बुधवार, 4 जुलाई 2012

कहीं रेन फिक्सिंग तो नहीं हो गई है?


खबर है कि मानसून इस बार फिर बेईमानी पर उतर आया है. भगवान जाने इस खुफिया सूचना में कितना दम है? लोगों का कयास है कि इस देश में पहले ही तरह तरह की फिक्सिंग चल रही हैं, इसी कडी में रेन फिक्सिंग भी हो गई होगी? कुछ दिनों पूर्व आपने उत्तरप्रदेश के कन्नोज में लोकसभा के लिए हुई चुनाव फिक्सिंग की चर्चा सुनी होगी। वहां के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की पत्नी और समाजवादी पार्टी की उम्मीदवार डिंपल यादव के विरुद्ध कांग्रेस ने तो बाकायदा वाक ओवर दिया ही, उनकी धुर विरोधी कहाने वाली मायावती भी अज्ञात कारणों से नदारद हो गई। इतना ही नहीं अपने आपको विरोधी दल का दावा करने वाली बीजेपी भी बड़े नाटकीय ढंग से चुनाव से भाग खड़ी हुई और जनता ठगी की ठगी रह गई। वैसे ऐसी घटना सन 2009 के लोकसभा चुनाव में मध्यप्रदेश के विदिशा में घटित हो चुकी है, जहां बीजेपी प्रत्याशी सुषमा स्वराज के विरुद्ध कांग्रेस के प्रत्याशी ने बड़े रहस्यमयी तरीके से ऐन वक्त पर अपना नाम वापस ले लिया।
इसी श्रंखला में अब चर्चा है कि मानसून ने इस बार कहीं रेन फिक्सिंग तो नहीं कर ली है। इस बारे में और अधिक जानकारी सीबीआई की जांच से ही पता लगेगी, अगरचे वह वर्षा बोर्ड, जिसके अध्यक्ष इन्द्र और सचिव वरुण देवता हैं, से इस बारे में पूछताछ करें। कहा तो यहां तक जा रहा है कि स्वयं इन दोनों देवताओं को ही पता नही हैं कि इस वर्ष मानसून का आगमन कब और कहां-कहां होगा। तभी तो इनके नुमाइन्दे-मौसम विभाग वाले कभी कुछ कहते है, कभी कुछ कहते हैं। कई बार तो इनकी भविष्यवाणियों से उलट बात घटित होती है। ऐसा लगता है कि वर्षा बोर्ड और मौसम विभाग में ही आपस में पटती नहीं है। विशेषज्ञों का ख्याल है कि जिस तरह बालीबुड की नूपुर मेहता को बुला कर क्रिकेट में स्पॉट फिक्सिंग की जांच का नाटक किया गया, वैसे ही इन्द्र के दरबार की अपसराओं-मेनका, रम्भा और उर्वषी इत्यादि- को बुला कर जांच नहीं तो कम से कम जांच का नाटक तो किया जाए। कुछ को तिहाड़ जेल भिजवाया जाए। भले ही वह बाद में एक एक करके सब छूट जाएं। जनता का क्या, वह तो थोड़े दिन बाद जैसे टूजी स्पैक्ट्रम, कामन वैल्थ गेम्स, आदर्श सोसाइटी आदि घोटालों को भूल रही है, यह भी भूल जायगी।
इ. शिव शंकर गोयल 
फ्लेट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, 
प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, 
दिल्ली- 75. 
मो. 9873706333

पचास से अधिक जिलों में फैली है डायन प्रथा

भारत में कानून की हुकुमत और सामाजिक चेतना के बावजूद डायन प्रथा और उसके हिमायती हार मानने को तैयार नहीं है. राष्ट्रीय महिला आयोग के मुताबिक भारत में विभिन्न प्रदेशों के पचास से अधिक जिलों में डायन प्रथा सबसे ज्यादा फैली है. इन जिलों में ऐसी औरतों की सूची लंबी है जो डायन करार दे दी गई और जुल्मों का निशाना बनी. ये सिलसिला अब भी जारी है. भारत के गांव-देहातों और छोटे कस्बों में अब भी कोई ओझा, भोपा और तांत्रिक किसी सामान्य औरत को कभी भी डायन घोषित कर रहा है. औरत की विडम्बना ये है कि इसमें उसके अपने घर परिवार और रिश्तेदार भी शामिल हो जाते है.
दर-दर की ठोंकरे
राजस्थान में टोंक जिले की कमला मीना तीन बच्चो की माँ है. पति ने ताउम्र साथ निभाने का वादा किया था.मगर एक दिन उसने कमला को डायन करार दे दिया और दूसरी शादी कर ली. कमला ने जब अपना दर्द बयान किया,गला भर आया. कुछ आंसू दामन पर गिरे,कुछ भीतर दिल के दालान पर. कमला ने कहा, � दस साल हो गए मुझे दर-दर की ठोकरें खाते हुए. पति बदला तो पीहर भी बदल गया. जिसके भी दरवाजे पर दस्तक दी, खाली हाथ लौटा दी गई. कसबे में कोई मकान तक किराये पर नहीं देता. जैसे ही पता चलता है ,मुझे मकान खली करने के लिए कह दिया जाता है�. कमला बताती है कैसे उसे आधी रात को घर से निकाल कर मारा पीटा गया, उसने अपने जिस्म पर उभरे कुल्हाड़ी की मार के जख्म के निशान भी दिखाए. कमला कहती है, �मेरी जान खतरे में है, न उसे पुलिस ने न्याय मिला न किसी इंसाफ के मंदिर से.�. इन औरतों के लिए कोई खाप पंचायत खड़ी नहीं होती.कोई रहनुमा भी मदद नहीं करता.
पति मरा,जिंदगी खत्म
हिमाचल प्रदेश की निर्मल चंदेल को उस वक्त सहारे की दरकार थी जब अकस्मात पति का निधन हो गया. इसके बाद जमाना बेदर्द निकला. निर्मल बताती हैं, � उस समय मेरी उम्र चौबीस साल थी, तब भी लोगों ने कहा इसने ही ऐसे कर्म किये जिससे पति की मौत हो गई. मुझे ही इसके लिए जिम्मेदार बताया गया.� निर्मल अब ऐसी ही प्रताड़ित औरतों के लिए काम करती है. वह बताती हैं, �जब मेरे भाई की शादी होने लगी तो सब लोगों ने कहा इसे दूर रखना ,मगर मेरे भाई ने इसे नहीं माना. दिक्कत ये है कि बाकि लोग इस तरह सामने नहीं आते जैसे मेरे भाई खड़े हुए.�
ओझा अपराधी
महाराष्ट्र में सामाजिक कार्यकरता विनायक तावडे़ और उनका संगठन कई सालों से डायन प्रथा के विरुद्ध अभियान चला रहे है. तावडे़ के मुताबिक आदिवासी इलाकों में ये प्रथा एक बड़ी समस्या बनी हुई है.वह बताते हैं कि कैसे एक ओझा गाव में एक महिला को डायन करार देने का उपक्रम करता है. तावड़े उदहारण देते हैं, �जैसे गांव में कोई बीमार हो गया,तो कुछ लोग जवार के दाने बीमार के ऊपर सात बार घुमाकर ओझा के पास ले जाते है. ओझा एक दाना इस तरफ, एक उस तरफ रख कर मन्त्र बोलना शुरू करेगा,कहेगा हाँ, .उसे डायन ने खाया है. उस डायन का घर नाले के पास है, उसमे पेड़ है, इतने जानवर है.आम के पेड़ है, महू का पेड़ है ,इतने बच्चे है, � वह आगे बताते हैं, �इनमे जो बातें अनुमान से किसी पर लागु हो जाऐ, उस औरत को डायन करार दिया जाएगा. हमने ऐसे ही एक ओझा को गिरफतार करवाया है. � राष्ट्रीय महिला आयोग की सदस्य निर्मला सावंत प्रभावलकर ने स्वीकार किया, � देश के पचास से साठ के बीच ऐसे जिले है जहाँ इस कुप्रथा का बड़ा जोर है. कही महिला को डायन, कही डाकन, तेनी या टोनी, पनव्ती ,मनहूस और ऐसे ही नामों से लांछित कर उसे बहिस्कृत किया जाता है� प्रभावलकर के अनुसार ये समस्या शिक्षित वर्ग में भी है. जब कोई महिला राजनीती में आती है तो लोग कहने लगेगे ये जहां भी हाथ लगाएगी, नुकसान हो जायेगा. आप चुनाव हार जायेगे, ऐसा कह कर लांछित किया जाता है. पीड़ित महिलाओं में ज्यादातर दलित, आदिवासी या पिछड़ा वर्ग से है. सामाजिक कार्यकर्ता तारा अहलुवालिया ने राजस्थान में आदिवासी बहुल इलाकों में ऐसी पीड़ित महिलाओं की मदद की है. वह बताती है, �कोई 36 ऐसे मामले मेरे पास है जिनमें औरत को डायन घोषित कर दिया गया. मगर पुलिस ने कोई मदद नहीं की. फिर बताये कैसे इस कुप्रथा पर लगाम लगेगी. इन पीड़ित औरतों में कई इस कद्र टूट चुकी हैं कि जीने की ललक कम होने लगी है. �
डायन विरोधी कानून जरूरी
अहलुवालिया ने कहा, � ये समय है जब डायन विरोधी कानून बनना चाहिए. अकेले भीलवाड़ा जिले में ही कोई ग्यारह स्थान ऐसे है जो औरत के शरीर से डायन निकालने के लिए जाने जाते है. वहां हर सप्ताह भीड़ लगती है. इन औरतों के साथ हर तरह की हिंसा होती है�. दक्षिण राजस्थान की सुन्दर बाई विधवा है. उन्हें उनके भतीजे ने ही डायन घोषित कर दिया. सुन्दर बाई बताती हैं, � पहले मुझे डायन करार दिया,फिर एक दिन मृत घोषित कर पेंशन बंद करा दी. क्योंकि वो मेरी सम्पति हड़पना चाहता है. पेंशन वापस शुरू हो गई है.मगर अब भी मैं डरी हुई हूँ.�
लेखक श्री नारायण बारेठ राजस्थान के जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार हैं और लंबे समय से बीबीसी से जुड़े हैं

मंगलवार, 3 जुलाई 2012

धरती पकड़ नहीं, इस बार आसमान पकड!

चुनाव के इस मौके पर आज फिर रह रहकर धरती पकड की याद आ रही है और क्यों न आए? उन्होंने ही हर चुनाव को रोचक बनाया था। उन्हें चुनाव में खड़ा होने का शौक था और हर बार जब भी मौका मिलता वह चुनाव दंगल में कूद जाते। उस समय अधिक से अधिक एक फार्म ही तो भरना होता था, परन्तु बाद में सरकार ने राष्ट्रपति चुनाव के लिए संविधान में संशोधन कर फार्म के साथ 50 प्रस्तावक-एमपी अथवा एमएलए- एवं 50 समर्थक वोटर आवश्यक कर दिए तो वहां उनका स्कोप खत्म हो गया। वह रह रहकर उस घड़ी को कोसते रहते थे। इधर देश भी उनकी सेवाओं से वंचित रह गया।
उनका नाम धरती पकड़ कैसे पड़ा यह एक खोज का विषय है। कुछ लोगों का अनुमान है कि चूंकि वह हर चुनाव में खड़े हो जाते थे और फिर नतीजे में धरती पकड़ लेते थे, इसलिए कालांतर में वह धरती पकड़ कहलाए, जबकि कुछ अन्य लोगों का कयास है कि नाम तो इनका शुरू से ही धरती पकड़ था लेकिन चुनाव में यह आसमान पकडऩा चाहते थे, लेकिन हर बार चित्त होकर वापस धरती पकड़ लेते थे इसलिए धरती पकड़ के नाम से मशहूर हो गए।
वैसे चुनावों में तरह तरह की हस्तियां मैदान में आ चुकी हैं। एक बार एक ऐसे सज्जन आए जो किसी न किसी तरह मीडिया की चर्चा में रहना चाहते थे। यह उनका शौक था और आप जानो शौक में आदमी क्या नहीं करता?
एक हस्ती ऐसी भी उम्मीदवार बनती रही है, जिन्होंने साहित्य में घुसपैठ की है और ऐसा उन्होंने किया है एक किताब लिख कर, जिसका शीर्षक है हाउ टू क्रियेट प्रोब्लम यानि समस्याएं कैसे पैदा या खड़ी की जाएं? इस विधा में उन्हें बडा मजा आता है। ऐसा करके वह न केवल अपनी पार्टी के लिए बल्कि स्वयं अपने और अपने परिवार के लिए भी जब तब समस्याएं खड़ी करते रहते हैं, मजा जो आता है!
उम्मीदवारों की लिस्ट लम्बी है। कोई कहां तक गिनवाएं? एक सज्जन यशपाल की एक कहानी के उस पात्र की तरह थे, जो अखबारों में अपना नाम छपवाने की गरज से एक बार एक सड़क पर जानबूझ कर एक वाहन से टकरा गए ताकि दूसरे रोज उनका नाम छप जाए, लेकिन मीडिया वाले भी अजब गजब हैं। नगर संवाददाता ने इस घटना पर सिर्फ यह लिख दिया कि कल दिन में एक अनजान व्यक्ति आगरा गेट के बाहर एक वाहन से टकरा गया। उसे अस्पताल में भरती कराया गया है। इधर अस्पताल में शैया पर पड़े पड़े यह खबर पढ़ते हुए उन्हें अपनी चोट का दुख कम और यह दुख ज्यादा सता रहा था कि हाय! हाथ-पांव भी तुड़वाये और नाम भी नहीं छपा। इससे तो धरती पकड़ ही अच्छा रहा, कम से कम नाम तो छपता था।
एक बार एक उम्मीदवार अपने शहर की नगर परिषद के चुनाव में अपने वार्ड से खड़े हो गए। जितना जोर लगाना था लगा दिया और जब चुनाव का नतीजा आया तो पता लगा कि इन्हें सिर्फ एक वोट मिला है। खैर, चुनाव तो हो गए लेकिन फिर उनके घर-बाहर चर्चा शुरू हो गई। मियां बीबी ही क्या आस-पास वाले सब शक करने लगे कि सिर्फ एक ही वोट कैसे? कम से कम दो वोट तो होने ही चाहिए, या तो मियां ने स्वयं को ही वोट नहीं दिया या बीबी ने नहीं दिया। लोग बाग महीनों इसकी खोजबीन में लगे रहे लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला।
इ. शिव शंकर गोयल
फ्लेट न. 1201, आई आई टी
इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट न. 12,
सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.
मो. 9873706333

रविवार, 1 जुलाई 2012

'स्वांग' के वजूद पर है गहरा संकट

नारायण बारेठ
उत्तर भारत के अनेक भागों में सांस्कृतिक बदलाव और दबाव के बीच एक लोक कला स्वांग अपने वजूद के लिए संघर्ष कर रही है. उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान में स्वांग एक सदियों पुरानी परंपरा है. रियासत काल में इसके कलाकार राजा - महाराजाओं और पौराणिक पात्रो के किरदार का स्वांग रचते, लोगों का मनोरंजन करते और इसके साथ अच्छाई का संदेश देते.
हरियाणा में तो अब भी स्वांग देहात-कस्बो में मंचित होता है और कलाकार सियासी सभा महफिलों और मेलों में रौनक बिखेरते है. मगर दूसरे हिस्सों में इसका दायरा सिमट रहा है.
स्वांग के मंचों पर सिनेमा जैसी भव्यता नहीं होती, लेकिन जब स्वांग के कलाकार अपनी विधा का प्रदर्शन करते है तो लोग उसे तल्लीनता से देखते, सुनते है. स्वांग के कलाकार खुद को 'सांगी' कहते है. वे स्वांग करते है और गांव कस्बो की थकी-हारी जिन्दगी का दिल बहलाते है. सुरेन्द्र कुमार करनाल में एक नाट्य संस्था का संचालन करते है और वो स्वांग के आयोजन से जुड़े हैं. वे कहते हैं, ये एक पारंपरिक लोक कला है.
राजा-महाराजाओं के दरबार में भी स्वांग किया जाता था. ये सिलसिला सैंकड़ो साल पुराना है, उस दौर में पुरानी गाथाओं को नाट्य विधा के जरिये मंचित किया जाता था. ये काम अब भी जारी है.
हाँ, अब हम अपनी लोक कला की इस संस्कृति को भूलते जा रहे है. हम इसे बनाये रखे हुए है. हम इसमें किसी ऐतिहासिक पात्र का रूप धारण करते है. पात्र आज के दौर के भी होते है. इसे हम अपनी कला के माध्यम से जनता के सामने प्रस्तुत करते है. ये कलाकार समाज में चर्चित किसी हस्ती का रूप धारण करते है, उसी चरित्र के अनुसार अभिनय करते है, कभी किसी देवता तो कभी किसी नेता के रूप का श्रृंगार कर अपनी बात कहते है. वो संवाद बोलते है तो साथी कलाकार वाद्य यंत्रो पर संगीत की धुन छेड़ कर माहौल को जीवंत बनाए रखते है. ना रौशनी का चकाचौंध, ना पूंजी का प्रवाह, ना ऊँचे मंचो और महलो के लोग. इस विधा के कलाकार और कद्रदान समाज के उस हिस्से से आते है जहा जीवन का संघर्ष तो है, मगर स्वांग उतना नहीं.
क्या स्वांग पुरानी 'बहरूपिए' लोक कला जैसा ही है? सोनीपत के स्वांग कलाकार इंद्र सिंह कहते है 'स्वांग और बहरूपिए में बहुत फर्क है. बहरूपिये का कलाकार छोटा सा अभिनय कर पैसा मांग लेता है. सांगी ऐसे पैसे नहीं मांगता. इंद्र सिंह कहते है, �ये सिनेमा और टीवी तो अभी आए है. ये तो पृथ्वीराज चौहान के दौर में भी थी. ये हमारे पुरखो की कला है. हम इसे लोगों को बताना चाहते है. हम दिल से जुड़े है इस कला से. पर अब हमको दुःख होता है, हमारी पहले जैसी कद्र नहीं है. हम अपनी कद्र बढ़ाना चाहते है. हम इसके जरिये सत्य का प्रचार करते है जैसे राजा हरिश्चंद्र सत्यवादी थे, हम उनके किरदार को लोगो के सामने पेश करते है.�
समय के साथ जिदंगी में स्वांग तो बढ़ा मगर इन कलाकारों को वैसा प्रोत्साहन नहीं मिला. स्वांग कलाकार प्रेमलाल तीस साल से स्वांग कर रहे है. वे कहते है कि ये तो इंद्र की कचहरी में भी होता था. उन्होंने कहा, �मैं मदरना रोल करता हूँ, नृत्य करता हूं, हार्मोनियम बजाता हूं. अब इससे बमुशिकल गुजारा होता है, लेकिन इससे लगाव है. जैसे मैं गाता हूँ हरियाणा की कहानी सुन लो दो सौ साल की, नए किस्म की हवा चाल पड़ी नए चाल की. तो ये स्वांग तो चलता ही रहेगा.�
यूपी में मुज्जफरनगर के संजय खुद स्वांग के सिध्हस्त कलाकार है. वे कहते है स्वांग आज के सिनेमा और टी वी धारावाहिकों से बेहतर है.इसे पुरे परिवार के साथ आप देख सकते है.वे कहते है -पहले का दौर कुछ और था.जब शरम हया थी,छोटे बड़े की कद्र थी. आज ऐसी फिल्मे है जो घर परिवार में नहीं देख सकते .लेकिन स्वांग की कहानी ऐसी होती है माँ,पिता,बहिन ,भाई ,बच्चे सब एक साथ देख सकते है. टी वी और सिनेमा में बहुत कुछ बनावटी है. मगर हमारी कला में ऐसा नहीं है. लोग देखते और दिल से तारीफ करते है.
भारत में प्रजातंत्र परवान चढ़ा, राजनीति बलवान हुई. लेकिन इसके साथ ही स्वांग और नौटंकी जैसी लोक कलाओ की कद्र घट गई. गोया अब जीवंत स्वांग तो सियासी मंचो का चहेता हो गया, ऐसे में कोई अभिनीत स्वांग क्यों देखे. ये ही इन कलाकारों की पीड़ा है.

लेखक श्री नारायण बारेठ राजस्थान के जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार हैं और लंबे समय से बीबीसी से जुड़े हैं