गये। वे यहां पर श्री नानाजी देशमुख और श्री भाऊ जुगाडे के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे। इसी बीच दीनदयाल जी की चचेरी बहन रमा देवी बीमार पड़ गयीं और वे इलाज कराने के लिए आगरा चली गयीं, जहां उनकी मृत्यु हो गयी। दीनदयालजी इस घटना से बहुत उदास रहने लगे और एम.ए. की परीक्षा नहीं दे सके। सीकर के महाराजा और श्री बिड़ला से मिलने वाली छात्रवृत्ति बन्द कर दी गई।
उन्होंने अपनी चाची के कहने पर धोती तथा कुर्ते में और अपने सिर पर टोपी लगाकर सरकार द्वारा संचालित प्रतियोगी परीक्षा दी जबकि दूसरे उम्मीदवार पश्चिमी सूट पहने हुए थे। उम्मीदवारों ने मजाक में उन्हें पंडितजी कह कर पुकारा, यह एक उपनाम था, जिसे लाखों लोग बाद के वर्षों में उनके लिए सम्मान और प्यार से इस्तेमाल किया करते थे। इस परीक्षा में वे चयनित उम्मीदवारों में सबसे ऊपर रहे। वे अपने चाचा की अनुमति लेकर बेसिक ट्रेनिंग (बी.टी.) करने के लिए प्रयाग चले गए और प्रयाग में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों में भाग लेना जारी रखा। बेसिक ट्रेनिंग (बी.टी.) पूरी करने के बाद वे पूरी तरह से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यों में जुट गए और प्रचारक के रूप में जिला लखीमपुर (उत्तर प्रदेश) चले गए। सन् 1955 में वे उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रांतीय प्रचारक बन गए।
उन्होंने लखनऊ में राष्ट्र धर्म प्रकाशन नामक प्रकाशन संस्थान की स्थापना की और अपने विचारों को प्रस्तुत करने के लिए एक मासिक पत्रिका राष्ट्र धर्म शुरू की। बाद में उन्होंने पांचजन्य (साप्ताहिक) तथा स्वदेश (दैनिक) की शुरुआत की। सन् 1950 में केन्द्र में पूर्व मंत्री डॉ. श्यामा प्रसाद मुकर्जी ने नेहरू-लियाकत समझौते का विरोध किया और मंत्रिमंडल के अपने पद से त्यागपत्र दे दिया तथा लोकतांत्रिक ताकतों का एक साझा मंच बनाने के लिए वे विरोधी पक्ष में शामिल हो गए। डॉ. मुकर्जी ने राजनीतिक स्तर पर कार्य को आगे बढ़ाने के लिए निष्ठावान युवाओ को संगठित करने में श्री गुरूजी से मदद मांगी।
पंडित दीनदयालजी ने 21 सितम्बर, 1951 को उत्तर प्रदेश का एक राजनीतिक सम्मेलन आयोजित किया और नई पार्टी की राज्य इकाई, भारतीय जनसंघ की नींव डाली। पंडित दीनदयालजी इसके पीछे की सक्रिय शक्ति थे और डॉ. मुकर्जी ने 21 अक्तूबर, 1951 को आयोजित पहले अखिल भारतीय सम्मेलन की अध्यक्षता की।
पंडित दीनदयालजी की संगठनात्मक कुशलता बेजोड़ थी। आखिर में जनसंघ के इतिहास में चिरस्मरणीय दिन आ गया, जब पार्टी के इस अत्यधिक सरल तथा विनीत नेता को सन् 1968 में पार्टी के सर्वोच्च अध्यक्ष पद पर बिठाया गया। दीनदयालजी इस महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को संभालने के पश्चात जनसंघ का संदेश लेकर दक्षिण भारत गए। 11 फरवरी, 1968 की काली रात ने दीनदयालजी को अकस्मात मौत के मुंह में दबा लिया। उपाध्याय जी की हत्या सिर्फ 52 वर्ष की आयु में 11 फरवरी 1968 को मुगलसराय के पास रेलगाड़ी में यात्रा करते समय हुई थी। उनका पार्थिव शरीर मुगलसराय स्टेशन के वार्ड में पड़ा पाया गया। भारतीय राजनीतिक क्षितीज के इस प्रकाशमान सूर्य ने भारतवर्ष में सभ्यतामूलक राजनीतिक विचारधारा का प्रचार एवं प्रोत्साहन करते हुए अपने प्राण राष्ट्र को समर्पित कर दिया। वे दीनदयालजी उच्चकोटि के दार्शनिक थे। किसी प्रकार भौतिक माया-मोह उनको छू तक नहीं सका। वे न देश के प्रधानमंत्री थे, न राष्ट्रपति, फिर भी दिल्ली में उनके पार्थिव शरीर को अपने अंतिम प्रणाम करने पांच लाख से भी अधिक जनता उमड़ पड़ी थी। तेरहवीं के दिन प्रयाग में अस्थि-विसर्जन के समय दो लाख से अधिक लोग अपनी भावभीनी श्रध्दांजलि अर्पित करने को एकत्रित हुए थे।
जनसंघ के राष्ट्र जीवन-दर्शन के निर्माता दीनदयाल जी का उद्देश्य स्वतंत्रता की पुनर्रचना के प्रयासों के लिए विशुध्द भारतीय तत्तव-दृष्टि प्रदान करना था। दीनदयालजी द्वारा रचित जनसंघ के राष्ट्रजीवन-दर्शन के पांचवे, छठे एवं आठवें सूत्रों में धर्म, स्वतंत्रता, मानवाधिकार, प्रजातंत्र और राष्ट्रीय तत्वदृष्टि का वर्णन है, जिससे जनसंध की राष्ट्रीय जीवनदर्शन बनी है। व्यक्ति के विकास के लिए जनसंध ने भारतीय सामाजिक दर्शन मे वर्णित पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष तथा आदर्श राष्ट्र के रूप में धर्म राज्य एक असम्प्रदायिक राज्य को स्वीकारा है। राष्ट्रीय प्रश्नों की ओर देखने की राष्ट्रीय तत्वदृष्टि इसमें से विकसित हुई है और उसी से जनसंघ की नीति बनी है।
ऐसे महान विचारक को भावभीनी श्रद्धांजलि।
-कंवल प्रकाश किशनानी,
जिला प्रचार मंत्री, शहर जिला भाजपा अजमेर
निवास-599/9, राजेन्द्रपुरा, हाथीभाटा, अजमेर
फोन-0145-2627999, मोबाइल-98290-70059 फैक्स- 0145-2622590

बुधवार, 8 फ़रवरी 2012

क्यों होता है सब ?

मन उदासह्रदय व्यथित

इतना करा,इतना सहा
फिर भी
क्यों होता नहीं कोई खुश?

सारी इच्छाएं

सारे सपने ,सारे लक्ष्य
क्यों होते हैं सब ध्वस्त?
सारी प्रार्थनाएं ,पूजा पाठ
क्यों
सब होते हैं व्यर्थ ?

क्यों सुनता नहीं इश्वर?
कब तक रोना है ?
खुश दिखना है
क्यों बताता नहीं कोई ?
सारी हिम्मत,सारे होंसले
क्यों लेते नहीं विराम ?
निरंतर चलते रहने का
करते रहने का
क्यों जाता नहीं विचार?
क्यों कम नहीं होती ?
जीने की इच्छा
कम नहीं होता
मोह अपनों का
छूटता नहीं संसार

क्यों मानता नहीं ये मन?
ना मिला जब उत्तर
किसी को
कैसे मिलेगा मुझको?

क्यों समझाता नहीं कोई?
हंसू या रोऊँ
या फिर चुपचाप सहूँ
जब ऐसे ही जीना है
ऐसे ही जाना है
समझ नहीं आता
फिर भी
क्यों व्यक्त करता हूँ ?

कुंठा अपनी
क्यों लिखता हूँ सब ?
कब ,कैसे और किससे

पता चलेगा ?

क्यों होता है सब ?

क्या ये ही काफी नहीं?

क्या फर्क पड़ता है ?

गर मेरे चेहरे पर

तुम्हारा नाम नहीं

पढता कोई

मेरे दिल में

तुम्हारी तस्वीर नहीं

देखता कोई

मेरे जहन में बसे

तुम्हारे ख्याल को

समझता नहीं कोई

मेरी हर साँस से

जुडी तुम्हारी साँस का

अहसास किसी को नहीं

मेरे तुम्हारे एक होने को

महसूस करता नहीं कोई

तुम मेरे लिए

मैं तुम्हारे लिए जीता हूँ

क्या ये ही काफी नहीं?


इस झूठ

प्रपंच की दुनिया में

कोई खुश नहीं किसी से

हर मन में प्रश्न

हर ह्रदय व्यथित

दूसरों के कार्यकलापों से

सुनना नहीं चाहता

सच कहना चाहता

मन के विचारों को

चुप हो जाता

कह ना पाता

कहीं हो ना जाए रुष्ट

यह सोच कर

करता है प्रपंच

कहता है वही बात

जो उसके मन को भाये

चेहरे से मुस्काराता

ह्रदय में आग जगाता

घूम रहा हर चेहरा

चेहरे पर चेहरा चढ़ाए

काट रहा है जीवन

मन में पीड़ा बसाए

हर मन में प्रश्न

हर ह्रदय व्यथित

कोई खुश नहीं

किसी से

डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर"

"GULMOHAR"
H-1,Sagar Vihar
Vaishali Nagar,AJMER-305004
Mobile:09352007181

रविवार, 5 फ़रवरी 2012

हवा बान्ध हरडें


शहर के भीड भरे चौराहें के एक नुक्कड पर अक्सर ही एक नमकीन चनें बेचने वाला मजमा लगा-लगा कर अपने चनें बेचता हुआ दिखाई पडता था. वह अपने चनों का प्रचार निम्न प्रकार से गानें गा-गाकर किया करता था,

‘मेरा चना बना है आला, इसमें डाला गरम मसाला, इसको खायें किस्मत वाला, चना जोर गरम, बाबू, मैं लाया मजेदार, चना जोर गरम.’

ठीक उसी स्थान पर आज जब मैं उधर से निकला तो सदा की भांति उसने मजमा तो लगा रखा था लेकिन आज वह कुछ और ही बेच रहा था। पूछने पर उसने बतलाया कि यह हवा बान्ध हरडें हैं, मैंने आश्चर्य प्रकट किया और कहाहवा बान्ध हरडें ? यह किस काम आती हैं ? वह बोला सा‘ब चुनाव का समय है, नमकीन चने की बजाय आप कुछ दिन हवा बान्ध हरडें खाईये, सभी खरीद रहे है, आप भी चख कर देखिए. मैंने उसे कहा तू अब तक चनें खिलाता था आज हवा बान्ध हरडें खिलारहा हैं. कई जगह फसलें बरबाद होने से कर्ज के मारे किसान जहर खारहे है, मिलें, कारखानें बन्द होने से कामगार घर बैठे गम खा रहे हैं. नवयुवक बेरोजगारी की वजह से घर बाहर फटकार खा रहे हैं. कटटर मजहबियों के चक्कर में पडकर आतंकी जोश खारहे है, जातिगत पंचायतें, खाप इत्यादि प्रेमी युगल पर खार खारही हैं. बडें बडें घोटालोें में लोगों ने देखा, नेता रिश्वत खारहे हैं. अच्छें अच्छें तीस मारखां तिहाड की हवा खा रहे है उपर से अब सब को तू हवा बान्ध हरडें और खिलाना चाहता है ? वह बोला मुझें तो अपना धन्धा करना हैं। किसी बडी हाईटेक पार्टी ने अपना माल निकाला है और मुझे कहा है कि तुम इन्हें सुन्दर पैकिंग में बेच कर हवा बान्धो, हम तुम्हें अच्छा मुनाफा देंगे और उपर से बोनस भी देने का बोलता है, इसलिए अपुन यह माल बेचता है, आप खाकर देखें मैंने उसे कहा तू इतना कह रहा है तो यह हवा बांध हरडें भी मैं खा लुंगा। बचपन में आर्थिक तंगी व गरीबी की वजह से मां की डांट खाता था. स्कूल में मास्’साब की मार खाता था और नौकरी में अफसरों की झिडकियां खाता था तो अब हवा बांध हरडें भी खालूंगा तो कोैनसा आसमान गिर पडेगा ? अब तो वह पीढी आ रही है कि मां-बाप बच्चों की डांट खा रहे हैं. मास्टर विद्यार्थियों की धमकियां खा रहे हैं. पुलीसवालें अपराधियों की घुडकियां खा रहे है, आपसे क्या छिपा हुआ हैं ?इतने में वहां काफी भीड इकटठी हो गई थी, उसमें से एक आदमी बोला, राशन की दुकान पर जाते है तो झिडकियां खाते हैं. थाने पर जाते है तोे पुलीसवालों की गालियां खाते हैं. ऐसे में हवा बान्ध हरडें भी खानी पड जाय तो खा लेंगे लेकिन आखिर इससे होगा क्या ? पडौस में खडे एक और सज्जन ने रहस्योदधाटन किया और बतलाया कि हवा बान्ध हरडें बनाने वालों का दावा है कि हरडें खा-खाकर ज्योतिषी एंव तांत्रिक जोश खा रहे हैं. सटटे बाज भाव खारहे है ओपिनियन पोल वाले ताव खारहे है अगर आम जनता भी हवा बान्ध हरडें खालेगी तो इस चुनाव में प्राइमिनिस्टर वेटिंग, चीफमिनिस्टर वेटिंग के पक्ष में अभीसे हवा बन्ध जायेगी. इस हेतु ‘पेड’विज्ञापनबाजी में खूब खर्चा किया जा रहा हैं. कतिपय पत्रकारों को भी खूब ‘ऑबलाइज’ किया जा रहा है. इनका यह भी दावा है कि यह खानदानी शफाखाने की दवा है ओैर रामबाण की तरह असर करती हैे औेर आप तो जानते ही है कि रामबाण तो अचूक होता हेै. रामबाण से रामायण में ताडकासुत मारिच समुद्र के किनारे जाकर पडा. बाली के लगा तो वह परलोक सिधार गया ओैर रावण परिवार के तो अधिकांश सदस्य एक एक करके रामबाण के शिकार होकर अपनी गति को प्राप्त हुए. वहां लगे मजमें में एक व्यक्ति ने बताया कि इनकी होडाहोड इनके विरोधी हवाखोल हरडें बना रहे है. उनका कहना है कि यह हरडें हवा बांधहरडों का जवाब हैं. यह अगर हवा बांधेंगे तो हम इनकी हवा खोलेंगे. यह आगे आगे हवा बांधते जायेंगे ओैर पीछे पीछे हम हवा खोलते जायेंगे जैसे नाव के पाल खुलते हैे. उनका तो यहां तक कहना हेै कि एक बार हवा खुली तो इनके तम्बुओं के खूंटें तक नही मिलेंगे, देख लेना आप ! चारों ही दलों के लोग धर्म, जाति एवं आरक्षण के झंडाबरदारों को अपने अपने खेमों में जुटा रहे है, उन्हे तरह तरह के लालच दिए जा रहे है, इनको यह नही मालुम कि लोकतन्त्र इनके मजमों से नही चलता. उधर किसी ने पूछा कि ‘नाई नाई कितने बाल है ? तो वह बोला थोडे वक्त में ही सब सामने आजायेंगे, यजमान !

शिव शंकर गोयल

शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

दवा कारोबार पर बढ़ता विदेशी संकट


देश के दवा कारोबार पर विदेशी कंपनियों का वर्चस्व बढ़ता ही जा रहा है, एक के बाद एक छोटी-बड़ी भारतीय दवा कंपनियाँ विदेशी कंपनियों के हाथों बिकती जा रही है, जिससे भारतीय दवा कंपनियों पर विदेशी कंपनियों का कब्जा शुरू हो गया है| वर्ष 2001 में दवा क्षेत्र को सौ फीसदी विदेशी निवेश के लिये खोला गया था और उस समय से लेकर अब तक कई भारतीय कंपनियाँ विदेशी हाथो में जा चुकी है| छोटी कंपनियों में निर्णायक हिस्सेदारी खरीदने का चलन तो नब्बे के दशक से ही शुरु हो गया था लेकिन बड़ी कंपनियों के बिकने का सिलसिला पिछले पाँच साल में जोर पकड चुका है| इस कड़ी में सबसे पहले अगस्त 2006 में नामी भारतीय दवा कम्पनी मैट्रिक्स लैब को अमेरिकी कम्पनी मायलान ने खरीदा था| इसके बाद अप्रैल 2008 में डाबर फार्मा का फ्रेसियस कैबी ने जून 2008 में रैनबेक्सी का दायची सैक्यो ने, जुलाई 2008 में शांता बायोटेक का सनोफी अवन्तिस ने, दिसम्बर 2009 में आर्किड कैमिकल्स का होसपीरा ने और मई 2010 में पीरामल हेल्थकेयर का एबट लैबोरेट्रीज ने अधिग्रहण कर लिया था| पीरामल हेल्थकेयर की गिनती देश की दस सबसे बड़ी कंपनियों में होती थी| रैबेक्सी के बाद विदेशी हाथो में जाने वाली यह दूसरी बड़ी कम्पनी है|
गौर करने लायक बात यह है कि पीरामल और रैनबेक्सी जैसी कंपनियों को खरीदने के बाद विदेशी कम्पनियाँ भारतीय दवा बाजार में चोटी पर पहुंच गई है| मिसाल के तौर पर पीरामल के अधिग्रहण के बाद अमेरिका कि एबट सात फीसद हिस्सेदारी के साथ भारत कि सबसे बड़ी दवा कंपनियों में से तीन विदेशी है और यह तादाद बढ़ने वाली है क्योकि विदेशी कम्पनियाँ किसी भी कीमत पर घरेलू कंपनियों को खरीदना चाहती है|
सवाल उठता है कि भारतीय दवा कम्पनीयों में बहुराष्टीय कंपनियों कि इस कदर दिलचस्पी के क्या कारण है? असल में भारत और चीन समेत दुनिया के तमाम विकासशील देशो में लोगों कि आमदनी बढ़ने के साथ ही स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता भी बढती ही जा रही है| 2020 तक उभरते देशो में दवा कारोबार चार सौ अरब डालर को पार कर जाएगा और इसमे अकेले भारतीय बाजार कि हिस्सेदारी चालीस अरब डालर से ज्यादा होगी| विकसित देशो के दवा बाजार में विस्तार कि संभावनाए नगण्य है| भारी प्रर्तिस्पर्धा के चलते दवा कंपनियों के मुनाफे में कमी आ रही है और विकसित देशो का दवा कारोबार महज एक फीसद कि रफ्तार से बढ़ रहा है जाहिर है कि कोई भी बहुराष्टीय कम्पनियाँ अपार सभावनाओं वाले इस बाजार को अनदेखा नहीं कर सकती| ये बहुराष्टीय कम्पनियाँ दो रणनीतियो पर काम करती है| पहली किसी भी कीमत पर स्थानीय दवा कंपनियों का सफाया करके घरेलू बाजार पर कब्जा करना और दूसरी एकाधिकार होने के बाद दवाओं की कीमतों में इजाफा करके मुनाफ़ा कमाना| 2007 में भारतीय दवा बाजार में विदेशी कंपनियों कि हिस्सेदारी पन्द्रह फीसद थी वही 2010 में यह आकड़ा पचीस फीसद को पार कर गया है| जानकारों के मुताबिक़ आगामी पाँच सालो में भारत के आधे से ज्यादा दवा कारोबार पर विदेशी कंपनियों का कब्जा हो जाएगा| दिक्कत यही से शुरू होती है| बहुराष्टीय कम्पनियाँ बाजार पर नियंत्रण करने के बाद कीमतों में इजाफा करना शुरू कर देती है| जब एक बार ये कम्पनियाँ दवाओं के दाम बढाना शुरू करेगी तो कम संसाधनों वाली छोटी दवा कम्पनियाँ अपने आप दवाब में आ जायेगी| ऐसे में सारा खामियाजा गरीब जनता को भुगतना पडेगा जिसकी जेब पर महंगी दवाओं के जरिये डाका डाला जाएगा| अब बहुराष्टीय कम्पनियाँ भारतीय दवा कम्पनियों को हथिया कर एक तीर से दो निशाने साधना चाहती है|
भारत जैसे विकासशील देश में मरीज के लिये दवाओं कि कीमत बेहद अहम है| राष्टीय नमूना सर्वेक्षण के मुताबिक़ हमारे यहाँ इलाज के कुल खर्च में अस्सी फीसद लागत दवाओं कि होती है| जिस देश में अस्सी करोड लोग दो जून कि रोटी का भी जुगाड नहीं कर पाते हो वहाँ पर महंगी दवाएं कितने लोग खरीद पाएंगे, इसका अनुमान लगाया जा सकता है|
भारतीय दवा उद्योग के वजुद पर छाए इस संकट के गंभीर परिणाम देश को भुगतने पड़ सकते है| अभी तो केवल पाचँ बड़ी कम्पनियाँ बिकी है, लेकिन बहुराष्टीय कंपनियों ने डाक्टर रैड्डीज,अरबिंदो फार्मा,सिपला और जायडस कैडिला समेत बीस बड़ी भारतीय दवा कम्पनियाँ पर नजरें गडा रखी है| घरेलू दवा कम्पनियों को बहुराष्टीय कम्पनियाँ इतनी आकर्षक कीमत कि पेशकश कर रही है जो भविष्य में इस कारोबार से होने वाली आमदनी और अनुमानित वृद्धि के मुकाबले कही ज्यादा है| जाहिर है सरकार के असहयोगी रवैये के कारण दवा कम्पनियाँ ज्यादा मुनाफे वाले क्षेत्रो कि और रुख कर रही है| अगर देशी कंपनियों के अधिग्रहण का सिलसिला जारी रहा तो सस्ती जेनेरिक दवाओं का संकट गहरा जाएगा| बहुराष्टीय कम्पनियाँ बाजार में हिस्सेदारी बढते हि कीमतों में बढोतरी करेंगी| जनता को इस संकट से बचाने के लिये सरकार को दवा उद्योग की सेहत सुधारने कि और ध्यान देना होगा|

दलीप कुमार
(लेखक शोधकर्त्ता एवं पत्रकार है) संपर्क - 139,कावेरी छात्रावास, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय,नई दिल्ली-67 ईमेल -dalipjnu@gmail.com
मोबाइल -8233538698

भारत दर्शन की पुस्तक ‘व्हाट इज इंडिया’ ने मचाई धूम


सलिल ज्ञवाली शिलांग, मेघालय के निवासी हैं और उत्तरपूर्वी क्षेत्रों में अपनी लेखनी के माध्यम से जाने जाते हैं। दर्शन उनका प्रिय विषय है,जिसका समुचित प्रभाव उनके जीवन पर भी देखा जा सकता है। उनके व्यक्तित्व से गंभीरता झलकती है, वे हृदय से मित्रों का सम्मान करते हैं, और सभी से स्नेह करते हैं। उऩ्हें इस देश की अंतर्निहित धर्मनिरपेक्षिता की विरासत पर अभिमान है, इस देश के ज्ञान तथा विवेक की धरोहर पर गर्व है, इस देश की भाषाओं से मिट्टी और मेघों से अटूट प्रेम है। वे समाज के उत्थान, प्रगति तथा भलाई के लिये कटिबद्ध हैं। यह सब उनकी लेखनी में छलकता है। इसीलिये उत्तरपूर्वी तथा राष्ट्रीय समाचार पत्रों के पाठक उऩ्हें रुचि से पढ़ते हैं, उनकी सत्यप्रियता, नीतिपरकता तथा देशभक्ति से प्रभावित होकर उनकी प्रशंसा करते हैं।
उऩ्होंने अंग्रेज़ी भाषा में स्नातकोत्तर उपाधि ली और उनकी प्रिय कृति 'ह्वाट इज़ इंडिया' को आशातीत पाठकीय सफ़लता मिली और उऩ्होंने विश्व के विद्वानों तथा पाठकों दोनों से मुक्तकंठ प्रशंसा पाई है।
'ह्वाट इज़ इंडिया' (What is INDIA?) पुस्तक का लोकार्पण मेघालय के राज्यपाल महामहिम आर.एस. मूशाहारी के करकमलों द्वारा २००९ में हुआ था। इस पुस्तक अनुवाद अब तमिल, तेलुगु, मलयालम, मराठी, गुजराती, नेपाली आदि भाषाओं में हो रहा है। हिन्दी का अनुवाद हिन्दी तथा अंग्रेज़ी के प्रसिद्ध लेखक एयर वाइस मार्शल विश्व मोहन तिवारी ने किया है जो शीघ्र ही प्रकाश्य है। तब ऐसी पुस्तक का उद्भव कैसे हुआ यह एक रोचक बात है : जिसकी प्रेरणा उदात्त हो, उसकी कृति भी उदात्त होगी।
इसके लेखन में उनके देश प्रेम का सबसे बड़ा हाथ है। किन्तु वास्तविक और गहरी प्रेरणा उऩ्हें स्वामी विवेकानन्द के साहित्य पठन से मिली है, और इस प्रेम का बीज उनके पिताजी ने उनके हृदय में बचपन में ही डाल दिया था।
१९८९ में वे गुवाहाटी से दिल्ली जा रहे थे और रेलवे स्टेशन पर उऩ्होंने जवाहरलाल नेहरू की स्तक 'डिस्कवरी आफ़ इंडिया' देखी, और तुरंत खरीद ली और उऩ्हें पता नहीं कि वह ६० घंटे की यात्रा कैसे हो गई, बस वे तो भारत के नेहरू के ज्ञान से प्रभावित थे। उऩ्होंने भारत के विषय में जो अनेक हृर्दयस्पर्षि प्रशंसिक वाणि पश्चिम के विश्व प्रसिद्ध विद्वानों और दार्शनिकों के दिये गये थे। उनको पढ़कर सलिल अभिभूत हुए। वे उद्धरण तो भारत के प्राचीन विवेक, उसकी भाषा, संस्कृत और उसकी वैदिक संस्कृति को मानो नतमस्तक श्रद्धा सुमन अर्पण कर रहे थे। ये उद्धरण उनके हृदय में अंकित हो गए ।
दूसरी पुस्तक जिसने उऩ्हें और अधिक प्रेरणा दी वह है परमहंस योगानंद की 'आटोबायोग्राफ़ी आफ़ ए योगी' ( Autobiography of Yogi) । इस पुस्तक में भी एमर्सन (Ralph Emerson) शोपैनहवर (Schopenhauer) आदि जैसे महान विचारकों तथा दार्शनिकों के भारत के ज्ञान के प्रति उद्धरण ज्ञवाली को पढने मिला । तीसरी पुस्तक जिसने उऩ्हें इस संकलन का निर्माण करने के लिये मानो बाध्य कर दिया था, वह है यूएफ़ओ ( अनभिज्ञात उड़न पदार्थ ) के वैज्ञानिक टामस एन्ड्रू (Tomas Andrew) की पुस्तक 'वी आर नाट दि फ़र्स्ट' (हम इस पृथ्वी पर प्रथम नहीं हैं) इस पुस्तक में भी वे आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा दिये भारत विषयक उद्धरणों से प्रभावित हुए, जो भारत के प्राचीन विवेक का मुक्त हृदय से प्रसन्नगान कर रहे थे ।
इसका तो सीधा अर्थ यही निकलता है कि हमारा प्राचीन ज्ञान न केवल वैज्ञानिक दृष्टि रखता हैं वरन उनमें पूर्णरूप से 'विज्ञान' है । धीरे धीरे सलिल को समझ में आया कि श्रायडिन्जर, ओपनहाइमर, डेविड बाम, हाइज़ैनबर्ग, डेविड जोसैफ़सन आदि अधुनिक महान वैज्ञानिकों को वेद तथा उपनिषदों से विज्ञान की आधुनिकतम शाखा 'क्वांटम मैकैनिक्स' (Quantum Mechanics) के लिये भी वैज्ञानिक समझ मिली है, जिस क्वाण्टम मैकैनिक्स के विषय में कहा जाता है कि यह समझ में बिलकुल नहीं आती किन्तु कार्य सही करती है। इन तथ्यों ने सलिल के विश्वास को और सुदृढ़ किया कि प्राचीन भारतीय ज्ञान पूर्नरूप से विज्ञान संगत है। उऩ्होंने इस विषय से, भारतीय दर्शन से, संबन्धित कोई एक सौ पुस्तकें पढ़ डालीं। और भी फ़्रिट्याफ़ काप्रा की पुस्तक 'द डाओ आफ़ फ़िज़िक्स' (The Tao of Physics), डी पी सिंघल की 'इंडियन एन्ड द वर्ल्ड सिविलिज़ेशन्स', लिन्डा जानसैन की 'द कम्प्लीट इडियट गाइड टु हिन्दुइज़म', पोल विलियम राबर्ट्स की 'अंपायर आफ़ द सोल' आदि आदि पुस्तकों उनके हृदय में ज्वाला प्रज्वलित कर दी कि उऩ्हें इस देश की भव्य, उदात्त तथा मानवीय सम्स्कृति को बचाना है, और उसका प्रसार करना है।

जब उऩ्हें मालूम हुआ कि ‘क्वाण्टम मैकैनिक्स के पिता' नोबेल सम्मानित अर्विन श्रायडिन्जर ( Erwin Schrodinger) तथा परमाणु बम के जनक राबर्ट ओपनहाइमर (Robert Oppenheimer ) ने उपनिषदों तथा श्रीमद्भवद्गीता का गहन अध्ययन किया है और उऩ्हें अनेक उपयोगी मोती वहां से प्राप्त हुए हैं तथा वे भारतीय ज्ञान को सर्वोच्च सम्मान देते हैं, सलिल विस्मयाभिभूत हुए, मंत्रमुग्ध हुए। श्रायडिन्जर ने तो खुले आम अपने क्रान्तिकारी क्वाण्टम मैकैनिक्स के सिद्धान्त को उपनिषदों के मंत्रों द्वारा समर्थन भी दिया था। एर्विन श्रायडिन्जर का कथन है : “पूर्व से पश्चिम में कुछ रक्त- आधान आवश्यक है ताकि पाश्चात्य विज्ञान को आध्यात्मिक रक्ताल्पता से बचाया जा सके।. . . इस संसार में जो विभिन्नता है, उसमें चेतना की खोज करने के लिये पश्चिम में कोई भी ज्ञान तन्त्र नहीं है"
और इस तरह लगभग २२ वर्षों से सलिल अपने भारत प्रेम के कारण ऐसे, मणियों के समान, उद्धरणों का संकलन कर रहे हैं। किन्तु इसे पुस्तक का रूप देने का विचार उनके मन में तब आया जब वे फ़्रिट्याफ़ काप्रा की विश्वप्रसिद्ध पुस्त्तक 'द डाओ आफ़ फ़िज़िक्स' का अध्ययन दुबारा कर रहे थे। इस पुस्तक में जब उऩ्होंने राबर्ट ओपनहाइमर का यह कथन पढ़ा - “ हमें विज्ञान में जो ज्ञान मिलेगा, वह भारतीय प्राचीन ज्ञान का 'दृष्टान्तकरण' होगा, परिष्कृतरूप होगा और उससे हमारा उत्साह ही बढ़ेगा।" तब सलिल ने पुस्तक के विषय में गंभीर होकर सोचना प्रारंभ किया। यह कथन उऩ्हें चमत्कारी लगा । इस कथन में उऩ्होंने परमाणु बम के जनक के महान संदेश देखे जो न केवल वैज्ञानिकों के लिये हैं, वरन संपूर्ण मानव जाति के लिये हैं। उऩ्हें तीव्र प्रेरणा हुई कि वे इस कथन को समस्त भारतीय़ों तक पहुँचाएं। कम से कम वे पाठक यह तो समझेंगे कि भारत के प्राचीन ज्ञान में अंधविश्वास बिलकुल नहीं हैं, वरन वह पूर्णरूप से वैज्ञानिक है, वैश्विक है और सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष है।
अब सलिल इस पुस्तक का सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं में अनुवाद कराने के लिये अपनी पूरी ऊर्जा लगा रहे हैं ताकि समस्त भारतीयों को इन उपरोक्त तथ्यों की जानकारी मिले जो उऩ्हें पाठ्यक्रम में नहीं मिलती। प्रसन्नता कीबात है कि हिन्दी, तमिल,तेलुगु, मलयालम, कन्नड़, तथा नेपाली में सहर्ष अनुवाद करने के लिये अनुवादक मिल गए हैं। हिन्दी, गुजरती, तमिल, तेलुगु के अनुवाद तो हो चुके हैं अब वे उपयुक्त प्रकाशक की खोज में हैं। मलयालम तथा नेपाली में अनुवाद हो रहा है।
अंग्रेज़ी में पुस्तक उऩ्होने अपने खर्चे से ही प्रकाशित की है - यह भारतमाता को उनकी पुष्पांजलि है। कैलिफ़ोर्निया की प्रियंका शर्मा, पूर्व एयर वाइस मार्शल विश्व मोहन तिवारी, मदुरइ के सूर्यनारायणन, यूएसए के दिवाकरुणि मूर्ति, इटैली से उम्बैर्तो पवन, कैलिफ़ोर्निया की अन्ना हुरिहन, आंध प्रदेश के संजय भारत तथा और भी अनेक विद्वानों तथा लेखकों द्वारा दिये गए उत्साह और सहायता का वे बहुत ऋण मानते हैं।
उनके अनुमान के अनुसार विश्व के लगभग दस लाख व्यक्तियों ने उनके संकलन को डिजिटल माध्यम में पढ़ा है। उऩ्हें पूरे विश्व से इस पुस्तक पर बहुल मात्रा में - लगभग हजारों - हृदयग्राही टिप्पणियां प्राप्त हुई हैं, इनमें प्रसिद्ध वैज्ञानिक, विद्वान, साहित्यिक सम्मिलित हैं। इनके कुछ ही उदाहरण यहां देने का मैं लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं: -
प्रोफ़ैसर ए. वी. मुरली (पी एच डी., पूर्व नासा वैज्ञानिक, Huston, USA) उन इने गिने वैज्ञानिकों में से हैं जिऩ्हें दोनों एपोलो तथा लूना अभियान द्वारा लाई गई चन्द्रमा की मिट्टी के अध्ययन के लिये चुना गया था। उऩ्होंने लिखा - “ यह संकलन, सरल शब्दों में कहें तो, बहुत उत्कृष्ट है ! हम सभी को इसके संकलनकर्ता को धन्यवाद देना चाहिये । इन उक्तियों को हमें संसद भवन में, विधान सभा में, और समस्त शैक्षणिक सम्स्थाओं की दीवारों टाँकना चाहिये । सबसे महत्वपूर्ण तो यह होगा कि इसे विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम में अनिवार्य होना चाहिये और हो सके तो उऩ्हें महान भारतीय ऋषियों के कार्यों को समझाया जाए ।"
मिर्ज़ा ए. ए. बेग (लंदन) :- “ मैं एकदम चकित हूं कि इस छोटी सी पुस्तक में सलिल ज्ञवाली ने कितना गहन ज्ञान और विवेक कितनी सावधानी से जड़ दिया है!. . . यह सच है कि भारतीय सभ्यता सबसे पुरानी है जिसने यूनान के पाइथगोरस और टायेनिअस अपोलोनिअस के समान दार्शनिकों को आकर्षित किया था।‘
टिमदि हार्ट, फ़िलाडैल्फ़िया, पैन्सिल्वेनिया, USA कहती है :- "हाइ सलिल ज्ञवली, इंतरनैट पर मुझे अचानक ही आपका संकलन प्राप्त हुआ, और मैने उसे आदि से अंत तक ध्यानपूर्वक पढ़ा। सुन्दर भारत माता के शाश्वत ज्ञान के विस्तार को कोई नहीं रोक सकता। मैं अपने ही स्पष्टरूप से अनुभूत अमित विकास का प्रमाण दे सकती हूं - उस भारतमाता को हार्दिक धन्यवाद कि जिसके आध्यात्मिक और दार्शनिक ऋषियों तथा प्रतिभाओं ने यह अनुपम भेंट दी। आपको इस ज्ञानदान के लिये बहुत धन्यवाद।"
मेरा निश्चित विश्वास है कि यह पुस्तक विश्व की अनेक भाषाओं के द्वारा भारत के प्राचीन ज्ञान के द्वारा समस्त विश्व की, जो अनेकों संकटों से ग्रस्त है, रक्षा करेगी, यह ज्ञान पुन: भारत को विश्वगुरु स्थापित करेगा।
-विश्व मोहन तिवारी, पूर्व एयर वाइस मार्शल, दिल्ली

गुरुवार, 2 फ़रवरी 2012

दिल्ली दिल वालों की


देश की राजधानी दिल्ली के बारे में चन्द बातें आप बीती के रूप में लिख रहा हूं कि जो कुछ भी लिखूंगा, सच-सच ही लिखूंगा और सच के सिवाय कुछ नहीं लिखंूगा। यह बड़ा शहर है। यहां की बड़ी बड़ी बातें हैं। यहां बड़े-बड़े आदमी रहते हैं। उनके अपने ठाठ हैं। मजे की बात है कि जानवर भी रहते हैं तो वे ऐलानिया रहते हैं, जैसे आईटीओ पुल के पास एक बोर्ड टंगा है, जिस पर लिखा है, 'यहां हाथी रहते हैंÓ। ऐसा बोर्ड अन्यत्र कम ही देखने को मिलता है। लगता है कि चुनाव कमीशन ने भी अभी तक यह बोर्ड नहीं देखा है, वरना कहता बहनजी, यहां भी आ पहुंची, अभी उसे पर्दे से ढ़कने का आदेश देते हैं। आप पूछेंगे कि इतने पर्दे कहां से आयेंगे तो बाजार में पर्दों की कोई कमी तो है नहीं। जगह-जगह लिखा हुआ मिलेगा 'पर्दे ही पर्देÓ। कोई इस्तेमाल करने वाला चाहिए, सरकारी घोटाले ढ़कने हों या कुछ और, पर्दों की कोई कमी नहीं है। चुनाव कमीशन में कई विद्वान हैं, परन्तु वे यह नहीं सोचते कि इस तरह सिर्फ पर्दा ढ़कने जैसी थोथी बातों में क्या रखा है? पूरी चुनाव प्रणाली आमूलचूल परिवर्तन मांगती है। विकास और विचारधारा, जाति-पैसा-दारू के मुकाबले कहीं बहुत पीछे छूट गए हैं और अपने आपको धर्मनिरपेक्ष कहने वाले दल ही धर्म और जाति की आवाजें लगा रहे हंै और अपने अपने कुनबे को आगे बढाते हुए अपने दल के अध्यक्ष द्वारा थोपे हुए उम्मीदवारों के लिए वोट मांग रहे हैं। खैर, यहां जगह-जगह शॉपिग मॉल बन गए हैं, वहां चाहे एक के दो देने पडें़, लेकिन कुछ लोग वहां खरीददारी करना अपनी शान समझते हैं। ऐसे ही एक शॉपिंग मॉल में जाना हुआ। वहां क्या देखा कि एक वृद्ध ताऊ अपने पोते के साथ कुछ दूर खड़ा है। इतने में वह क्या देखता है कि सामने की दीवार धीरे-धीरे फट गई। उसमें एक वृद्धा दाखिल हुई। कुछ देर बाद वह दीवार वापस जुड़ गई। थोडी देर बाद वह दीवार फिर खुली और उसमें से एक नवयुवती निकली। इतना देखते ही वृद्ध ताऊ के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। उसने अपने पोते से कहा 'अरे! जा जल्दी से जार थारी ताई नै बुलाल्या, वा भी दीवार मायनै जार जवान होलेगी।Ó
मॉल की खरीददारी को जाने दीजिए। साधारणत: भी खरीद करने जाने पर दुकानदार पैदल को कुछ और कार सवार को कुछ और भाव बताते हैं। खरीददारी करते वक्त ग्राहक के हाथ पेन्ट की जेब में हो तो भी भाव बढ़े हुए ही बताये जायेंगे।
एक बार किसी रिश्तेदार के यहां एक शादी में आना हुआ। शादी का निमन्त्रण पत्र बाकी तो सारा इंगलिश में था, लेकिन कार्ड के ऊपर गणेश जी को संस्कृत भाषा में न्यौता गया था। मेरे विचार से इसका कारण यह रहा होगा कि यहां बाकी लोग तो सब इंगलिश वाले हैं। अब रहे गणेश जी तो उन्हें इंगलिश कहां आती होगी? वैसे आपको बताऊं कि मारीशस में प्रवासी भारतीय वहां उन्हें किरोल एवं फ्रेंच भाषा में पूजते हैं, वह तो संस्कृत भाषा के पंडित थे, क्योंकि धार्मिक ग्रन्थों में यह जिक्र आया है कि भागवत पुराण उन्होंने ही लिखी थी। वेदव्यास जी बोलते गये और वे लिखते गए। उसी निमन्त्रण पत्र में बायीं ओर नीचे की तरफ रोमन इंगलिश लिपि में आर.एस.वी.पी. लिखा हुआ था। ऐसा अमूमन दिल्ली में छपने वाले शादी के हर निमन्त्रण पत्र में होता है, लेकिन पूंछने पर भी कोई मुझे यह नहीं बता पाया कि यह आर.एस.वी.पी. किस चिडिया का नाम है? किसी तरह एक जानकार को पकड़ा तो उसने बताया कि यह एक फ्रेंच शब्द है, जिसका अर्थ है कि कृपया निमन्त्रण पत्र मिलते ही पत्रोत्तर दें। वैसे यह केवल वैधानिक चेतावनी की तरह वैधानिक निवेदन है। यहां शायद ही कोई इसकी तरफ ध्यान देता हो। दिल्ली में पढ़े-लिखे व्यक्तियों में ऐसे आदमियों की कमी है, जो एक वाक्य भी पूरा हिन्दी या इंगलिश में बोल सके। अगर वह अंग्रेजी से शुरू करेगा तो थोड़ी देर बाद बोलते-बोलते हिन्दी पर आ जायेगा और अगर वह जाने-अनजाने हिन्दी में बोलना शुरू करेगा तो कुछ ही देर में कन्धे उचका-उचका कर इंगलिश बोलने लगेगा। अब आप यह पूछ कर क्या करेंगे कि वह इंगलिश कैसी होती है?
समृद्ध लोगों को कुत्ते पालने का भी शौक है और जिन पर अंग्रेजियत का ज्यादा प्रभाव है, वे बिल्ली भी पालते हैं, लेकिन उनके नाम इंग्लैंड की बिल्लियों की तरह ही रखते हैं। जहां तक अंग्रेजियत का सवाल है, इसमें यहां के निवासियों का कम और बाहर से आकर कुकरमुत्तों की तरह जगह-जगह निजी इंगलिश मीडियम स्कूल खोलने वालों का हाथ ज्यादा लगता है। बताते है कि इनमें कुछ के तो पूर्वज चम्बल के बीहड़ इलाके से आये हुए हैं, क्योंकि जब जयप्रकाश नारायण और विनोबा भावे ने वहां के डाकुओं का आत्मसमर्पण करवाया था तब उनमें से कई के पास कोई काम नहीं रहा। वे रिटायर्ड दस्यु भी कहलाना पसंद नहीं करते थे। अत: यहां आकर कुछने रिटायर्ड आइएएस, मिलिट्री अथवा पुलिस अधिकारी की अध्यक्षता में एन.जी.ओ. बना ली और खुल्लमखुल्ला विदेशी संस्थाओं एवं सरकार को लूटने लगे। इनमें से कुछ समाज सेवा के नाम पर विदेशों की सैर-सपाटा करते हैं। कुछ लोगों को आयकर बचाने में मदद करते हैं। बाकियों ने तरह-तरह के नामों से 'इंटरनेशनल इंगलिश मीडियम स्कूलÓ खोल लिए हैं, जहां लोग खुद लुटने चले आते हैं। सौभाग्य से इन्ही स्कूलों में से एक दो में जाना हुआ तो वहां संचालक महोदय ने अपना इतिहास बताया कि तब हमारे परिवार वाले वहां बीहड़ों में क्या करते? वहां हम आने वालों को लूटते थे, यहां पढ़ा-लिखा तबका खुद लुटने चला आता है कि लो, हमें चाहे जितना लूट लो, परन्तु हमारा बच्चा पढ़ेगा इंगलिश मीडियम स्कूल में ही और मजे की बात यह है कि इन स्कूलों के पदाधिकारी किसी भी सरकारी आदेश को नहीं मानते और मानते भी हैं तो अपनी मनमरजी से लागू करते हैं, यानि मीठा-मीठा गप्प, कड़वा-कड़वा थू। इन्हीं में से एक स्कूल में मेरा जाना हुआ कि आखिर इतनी फीस देने वाले बच्चें पढ़ते क्या हैं?
शायद छठी या सातवीं क्लास थी। मैंने एक बच्चें से पूछा, 'बताओ बेटा, ताजमहल किसने बनाया तो वह बोला अंकल, इसे बनाने वाला एक मशहूर बिल्डर था, लेकिन अभी मुझे ठीक से उसका नाम याद नहीं आ रहा है।
भारतीय संस्कृति पर आधारित शिक्षा देने का दावा करने वाली एक स्कूल में भी जाना हुआ। सोचा गाय, गंगा, गायत्री, गीता और गणेशजी को लेकर उच्च संस्कारों की शिक्षा दी जा रही होगी, इसलिए मैंने एक छात्रा से पूछा बताओ कि गंगा कहां से निकल कर कहां जाती है, तो उसने जवाब दिया कि गंगा हमारे घर से निकल कर सामने वाले डेफोडिल्स अपार्टमेंट में गुप्ता अंकल के जाती है।
यहां दिल्ली में सरकारी और गैर सरकारी इंगलिश मीडियम स्कूलों में एक सबसे बडा अंतर यह है कि सरकारी स्कूलों में टीचर कभी कभी विद्धार्थी को अपराध करने पर हाथोंहाथ छोटा मोटा दंड दे देते हैं, जब कि वही अपराध करने पर इंगलिश मीडियम स्कूलों में पहले स्टूडेन्ट को उसकी डायरी की मार्फत कारण बताओ नोटिस दिया जाता है। उसके बाद आगे की कार्यवाही होती है। हर काम अमेरिकन स्टाइल में है। अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की पढ़ाई और टीवी के सीरियलों के मिले-जुले प्रभाव के बारे में पिछले दिनों बहुत कुछ देखने सुनने को मिला। यह इंगलिश का प्रभाव अब आम जनजीवन पर भी अपनी पकड़ बना चुका है। तरह-तरह के सीरियल-ही मेन इत्यादि-देख देख कर बच्चे उन्हें घरों पर दोहराने लगे हैं। वैसे अभी तक तो यही सुनते आए थे कि कागजी नींबू अच्छे होते हैं, कोई कोई कागजी बादाम की भी तारीफ करते पाए जाते हैं, लेकिन बताते हैं कि यहां की कागजी योजनाएं और कागजी स्कूल भी काबिले तारीफ हैं। समाचार पत्रों से ही विदित हुआ कि दिल्ली मे एक ऐसा स्कूल भी है जहां न स्कूल की बिल्डिंग है न मास्टर है और न ही बच्चे, सिर्फ बोर्ड लगा हुआ है। ऐसे ही कागजी कॉलोनियां भी हैं। यह दोनों चीजें यहां बहुत मशहूर हैं। आपका कभी आना हो तो इन्हें जरूर देखें, मजा आएगा, सच!
दिल्ली में सरदार भगत सिंह मार्ग को अब इस नाम से कोई नहीं जानता। अब यह कहलाता है एस बी सिंह मार्ग। ऐसे में सरदार भगत सिंह के बारे में जानने अथवा बताने की फुर्सत किसे है? दूसरी बात जो मुझे यहां महसूस हुई, वह यह कि दिल्ली वाले आप को फौरन पहचान लेंगे कि बन्दा (यहां आदमी को ऐसे ही बोलते हैं)बाहर का है या दिल्ली निवासी है। मसलन यदि आपने ग्रेटर कैलाश को जी के बोला तो आप दिल्लीवासी हैं, वर्ना बाहरी हैं। दिल्ली प्रवास के दौरान छुट्टी के रोज एक बार मुझे अपने एक मित्र से मिलने उनके सात मंजिले अपार्टमेन्ट के फ्लैट में जाना पड़ा। पूछते-पूछते जब उनके फ्लैट पर पहुंच कर घंटी बजाई तो मित्र के बच्चों ने दरवाजा खोला और पूछने पर जवाब दिया कि मॉम-डैड तो पास के गांव में धूप खाने गये हैं। मैं एक बार तो सुन कर चकरा गया। धूप सेकने पास के गांव में गए हैं? साफ पानी और हवा प्रदूषण का तो बहुत सुना था कि दिल्लीवासी इनसे दूर होते जा रहे हैं, लेकिन धूप से भी वंचित होने का पता यहां आने के बाद ही लगा। कुछ वर्षों बाद यहां के लोग नार्वे, स्वीडेन की तरह सूर्य स्नान करने आसपास के गांवों में जाया करेंगे। आप देख लेना।
खैर, मैं मित्र के ड्राइंग रूम में बैठ गया। कुछ देर बाद मैंने बच्चों से पूछा कि बेटे आज स्कूल नहीं गये? इस पर बच्चों ने जवाब दिया कि अंकल, हमारे कई फादर हैं, उनमें से एक फादर की बदली हो जाने से आज स्कूल में छुटटी हो गई है। सुना आपने?
इसी तरह पिछले प्रवास के दौरान एक बड़े अस्पताल में जाना हुआ। सुना था कि वहां बड़े बड़े ऑपरेशन मरीज को बिना क्लोरोफार्म सुंघाये ही किये जाते हैं। उत्सुकता तो बहुत थी लेकिन मेरे जैसे को ऑपरेशन थियेटर में कौन जाने देता? खैर, किसी के साथ अस्पताल के आउटडोर तक गया और इस बाबत जानकारी ली तो बडी काम की बात पता लगी। वहां ऑपरेशन थियेटर में ही मरीज को पूरे इलाज, रहना, खाना, पीना इत्यादि का एडवान्स बिल थमा दिया जाता है, जिसे देख कर वह वहीं टेबल पर ही बेहोश हो जाता है, फिर और कुछ सुंघाने की क्या आवश्यकता है? दिलचस्प बात यह है कि इनमें से कई अस्पताल तो ऐसे हैं, जिन्हें सरकार ने इस बिना पर रियायती दर से जमीनें दी हुई हैं कि वह गरीबों का इलाज किफायती दर से करेंगे। हां, एक महत्वपूर्ण बात तो रह ही गई। मैं अस्पताल के आउटडोर में एक डाक्टर के पास खडा था। डाक्टर साहब मरीजों को धड़ाधड़ तरह-तरह के टैस्ट लिख कर दे रहे थे, तभी एक नौजवान अपनी वृद्धा मां को लेकर आया और डाक्टर साहब को दिखाया। कुछ देर बाद डाक्टर साहब बोले कि कुछ टैस्ट होंगे। इस पर वह नवयुवक बोला डाकÓसाहब मदर तो बिलकुल पढ़ी-लिखी नहीं है, यह टैस्ट वगैरह कैसे देगी? यह सुनकर वहां खड़े सभी सोच में डूब गए।
आदमी के साथ आदमी के व्यवहार की तो सैकड़ों बातें आप और हम आए दिन देखते सुनते आए हैं। दिल्ली में लोगबाग अब देवताओं तक से अपना व्यवहार बदल रहे हैं। किसी ने बताया कि कुछ अर्सें पूर्व कनाट प्लेस के हनुमान मंदिर के बालाजी नाराज होकर रूठ कर कहीं चले गए। कारण पूछने पर पता लगा कि वर्षों पूर्व लोग मन्दिर में आते थे, सवा रुपए का प्रसाद चढ़ाते थे और श्रद्धा से माथा टेकते थे। फिर धीरे-धीरे इसमे बदलाव आया। अधिकांश लोग हाथ जोड़ कर ही उधर से निकलने लगे लेकिन हद तो तब हुई जब कि जीन्स पहने नौजवान लड़कियां उन्हें दूर से ही हाय! कहते हुए उधर से निकलने लगीं।
यहां के व्यक्तियों कि एक खास बात यह है कि वे नाम को बहुत महत्व देते हैं और हो भी क्यों नहीं? सब जगह नाम की महिमा है। आप अच्छी से अच्छी मिठाई-नमकीन ले आइए, लेकिन अगर उसकी पैकिंग बढिय़ा नहीं है और उस पर एक विशेष प्रतिष्ठान का नाम नही है तो दिल्लीवासी फौरन कह देगा, अरे कहां से लाए हो? कभी धनियाराम की फलां चीज खाई है?
यहां पर बोलचाल में लोगों को नाम के पीछे आ की मात्रा लगाने का बड़ा शौक है। अगर आपने योग को योगा नहीं बोला तो आपके बारे में लोगों की धारणा अच्छी नहीं बनेगी। इसी तरह राम को रामा और कृष्ण को कृष्णा कहना यहां की शान है। आपने फिनाले को फाइनल बोल दिया तो लेने के देने पड़ जायेंगे। यस को या नहीं बोला तो लोग आपको कुछ और ही नजरों से देखेंगे। आधुनिकता की दौड़ में कई मजहबों की नई-नई शाखाएं खुल गई हैं। नौजवान पीढ़ी उसमें जाना अपनी शान समझते हैं। मैं यहां आया था तो क्या करता, दिल्ली घूमने निकला, लेकिन जब देखा कि पुरानी दिल्ली में नई सड़क है और नई दिल्ली में पुराना किला तो माथा ठनका। इसी तरह रेलवे के माल गोदाम के सामने से निकला तो जगह-जगह लाल रंग की बाल्टियां टंगी देखीं, जिस पर लिखा था आग, लेकिन जब पास जाकर देखा तो उसमें रेत भरी हुई थी। और तो और पोस्ट आफिस जाने पर देखा कि गोंद के डिब्बे में गोंद की जगह पानी भरा है। सोचा अब के अजमेर के हमारे सांसद सचिन पायलेट से कभी मिलना होगा तो इस बात का उलाहना दूंगा। सड़क पर पीडब्ल्यूडी का काम चल रहा था और बोर्ड पर लिखा था मेन एट वर्क और काम कर रहे हैं आदमी और औरतें दोनों। महिलाओं के साथ इतना भेदभाव क्यों? सड़क पर ही जगह-जगह लिखा मिलेगा नो राइट टर्न और अटल जी की सरकार की बात तो जाने दीजिये। वर्तमान यूपीए की सरकार भी जब-तब अपना झुकाव दक्षिणपंथ अर्थात राइट टर्न की तरफ लेती रहती है। यह सब देख मैं तो निराश हो कर जल्दी ही अपने डेरे पर लौट गया। जाने आगे और क्या-क्या देखना पड़े?
यह सब देख सुन कर मुझे लगा कि दिल्ली दिल वालों की ही है।
शिव शंकर गोयल फलैट न.1201, आइआइटी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट न.12, सैक्टर 10, द्वारका, दिल्ली 75. मो. 9873706333