बुधवार, 21 नवंबर 2012

दोहरा भेदभाव झेल रहे 'पाकिस्तानी हिंदू'


नारायण बारेठ
-नारायण बारेठ-
भारतीय उपमहाद्वीप में दलित, आदिवासी और समाज के वंचित वर्ग के साथ भेदभाव की शिकायतें सुनते रहते हैं, मगर पाकिस्तान में इन वर्गों के लोगों को दोहरे भेदभाव की प्रताड़ना से गुज़रना पड़ता है.
पाकिस्तान के दलित और आदिवासी समुदाय के लोगों का कहना है कि उनके साथ दोहरा पक्षपात होता है. पहले उनके साथ अल्पसंख्यक होने के नाते भेदभाव किया जाता है, फिर उनके अपने हिन्दू समाज में छुआछूत उनका पीछा नहीं छोड़ती.
ये लोग कहते हैं कि धरती पर खींची गई एक लकीर भले ही हिंदुस्तान और पाकिस्तान को बांटती हो. लेकिन भेदभाव इधर भी है और उधर भी बस इसमें फर्क दर्जे का है.
65 साल के अर्जुन भील आदिवासी समुदाय से हैं
अर्जुन भील: होटलों में अलग बर्तन
पैंसठ साल के अर्जुन भील पाकिस्तान के पंजाब में बहावलपुर ज़िले में पैदा हुए हैं और हाल ही में हमेशा के लिए भारत आए हैं. वे कहते हैं पाकिस्तान में जो हिन्दू आबाद हैं, उनमें से ज़्यादातर या तो आदिवासी भील हैं या फिर दलित बिरादरी के मेघवाल और कोली है, इन्हीं के साथ बावरी जाती के लोग भी हैं.
हम हिंदुओं के लिए पाकिस्तान के होटलों और चाय-पानी की दुकानों पर अलग से बर्तन रखे होते हैं. हम लोग अपने इस्तेमाल के लिए बर्तन अपने साथ एक थैली में रखते है.
हमें ऐसे बर्तनों को साझा करने का कोई हक़ नहीं है जो बाकी लोग इस्तेमाल करते हैं क्योंकि हम अछूत हैं. हम होटल वाले या दुकानदार से कहते है हमें इसी थैली में खाने पीने का सामान दे दो. अगर हमारे पास बर्तन नहीं हों तो हम जैसे वर्गों के लिए होटलों पर अलग से बर्तन रखे होते है जिन्हें इस्तेमाल के बाद हमें सुरक्षित कोने में धोकर रख दिया जाता है.
पूनाराम मेघवाल: दोहरा भेदभाव
पूनाराम भी जातिगत भेदभाव के शिकार रहे हैं
पाकिस्तान के सूबा सिंध से आए पूनाराम मेघवाल खुद दलित है और सिंध के सांगड़ ज़िले में उनकी परवरिश ऐसे ही माहौल में हुई है. पूनाराम ने वहां धार्मिक और जातिगत दोनों तरह का भेदभाव अपनी आंखों से देखा है.
वे कहते हैं दलितों और भीलों के साथ ऊंची जाति के हिंदू और मुसलमान दोनों भेदभाव करते हैं. किसी भी की चाय की दुकान या होटल पर जाते ही हमें कहा जाता है कि आपके लिए अलग से बर्तन रखा है, उसे उठाओ काम में लो और साफ़ कर के वापिस रख दो. मुसलमान हमारे साथ मज़हब के आधार पर और हिन्दू जाति के हिसाब से भेद करते थे. ये सब भील, मेघवाल और कोली जातियों के साथ होता है. वहां ऊँची जाति के हिन्दू और मुसलमानों में मेल मिलाप होता है.
लूना बाई: घूंघट की ओट से देखी पक्षपात
लूना बाई जोधपुर में एक शिविर में रह रही हैं
लूना बाई क़रीब दो महीने पहले सिंध के मटियारी ज़िले से भारत आईं और फिर जोधपुर में सीमांत लोक संगठन द्वारा संचालित शिविर में पनाह ली है. वो जाति से भील हैं. बातचीत के दौरान लूना बाई का चेहरा परदे में रहा मगर उन्होंने घूँघट की ओट से भी इस भेदभाव को अपनी आँखों में दर्ज किया है. वो कहती हैं उनके साथ हिन्दू और मुसलमान दोनों ही भेदभाव करते थे. हिन्दुओं में व्यापारिक और शासक वर्ग की जातीयां उनके साथ भेदभाव किया करतीं थीं.
उनके अनुसार, '' 'हमें तो सभी हिक़ारत की नज़र से देखते थे चाहे हिन्दू हो या मुसलमान. हम जहां भी जाते हमसे कहा जाता है आगे चलो. चाहे वो गांव हो या अस्पताल हमसे से दूरी रखी जाती थी. बस में सफर के दौरान भी हमसे दूर बैठने को कहा जाता.
प्रकाश मेघवाल: छोटी जातियों के साथ परेशानी
प्रकाश भारत की नागरिकता पाने की कोशिश में हैं
सरहद के उस पार पाकिस्तान का मीरपुर ख़ास ज़िला है. वहां पले-बढ़े प्रकाश मेघवाल अब भारत की नागरिकता पाने की कोशिश कर रहे हैं. वे कहते हैं उन्होंने अपनी बिरादरी के साथ मज़हब और जाति के आधार पर भेदभाव को शिद्दत से महसूस किया है.
वे कहते हैं, ''छोटी जातियों को हर स्तर पर भेदभाव झेलना पड़ता है. मुसलमान कहते हैं तुम हिन्दू हो, ऊँची जाति के हिन्दू कहते हैं तुम नीची जाति के हो. वहां ये दोहरा भेदभाव महसूस किया है तभी तो यहां आए हैं.चाय की दुकान पर छोटे शहरो में जाते ही जाति के बारे में पूछा जाता है, फिर बताया जाता कि आपके लिए कप वहां रखे हैं. हां बड़े शहरों में ये पता नहीं चलता कि हम किस जाति के हैं इसलिए वहां ये दिक्कत नहीं आती थी.''
चेतनराम भील: कारोबार में भी भेदभाव
चेतनराम भील सिंध प्रांत में टेंपो चलाया करते थे
चेतनराम भील पाकिस्तान के सिंध में हैदराबाद ज़िले में रहते थे. उन्होंने भी हाल ही में भारत का रुख़ किया है. वे वहां दो टेंपो के मालिक थे. वे कहते हैं उनके वाहनों में अगर कोई सवारी बैठती तो कट्टर धर्मिक मिजाज़ के लोग कहते कि काफ़िर की गाड़ी में नहीं बैठना चाहिए. भारत आने के हफ्ते भर पहले उनके पिता का निधन हो गया था. चेतनराम कहते हैं कि उनके पिता के पार्थिव शरीर के लिए दो गज ज़मीन के लिए बहुत मिन्नतें करनी पड़ीं थी.
पाकिस्तान से आए इन दलितों में कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने ने ये कहते हुए अपना दर्द साझा नहीं किया कि ऐसा करने से पाकिस्तान में उनके रिश्तेदारों पर ज़ुल्म ढाया जाएगा.

रविवार, 9 सितंबर 2012

शरण की आस लिए जोधपुर पहुंचे पाकिस्तानी हिंदू


पाकिस्तानी हिंदुओं का एक बड़ा जत्था भारत में शरण की उम्मीद लिए जोधपुर पहुंचा है. इसमें लगभग 170 लोग शामिल हैं.
ये सभी पाकिस्तानी के दक्षिणी प्रांत सिंध से आए हैं और आदिवासी भील समुदाय से है. इस दल के एक सदस्य ने बीबीसी से कहा, “चाहे जान लेलो, मगर वापस जाने के लिए न कहो.”
इन हिंदुओं के लिए आवाज उठा रहे सीमान्त लोक संगठन ने भारत से इन हिंदुओं को फौरन शरणार्थी का दर्जा देने की मांग की है.
ये हिंदू ऐसे समय में भारत पहुंचे है जब भारत के विदेश मंत्री एसएम कृष्ण पाकिस्तान के दौरे पर हैं और पाकिस्तान इन खबरों को गलत बताता रहा है कि उसके यहां से हिंदू पलायन कर भारत में पनाह ले रहे हैं.
'ऐसे मुल्क में कैसे रहें'
ये सभी हिंदू उस थार एक्सप्रेस से आए हैं जो हर हफ्ते भारत और पाकिस्तान के बीच चलती है.
जोधपुर रेलवे स्टेशन पर उस वक्त भावुक मंजर था, जब इन हिंदुओं की अगवानी करने उनके चंद रिश्तेदार और संगठन के कार्यकर्ता मौजूद थे.
इनमें से कुछ ने संगठन के अध्यक्ष हिंदू सिंह सोढा से अपना दर्द साझा किया तो आंखें नम हो गईं.
इस दल में तीस से ज्यादा महिलाएं और अस्सी से ज्यादा बच्चे है. ये सभी धार्मिक यात्रा के वीसा पर आए हैं.
दल के प्रुमख गणेश (बदला हुआ नाम) ने बीबीसी से फोन पर कहा, “वहां जीवन बड़ा दुश्वार था. अभी चंद दिन पहले मेरे पिता का निधन हुआ तो दाह संस्कार के लिए दो गज जमीन भी ना मिली. हम पार्थिव शरीर लिए यहां वहां भटकते रहे मगर हर जगह कहा गया इसके लिए जगह नहीं है. फिर बताएं ऐसे मुल्क में कैसे रह सकते है.
गणेश ने कहा उनकी बहन-बेटियां बाहर नही निकल सकती थी. कदम कदम पर पक्षपात था. इसलिए उनके पास भारत आने के आलावा कोई चारा नहीं बचा था.
भविष्य की चिंता
वो कहते हैं, “हम सिर्फ ये कपड़ने पहन कर आए हैं. हमारे पास कुछ भी नहीं है. हम ये भी नहीं जानते कल कैसे पेट भरेंगे.”
इन हिन्दुओं का प्रतिनिधिव कर रहे हिंदू सिंह सोढा कहते है कि राजस्थान में लगभग सात हजार ऐसे पाकिस्तानी हिंदू है जो भारत की नागरिकता के लिए गुहार लगा रहे है.
उनके मुताबिक, “हम इनके लिए नागरिकता के अभियान चला रहे है. जरूरत पड़ी तो आंदोलन भी करेंगे. पर अभी हम चाहते है भारत इन हिंदू अल्पसंख्यकों को शरणार्थी का दर्जा दे.”
भारत ने पिछली बार 2005 में तेरह हजार पाकिस्तानी हिंदुओं को नागरिकता दी थी. लेकिन इसके बाद भी पाकिस्तान से हिंदुओं का पलायन जारी है. इनमें से हर चेहरे पर अतीत की बीती घटनाओ का दर्द है तो भविष्य के लिए चिंता की रेखाएं भी दिखती हैं.
-नारायण बारेठ

शनिवार, 1 सितंबर 2012

बेटे नहीं बेटी के माथे पर पगड़ी

भारत में पगड़ी की रस्म से बेटियों को परे रखा जाता है. रस्म है कि पिता के अवसान के बाद पुत्र ही पिता की पगड़ी धारण करता है. लेकिन जयपुर की ज्योति माथुर ने पिता के निधन के बाद पगड़ी की रस्म ऐसे सम्पन्न की जैसे कोई बेटा करता है. ज्योति ने पिता की पगड़ी अपने सिर बाँध बदलाव की इबारत लिखी है. ज्योति कहती हैं वो चाहती है बेटियों को बराबरी का हक़ मिले. जयपुर के महेश नगर में धार्मिक विधि-विधान और मंत्रो के बीच रस्मो रिवाज के अंधेरो से निकली ज्योति यूँ प्रकट हुई जैसे वो बेटियों के लिए रोशनी लेकर आई हो. पिछले दिनों ज्योति के पिता का कैंसर से देहांत हो गया था और ज्योति अपने पिता की अकेली संतान है. लिहाज़ा परिवार की ज़िम्मेदारी ज्योति के कंधो पर ही रही है. मगर जब पगड़ी की रस्म का मौका आया तो सामाजिक रस्म आड़े आ गई. क्योंकि रस्मो रिवाज इस मामले में बेटो की हिमायत करते है. लेकिन ज्योति ने पगड़ी और बेटी के बीच सदियों से बने फासले को मिटा दिया.

पूर्ण समर्थन

नाते रिश्तेदारों की भीड़ जमा हुई और जब पगड़ी की रस्म का अवसर आया, ज्योति ने प्रचलित रस्म का प्रतिकार किया और परिवर्तन की प्रतिमा बन कर खड़ी हो गई. पुरोहित ने मंत्रोचारण किया और ज्योति के माथे पिता की पगड़ी बंधी तो उसके चेहरा बदलाव की रोशनी से दमक उठा. ज्योति ने कहा “मेरे पिता ने हमेशा मुझे बेटे से भी ज्यादा महत्व दिया.उन्होंने बेटी बेटो में कोई फर्क नहीं किया. मगर उनके निधन के बाद पगड़ी का सवाल आया तो मुझे लगा मेरे दिवगंत पिता की ख्वाहिश पूरी होगी, मैं ही पगड़ी की रस्म अदा करुँगी. ये सभी बेटियों के हको का सम्मान है”. ज्योति कहती है कि जब मेरे पिता ने कभी भेद नहीं किया तो समाज में ये बेटियों के साथ ये भेद क्यो? शायद ये पहला मौका था जब बेटी के सिर पिता की पगड़ी बंधी. ज्योति की इस परिवर्तनकारी पहल का परिवार और करीबी रिश्तेदारों ने समर्थन किया. ज्योति के मामा दिनेश कुमार कहते है “ज्योति ने जो किया है,वो सराहनीय है. ज्योति ने कदम बढाया तो उसके पति और ससुराल वालो ने पूरी मदद की और हौसला बढाया. हम ज्योति और उसके ससुराल वालो के जज्बे को सलाम करते है.”

‘धर्म के खिलाफ नहीं’

जयपुर में धर्म शास्त्रों के जानकार पंडित के के शर्मा कहते है कि शास्त्र कभी बेटे बेटी में भेद नहीं करते और ना ही बेटी के लिए पगड़ी पर कोई मनाही है. के के शर्मा के अनुसार “अब समय भी बदल गया है. बेटिया भी घर की जिम्मेदारी निभा सकती है.पहले बेटों को ही पगड़ी रस्म का दस्तूर था. क्योंकि पगड़ी की रसम का अर्थ है परिवार के मुखिया के निधन के बाद पगड़ी के जरिये जिम्मेदारी का अंतरण. पहले बेटिया घर से बाहर नहीं निकलती थी, अब वे बेटो के जैसे सभी जिमेदारियो का निर्वहन करने में सक्षम है. “ पगड़ी को इंसान के रुतबे और इज्जत का प्रतीक माना जाता है, पर जब भी पगड़ी सम्मान के लिए आगे बढ़ी, उसने दस्तार के लिए बेटो के माथे का ही वरण किया. मगर अब समय बदला है. इसीलिए ज्योति ने दस्तूर के माथे बेटियो की दस्तारबंदी की तो रस्मो रिवाज खुद ब खुद झुक गई.

-नारायण बारेठ

सचिन पायलट का राजयोग काल सर्प दोष के कारण ही है

आज काल सर्प योग से हर व्यक्ति भयभीत है, मगर आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि वर्तमान केन्द्रीय दूरसंचार राज्य मंत्री और अजमेर जिले के सांसद सचिन पायलट की कुण्डली में विद्यमान काल सर्प दोष ही उनके राज योग का कारक है। असल में काल सर्प योग के बारे में गलत धारणाएं स्थापित की गई हैं और इसके माध्यम से कथित ज्योतिषी अपना घर भर रहे हैं। यदि ये कहा जाए कि काल सर्प दोष बनाम एटीएम मशीन तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगा।
आइये, जानें कि सच्चाई क्या है-
एक कहावत है कि संसार मेे उसी वस्तु की नकल होती है, जिसकी मांग अधिक होती है। पिछले कुछ वर्षों से देखने में आ रहा है कि काल सर्प दोष किसी अज्ञात भय के समान भारतीय फलित ज्योतिष पर छाया हुआ है। काल सर्प दोष की तथाकथित बनाई गई कलयुगी परिभाषा के अनुसार राहु-केतु के अलावा सभी सात ग्रह राहु-केतु के मध्य में आ जायें तो काल सर्प दोष का निर्माण होता है, जब कि वास्तविकता में इस तथाकथित योग का कोई भी शास्त्रीय आधार नहीं है। सम्पूर्ण भारतीय ज्योतिष में किसी भी ग्रंथ में इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता है। वराहमिहिर, पाराशर, वेदनाथ, मंगेशकर, कल्याण वर्मा आदि किसी ने भी इस योग का कहीं कोई नाम नहीं लिया है ।
 यहां तक कि सारावली, ब्रह्मजातक, पाराशर, होरा शास्त्र आदि में भी सिर्फ  सर्प दोष, नाग दोष आदि योग वर्णित है, जो बारह प्रकार के बताये गये हैं, जिनमें की मुख्यत: तक्षक सर्प योग, अनन्त सर्प योग, वासुकी नाग योग इत्यादि का ही वर्णन किया गया है। इसमें देष के कुछ पंडितों ने इसमें काल जोड़ कर इसे काल सर्प दोष बना दिया है, वहीं से यह बीमारी सम्पूर्ण भारत में आयी है, जिन्होंने की प्राचीन ज्योतिषीय सिद्वान्तों की महत्ता को नकार कर कपोल कल्पित सिद्धान्तों का निर्माण करके इस दोष को नोट उगलने की मषीन बना लिया है, समझ लिया है। इस बात को लेकर कुछ ज्योतिषियों ने यहीं पर सब्र नहीं किया। सर्प से काल सर्प, काल सर्प से विषधर काल सर्प, नागराज काल सर्प तक भी बना दिया है। लोगों के मन में इन लोगों ने इतना भय पैदा कर दिया कि अगर व्यक्ति के थोडी भी परेशानी हो जाये तो लगता है कि काल सर्प दोष आड़े आ रहा है, जब कि पुरातन शास्त्रों में तो यह भी लिखा हुआ है कि यदि कुण्डली में यह योग उपस्थित हो और अगर कुछ अच्छे सहायक योग भी उपस्थित हों तो यही योग सहायक राज योग बन जाता है।
ज्योतिष के योगों के अनुसार यदि बात की जाये तो दो ग्रहों के बीच में आने वाले तीसरे ग्रह को कर्तरी योग के नाम से जाना जाता है। यह सिद्धान्त सिर्फ  एक ग्रह पर लागू होता है, जो ग्रह शुभ कर्तरी हो या पाप कर्तरी न कि सूर्य से शनि तक के सात ग्रहों पर। यदि कुण्डली में सिर्फ  राहु-केतु ही किसी व्यक्ति के भाग्य का निर्णय करने लग गये तो बाकी के सात ग्रह क्या असर दिखायेंगे, जब कि राहु-केतु भारतीय ज्योतिष के अनुसार मात्र छाया ग्रह है। यह जिस राशि पर बैठते हैं, जिन ग्रहों से दृष्ट होते हैं, जिस नक्षत्र में होते हैं, जिस भाव में होते हैं, उसके अनुसार फल देते हैं तो फिर मात्र ऐसे ग्रहों को विचार करके काल सर्प दोष जैसा भयानक नाम क्यों दिया जा रहा है। साधारणतया आम ज्योतिषी यदि राहु या केतु के साथ अन्य ग्रह भी बैठे हो तो और राहु-केतु से डिग्री में आगे हो तो भी काल सर्प दोष का नाम दे देते है जब कि कतिपय ग्रह राहु-केतु की परिधी से बाहर हो चुका होता है और यह योग भंग हो चुका होता है  इन सबके बावजूद भी कालसर्प दोष बुरा ही हो यह कतई सत्य नहीं है।
कथित काल सर्प योग वाले लाखों व्यक्ति यह योग होते हुए भी बहुत ऊंचे पदों पर पहुंचे हैं, जिसमे जवाहरलाल नेहरू, मोरारजी देसाई, चन्द्रशेखर, अमिताभ बच्चन, देवानंद, सचिन तेंदुलकर, अमेरिकन पूर्व राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन, फिल्म अभिनेता राजकपूर, भारत के पूर्व राष्ट्रपति ए. पी. जे. अब्दुल कलाम। यहां तक कि हमारे देश के वर्तमान केन्द्रीय दूरसंचार राज्य मंत्री और  अजमेर जिले के सांसद सचिन पायलेट के भी कुण्डली में काल सर्प दोष विद्यमान है। उनकी कुुण्डली में तृतीय भाव से नवम् भाव के मध्य यह योग विद्यमान है, जिसे वासुकी नाग योग कहा जाता है। फिर पायलेट इस उंचाई तक कैसे पहुंच गये? वास्तविकता में यही योग इन लोगों के लिए राज योग बन गया। ज्योतिष के पुरातन शास्त्रो में तो यहां तक उल्लेख है कि यदि कुण्डली में ऐसा दोष हो किन्तु कुछ ऐसे अच्छे योग उपस्थित हों तो यहीं काल सर्प योग जीवन में अभिशाप की जगह वरदान बन जाता है। जैसा की ज्योतिष में सिद्धान्त है कि राहु जिसका बिगाड़े उसे कोई नहीं सुधार सकता और राहु जिसका सुधारे उसका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता।
इतिहास गवाह है और भारतीय ज्योतिष के ग्रंथ भरे पड़े हैं कि जो कार्य राहु या केतु कर सकते हैं वह अन्य ग्रहों के बस की बात नहीं है । जितने भी बड़े और सम्मानजनक पदों पर व्यक्ति पहुंचे हैं, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उनकी सफलता का कारण राहु या केतु ही रहे हैं। ज्योतिष शास्त्रों के अनुसार आकस्मिक लाभ, भू-संपदा, विदेश गमन या विदेश से पैसा और समुद्र का कारक राहु माना गया है तथा नौ ग्रहों में सिर्फ  केतु को ही मोक्ष प्रदाता माना गया है। जिस प्रकार मन्दिर पर ध्वजा फहरती है, उसी प्रकार किसी इन्सान की कीर्ति को मात्र केतु ही फैला सकता है। एक तरफ  जहां हमारे शास्त्रों ने इनकी इतनी तारीफ  और इनको इतना महत्व दिया है, वहीं हमारे ये आजकल के कुछ अपरिपक्व ज्योतिषी इन नामों से लोगों को डरा-धमका कर अपनी दुकानें चला रहे हैं। जब कि ज्योतिष ग्रंथों में स्पष्ट व्याख्यान है कि किसी भी कुण्डली में राहु शनि के समान और केतु मंगल के समान फल देता है। अब यदि कुण्डली में शनि की स्थिति खराब है तो राहु खराब फल देगा और अगर शनि की स्थिति अच्छी है तो अच्छा फल प्रदान करेगा। उसी प्रकार यदि मंगल की स्थिति खराब है तो केतु खराब फल देगा और अगर मंगल की स्थिति अच्छी है तो केतु अच्छा फल प्रदान करेगा। इनके अतिरिक्त भी और भी कई प्रकार के योग ज्योतिष ग्रंथों में दिये गये हैं, जिनसे की यदि यह योग वास्तव में कुण्डली में हो तो भी किसी भी प्रकार से नुकसानदायक नहीं हैं ।
जैसे की यदि राहु छठे भाव में स्थित हो और बृहस्पति केन्द्र में हो तो, जब राहु और चन्द्रमा की युति केन्द्र में हो, यदि शुक्र दूसरे या बारहवें घर में हो तो, यदि बुध आदित्य योग हो तो, यदि लग्न व लग्नेश बलवान हो, यदि कुण्डली में मात्र मंगल बली हो, यदि षनि अपनी राषि या उच्च राषि में केन्द्र में हो इत्यादि कई योग हैं इनमें से कोई भी योग स्थित हो तो यह काल सर्प दोष किसी भी प्रकार से नुकसान नहीं देता है ऐसी स्थितियों के बावजूद शहर एवं देश के कुछ ज्योतिषियों ने इसे कमाई का मोटा साधन बना रखा है, जो न सिर्फ  आम जनता के साथ बड़े-बड़े विज्ञापन एवं होर्डिंग लगा कर धोखा कर रहे हैं, आम जनता को ठग रहे हैं, बल्कि दुखियों को सताकर उनसे जबरदस्ती पैसा ऐंठ कर उन्हें और दुखी बना रहे हैं। इनसे उन जातकों का भला कतई नहीं हो सकता। हां, करवाने वाले कथित ज्योतिषियों का भला अवश्य हो सकता है, जो कि जाने-अनजाने में इस जीवन में झूठ फरेब से पैसा कमा कर स्वयं अपने लिए अगले जन्म में ये यह योग निर्मित कर रहे हैं। शास्त्रों में स्पष्ट लिखा है कि यदि कुण्डली में सर्प दोष या नाग दोष हो तो इसका एक मात्र उपाय है भुजंग दान। भुजंग कहते हैं सांप को। अब यह भी सत्य है कि सांप का दान कौन लेगा, तो इसका सीधा सा मतलब है कि किसी सर्प को आजाद करवाये, सर्पों की सेवा करे, उनकी प्राण रक्षा करेे न कि बड़े-बड़े होर्डिंगों और विज्ञापनों के झांसेे में आकर किसी नदी किनारे या सामूहिक रूप से पूजा करके चांदी के नाग नागिन का जोड़ा दान देवे।
 इस लेख के माध्यम से हम आम जनता को सावधान करना चाहते हैं और सलाह देना चाहते हैं कि झूठे विज्ञापनों और कुछ अपरिपक्व ज्योतिषियों की बातों में आकर इस दोष के माया जाल में नहीं फंसे। मात्र भगवत भक्ति, मात्र पितृ भक्ति, अपने सद्कर्मों के द्वारा यदि यह योग उपस्थित भी हो तो भी इससे छुटकारा पाया जा सकता है। अमूमन देखा गया है कि यदि ज्योतिषी 100 लोगों की कुण्डली में इसे बताते हैं, 100 लोगों को इससे डराते हैं, तो उनमें से मात्र दो लोगों में यह योग वास्तव में पाया जाता है। वह भी शास्त्रों के अनुसार सर्प योग या नाग योग होता है, न कि काल सर्प दोष। उन दो लोगों को भी इस दोष का दुष्परिणाम तभी मिलता है, जब कि कुण्डली में राहु या केतु की महादशा चल रही होती है और गोचर में राहु-केतु खराब स्थिति में चल रहे होते हैं। अत: इस योग से घबराने की कतई जरूरत नहीं है। यह दोष न होकर योग है, अत: मेहनत की कमाई को झूठे भ्रम एवं माया के जाल में फंसकर व्यर्थ करने की आवश्यकता नहीं है। ज्यादा तो मैं कह नहीं सकता हूं, किन्तु इतना अवश्य कहूंगा कि यदि ये राहु-केतु के काल सर्प दोष की दुकानें इसी तरह चलती रहीं तो हर चौराहे पर सभी देवी-देवताओं के मन्दिरों की जगह राहु या केतु के ही मन्दिर होंगे। हर दिन नाग पंचमी होगी, नेता से अधिकारी, और गरीब से अमीर तक अपना कर्म छोड़ कर तीन-तीन बार काल सर्प दोष की पूजा करवाने में व्यस्त होगा।
 इस लेख के माध्यम से हम यह कहना चाहते हैं कि हमारी किसी से व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं है। मात्र आम जनता को सावधान और काल सर्प योग से भयाक्रांत जनता को वास्तविकता बताने के उद्देश्य से ये लेख जनता की सेवा में उपस्थित है। फिर भी यदि इस लेख या इसके किसी भी भाग से किसी को कोई ठेस पहुंची हो तो मैं क्षमाप्रार्थी हूं।
-राकेश गोयल
ज्योतिष अनुसंधानकर्ता


ज्योतिष अनुसंघानकर्ता श्री राकेश गोयल पुत्र श्री ओम प्रकाश गोयल ने डीएलएल की शिक्षा अर्जित की है।
उनका संपर्क सूत्र:-
संस्थान-भव्य ज्योतिष विज्ञान अनुसंधान केन्द्र,
3, ब्रह्मपुरी, कचहरी रोड, अजमेर-305001
निवास-प्रेम प्रतीक, कुमार कोठी, कचहरी रोड,
अजमेर-305001
फोन नं.- 0145-2620890
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शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

वीर शिरोमणी महाराजा दाहिर


महाराजा दाहिर की जयंती पर 25 अगस्त को विशेष
पुण्य सलिला सिंध भूमि वैदिक काल से ही वीरों की भूमि रही है। वेदों की ऋचाओं की रचना इस पवित्र भूमि पर बहने वाली सिंधु नदी के किनारों पर हुई। इस पवित्र भूमि पर पौराणिक काल में कई वीरों व वीरांगनाओं को जन्म दिया है, जिनमें त्रेता युग में महाराज दशरथ की पत्नी कैकेयी सिंधु देश की पुत्री थी। द्वापर युग में महाराजा जयदरथ का नाम भी सुनहरी अक्षरों में लिखा हुआ है।
कलियुग में ईसवी शताब्दी प्रारम्भ होने के छह सौ वर्ष के बाद के इतिहास पर नजर डालते हैं तो सिंधु देश पर राजपूत वंश के राजा राय साहसी का राज्य था, जिन्होंने अपने पिता राजा राय साहरस की ईरान के राजा शाह नीमरोज के साथ युद्ध में मृत्यु के बाद 624 ई. में सिंधी कलेंडर के स्थापना की थी। राजा राय साहसी की मृत्यु लम्बी बीमारी के बाद हुई। राय साहसी का कोई उत्तराधिकारी नहीं था। अत: उन्होंने अपने प्रधानमंत्री, कश्मीरी ब्राह्मण चच को अपना राज्य सौंपा । राजदरबारियों एवं रानी सोहन्दी की इच्छा पर राजा चच ने रानी सोहन्दी से विवाह किया। राजा दाहिर चच के पुत्र थे। राजा चच ने राज्य संभालते ही सिंध के लोहाणा, गुर्जर ओर जाटों को पदच्युत करके उन्हें राज्यसभा से निलंबित कर दिया था। राजा चच की मृत्यु के बाद उनका शासन उनके भाई चन्दर ने संभाला, जो कि उनके राजकाल में प्रधानमंत्री थे। राजा चन्दर ने ब्राह्मण समाज का होने के बाद बौद्ध धर्म स्वीकार किया ओर बौद्ध धर्म को राजधर्म घोषित किया। राजा चन्दर ने सात वर्शो तक सिंध पर राज्य किया।
राज्य की बागडोर संभालते समय ही महाराजा दाहिर को कई प्रकार के विरोधों का सामना करना पड़ा। अपने पिता द्वारा पदच्युत किए गए गुर्जर, जाट और लोहाणा समाज शासन से नाराज थे तो ब्राह्मण समाज बौद्ध धर्म को राजधर्म घोषित करने के कारण नाराज थे। राजा दाहिर ने सभी समाजों को अपने साथ लेकर चलने का संकल्प लिया। महाराजा दाहिर ने सिंध का राजधर्म सनातन हिन्दू धर्म को घोषित कर ब्राह्मण समाज की नाराजगी दूर कर दूरदर्शिता का परिचय दिया। साथ ही संदेश दिया कि देश में बौद्ध मत के मानने वालों को अपने विहार व मन्दिर बनाने की पूर्ण छूट होगी। इस निर्णय से उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि वे सभी को अपने साथ लेकर चलने में विश्वास करते हैं।
सिंध का समुद्री मार्ग पूरे विश्व के साथ व्यापार करने के लिए खुला हुआ था। सिंध के व्यापारी उस काल में भी समुद्र मार्ग से व्यापार करने दूर देशों तक जाया करते थे और इराक-ईरान से आने वाले जहाज सिंध के देवल बन्दर होते हुए अन्य देशों की तरफ जाते थे। ईरानी लोगों ने सिंध की खुशहाली का अनुमान व्यापारियों की स्थिति और आने वाले माल अस्बाब से लगा लिया था। हालांकि जब कभी वे व्यापारियों से उनके देश के बारे में जानकारी लेते तो उन्हें यहीं जवाब मिलता कि पानी बहुत खारा है, जमीन पथरीली है, फल अच्छे नहीं होते ओर आदमी विश्वास योग्य नहीं है। इस कारण उनकी इच्छा देश पर आक्रमण करने की नहीं होती, किन्तु मन ही मन वे सिंध से ईष्र्या अवश्य करते थे।
महाराजा दाहिर अपना शासन राजधानी अलोर से चलाते थे और देवल बन्दरगााह पर प्रशासन की दृष्टि से अलग सूबेदार नियुक्त किया हुआ था। एक बार एक अरबी जहाज देवल बन्दरगाह पर विश्राम के लिए आकर रुका। जहाज में सवार व्यापारियों के सुरक्षा कर्मियों ने देवल के शहर पर बिना कारण हमला कर दिया और शहर से कुछ बच्चों ओर औरतों को जहाज में कैद कर लिया। जब इसका समाचार सूबेदार को मिला तो उसने अपने रक्षकों सहित जहाज पर आक्रमण कर अपहृत औरतों ओर बच्चों को बंधनमुक्त कराया। अरब जान बचा कर अपना जहाज लेकर भाग छूटे।
उन दिनों ईरान में धर्मगुरू खलीफा का शासन था। हजाज उनका मंत्री था। खलीफा के पूर्वजों ने सिंध फतह करने के मंसूबे बनाए थे, लेकिन अब तक उन्हें कोई सफलता नहीं मिली थी। अरब व्यपारी ने खलीफा के सामने उपस्थित होकर सिंध में हुई घटना को लूटपाट की घटना बताकर सहानुभूति प्राप्त करनी चाही। खलीफा स्वयं सिंध पर आक्रमण करने का बहाना ढूंढ़ रहा था। उसे ऐसे ही अवसर की तलाश थी। खलीफा ने हजाज को सिंध पर आक्रमण का आदेश दिया। हजाज धर्म गुरू के आदेश की पालना करने को मजबूर था। उसे अब्दुल्ला नामक व्यक्ति के नेतृत्व में अरबी सैनिकों का दल सिंध विजय करने के लिए रवाना किया।
जब देवल के सूबेदार ने अरब जहाज पर सवार व्यापारियों के कारनामे का समाचार महाराजा दाहिर को भेजा तो वे तुरन्त समझ गए कि इसी बहाने अरब सेना सिंध पर आक्रमण अवश्य करेगी। उन्होंने अपनी सेना को तैयार रहने का आदेश दिया। दरबार में उपस्थित राजकुमार जयशाह के नेतृत्व में सेना की एक टुकड़ी देवल बन्दरगाह पर पहुंच गई। अनुमान के मुताबिक अरबी सेना ने देवल के बन्दरगाह पर आक्रमण किया। सिंधी वीरों की सेना ने अरबी सैनिकों के युद्ध भूमि में छक्के छुड़ा दिए। अरब उलटे पांव लौटे। युद्ध में अरब सेनापति अब्दुल्ला को जान से हाथ धोना पड़ा। नेतृत्वहीन सेना को उलटे लौटने के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं था। सिंधी वीर राजकुमार जयशाह मातृभूमि की जयजयकार करता हुआ महल की ओर लौटा। रास्ते में सिंधी वीरों की आरती उतार कर स्वागत किया गया।
खलीफा अपनी हार से तिलमिला उठा और हजाज को काटो तो खून नहीं। दोनों ने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि उनकी सेना की ऐसी गति हो सकती है। खलीफ ने खुदा को याद करते हुए कहा कि क्या इस भूमि पर ऐसा कोई वीर नहीं जो महाराजा दाहिर का सिर ओर छत्र लाकर मेरे कदमों में डाल सके। हजाज के दरबार में उपस्थित दरबारियों में से एक नवयुवक मौहम्मद बिन कासिम ने इस काम का बीड़ा उठाया और खुदा को हाजिर नाजिर मान कर कसम खाई कि वह दाहिर को अवश्य परास्त करेगा। दरबार में उपस्थित एक दरबारी ने महाराज दाहिर के शरणागत गए एक अरब सरदार अलाफी की याद दिलाते हुए उससे धर्म के नाम पर मदद की मांग की। तजवीज पेश की, जिसे स्वीकार कर एक गुप्तचर सिंध देश को रवाना किया गया। दस हजार सैनिकों का एक दल ऊंट, घोड़ों के साथ सिंध पर आक्रमण करने के लिए भेजा गया। सिंध पर ईस्वी सन् 638 से 711 ई. तक के 74 वर्षों के काल में नौ खलीफाओं ने 15 बार आक्रमण किया। पन्द्रहवें आक्रमण का नेतृत्व मौहम्मद बिन कासिम ने किया। सुसज्जित और दस हजार सैनिकों की सेना के साथ हमले का समाचार जब सिंध में पहुंचा तो महाराजा दाहिर ने भी अपनी सेना को तैयार रहने का हुक्म दिया। पदच्युत किए गए गुर्जर, जाट और लोहाणों को पुन: सामाजिक अधिकार देते हुए सेना में सम्मिलित किया गया। महाराजा दाहिर की दोनों पुत्रियों राजकुमारी परमाल और सूर्यकुमारी ने सिंध के गांव-गांव में घूम कर सिंधी शूरवीरों को सेना में भर्ती होने ओर मातृभूमि की रक्षा करने के लिए सर्वस्व अर्पण करने का आह्वान किया। कई नवयुवक सेना में भर्ती किए गए।
देवल का सूबेदार बौद्धमत के ज्ञानबुद्ध को नियुक्त किया गया था। जब ज्ञानबुद्ध को अरबी आक्रमण का समाचार महाराज से मिला तो वे उदास हो गए। बौद्धमत हिंसा में विश्वास नहीं करता। धर्म उसे लडऩे की इजाजत नहीं देता और कर्तव्य युद्ध भूमि से विमुख होने की इजाजत नहीं देता। महाराज के दूत को वह युद्ध की तैयारी से मना नहीं कर सकता था। उसे एक युक्ति सूझी। उसने धर्म गुरू का सहारा लिया, जिनसे वार्ता कर युद्ध नहीं करने के निर्णय के तर्क को सुसंगत बनाने का प्रयास किया। किन्तु सन्यासी सागरदत ने उपदेश देते हुए कहा कि बौद्धमत मैत्री, करुणा का उपासक है, जिन कर्मों से मैत्री नष्ट हो, करुणा के स्थान पर अत्याचार घर कर ले, उन्हें कभी भी ठीक नहीं समझा जा सकता। भगवान बुद्ध ने विश्व बन्धुत्व का सन्देश दिया है। अरबियों ने मकरान प्रदेश में बौद्ध मठों का नाश कर दिया है। इसलिए वे यहां आकर भी ऐसा ही विनाश करने वाले हैं, उनके राज्य में हम भी सुरक्षित नहीं रहेंगे। अत: सुख और शान्ति के लिए महाराजा दाहिर का साथ देना ही श्रेयस्कर है। किन्तु ज्ञानबुद्ध की बुद्धि मंद पड़ गई थी और उसने अपने मंत्री मोक्षवासव से समझौता करके खलीफा से सिंध के देवल और अलोर की राजगद्दी के बदले में उन्हें सहायता देने के सन्देश भेजा। शत्रु के खेमे में विश्वासघाती से अरब सरदार फूले नहीं समाए और हजाज ने सकारात्मक संदेश ज्ञानबुद्ध के पास भेजा।
अरब सेना देवल के निकट आने का समाचार मिलते ही, महाराज दाहिर ने अपनी सेना को सुसज्जित होकर कूच करने का आदेश दिया। सिंधी वीरों ने राजकुमार जयशाह के नेतृत्व में युद्धभूमि की ओर प्रस्थान किया। सिंधु देश की जय, महाराज दाहिर की जय, राजकुमार जयशाह की जय के नारे बुलन्द करते हुए सिंधी वीर देवल के तट पर आ पहुंचे। सिंधी वीरों को अपने शौर्य का प्रदर्शन करने के लिए अधिक समय तक इन्तजार नहीं करना पड़ा। अरबी सेना देवल के किले के बाहर ही डेरा डाले हुए थी। दोनों सेनानायक आक्रमण करने के लिए तैयार थे। रणभेरी के बजते ही दोनों ओर से आक्रमण प्रारम्भ हो गया। एक-एक सिंधी वीर दो-दो अरबों पर भारी पडऩे लगा। सूर्यास्त तक अरबी सेना हार के कगार पर खड़ी थी। सूर्यास्त के समय युद्ध विराम हुआ। दोनों सेनाऐं अपने-अपने शिविरों को लौट गई। रात्रि विश्राम का समय था। रात्रि के काले अंधेरे में ज्ञानबुद्ध और मोक्षवासव ने मानवता के मुख पर कालिख पोतने का काम कर दिया और देवल किले के पीछे के द्वार से पूर्व योजना अनुसार अरब सैनिकों का प्रवेश करा सिंधी वीरों पर आक्रमण करा दिया। सिंधी वीर बिस्तर छोड़ शस्त्र संभाले तब तक काफी देर हो चुकी थी। देवल पर दुश्मनों का कब्जा हो गया। राजकुमार जयशाह घायल हो गए। उन्हें मजबूरन देवल का किला छोड़ जंगलों की ओर जाना पड़ा।
अलोर मेें बैठे महाराज दाहिर को जब देवल पर दुश्मनों के कब्जे का समाचार मिला तो अलोर के किले की जिम्मेदारी रानी लाडीबाई के कंधों पर डालकर तुरन्त अपनी सेना को तैयार कर युद्ध भूमि की ओर प्रस्थान किया। अपने महाराज को युद्धभूमि में पाकर सिंधी वीरों में नई उर्जा संचारित हुई। युद्ध के मैदान में हा-हाकार मच गया। अरबी सैनिकों के पांव उखडऩे लगे, वे पीछे हटे तो उन्हीं के साथियों ने उन पर हमला बोल दिया। विश्वासघातियों ने यहां भी घात लगाई और पहले ही से बिछाए विस्फोटक में आग लगा दी। रणभूमि में उपस्थित हाथी, घोड़े, ऊंठ बिदक गए। महाराज दाहिर जिस हाथी पर सवार थे, उसके होदे में आग लग गई। हाथी चिंघाड़ता हुआ दौडऩे लगा, जिसे महावत ने सिंधु नदी की ओर मोड़ दिया। नदी के तट पर पहुंचते ही हाथी पानी में कूद पड़ा। महाराज दाहिर ने अपने शस्त्र संभाले और पानी में छलांग दी। महाराज जब तक संभलते तब तक तट को अरब सैनिकों ने घेर लिया और तीरों ओर भालों की वर्षा कर महाराज का शरीर छलनी कर दिया। एक वीर योद्धा ने मातृभूमि की रक्षा में अपने प्राण न्यौछावर कर दिए।
महाराज की वीर गति और अरबी सेना के अलोर की ओर बढऩे के समाचार से रानी लाडी सावचेत हो गई। सिंधी वीरांगनाओं ने अरबी सेनाओं का स्वागत अलोर में तीरों ओर भालों की वर्षा के साथ किया। कई वीरांगनाओं ने अपने प्राण मातृभूमि की रक्षार्थ दे दिए। जब अरबी सेना के सामने सिंधी वीरांगनाएं टिक नहीं पाई तो उन्होंने अपने सतीत्व की रक्षा के लिए जौहर किया।
दोनों राजकुमारियां युद्ध क्षेत्र में दोनों ओर के घायल सैनिकों की सेवा में लगी हुई थी, तभी उन्हें दुश्मनों ने पकड़ कर कैद कर लिया। सेनानायक मोहम्मद बिन कासिम ने अपनी जीत की खुशी में दोनों राज कन्याओं को भेंट के रूप में खलीफा के पास भेज दिया। खलीफा दोनों राजकुमारियों की खूबसूरती पर मोहित हो गया और दोनों कन्याओं को अपने जनानखाने में शामिल करने का हुक्म दिया। राजकुमारियों के दिल में बदले की ज्वाला पहले ही धधक रही थी। खलीफा के इस आदेश ने आग में घी का काम किया। राजकुमारी परमाल ने रोते हुए शिकायत की कि हुजूर आपके पास भेजने से पहले आपके सेना नायक ने हमारा शील भंग किया है। यह सुनते ही खलीफा आग बबूला हो गया। खलीफे ने सेनानायक मौहम्मद बिन कासिम को चमड़े के बोरे में कैद कर मांगवाने का आदेश दे दिया।
खलीफा का आदेश लेकर सेना की टुकड़ी सिंध रवाना हुई। अरब सैनिक देवल और अलोर को कब्जे में करने के बाद उत्तर की तरफ  बढ़ रहे थे। खलीफा के आदेश ने उनके कदम रोक दिए। मौहम्मद बिन कासिम को चमड़े के बोरे में कैद कर खलीफ के सामने पेश किया गया। हजाज ने मौहम्मद बिन कासिम को कैद करके लाए गए सैनिकों से खलीफा के आदेश पर सेनापति के व्यवहार की दास्तान सुनाने का आदेश दिया । सैनिकों ने बताया कि हुजूर सेनानायक ने घुटने टेक कर हुक्म पर अपना सिर झुका दिया। हमने उनके हाथ पैर और मुह बांध कर बोरे में बन्द कर दिया। रास्ते में ही कहीं इसने अपने प्राण छोड़ दिए। यह वाक्य सुनते ही खलीफा दंग रह गया। उसने गुस्से में दोनों राजकुमारियों से सच बोलने का आदेश दिया। प्रसन्न मुद्रा में खड़ी राजकुमारी सूर्य और परमाल ने कहा कि हमने अपने देश पर आक्रमण करने वाले और हमारे माता-पिता और देशवासियों के कातिल से अपना बदला ले लिया। खलीफा ने दोनों राजकुमारियों का कत्ल करने का आदेश दिया। जब तक अरब सैनिक उन तक पहुंचते, अपने कपड़ों में छुपाए खंजर को निकाला और दोनों बहिनों ने एक दूसरे के पेट में घोंप कर आत्म बलिदान दिया। एक परिवार की अपनी मातृभूमि पर बलिदान की यह गाथा इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है। ऐसे बलिदानों से प्रेरित होकर ही सिंधी लेखक ने यह पंक्तियां लिखी हैं-
हीउ मुहिजो वतन मुहिजो वतन मुहिजो वतन,
माखीअ खां मिठिड़ो, मिसरीअ खां मिठिड़ो,
संसार जे सभिनी देशनि खां सुठेरो।
कुर्बान तंहि वतन तां कयां पहिंजो तन बदन,
हीउ मुंहिजो वतन मुहिजों वतन मुहिजो वतन।


-सुरेश बबलाणी,
प्रेम प्रकाश कुंज,
ए-239,पंचषील नगर,
अजमेर
9414314572
suresh_bablani@yahoo.com

(सुरेश बबलाणी जाने माने सिंधी साहित्यकार हैं-संपादक)

बुधवार, 4 जुलाई 2012

कहीं रेन फिक्सिंग तो नहीं हो गई है?


खबर है कि मानसून इस बार फिर बेईमानी पर उतर आया है. भगवान जाने इस खुफिया सूचना में कितना दम है? लोगों का कयास है कि इस देश में पहले ही तरह तरह की फिक्सिंग चल रही हैं, इसी कडी में रेन फिक्सिंग भी हो गई होगी? कुछ दिनों पूर्व आपने उत्तरप्रदेश के कन्नोज में लोकसभा के लिए हुई चुनाव फिक्सिंग की चर्चा सुनी होगी। वहां के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की पत्नी और समाजवादी पार्टी की उम्मीदवार डिंपल यादव के विरुद्ध कांग्रेस ने तो बाकायदा वाक ओवर दिया ही, उनकी धुर विरोधी कहाने वाली मायावती भी अज्ञात कारणों से नदारद हो गई। इतना ही नहीं अपने आपको विरोधी दल का दावा करने वाली बीजेपी भी बड़े नाटकीय ढंग से चुनाव से भाग खड़ी हुई और जनता ठगी की ठगी रह गई। वैसे ऐसी घटना सन 2009 के लोकसभा चुनाव में मध्यप्रदेश के विदिशा में घटित हो चुकी है, जहां बीजेपी प्रत्याशी सुषमा स्वराज के विरुद्ध कांग्रेस के प्रत्याशी ने बड़े रहस्यमयी तरीके से ऐन वक्त पर अपना नाम वापस ले लिया।
इसी श्रंखला में अब चर्चा है कि मानसून ने इस बार कहीं रेन फिक्सिंग तो नहीं कर ली है। इस बारे में और अधिक जानकारी सीबीआई की जांच से ही पता लगेगी, अगरचे वह वर्षा बोर्ड, जिसके अध्यक्ष इन्द्र और सचिव वरुण देवता हैं, से इस बारे में पूछताछ करें। कहा तो यहां तक जा रहा है कि स्वयं इन दोनों देवताओं को ही पता नही हैं कि इस वर्ष मानसून का आगमन कब और कहां-कहां होगा। तभी तो इनके नुमाइन्दे-मौसम विभाग वाले कभी कुछ कहते है, कभी कुछ कहते हैं। कई बार तो इनकी भविष्यवाणियों से उलट बात घटित होती है। ऐसा लगता है कि वर्षा बोर्ड और मौसम विभाग में ही आपस में पटती नहीं है। विशेषज्ञों का ख्याल है कि जिस तरह बालीबुड की नूपुर मेहता को बुला कर क्रिकेट में स्पॉट फिक्सिंग की जांच का नाटक किया गया, वैसे ही इन्द्र के दरबार की अपसराओं-मेनका, रम्भा और उर्वषी इत्यादि- को बुला कर जांच नहीं तो कम से कम जांच का नाटक तो किया जाए। कुछ को तिहाड़ जेल भिजवाया जाए। भले ही वह बाद में एक एक करके सब छूट जाएं। जनता का क्या, वह तो थोड़े दिन बाद जैसे टूजी स्पैक्ट्रम, कामन वैल्थ गेम्स, आदर्श सोसाइटी आदि घोटालों को भूल रही है, यह भी भूल जायगी।
इ. शिव शंकर गोयल 
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पचास से अधिक जिलों में फैली है डायन प्रथा

भारत में कानून की हुकुमत और सामाजिक चेतना के बावजूद डायन प्रथा और उसके हिमायती हार मानने को तैयार नहीं है. राष्ट्रीय महिला आयोग के मुताबिक भारत में विभिन्न प्रदेशों के पचास से अधिक जिलों में डायन प्रथा सबसे ज्यादा फैली है. इन जिलों में ऐसी औरतों की सूची लंबी है जो डायन करार दे दी गई और जुल्मों का निशाना बनी. ये सिलसिला अब भी जारी है. भारत के गांव-देहातों और छोटे कस्बों में अब भी कोई ओझा, भोपा और तांत्रिक किसी सामान्य औरत को कभी भी डायन घोषित कर रहा है. औरत की विडम्बना ये है कि इसमें उसके अपने घर परिवार और रिश्तेदार भी शामिल हो जाते है.
दर-दर की ठोंकरे
राजस्थान में टोंक जिले की कमला मीना तीन बच्चो की माँ है. पति ने ताउम्र साथ निभाने का वादा किया था.मगर एक दिन उसने कमला को डायन करार दे दिया और दूसरी शादी कर ली. कमला ने जब अपना दर्द बयान किया,गला भर आया. कुछ आंसू दामन पर गिरे,कुछ भीतर दिल के दालान पर. कमला ने कहा, � दस साल हो गए मुझे दर-दर की ठोकरें खाते हुए. पति बदला तो पीहर भी बदल गया. जिसके भी दरवाजे पर दस्तक दी, खाली हाथ लौटा दी गई. कसबे में कोई मकान तक किराये पर नहीं देता. जैसे ही पता चलता है ,मुझे मकान खली करने के लिए कह दिया जाता है�. कमला बताती है कैसे उसे आधी रात को घर से निकाल कर मारा पीटा गया, उसने अपने जिस्म पर उभरे कुल्हाड़ी की मार के जख्म के निशान भी दिखाए. कमला कहती है, �मेरी जान खतरे में है, न उसे पुलिस ने न्याय मिला न किसी इंसाफ के मंदिर से.�. इन औरतों के लिए कोई खाप पंचायत खड़ी नहीं होती.कोई रहनुमा भी मदद नहीं करता.
पति मरा,जिंदगी खत्म
हिमाचल प्रदेश की निर्मल चंदेल को उस वक्त सहारे की दरकार थी जब अकस्मात पति का निधन हो गया. इसके बाद जमाना बेदर्द निकला. निर्मल बताती हैं, � उस समय मेरी उम्र चौबीस साल थी, तब भी लोगों ने कहा इसने ही ऐसे कर्म किये जिससे पति की मौत हो गई. मुझे ही इसके लिए जिम्मेदार बताया गया.� निर्मल अब ऐसी ही प्रताड़ित औरतों के लिए काम करती है. वह बताती हैं, �जब मेरे भाई की शादी होने लगी तो सब लोगों ने कहा इसे दूर रखना ,मगर मेरे भाई ने इसे नहीं माना. दिक्कत ये है कि बाकि लोग इस तरह सामने नहीं आते जैसे मेरे भाई खड़े हुए.�
ओझा अपराधी
महाराष्ट्र में सामाजिक कार्यकरता विनायक तावडे़ और उनका संगठन कई सालों से डायन प्रथा के विरुद्ध अभियान चला रहे है. तावडे़ के मुताबिक आदिवासी इलाकों में ये प्रथा एक बड़ी समस्या बनी हुई है.वह बताते हैं कि कैसे एक ओझा गाव में एक महिला को डायन करार देने का उपक्रम करता है. तावड़े उदहारण देते हैं, �जैसे गांव में कोई बीमार हो गया,तो कुछ लोग जवार के दाने बीमार के ऊपर सात बार घुमाकर ओझा के पास ले जाते है. ओझा एक दाना इस तरफ, एक उस तरफ रख कर मन्त्र बोलना शुरू करेगा,कहेगा हाँ, .उसे डायन ने खाया है. उस डायन का घर नाले के पास है, उसमे पेड़ है, इतने जानवर है.आम के पेड़ है, महू का पेड़ है ,इतने बच्चे है, � वह आगे बताते हैं, �इनमे जो बातें अनुमान से किसी पर लागु हो जाऐ, उस औरत को डायन करार दिया जाएगा. हमने ऐसे ही एक ओझा को गिरफतार करवाया है. � राष्ट्रीय महिला आयोग की सदस्य निर्मला सावंत प्रभावलकर ने स्वीकार किया, � देश के पचास से साठ के बीच ऐसे जिले है जहाँ इस कुप्रथा का बड़ा जोर है. कही महिला को डायन, कही डाकन, तेनी या टोनी, पनव्ती ,मनहूस और ऐसे ही नामों से लांछित कर उसे बहिस्कृत किया जाता है� प्रभावलकर के अनुसार ये समस्या शिक्षित वर्ग में भी है. जब कोई महिला राजनीती में आती है तो लोग कहने लगेगे ये जहां भी हाथ लगाएगी, नुकसान हो जायेगा. आप चुनाव हार जायेगे, ऐसा कह कर लांछित किया जाता है. पीड़ित महिलाओं में ज्यादातर दलित, आदिवासी या पिछड़ा वर्ग से है. सामाजिक कार्यकर्ता तारा अहलुवालिया ने राजस्थान में आदिवासी बहुल इलाकों में ऐसी पीड़ित महिलाओं की मदद की है. वह बताती है, �कोई 36 ऐसे मामले मेरे पास है जिनमें औरत को डायन घोषित कर दिया गया. मगर पुलिस ने कोई मदद नहीं की. फिर बताये कैसे इस कुप्रथा पर लगाम लगेगी. इन पीड़ित औरतों में कई इस कद्र टूट चुकी हैं कि जीने की ललक कम होने लगी है. �
डायन विरोधी कानून जरूरी
अहलुवालिया ने कहा, � ये समय है जब डायन विरोधी कानून बनना चाहिए. अकेले भीलवाड़ा जिले में ही कोई ग्यारह स्थान ऐसे है जो औरत के शरीर से डायन निकालने के लिए जाने जाते है. वहां हर सप्ताह भीड़ लगती है. इन औरतों के साथ हर तरह की हिंसा होती है�. दक्षिण राजस्थान की सुन्दर बाई विधवा है. उन्हें उनके भतीजे ने ही डायन घोषित कर दिया. सुन्दर बाई बताती हैं, � पहले मुझे डायन करार दिया,फिर एक दिन मृत घोषित कर पेंशन बंद करा दी. क्योंकि वो मेरी सम्पति हड़पना चाहता है. पेंशन वापस शुरू हो गई है.मगर अब भी मैं डरी हुई हूँ.�
लेखक श्री नारायण बारेठ राजस्थान के जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार हैं और लंबे समय से बीबीसी से जुड़े हैं

मंगलवार, 3 जुलाई 2012

धरती पकड़ नहीं, इस बार आसमान पकड!

चुनाव के इस मौके पर आज फिर रह रहकर धरती पकड की याद आ रही है और क्यों न आए? उन्होंने ही हर चुनाव को रोचक बनाया था। उन्हें चुनाव में खड़ा होने का शौक था और हर बार जब भी मौका मिलता वह चुनाव दंगल में कूद जाते। उस समय अधिक से अधिक एक फार्म ही तो भरना होता था, परन्तु बाद में सरकार ने राष्ट्रपति चुनाव के लिए संविधान में संशोधन कर फार्म के साथ 50 प्रस्तावक-एमपी अथवा एमएलए- एवं 50 समर्थक वोटर आवश्यक कर दिए तो वहां उनका स्कोप खत्म हो गया। वह रह रहकर उस घड़ी को कोसते रहते थे। इधर देश भी उनकी सेवाओं से वंचित रह गया।
उनका नाम धरती पकड़ कैसे पड़ा यह एक खोज का विषय है। कुछ लोगों का अनुमान है कि चूंकि वह हर चुनाव में खड़े हो जाते थे और फिर नतीजे में धरती पकड़ लेते थे, इसलिए कालांतर में वह धरती पकड़ कहलाए, जबकि कुछ अन्य लोगों का कयास है कि नाम तो इनका शुरू से ही धरती पकड़ था लेकिन चुनाव में यह आसमान पकडऩा चाहते थे, लेकिन हर बार चित्त होकर वापस धरती पकड़ लेते थे इसलिए धरती पकड़ के नाम से मशहूर हो गए।
वैसे चुनावों में तरह तरह की हस्तियां मैदान में आ चुकी हैं। एक बार एक ऐसे सज्जन आए जो किसी न किसी तरह मीडिया की चर्चा में रहना चाहते थे। यह उनका शौक था और आप जानो शौक में आदमी क्या नहीं करता?
एक हस्ती ऐसी भी उम्मीदवार बनती रही है, जिन्होंने साहित्य में घुसपैठ की है और ऐसा उन्होंने किया है एक किताब लिख कर, जिसका शीर्षक है हाउ टू क्रियेट प्रोब्लम यानि समस्याएं कैसे पैदा या खड़ी की जाएं? इस विधा में उन्हें बडा मजा आता है। ऐसा करके वह न केवल अपनी पार्टी के लिए बल्कि स्वयं अपने और अपने परिवार के लिए भी जब तब समस्याएं खड़ी करते रहते हैं, मजा जो आता है!
उम्मीदवारों की लिस्ट लम्बी है। कोई कहां तक गिनवाएं? एक सज्जन यशपाल की एक कहानी के उस पात्र की तरह थे, जो अखबारों में अपना नाम छपवाने की गरज से एक बार एक सड़क पर जानबूझ कर एक वाहन से टकरा गए ताकि दूसरे रोज उनका नाम छप जाए, लेकिन मीडिया वाले भी अजब गजब हैं। नगर संवाददाता ने इस घटना पर सिर्फ यह लिख दिया कि कल दिन में एक अनजान व्यक्ति आगरा गेट के बाहर एक वाहन से टकरा गया। उसे अस्पताल में भरती कराया गया है। इधर अस्पताल में शैया पर पड़े पड़े यह खबर पढ़ते हुए उन्हें अपनी चोट का दुख कम और यह दुख ज्यादा सता रहा था कि हाय! हाथ-पांव भी तुड़वाये और नाम भी नहीं छपा। इससे तो धरती पकड़ ही अच्छा रहा, कम से कम नाम तो छपता था।
एक बार एक उम्मीदवार अपने शहर की नगर परिषद के चुनाव में अपने वार्ड से खड़े हो गए। जितना जोर लगाना था लगा दिया और जब चुनाव का नतीजा आया तो पता लगा कि इन्हें सिर्फ एक वोट मिला है। खैर, चुनाव तो हो गए लेकिन फिर उनके घर-बाहर चर्चा शुरू हो गई। मियां बीबी ही क्या आस-पास वाले सब शक करने लगे कि सिर्फ एक ही वोट कैसे? कम से कम दो वोट तो होने ही चाहिए, या तो मियां ने स्वयं को ही वोट नहीं दिया या बीबी ने नहीं दिया। लोग बाग महीनों इसकी खोजबीन में लगे रहे लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला।
इ. शिव शंकर गोयल
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रविवार, 1 जुलाई 2012

'स्वांग' के वजूद पर है गहरा संकट

नारायण बारेठ
उत्तर भारत के अनेक भागों में सांस्कृतिक बदलाव और दबाव के बीच एक लोक कला स्वांग अपने वजूद के लिए संघर्ष कर रही है. उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान में स्वांग एक सदियों पुरानी परंपरा है. रियासत काल में इसके कलाकार राजा - महाराजाओं और पौराणिक पात्रो के किरदार का स्वांग रचते, लोगों का मनोरंजन करते और इसके साथ अच्छाई का संदेश देते.
हरियाणा में तो अब भी स्वांग देहात-कस्बो में मंचित होता है और कलाकार सियासी सभा महफिलों और मेलों में रौनक बिखेरते है. मगर दूसरे हिस्सों में इसका दायरा सिमट रहा है.
स्वांग के मंचों पर सिनेमा जैसी भव्यता नहीं होती, लेकिन जब स्वांग के कलाकार अपनी विधा का प्रदर्शन करते है तो लोग उसे तल्लीनता से देखते, सुनते है. स्वांग के कलाकार खुद को 'सांगी' कहते है. वे स्वांग करते है और गांव कस्बो की थकी-हारी जिन्दगी का दिल बहलाते है. सुरेन्द्र कुमार करनाल में एक नाट्य संस्था का संचालन करते है और वो स्वांग के आयोजन से जुड़े हैं. वे कहते हैं, ये एक पारंपरिक लोक कला है.
राजा-महाराजाओं के दरबार में भी स्वांग किया जाता था. ये सिलसिला सैंकड़ो साल पुराना है, उस दौर में पुरानी गाथाओं को नाट्य विधा के जरिये मंचित किया जाता था. ये काम अब भी जारी है.
हाँ, अब हम अपनी लोक कला की इस संस्कृति को भूलते जा रहे है. हम इसे बनाये रखे हुए है. हम इसमें किसी ऐतिहासिक पात्र का रूप धारण करते है. पात्र आज के दौर के भी होते है. इसे हम अपनी कला के माध्यम से जनता के सामने प्रस्तुत करते है. ये कलाकार समाज में चर्चित किसी हस्ती का रूप धारण करते है, उसी चरित्र के अनुसार अभिनय करते है, कभी किसी देवता तो कभी किसी नेता के रूप का श्रृंगार कर अपनी बात कहते है. वो संवाद बोलते है तो साथी कलाकार वाद्य यंत्रो पर संगीत की धुन छेड़ कर माहौल को जीवंत बनाए रखते है. ना रौशनी का चकाचौंध, ना पूंजी का प्रवाह, ना ऊँचे मंचो और महलो के लोग. इस विधा के कलाकार और कद्रदान समाज के उस हिस्से से आते है जहा जीवन का संघर्ष तो है, मगर स्वांग उतना नहीं.
क्या स्वांग पुरानी 'बहरूपिए' लोक कला जैसा ही है? सोनीपत के स्वांग कलाकार इंद्र सिंह कहते है 'स्वांग और बहरूपिए में बहुत फर्क है. बहरूपिये का कलाकार छोटा सा अभिनय कर पैसा मांग लेता है. सांगी ऐसे पैसे नहीं मांगता. इंद्र सिंह कहते है, �ये सिनेमा और टीवी तो अभी आए है. ये तो पृथ्वीराज चौहान के दौर में भी थी. ये हमारे पुरखो की कला है. हम इसे लोगों को बताना चाहते है. हम दिल से जुड़े है इस कला से. पर अब हमको दुःख होता है, हमारी पहले जैसी कद्र नहीं है. हम अपनी कद्र बढ़ाना चाहते है. हम इसके जरिये सत्य का प्रचार करते है जैसे राजा हरिश्चंद्र सत्यवादी थे, हम उनके किरदार को लोगो के सामने पेश करते है.�
समय के साथ जिदंगी में स्वांग तो बढ़ा मगर इन कलाकारों को वैसा प्रोत्साहन नहीं मिला. स्वांग कलाकार प्रेमलाल तीस साल से स्वांग कर रहे है. वे कहते है कि ये तो इंद्र की कचहरी में भी होता था. उन्होंने कहा, �मैं मदरना रोल करता हूँ, नृत्य करता हूं, हार्मोनियम बजाता हूं. अब इससे बमुशिकल गुजारा होता है, लेकिन इससे लगाव है. जैसे मैं गाता हूँ हरियाणा की कहानी सुन लो दो सौ साल की, नए किस्म की हवा चाल पड़ी नए चाल की. तो ये स्वांग तो चलता ही रहेगा.�
यूपी में मुज्जफरनगर के संजय खुद स्वांग के सिध्हस्त कलाकार है. वे कहते है स्वांग आज के सिनेमा और टी वी धारावाहिकों से बेहतर है.इसे पुरे परिवार के साथ आप देख सकते है.वे कहते है -पहले का दौर कुछ और था.जब शरम हया थी,छोटे बड़े की कद्र थी. आज ऐसी फिल्मे है जो घर परिवार में नहीं देख सकते .लेकिन स्वांग की कहानी ऐसी होती है माँ,पिता,बहिन ,भाई ,बच्चे सब एक साथ देख सकते है. टी वी और सिनेमा में बहुत कुछ बनावटी है. मगर हमारी कला में ऐसा नहीं है. लोग देखते और दिल से तारीफ करते है.
भारत में प्रजातंत्र परवान चढ़ा, राजनीति बलवान हुई. लेकिन इसके साथ ही स्वांग और नौटंकी जैसी लोक कलाओ की कद्र घट गई. गोया अब जीवंत स्वांग तो सियासी मंचो का चहेता हो गया, ऐसे में कोई अभिनीत स्वांग क्यों देखे. ये ही इन कलाकारों की पीड़ा है.

लेखक श्री नारायण बारेठ राजस्थान के जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार हैं और लंबे समय से बीबीसी से जुड़े हैं

शनिवार, 30 जून 2012

अल्पसंख्यक आरक्षण: कोटे की नीयत पर सवाल?

उत्तरप्रदेश समेत पाँच विधानसभा चुनावों के दौरान केंद्र सरकार ने जब केंद्रीय शिक्षण संस्थाओं के प्रवेश के लिए निर्धारित पिछड़ा वर्ग के आरक्षण में ही मुस्लिम छात्रों को साढ़े चार फीसदी आरक्षण देने का ऐलान किया था तो इसमें कम से कम राजनीतिक दलों को राजनीति ही नजर आई थी। संविधान मजहब-आस्था के आधार पर किसी भी किस्म के आरक्षण का निषेध करता है, लेकिन केंद्रीय सत्ता ने ठीक ऐसा ही किया और अल्पसंख्यक तबकों विशेष रूप से मुस्लिम समुदाय को आकर्षित करने के लिए उसने आनन-फानन आधिकारिक ज्ञापन के जरिये साढ़े चार फीसद आरक्षण की घोषणा कर दी। यह घोषणा तब की गई जब निर्वाचन आयोग चुनाव कार्यक्रम घोषित करने की तैयारी कर रहा था। सर्वोच्च न्यायालय ने जिस तरह यह कहा कि अल्पसंख्यक आरक्षण के लिए जिस आधिकारिक ज्ञापन का सहारा लिया गया उसका कोई संवैधानिक या वैधानिक आधार ही नहीं है उससे यह स्वत: सिद्ध हो जाता है कि केंद्रीय सत्ता अपने इस फैसले के जरिये वोटों की फसल काटना चाहती थी। हालांकि उसके फैसले का विरोध हर स्तर पर हुआ, लेकिन उसने यह तर्क दिया कि उसने इस तरह के आरक्षण का वायदा 2009 के अपने चुनाव घोषणा पत्र में किया था। वह अभी तक यह स्पष्ट नहीं कर सकी है कि उसने अपने चुनावी वायदे को पूरा करने में तीन साल की देर क्यों की ? उसके पास इस सवाल का भी जवाब नहीं कि क्या चुनावी घोषणा पत्र में दर्ज बातों को वैधानिक दर्जा हासिल हो जाता है ? यदि चुनावी घोषणा पत्र इस तरह संवैधानिक प्रावधानों को नकारने लगेंगे तो फिर जिसके जो मन आएगा वही करेगा। सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से यह सही सवाल पूछा है कि क्या वह आस्था के आधार पर आरक्षण दे सकती है ? उसे इस सवाल का जवाब न केवल न्यायपालिका, बल्कि देश की जनता को भी देना होगा। इसके साथ ही केंद्रीय सत्ता के नीति-नियंताओं को इस पर चिंतन-मनन भी करना होगा कि नीतिगत मामलों में उन्हें बार-बार मुंह की क्यों खानी पड़ रही है ? यह आश्चर्यजनक है कि सर्वोच्च न्यायालय से राहत न मिलने के बावजूद सरकार अभी भी यह मानने के लिए राजी नहीं कि उससे कहीं कोई भूल हुई है अथवा यह काम इस तरह से नहीं किया जाना चाहिए था। उसके इस रवैये का नतीजा यह है कि अल्पसंख्यक समुदाय खुद को छला हुआ महसूस कर रहा है। सबसे बड़ी समस्या उन छात्रों के समक्ष है जिन्होंने अल्पसंख्यक आरक्षण के जरिये आइआइटी प्रवेश परीक्षा में स्थान हासिल कर लिया है। सर्वोच्च न्यायालय चाहकर भी इन छात्रों को राहत नहीं दे सकता। सरकार को न केवल इन छात्रों, बल्कि अल्पसंख्यकों की मायूसी को दूर करने के लिए ऐसे उपायों पर काम करना चाहिए जो संविधान सम्मत हों। इस संदर्भ में यह नजरिया सही नहीं कि संविधान संशोधन का सहारा लिया जाना चाहिए। ऐसा करना एक और भूल होगी। इसे पहले आंध्रप्रदेश हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया और जब इसके खिलाफ केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट गई तो उसने भी हाईकोर्ट के फैसले को ही फिलहाल जायज ठहराया है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपनी मर्यादाओं में रहते हुए केंद्र सरकार से मुख्यतः तीन सवाल पूछे हैं। पहला ये कि 27 फीसद ओबीसी कोटे में से किस आधार पर उपकोटा निर्धारित किया गया दूसरा इसके लिए पिछड़ा वर्ग आयोग से कोई सलाह की गई और तीसरा कि क्या इसके लिए कोई अध्ययन कराया गया। तीनों ही सवालों का जवाब केंद्र सरकार के पास नहीं है। विपक्षी दलों खासकर बीजेपी और शिवसेना का आरोप है कि कोटा में कोटा देने का फैसला दरअसल संविधान की उस भावना के विपरीत है जिसमें धार्मिक आधार पर आरक्षण देने का विरोध किया गया है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट में दिए तर्क में सरकार ने कहा है कि उसने अपने आदेश में अल्पसंख्यक शब्द का इस्तेमाल किया है जिसका अर्थ सिर्फ मुस्लिम नहीं होता है। सुप्रीम कोर्ट के इन सवालों ने केंद्र सरकार के लिए कोई मौका नहीं छोड़ा है। आरक्षण के जरिए वंचित और कमजोर तबके को मुख्यधारा में लाने और अधिकार संपन्न बनाने में मदद मिली है लेकिन यह भी उतना ही सच है कि इस हथियार का इस्तेमाल दलों ने अपने राजनीतिक हित साधने के लिए किया है। सुप्रीम कोर्ट के इन सवालों ने भी राजनीतिक दलों के वोट लुभाने वाले खेल को ना सिर्फ उजागर किया है बल्कि उसका दस्तावेजीकरण भी कर दिया है। सवाल यह है कि क्या सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद भी अल्पसंख्यकों के वोट बैंक की राजनीति करने वाले दल फिर ऐसा कदम उठाने से बाज आएँगे। अतीत के अनुभव तो इस सवाल का जवाब ना में ही देते हैं। शाहबानो प्रकरण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए संवैधानिक संशोधन ही ला दिया गया था। समाज के कमजोर और वंचित तबके को आगे बढ़ने का मौका मुहैया कराना सरकारों का दायित्व है। लेकिन इसके लिए देखना होगा कि ऐसा करते वक्त दूसरे के हक न मारे जाएँ लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा होता नजर नहीं आ रहा।
Muzaffar Bharti
Cell:no 8764355800

शुक्रवार, 29 जून 2012

अल्पसंख्यक का दर्जा देने से मुसलमान को क्या मिला?

इस देश में सरकारी आंकड़ों के हिसाब से 17 से 20 करोड़ मुस्लमान हैं। इनमें से एक भी यदि ये बता दे की इस अल्पसंख्यक शब्द का उसे या किसी और को कुछ लाभ आज तक मिला हो, मैं नहीं समझता की किसी को भी कोई लाभ आज दिन तक मिला हो, फिर क्या विड़म्बना है, क्यों हमें अलग थलग करने की सजिश रची गयी है? क्या हमें किसी तरह का शिक्षा या नौकरी या अन्य कोई लाभ आजादी से आज तक मिला, नहीं तो फिर क्या मतलब है हमारी इतनी बड़ी आबादी को देश के दुसरे लोगो से दूर रखने का।
दोस्तों ये सारा षडयंत्र है। हमें सब से काटे रखने का। जब किसी तरह का कोई अलग से प्रावधान नहीं तो क्यों कांग्रेस ने ये अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक में हमे विभाजित करने की सजिश रची। मैं पूर्व संघ प्रमुख के इस बयान से पूर्णतया सहमत हूं की मुस्लमान इस देश में जब बहुसंख्यक है तो उसे अल्पसंख्यक क्यों कहा जाये और पूरे देश में अलग-थलग क्यों किया जाये। आखिर हम सब कुछ तो बहुसंख्यकों की तरह ही कर रहे हैं, फिर ये दागीला टीका किस लिए? मित्रों, इस देश में सरकार ने केंद्र हो या राज्य, सभी में अल्पसंख्यक आयोग बना रखे हैं, लेकिन उनका काम और उनको अधिकार के नाम पर कुछ भी नहीं है। राजस्थान अल्पसंख्यक आयोग का वार्षिक बजट सिर्फ 15 - 20 लाख रुपए है, जो सिर्फ अधिकारी और कर्मचारियों की तनख्वाह में चला जाता है, वे विकास की मोनिटिरिंग और सलाह क्या देंगे? क्यों कि उसके लिए राज्यभर में आयोग की गतिविधियां होना आवयशक है, परन्तु सरकार का बजट ही नहीं है। ये है सरकार की चिंता अल्पसंख्यकों के प्रति। मित्रों मैं ये बात इस विश्वास से यूं कह रहा हूं क्यों की पिछली सरकार में, में स्वयं राजस्थान अल्पसंख्यक आयोग में बतोर सदस्य कार्य कर चुका हूं और पूरे राज्य में हमने जनसुनवाई की और लोगों की परेशानियों को मुख्यमंत्री तक पहुंचाया। वो तो मुख्यमंत्री महोदय संवेदनशील थीं, जो हमारी भावनाओं को समझ कर जल्द से जल्द निपटारा कर देती थीं, लेकिन उससे पहले आयोगों की दुर्दशा मात्र एक सरकारी दफ्तर के अलावा कुछ भी नहीं थी। मित्रों कहने का तात्पर्य ये है की आज अल्पसंख्यक खास कर मुस्लिम इलाकों की जो दुर्दशा है, वह किसी से छुपी हुई नहीं है। गन्दगी, बेरोजगारी, गरीबी, शिक्षा का अभाव, आखिर क्यों?
अगर आप (कांग्रेस) कहते हैं कि हम अल्पसंख्यक हैं तो हम में आपने ऐसे क्या सुर्खाब लगा दिए? बतायें कब और किस जगह आप ने विकास करवा दिया। सिर्फ राजस्थान ही नहीं पूरे देश में कोई एक शहर बता दें, जहा आप ने शिक्षा या रोजगार के लिए ईमानदारी से प्रयास किये हों? फिर ये ढोंग किस बात के लिए? क्यों हमे पूरे समाज से काटे रखा? उनमें इस भावना को जगाया की अरे ये सरकार तो सब कुछ सिर्फ अल्पसंख्यकों खास कर मुसलमानों के हितों की ही बात करती है। इस देश में हिन्दू दोयम दर्जे का नागरिक बना के रख दिया है, परन्तु मैं अपने हिन्दू भाइयों को बताना चाहूंगा कि इस कांग्रेस और दूसरे तथाकथित धरमनिरपेक्ष दलों ने ही मुसलमानों को तरक्की नहीं करने दी। मात्र असुरक्षा की भावना को पनपाये रखा। वरना 35 वर्ष तक बंगाल में शासन करने वाले कम्युनिस्ट के राज में तो मुसलमान बहुत तरक्की करना चाहिए था, पर मित्रों इस शासन में मुस्लमान गरीब से भिखारी बन गया। मित्रों, मैं खुद एक राष्टीय पार्टी की अल्पसंख्यक मोर्चे की रष्ट्रीय कार्यसमिति का सदस्य और राजस्थान की प्रदेश कार्यसमिति में उपाध्यक्ष हूं,परन्तु में खुद अपनी पार्टी के राष्टीय अध्यक्ष के सामने भी इस बात को ले के आऊंगा के ये अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक क्या है? हम अगर किसी पार्टी के सदस्य हैं, तो विभेद कैसा? अगर हम भी विभेद करेंगे तो जनता को क्या सन्देश देंगे? आखिर हम कहते हैं कि हमारे लिए राष्ट्र सर्वेप्रथम है, फिर विभेद क्यों?
मित्रों, हम सब को मिल कर इस विभेद को दूर करना होगा और सरकारों व राजनीतिक पार्टियों को चेताना होगा कि इस भेदभाव को दूर किया जाये और वाकई हम से प्रेम है, हमारा विकास चाहते हो तो सब से पहले हम सब को एक प्लेटफार्म पर आने दो, फिर मिल कर हमारे विकास की बातें करो। हमें अलग करने की इस योजना पर कार्य करना बंद करें अन्यथा हमारे बीच की ये दूरी हमारे बीच गृह युद्ध की नौबत न ला दे, जो शायद ये सरकार भी चाहती है कि इस देश में हर मजहब का व्यक्ति आपस में लड़ता रहे। हीन भावना से ग्रसित रहे कि किसी के हक को मार के दूसरे को दिया जा रहा है परन्तु वास्तविकता कुछ और है। इनकी सब बातों को ले कर कुछ लोग तुष्टिकरण की बात करते हैं, मित्रों वह भी गलत नहीं है क्यों कि जिस योजनाबद्ध तरीके से कांग्रेस हमारा फर्जी हितैषी बन कर खड़ी होती है, सब को लगता है की सारी की सारी थाली मुसलमानों को ही परोसी जा रही है परन्तु सच्चाई इस से कोसों दूर है। बेचारा (माफ कीजियेगा, इस शब्द पर भी कुछ लोग आपत्ति जताते हैं) मुस्लमान तो दोनों तरफ से पिस रहा है। पहली सरकार की गलत नीतियां, बाद में अपने ही लोगों के ताने, उसे ऐसे में बेचारा न लिखूं तो आप ही सुझायें की क्या लिखा जाये?
आज देश का कानून एक है, सविधान एक है, तो फिर विभेद किस का, हमें क्यों इस देश और हमारे अधिकारों से जानबूझ कर अलहदा किया जा रहा है? जब हमें अल्पसंख्यक होने का कोई लाभ नहीं तो फिर ये साजिश किसलिए।
-सैयद इब्राहिम फखर, एडवोकेट

बेचारा मुस्लिम

गरीब मुस्लमान की हालत उस बेचारे की तरह है जिसे जब चाहा जिसने चाहा इस्तेमाल किया और काम निकलने के बाद फैक दिया जिस में सब से ज्यादा कांग्रेस ने आज़ादी से ले कर आज तक सिर्फ वोट बैंक समझा नाकी इन्सान सुरक्षा के नाम पे डराते रहे और हमारी दुरिया हमारे भाइयो से बढ़ाते रहे ये जानते थे की हमारे बीच दूरिया अगर ख़तम हो जाएँगी तो इनकी राजनीती पे फर्क पड़ेगा मगर दोस्तों फर्क तो अब जरूर पड़ेगा इन्हें तो सबक सिखाना ही पड़ेगा की तुमने इस देश को बोहुत लूट लिया बस अब तुम्हारे पाप का गड़ा भर चूका है !
मित्रो कांग्रेस क्यों की विदेशी विचारधारा से संचालित होती है इसलिए इनको इस देश की मिटटी और देश की जनता से कोई सरोकार नहीं है इनकी मंशा तो बस इस देश को लूट कर यूरोपिये देशो को मालामाल करना मात्र है इनको हिन्दू मुस्लमान किसी से कोई मतलब नहीं ये तो बस अंग्रोजो के उस विचार से प्रेरित है की फूट डालो और शासन करो ! तभी तो इन्होने हिन्दू और मुस्लमान जो इस देश की दो आँखे है उनमे से एक आँख को कभी खुलने नहीं दिया हमेशा अपने भाइयो से दूर रखा की यदि मुस्लिम वर्ग पड़ लिख जायेगा तो अपने अधिकार की मांग करेगा जो की इनको नापसंद है लेकिन स्वयम के पर्यासों से ही सही अब ये वर्ग सचेत हो गया है और तुम्हारी हर चाल का जवाब देने को तैयार है अरे फरेबी धरमनिर्पेश्वादियो तुम हज्ज में रियायत की बात करते हो हमने तो तुमसे रियायत कभी मांगी भी नहीं , क्यों के हज्ज हर मुस्लिम का फ़र्ज़ है अपनी मेह्नत की कमाई से हज्ज करे ना की किसी की इमदाद से और फिर तुम जो इमदाद दे रहे हो वोह वापस उन ticketo में दाम बड़ा के ले रहे हो और हमारे हिन्दू भाइयो में सन्देश ये देना चाहते हो की तुम मुस्लिम हितेषी हो अगर तुम देश की जनता से इतना ही प्रेम करते हो तो हिन्दू और मुस्लिम की तथाकथित नितीया अलग अलग बना के क्या दर्शाना चाहते हो की तुम हिन्दुओ से दोगलापन करके मुस्लिम हितेषी हो सकते हो कभी नहीं ,बेचारे गरीब मुस्लमान को तो अपनी दो जून की रोटी के चक्कर में कुछ भी नहीं पता की कब तुम क्या घोषणा करते हो और मीडिया के मित्र कब उसपे बेवजह की बहस शुरू कर देते है !
मित्रो अगर कांग्रेस और ये दुसरे दल जो अपने आप को मुस्लिम हितेषी साबित करने में लगे हुए है उनसे पूछो की अगर तुम इतने हितेषी थे तो फिर भी गरीब मुस्लमान भूंख और गरीबी में क्यों ज़िन्दगी जी रहा है विगत ६५ सालो में तो उसकी हालत बद्से बदतर ही हुई है ! में उन गुलामी में जकड़ी हुई मानसिकता लिए हुए मुस्लिम लीडरो से भी पूछता हु इन ६५ सालो में कभी तुमने आत्ममंथन किया की तुम ने कोम को क्या दिया या इस कांग्रेस और छदम धराम्निर्पेश दलों ने हमे कहा ला के छोड़ दिया है क्यों हम ने कुछ राजनीतिक दलों को अचुत समझ रखा है आखिर वोह भी हमारे ही देश के लोग है लेकिन एक बात बिलकुल सच है की ये दल कांग्रेस की तरह आस्तीन में सांप नहीं है इनकी नीतिया बिलकुल स्पष्ट है तो इसमें बुराई भी क्या है अगर हिन्दू अपने हित की बात हिंदुस्तान में नहीं करेगा तो मित्रो क्या इटली में जाके करेगा में इसमें कोई बुराई नहीं समझता ,राष्ट्र की बात करना कया गलत है ? अगर गलत है तो हां में राष्ट्रवादी हु आखिर हम भी हिंदुस्तान से प्यार करते है क्यों की इस बात को हर व्यक्ति जानता है की आज़ादी के पश्चात् हमारे भाई हिन्दुओ के पास कोई विकल्प नहीं था भारत में रहने के अलावा परन्तु हमारे पास विकल्प होते हुए भी हम ने भारत को चुना यही हमारा प्यार और नमन है इस मिटटी को इस लिए अब समय नहीं है एक दुसरे को शक की नजरो से देखने का, आओ मिल कर एक नए भारत के निर्माण के लिए तैयार हो जाये ,माँ भारती हमे पुकार रही है अपनी आहुति के लिए मित्रो इस वक़्त देश में एक क्रांति की आवयेशकता है उसमे हम सब को मिल कर आहुति देनी है जिस से ये देश वापस भंय, भूख से मुक्त पुन सोने की चिड़िया बने!
मित्रो अगर लेखनी में गलती हो तो माफ़ कीजियेगा! जय भारत जय माँ भारती
-सैयद इब्राहीम फखर अधिवक्ता

पानी इत्थे आहे?

खबर है कि सारे उत्तरी भारत और विषेषकर देष की राजधानी में इन दिनों पानी के लिए हाहाकार मचा हुआ है. हर कोई पूछ रहा है कि पानी कहां है?, पानी कित्थै आहे? दिल्ली सरकार के नुमाइंदे इसके लिए हरियाणा को दोष दे रहे हैं तो हरियाणा वाले दिल्ली सरकार को, ताकि इस दोषारोपण में किसी तरह टाइमपास हो जाए और तब तक मानसून आ जाए. मजे की बात है कि दिल्ली सरकार बार बार अनाउंस कर र्रही है बूंद बूंद पानी बचाइये. जनता पूछ रही है कि छह छह रोज में तो प्रानी आ रहा है तब कोई क्या पीये और क्या बचाये? कहा भी है कि .....क्या नहाये और क्या निचोड़े?
कुछ लोगों ने खोजबीन की है और उन्होंने विश्वस्त सूत्रों से पता लगाया है कि पानी तो पोस्ट आफिस में रखे तथाकथित गोंद के डिब्बों में है। वहां गोंद है ही नहीं सिर्फ पानी है. वह खुद यह देखकर आए हैं, चाहे तो आपभी जाकर पता कर लें। कुछ पानी की मात्रा कतिपय राजनीतिक दलों ने अपने अपने कार्यालयों में इक_ी कर रखी है. बताते हैं कि वह यह पानी देश के कुछ क्षेत्रों में अब तक हुई प्रगति पर पानी फेरने के काम में लेंगे. मसलन देश में वर्षों बाद साम्प्रदायिक सौहार्द बनने लगा है. लोगों ने मंदिर-मस्जिद विवाद में दिलचस्पी लेना कम कर दिया है. भाषायी उन्माद थमा हुआ है. प्रांतीयता का हव्वा सिवाय मुंबई के और जगह नदारद है, प्रंातों का सीमा विवाद ठंडे बस्ते में है, लेकिन यह तत्व मौके की तलाश में रहते हैं और अवसर मिलते ही फिर इस स्थिति पर पानी फेर सकते हैं और इसके लिए पानी तो चाहिएगा न? वही इन्होंने स्टोर कर रखा है। कुछ पानी की मात्रा कोल्ड ड्रिक तथा बोतल बंद पानी का व्यापार करने वालों ने अपने यहां एकत्रित कर रखा है, जिसे यह लोग जरीकेन और बोतलों में भरकर तरह तरह के नामों से बेचकर एक के चार कर रहे हैं. मजे की बात है कि यह सब सरकार की नाक के नीचे हो रहा है. किसे फुरसत है कि इस पानी की रसायनिक जांच-टीडीएस इत्यादि की जांच-हो. उन्हें निहित स्वार्थों के हितों की चिंता है या आम जनता की?
बताने वाले तो यहां तक बता रहे हैं कि चुनाव की संभावना भांप कर जब से सरकार ने विभिन्न कच्ची बस्तियों के नियमन का ऐलान किया है तबसे ही लालचवश पानी की कुछ मात्रा उन्होंने भूमाफियों के मुंह में देखी है. राम जाने कहां तक सही है? वैसे होने को पानी देश की अधिकांश गरीब और असहाय जनता की आंखों में भी है, जब वह सुनती है कि एक तरफ तो 60 प्रतिशत जनता टायलेट की सुविधा से वंचित है, वही दूसरी ओर हमारा हाथ गरीब के साथ कहने वाली सरकार की नाक के नीचे योजना आयोग सिर्फ दो टायलेट पर 35 लाख रुपए खर्च करता है.
आजादी के 65 साल बाद भी सिर पर मैला ढ़ोने की प्रथा चालू है. हर वर्ष लू, शीत लहर और बाढ़ से मरने वालों की संख्या में बढ़ोतरी क्यों हो रही है ? पानी नारी की आंखों में भी हैं. अभिनेता आमिर खां के सत्यमेव जयते में दिखाये जाने वाले विभिन्न एपिसोड से वह बात फिर सिद्ध हो रही है, जो एक प्रसिद्ध कवि ने वर्षों पूर्व इन पंक्तियों में लिख दी थी-नारी जीवन हाय तेरी यही कहानी, आंचल में है दूध और आंखों में पानी. अब यह बात समाज और सरकार पर है कि वह नारी को उसका उचित सम्मान दिलाए. रही बात पानी की मात्रा की तो उसकी कही कोई कमी नहीं है, सवाल है 'नदी जोड़ो योजना पर पुन: विचार कर उसे, टुकड़ों टुकड़ों में ही सही, शुरू करें और फिलहाल उपलब्ध पानी को सिर्फ लुटियन जोन वालों को ही न लूटने दें और पानी का उचित वितरण करें.
-ई. शिव शंकर गोयल
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शुक्रवार, 22 जून 2012

भारत को एक रखने के लिए बलिदान हुए मुखर्जी

भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारत को पूरी तरह एक बनाए रखने के लिए बलिदान दिया था। जम्मू कश्मीर को भी शेष भारत के समान दर्जा दिए जाने के प्रबल पक्षधर डॉ. मुखर्जी पंडित जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमंडल के सदस्य थे। कश्मीर के मामले में नेहरू जी के साथ उनके गंभीर मतभेद थे, जिनकी परिणति पहले उनके इस्तीफे में और फिर 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना में हुई। जम्मू-कश्मीर में परमिट प्रणाली का विरोध करते हुए वे बिना अनुमति वहां गये और वहीं उनका प्राणान्त हुआ।
डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के पिता श्री आशुतोष मुखर्जी कलकत्ता विश्वविद्यालय के संस्थापक उपकुलपति थे। उनके देहांत के बाद केवल 23 वर्ष की अवस्था में श्यामाप्रसाद जी को वि.वि. की प्रबन्ध समिति में ले लिया गया। 33 वर्ष की छोटी अवस्था में ही वे कलकत्ता वि.वि. के उपकुलपति बने।
डॉ. मुखर्जी ने जम्मू-कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय के लिए बलिदान दिया। परमिट प्रणाली का विरोध करते हुए वे बिना अनुमति वहां गये और वहीं उनका प्राणान्त हुआ।
कश्मीर सत्याग्रह क्यों?
भारत स्वतन्त्र होते समय अंग्रेजों ने सभी देशी रियासतों को भारत या पाकिस्तान में विलय अथवा स्वतन्त्र रहने की छूट दी। इस प्रक्रिया की देखभाल गृहमंत्री सरदार पटेल कर रहे थे। भारत की प्राय: सब रियासतें स्वेच्छा से भारत में मिल गयीं। शेष हैदराबाद को पुलिस कार्यवाही से तथा जूनागढ़, भोपाल और टोंक को जनदबाव से काबू कर लिया; पर जम्मू-कश्मीर के मामले में पटेल कुछ नहीं कर पाये क्योंकि नेहरू जी ने इसे अपने हाथ में रखा।
मूलत: कश्मीर के निवासी होने के कारण नेहरू जी वहां सख्ती करना नहीं चाहते थे। उनके मित्र शेख स्वतंत्र जम्मू-कश्मीर के प्रधान बनना चाहते थे, दूसरी ओर वह पाकिस्तान से भी बात कर रहे थे। इसी बीच पाकिस्तान ने कबाइलियों के वेश में हमला कर घाटी का 2/5 भाग कब्जा लिया। यह आज भी उनके कब्जे में है और इसे वे 'आजाद कश्मीर कहते हैं।
नेहरू की ऐतिहासिक भूल
जब भारतीय सेनाओं ने कबायलियों को खदेडऩा शुरू किया, तो नेहरू जी ने ऐतिहासिक भूल कर दी। वे 'कब्जा सच्चा, दावा झूठा� वाले सामान्य सिद्धांत को भूलकर जनमत संग्रह की बात कहते हुए मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गये। सं.रा. संघ ने सैनिक कार्यवाही रुकवा दी। नेहरू ने राजा हरिसिंह को विस्थापित होने और शेख अब्दुल्ला को अपनी सारी शक्तियां सौंपने पर भी मजबूर किया।
शेख ने शेष भारत से स्वयं को पृथक मानते हुए वहां आने वालों के लिए अनुमति पत्र लेना अनिवार्य कर दिया। इसी प्रकार अनुच्छेद 370 के माध्यम से उन्होंने राज्य के लिए विशेष शक्तियां प्राप्त कर लीं। अत: आज भी वहां जम्मू-कश्मीर का हल वाला झंडा फहरा कर कौमी तराना गाया जाता है।
जम्मू-कश्मीर के राष्ट्रवादियों ने 'प्रजा परिषद के बैनर तले रियासत के भारत में पूर्ण विलय के लिए आंदोलन किया। वे कहते थे कि विदेशियों के लिए परमिट रहें; पर भारतीयों के लिए नहीं। शेख और नेहरू ने इस आंदोलन का लाठी-गोली के बल पर दमन किया; पर इसकी गरमी पूरे देश में फैलने लगी। 'एक देश में दो विधान, दो प्रधान, दो निशान- नहीं चलेंगे� के नारे गांव-गांव में गूंजने लगे। भारतीय जनसंघ ने इस आंदोलन को समर्थन दिया। डॉ. मुखर्जी ने अध्यक्ष होने के नाते स्वयं इस आंदोलन में भाग लेकर बिना अनुमति पत्र जम्मू-कश्मीर में जाने का निश्चय किया।
जनसंघ के प्रयास
इससे पूर्व जनसंघ के छह सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल को कश्मीर जाकर परिस्थिति का अध्ययन भी नहीं करने दिया गया। वस्तुत: शेख ने डॉ. मुखर्जी सहित जनसंघ के प्रमुख नेताओं की सूची सीमावर्ती जिलाधिकारियों को पहले से दे रखी थी, जिन्हें वह किसी भी कीमत पर वहां नहीं आने देना चाहते थे। यद्यपि अकाली, सोशलिस्ट तथा कांग्रेसियों को वहां जाने दिया गया। कम्युनिस्टों ने तो उन दिनों वहां अपना अधिवेशन भी किया। स्पष्ट है कि नेहरू और शेख को जनसंघ से ही खास तकलीफ थी।
कश्मीर की ओर प्रस्थान
डॉ. मुखर्जी ने जाने से पूर्व रक्षा मंत्री से पत्र द्वारा परमिट के औचित्य के बारे में पूछा; पर उन्हें कोई उत्तर नहीं मिला। इस पर उन्होंने बिना परमिट वहां जाने की घोषणा समाचार पत्रों में छपवाई और 8-5-1953 को दिल्ली से रेल द्वारा पंजाब के लिए चल दिये। दिल्ली स्टेशन पर हजारों लोगों ने उन्हें विदा किया। रास्ते में हर स्टेशन पर स्वागत और कुछ मिनट भाषण का क्रम चला। इस यात्रा में डॉ. मुखर्जी ने पत्रकार वार्ताओं, कार्यकर्ता बैठकों तथा जनसभाओं में शेख और नेहरू की कश्मीर-नीति की जमकर बखिया उधेड़ी। अम्बाला से उन्होंने शेख को तार दिया, ''मैं बिना परमिट जम्मू आ रहा हूं। मेरा उद्देश्य वहां की परिस्थिति जानकर आंदोलन को शांत करने के उपायों पर विचार करना है। इसकी एक प्रति उन्होंने नेहरू को भी भेजी। फगवाड़ा में उन्हें शेख की ओर से उत्तर मिला कि आपके आने से कोई कार्य सिद्ध नहीं होगा।
गिरफ्तारी
अब डॉ. मुखर्जी ने अपने साथ गिरफ्तारी के लिए तैयार साथियों को ही रखा। 11 मई को पठानकोट में डिप्टी कमिश्नर ने बताया कि उन्हें बिना परमिट जम्मू जाने की अनुमति दे दी गयी है। वे सब जीप से सायं 4.30 पर रावी नदी के इस पार स्थित माधोपुर पोस्ट पहुंचे। उन्होंने जीप के लिए परमिट मांगा। डिप्टी कमिश्नर ने उन्हें रावी के उस पार स्थित लखनपुर पोस्ट तक आने और वहीं जीप को परमिट देने की बात कही।
सब लोग चल दिये; पर पुल के बीच में ही पुलिस ने उन्हें बिना अनुमति आने तथा अशांति भंग होने की आशंका का आरोप लगाकर पब्लिक सेफ्टी एक्ट की धारा तीन ए के अन्तर्गत पकड़ लिया। उनके साथ वैद्य गुरुदत्त, पं0 प्रेमनाथ डोगरा तथा श्री टेकचन्द शर्मा ने गिरतारी दी, शेष चार को डॉ. साहब ने लौटा दिया। डॉ. मुखर्जी ने बहुत थके होने के कारण सवेरे चलने का आग्रह किया; पर पुलिस नहीं मानी। रात में दो बजे वे बटोत पहुंचे। वहां से सुबह चलकर दोपहर तीन बजे श्रीनगर केन्द्रीय कारागार में पहुंच सके। फिर उन्हें निशातबाग के पास एक घर में रखा गया। शाम को जिलाधिकारी के साथ आये डॉ. अली मोहम्मद ने उनके स्वास्थ्य की जांच की। वहां समाचार पत्र, डाक, भ्रमण आदि की ठीक व्यवस्था नहीं थी। वहां शासन-प्रशासन के अधिकारी प्राय: आते रहते थे; पर उनके सम्बन्धियों को मिलने नहीं दिया गया। डॉ. साहब के पुत्र को तो कश्मीर में ही नहीं आने दिया गया। अधिकारी ने स्पष्ट कहा कि यदि आप घूमने जाना चाहते हैं, तो दो मिनट में परमिट बन सकता है; पर अपने पिताजी से मिलने के लिए परमिट नहीं बनेगा। सर्वोच्च न्यायालय के वकील उमाशंकर त्रिवेदी को 'बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका प्रस्तुत करने के लिए भी डॉ. मुखर्जी से भेंट की अनुमति नहीं मिली। फिर उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप पर यह संभव हो पाया।
हत्या का षड्यन्त्र
19-20 जून की रात्रि में डॉ. मुखर्जी की पीठ में दर्द एवं बुखार हुआ। दोपहर में डॉ. अली मोहम्मद ने आकर उन्हें 'स्टैप्टोमाइसिन� इंजैक्शन तथा कोई दवा दी। डॉ. मुखर्जी ने कहा कि यह इंजैक्शन उन्हें अनुकूल नहीं है। अगले दिन वैद्य गुरुदत्त ने इंजैक्शन लगाने आये डॉ. अमरनाथ रैना से दवा के बारे में पूछा, तो उसने भी स्पष्ट उत्तर नहीं दिया। इस दवा से पहले तो लाभ हुआ; पर फिर दर्द बढ़ गया। 22 जून की प्रात: उन्हें छाती और हृदय में तेज दर्द तथा सांस रुकती प्रतीत हुई। यह स्पष्टत: दिल के दौरे के लक्षण थे। साथियों के फोन करने पर डॉ. मोहम्मद आये और उन्हें अकेले नर्सिंग होम ले गये। शाम को डॉ. मुखर्जी के वकील श्री त्रिवेदी ने उनसे अस्पताल में जाकर भेंट की, तो वे काफी दुर्बलता महसूस कर रहे थे। 23 जून प्रात: 3.45 पर डॉ. मुखर्जी के तीनों साथियों को तुरंत अस्पताल चलने को कहा गया। वकील श्री त्रिवेदी भी उस समय वहां थे। पांच बजे उन्हें उस कमरे में ले जाया गया, जहां डॉ. मुखर्जी का शव रखा था। पूछताछ करने पर पता लगा कि रात में ग्यारह बजे तबियत बिगडऩे पर उन्हें एक इंजैक्शन दिया गया; पर कुछ अंतर नहीं पड़ा और ढाई बजे उनका देहांत हो गया।
अंतिम यात्रा
डॉ. मुखर्जी के शव को वायुसेना के विमान से दिल्ली ले जाने की योजना बनी; पर दिल्ली का वातावरण गरम देखकर शासन ने उन्हें अम्बाला तक ही ले जाने की अनुमति दी। जब विमान जालन्धर के ऊपर से उड़ रहा था, तो सूचना आयी कि उसे वहीं उतार लिया जाये; पर जालन्धर के हवाई अड्डे ने उतरने नहीं दिया। दो घंटे तक विमान आकाश में चक्कर लगाता रहा। जब वह नीचे उतरा तो वहां खड़े एक अन्य विमान से शव को सीधे कलकत्ता ले जाया गया। कलकत्ता में दमदम हवाई अड्डे पर हजारों लोग उपस्थित थे। रात्रि 9.30 पर हवाई अड्डे से चलकर लगभग दस मील दूर उनके घर तक पहुंचने में सुबह के पांच बज गये। इस दौरान लाखों लोगों ने अपने प्रिय नेता के अंतिम दर्शन किये। 24 जून को दिन में ग्यारह बजे शवयात्रा शुरू हुई, जो तीन बजे शवदाह गृह तक पहुंची। इस घटनाक्रम को एक षड्यन्त्र इसलिए कहा जाता है क्योंकि डॉ. मुखर्जी तथा उनके साथी शिक्षित तथा अनुभवी लोग थे; पर उन्हें दवाओं के बारे में नहीं बताया गया। मना करने पर भी 'स्टैप्टोमाइसिन का इंजैक्शन दिया गया। अस्पताल में उनके साथ किसी को रहने नहीं दिया गया। यह भी रहस्य है कि रात में ग्यारह बजे उन्हें कौन सा इंजैक्शन दिया गया? उनकी मृत्यु जिन संदेहास्पद स्थितियों में हुई तथा बाद में उसकी जांच न करते हुए मामले पर लीपापोती की गयी, उससे कई सवाल खड़े होते हैं। यद्यपि इस मामले से जुड़े प्राय: सभी लोग दिवंगत हो चुके हैं, फिर भी निष्पक्ष जांच होने पर आज भी कुछ तथ्य सामने आ सकते हैं।
-बलराम हरलानी
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