अच्छी खबर है कि अब केन्द्र की यूपीए सरकार भ्रष्टाचार मिटाने हेतु कमर कसने वाली है। वर्षों पूर्व जब केन्द्र में एनडीए सरकार थी, तब वह भी एक बार भ्रष्टाचार मिटाने पर 'तुलÓ गई थी। फर्क सिर्फ इतना ही है कि वह सरकार भ्रष्टाचार को मिटाने हेतु 'तुलÓ गई थी और यह सरकार उसी मसले पर कमर को 'कसÓ रही है। आपको याद होगा, कई साल पहले की बात है। तब दिल्ली विधानसभा के
लिए चुनाव होने वाले थे। उस समय राजधानी में गन्दगी का अहम मसला था। बीजेपी ने चुनाव में घोषणा की कि शासन में आते ही दिल्ली को स्वच्छ बना देंगे। लोगों ने उनकी बात मान ली और बीजेपी वहां सत्ता में आ गई। उन्होंने आते ही पहला काम यह किया कि दिल्ली की सड़कों के डिवाइडर पर लगे खम्बों पर जगह-जगह तख्तियां लगवा दीं, जिस पर लिखा था 'स्वच्छ दिल्लीÓ। ठीक ऐसी ही बात तब हुई जब दिल्ली में कांग्रेस का शासन आया। उनके सामने कानून व्यवस्था की समस्या थी। उन्होंने तख्तियों की बजाय जगह-जगह पोस्टर चिपका दिए, जिस पर लिखा गया 'सुरक्षित दिल्लीÓ। एक ही झटके में सारी दिल्ली स्वच्छ भी हो गई और सुरक्षित भी हो गई। इसलिए यह कहना तो सही नहीं है कि दोनों प्रमुख दल एक ही तरीके से काम करते हैं। दोनों के तरीके भिन्न-भिन्न हैं। मसलन देश में जब कम्प्यूटर युग आया, तब राजस्थान में भी कांग्रेस के समय जलदाय विभाग के बिल हाथ से बनाने की बजाय लाल स्याही में कम्प्यूटर से बनाये जाने लगे। कुछ समय बाद जब वहां बीजेपी का शासन आया तो यही बिल, लाल की जगह नीली स्याही से बनाये जाने लगे। इतना ही नहीं, वहां कांग्रेस के राज्य में जब कभी बिजली चली जाती थी, तो बिजली विभाग वाले टेलीफोन पर पूछने पर जबाब देते थे कि पीछे से पावर नहीं आ रही है और जब बीजेपी का शासन आया तो ऑपरेटरों को कहा गया कि पूछने पर यह बताया जाए कि पावर आगे से नहीं आ रही है। कांग्रेस के राज में सदा से 'सुविधा शुल्कÓ ऊपर से लेने की प्रथा रही है। और यह इतना प्रचलित हो गया था कि सब कोई इसे 'ऊपर की कमाईÓ के नाम से जानने लगे थे। बीजेपी ने इसमें बदलाव किया और यह शुल्क टेबल के ऊपर से लेने की बजाय नीचे से लिया जाने लगा और दावा किया जाने लगा कि हमारे राज में ऊपर की कमाई जैसी बात है ही नहीं, हां बंगारू जी की बात अलग थी। संसद में सवाल पूछने को लेकर जब मीडिया ने संसद सदस्यों का स्ंिटग ऑपरेशन किया तो पता लगा कि जहां कांग्रेस वाले महात्मा गांधी के चित्र के नीचे सुविधा शुल्क ले रहे हैं, वही बीजेपी वाले गुरूजी अथवा डा. हेडगेवार के चित्र के नीचे यही सब कर रहे हैं। अत: आपको मानना ही पड़ेगा कि दोनों की कार्य प्रणाली में अंतर तो है। अब रही बात भ्रष्टाचार की तो जब केन्द्र में एनडीए का शासन था तो उन्होंने सरकारी कार्यालयों में भ्रष्टाचार मिटाने हेतु जगह जगह तख्तियां लगवा दीं, जिन पर लिखा था 'रिश्वत देना-लेना अपराध हैÓ। उनका विश्वास था कि इससे सारा देश भ्रष्टाचार से मुक्त हो जायेगा। अब वर्तमान यूपीए सरकार भी भ्रष्टाचार के उन्मूलन हेतु गम्भीरता से सोच रही है। हां, इनका तरीका बीजेपी से अलग है। ये चाहते हैं कि भ्रष्टाचार मिटाने हेतु, दक्षिण भारत की तर्ज पर, देश के अन्य बड़े षहरों में बड़े-बड़े होर्डिंग्स लगाए जाएं, जिसमें 'राजपरिवारÓ के कुछ सदस्यों के चित्र के साथ-साथ प्रधानमंत्री, विभागीय मंत्री अथवा संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री के चित्र हों। इसके अतिरिक्त सरकारी खर्च खाते से अखबारों में बड़े- बड़े विज्ञापन निकलवाये जायेंगे। ऐसे बोर्ड तथा विज्ञापनों में तरह-तरह के नारे लिखे जायेंग।े मसलन 'अब हम भ्रष्टाचार को सहन नहीं करेंगेÓ, 'घोटालों के दोषियों को बख्शा नहीं जायेगाÓ, 'कानून अपना काम करेगाÓ इत्यादि। शहरों में स्थित विभिन्न पार्कों, चौराहों इत्यादि पर जगह-जगह भ्रष्टाचार के बुत खड़े किए जायेंगे। इसके लिए उत्तर प्रदेश का विशेष ध्यान रखा जायेगा, क्यों कि वहां सारा खेल ही बुतों का है। भ्रष्टाचार और घोटालों को लेकर सरकार एक श्वेत पत्र प्रकाशित करने की सोच रही है क्योंकि इस बाबत कुछ विरोधी दलों की भी मांग रही है। सरकारी मुद्रणालय के एक अधिकारी ने नाम न प्रकट करने की शर्त पर बताया है कि यह पत्र प्रकाशित तो होगा ऑफवाइट पेपर पर लेकिन यह कहलायेगा वाइट पेपर ही। जानकारों का कहना है कि इस परिपत्र में सरकार की यह राय झलकेगी कि भ्रष्टाचार 'ग्लोबल फिनामिनाÓ यानि अंतर्राष्ट्रीय समस्या है, इसलिए ज्यादा चिंता करने की आवश्यकता नही है। चूंकि आजकल, सरकारी हलकों में, अधिकांश समस्याओं के हल हेतु 'जीओएमÓ यानि मंत्रीमंडलीय उपसमिति बनाने का फैशन चल पड़ा है, अत: सरकार के पास एक विकल्प यह भी है कि भ्रष्टाचार मिटाने तथा घोटालों को रोकने के लिए सुझाव देने हेतु एक जीओएम बना दिया जाए। सुप्रीम कोर्ट के किसी रिटायर्ड जज की अध्यक्षता में एक 'भ्रष्टाचार मिटाओ आयोगÓ का गठन भी किया जा सकता है। यह भी एक कारगर उपाय है। आजादी के बाद से लेकर अभी तक सैकड़ों ऐसे आयोग बनाये गए हैं। सरकारी हलकों के आसपास फलने फूलने वाली कुछ एनजीओ इत्यादि को उकसा कर बड़े-बड़े शहरों में मैराथन दौड़ों का आयोजन किया जाएगा, जिसमें कतिपय लोग तरह-तरह के नारों की टीशर्ट पहन कर सुबह सुबह दौड लगायेंगे। राजधानी में यह दौड़ राजपथ पर होगी। इससे भी भ्रष्टाचार मिटाने में बहुत मदद मिलेगी। राजधानी के अलावा कई प्रान्तों की राजधानियों में मानव श्रंखला बनाई जायेगी तथा जगह-जगह जुलूस निकाले जायेंगे। बताते हैं कि पिछले दिनों ऐसी ही एक 'महंगाई घटाओÓ रैली में एक नेता, रिश्वतखोर सरकारी अफसर एवं कर्मचारी तथा वहीं भीड़ में खडे एक जमाखोर व्यापारी ने आपस में एक-दूसरे से नजरें मिलाते हुए एक साथ नारा लगाया था 'आवाज दो, हम एक है!Ó सरकार का यह भी इरादा है कि भ्रष्टाचार उन्मूलन वर्ष मनाया जाए। उस साल देश में जगह-जगह बुद्धिजीवियों की विचार गोष्ठियां आयोजित की जाएं, सम्मेलन किए जाएं, भ्रष्टाचार की परिभाषा तय की जाए, हो सके तो भ्रष्टाचार शब्द को ही डिक्शनरी में से निकलवाने की सम्भावना खोजी जाए क्योंकि आप तो जानते ही हैं कि 'न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरीÓ। 'गरीबी हटाओÓ की तर्ज पर 'भ्रष्टाचार मिटाओÓ अभियान चलाया जायगा। सरकार का विश्वास है कि उसके इन गम्भीर प्रयासों से देश में फैले भ्रष्टाचार में कुछ कमी आयेगी। वह अब अपने आपको उतनी 'मजबूरÓ महसूस नहीं करेगी और इस मामले में अभी जो विश्व में देश का 87वां रेंक है, उसमें कुछ सुधार होगा।
यह व्यंग्य लेख सेवानिवृत्त इंजीनियर श्री शिवशंकर गोयल ने भेजा है। उनका संपर्क सूत्र है-फ्लेट नं. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट नं. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75
रविवार, 24 अप्रैल 2011
शनिवार, 23 अप्रैल 2011
रूहानी शक्ति का केन्द्र : दरगाह बाबा बादामशाह
अजमेर के सोमलपुर गांव के निकट बाबा बादामशाह की दरगाह स्थित है। भारत में सूफी उवैसिया सिलसिले की यह आठवीं दरगाह है। शेष पांच रामपुर में और दो झांसी में हैं। श्वेत संगमरमर से निर्मित यह दरगाह दूर से ताजमहल जैसी लगती है। बाबा के खास खादिम हजरत हरप्रसाद मिश्रा उवैसी ने इसका निर्माण कराया था। आप भारतीय उवैसिया शाखा के नौवें गुरु थे और इस दरगाह के माध्यम से अपने गुरु के प्रति आपने विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित की है। सामान्य जायरीन के लिए यह आस्था का पर्यटन धाम है। साधकों के लिए रूहानियत का शक्ति केन्द्र है और अध्यात्म विद् यहां विश्व चेतना के संघनित आलोक में प्रणाम करते हैं।
जीवात्मा से परमात्मा - बाबा बादाम शाह मूलत: उत्तर प्रदेश के गालब गांव (मैनपुरी जिला) के निवासी थे। प्रारब्ध की दिशा और गुरु के आदेश से वे यहां आए। आठ वर्ष तक नागपहाड़ में घोर तपस्या की। फिर फरीदा की बगीची और गढ़ी मालियान में थोड़े-थोड़े समय ठहरकर सोमलपुर आ गए। बाबा साहब 1946 से लेकर फना (देह त्याग) होने तक यानी 1965 तक यहीं रहे। तपस्यारत, ध्यानमग्न, भाव मग्न, परमात्म-प्रेम में निमग्न, जनसेवा में जीन और दीन-हीन के साथी बनकर उन्होंने ही गुरु कृपा सेएक सामान्य सांसारिक मनुष्य हरप्रसाद मिश्राजी पर शक्तिपात किया। फलत: मिश्राजी ने गुरुद्वार के दर्शन किए तथा उस रास्ते को जान लिया जो परमात्मा तक जाती है। वे बाबा साहब के खादिम हो गए और गुरुकृपा से उस भक्ति भाव में डूबते चले गए जो जीवात्मा को परमात्मा से मिलाती है।
प्रेम के पथ पर गुरु के ध्यान में मग्न रहने वाले मिश्रा ही अन्तत: बादामशाह ïउवैसी कलन्दर के उत्तराधिकारी हुए और इस ईदगाह में वे खिदमत कर रहे थे।
अलौकिक सुकून - इस दरगाह में बाबा साहेब का अतिशय शान्दिायी मजार है जहां बैठने पर अलौकिक सुकून मिलता है। पास में ही महफिलखाना है। दालान में एक मस्जिद है। दूसरे कोने में शिव मंदिर है। इस तरह यहां दरगाह में इबादत और आरती का संगम है। इस सर्वधर्म-भाव चेतना का ही असर है कि यहां आने वाले जायरीन में नब्बे फीसदी हिन्दू होते हैं। धर्मान्ध लोगों के लिए यहां पहला आश्चर्य यह है कि यहां गुरु पद पर ब्राह्मïण प्रतिष्ठिïत है। दूसरा अचरच यह है कि दरगाह में शिव मंदिर और तीसरा विस्मय यह कि यहां आने वाले अधिकतर जायरीन हिन्दू समाज के होते हैं। जबकि उवैसी सिलसिला में सूत्र वाक्य ही यही है- तत्वमसि अर्थात तुझ में ही परमात्मा है यानी हिन्दू मुसलमान और ब्राह्मïण शूद्र आदि सभी में भगवान के दर्शन करो। यही सच है और बादामशाह की दरगाह में इसी सच्चाई के दर्शन होते हैं। यही भावना यहां धड़कती है। बाबा साहेब भी यही समझाते थे कि इसी सच्चाई को आत्मसात करते हुए अपने गुरु के ध्यान में मग्न रहो, उसी भाव में डूबे रहो। यही वह साधन है जिसके माध्यम से सांसारिक और अलौकिक कल्याण संभव है।
सादगी का मूर्तरूप - यह दरगाह सूफी चेतना की सादगी का मूर्तरूप है। पहाड़ी शृंखला का अनन्य शातिदायी गोद में बनी हुई यह दरगाह वर्षाकाल में ऐसे लगती है मानो भक्ति-मग्न मेघों से बहते आंसुओं में भीग रही हो और गुरु पूर्णिमा को रात में यहां ऐसा प्रतीत होता है जैसे गुरु का आशीर्वाद चांदनी बनकर यहां जर्रे-जर्रे पर टपक रहका हो। वैसे प्रतिवर्ष रज्जब माह की 29 या 30 तारीख और एक शब्बान को इनका उर्स मनाया जाता ैह। 26 नवम्बर 1965 शुक्रवार को बाबा साहब फना हुए थे (देहान्त हुआ था)। इस सालाना उर्स में अजमेर के सैकड़ों लोग शामिल होते हैं। उन दिनों यहां भक्ति-भाव, आस्था, कव्वाली, भजन आदि का जो मिलाजुला मंजर बनता है उसमें डूबने वालों पर मानो खुदा की रहमत का नूर बरसता है।
ऐसा बताया जाता है कि इस सिलसिले के प्रथम सूफी संत का पूरा नाम हजरत ïउवैस करणी रदीयल्लाह अनही है। बचपन में मां इन्हें उसैस कहती थी और यमन में करण नायक गांव में इनका जन्म हुआ था। इस तरह ये हजरत उवैस करणी नाम से विख्यात हुए। इनके नाम उवैस को अमर रखने के लिए ही इनके सिलसिले का नाम ïउवैसी रखा गया। इस तरह कुल मिलाकर अजमेर स्थित बाबा बादामशाह उवैसी कलन्दर (कलन्दर यानी वह जो समरस रहता है, स्वयं को व संसार की चिन्ता त्याग कर खुदा की इबादत में लीन रहता है। की इस दरगाह के परिसर में तपोबल का सम्मोहन है, भक्ति-भाव की शांति है, इबादत का सुकून है और उपासना की तृप्ति है।
दरगाह का निर्माण कार्य अप्रैल 1996 से 1999 तक तीन वर्ष में पूरा हुआ। इसके बाद सन 2005 ई. में महफिलखाने व दरगाह का सौन्दर्यीकरण किया गया। उद्यान विकसित किया गया। सन 2008 में एप्रोच रोड को चौड़ा एवं उसका फिर से डामरीकरण किया गया। दरगाह के मुख्य द्वार से पहले पार्किंग स्थल को भी चौड़ा कराया गया। इस दरगाह में एक शिव मंदिर है। शिवलिंग की पिण्डी स्वयं बाबा बादामशाह साहब लाए थे। सालाना उर्स के दौरान यहां का आध्यात्मिक नजारा अनिवनीय होता है।
-शिव शर्मा
लेखक जाने-माने इतिहासविद् हैं। पेशे से प्राध्यापक रहे और साथ ही पत्रकारिता में भी भरपूर दखल रहा। वर्तमान में बाबा बादामशाह की दरगाह में साधनारत हैं।
माहिए
1.
हम इश्क के दीवाने
आगाज तो कर बैठे
अंजाम खुदा जाने
2.
आओ हम साथ जलें
इस आग के दरिया में
उतरें उस पार चलें
3.
दुनिया हुई दीवानी
तेरे रूप के आगे सौ
पद्मिनियाँ भरे पानी
4.
मत पूछ कि क्या अपने?
शर्माती हुई यादें
इतराते हुए सपने
5.
मुस्कान के क्या कहने
रति ने जो पहने हों
फूलों के ही सब गहने
-सुरेन्द्र दुबे
7-झ-9, जवाहर नगर, जयपुर
मोबाइल : 09829070330, फोन : 0141-2657777
हम इश्क के दीवाने
आगाज तो कर बैठे
अंजाम खुदा जाने
2.
आओ हम साथ जलें
इस आग के दरिया में
उतरें उस पार चलें
3.
दुनिया हुई दीवानी
तेरे रूप के आगे सौ
पद्मिनियाँ भरे पानी
4.
मत पूछ कि क्या अपने?
शर्माती हुई यादें
इतराते हुए सपने
5.
मुस्कान के क्या कहने
रति ने जो पहने हों
फूलों के ही सब गहने
-सुरेन्द्र दुबे
7-झ-9, जवाहर नगर, जयपुर
मोबाइल : 09829070330, फोन : 0141-2657777
शनिवार, 2 अप्रैल 2011
दिल्ली का नाम ढिली या दलदली क्यों न कर दिया जाए!
इक्कीसवी सदी में देश को उन्नत देशों की श्रेणी में शुमार कराने के लिए कई तरह के बदलाव किए जा रहे हैं। लोगों के रहन-सहन और पहनावे में भी बदलाव हो रहे हैं। नये पैदा होने वाले बच्चों के नामों में परिवर्तन हो रहे हैं। इसीकड़ी में प्रान्तों, शहरों एवं जिलों के नाम बदलने की कार्यवाही भी हो रही है। मसलन बडे शहरों में बम्बई का नाम बदलकर मुम्बई कर दिया गया, मद्रास का नाम चेन्नई हुआ और अच्छे-खासे कलकत्ता का नाम कोलकाता हो गया तो सुझाव है कि दिल्ली को ही क्यों छोडा जाए? इसने किसी का क्या बिगाड़ा है?
वैसे भी कुछ लोगों को देश की रोटी-रोजी की समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए प्रान्तीयता अथवा मंदिर-मस्जिद का मुद्धा उठाना ज्यादा ठीक लगता है तो कुछ को महंगाई, बेकारी, गरीबी तथा विकास जैसी ज्वलंत समस्याओं से लोगों का ध्यान बंटाने के लिए गांवों, शहरों के नाम बदलने का नुस्खा ज्यादा कामयाब नजर आता है। इसलिए अधिक बुद्धिमान लोगों ने सबसे पहले देश के चारों महानगरों के नाम बदलने का बीड़ा उठाया है। पहले बम्बई का नम्बर आया। बम्बई के 'रिमोट कन्ट्रोलÓ से एक रोज उनके सांध्य दैनिक में फरमान आया कि बम्बई का नाम बदल कर मुंबई करो। अत: बम्बई मुम्बई हो गई। एक ही झटके में न केवल मराठी मानुस का बल्कि सबका कल्याण हो गया। देश की व्यापारिक राजधानी का व्यापार भी बढ़ गया, सब को नौकरी भी मिल गई और महंगाई भी कम हो गई। कुछ समय बाद नम्बर आया मद्रास का। कुछ लोगों को इस नाम में अंग्रेजियत की बू आती थी, अत: इसका नाम बदलकर चेन्नई कर दिया गया। हुई न यह कमाल की बात ? रातों रात सारे देश के लोगों को तमिल का ज्ञान हो गया और गरीब झुग्गी-झोपडी वालों एवं मछुआरों की समस्याएं हल हो गईं। बाकी चीजें मुफत में बंटेंगी, वह अलग से। फिर कलकत्ता की बारी आई और भद्र लोगों ने वहां की राज्य सरकार की नाक में दम कर दिया कि इसे कोलकाता बनाओ वरना प्रगति की दौड़ में हम पीछे रह जायेंगे। मरता क्या न करता? राज्य सरकार ने केन्द्र को लिखा और कलकत्ता कोलकाता हो गया। इस दौड़ में बंगलोर वाले कैसे पीछे रहते। उन्होंने भी बंगलोर का नाम बदल कर बंगालुरू कर लिया और अब उड़ीसा ने अपना नाम बदला है कि इसे ओडीसा कहो। इससे न केवल यहां का पिछड़ापन बल्कि कालाहांडी जैसे जिलों की घोर गरीबी भी दूर हो जायेगी। उधर मध्यप्रदेश में भोपाल वाले मांग कर रहे हैं कि राजा भोज की नगरी भोपाल को अब भोजपाल कहो। अब दिल्ली की बारी है। आजकल हिन्दी इंगलिश की मिक्स भाषा हिंगलिश का जमाना है। किसी ने सुझाव दिया बताते हैं कि इसका नाम 'ढिल्लीÓ रख दिया जाए। इस सुझाव देने वाले के अपने तर्क हैं। उसका कहना है कि नामकरण यथा नाम तथा गुण होना चाहिए यानि जो हर काम में ढिलाई बरते वह 'ढिल्लीÓ। हम आए दिन देखते हैं कि हमारी सरकार चाहे गरीबी-बेकारी मिटाने का सवाल हो, चाहे महंगाई कम करने का और चाहे आतंकवादियों या नक्सलवादियों से निबटने का प्रश्न हो, यह ढि़लाई से चलती है। नहीं तो क्या कारण है कि इतना सब कुछ होने के बाद भी अभी तक अफजल और कसाब को हम मेहमान की तरह पाल रहे हैं? चारों तरफ भ्रष्टाचार का बोलबाला है, नित नए घोटाले सामने आ रहे हैं और जो इनको रोक सकते हंै, वे कह रहे हैं कि 'मैं मजबूर हंूÓ इसलिए इसको 'ढिल्लीÓ कहने में क्या हर्ज है? कहते हंै कि काने को काना कह दिया तो कोई जुर्म नही है। आप चाहे तो किसी वकील से सलाह करके देख लें, बशर्तें कि वह इसके लिए आपसे कोई भारी भरकम फीस न ऐंठ ले। कुछ लोगों की राय है कि आज कल देश के राजनीतिक पटल पर दलों के दलदल का जो दृश्य है, उसको देखते हुए देश की राजधानी का नाम 'दलदलीÓ होना चाहिए, जबकि कुछ की राय है कि जब कतिपय लोगों ने इसको दाल समझ कर दल दिया है तो क्यों नही इसका नाम 'दलीÓ रखा जाए? एक इंगलिश अखबार के विद्वान पाठक ने इसे विश्व का तीसरा सबसे प्रदूषणयुक्त शहर बताते हुए इसका नाम 'डैडलीÓ रखने का सुझाव दिया है। वैसे इस विषय में खोज हेतु कई विशेषज्ञ भी लगे हुए हैं। एक और नाम जोरों से चर्चा में है। वह नाम है 'देलीÓ, अर्थात इसके जिसने दे ली, उसने दे ली। अब उसका कुछ नहीं हो सकता। इतिहास बताता है कि कई आक्रमणकारी आएं और इसके दे के, मार के, चले गए। संसद और फिर मुम्बई के ताज होटल पर हमला इसकी ताजा मिसाल है। वे आए और दे के, मार के, चले गये। इस विषय में एक दिलचस्प किस्सा है। कुछ लोग देश में हो रहे नित नए घोटालों पर, चांदनी चौक में, एक चाटवाले के ठेले के पास चर्चा कर रहे थे। एक का कहना था कि लोग देश को ऐसे लूट रहे हैं, जैसे चगेंज खां, नादिर खां, तैमूर लंग इत्यादि ने दिल्ली को लूटा था। तो इनकी बातें सुन रहे चाट वाले ने कहा- बाबूजी! यह दिल्ली बसी ही लुटियन जोन पर है, तो लुटेगी नहीं तो और क्या होगा?
नाम तो और भी कई हैं लेकिन एक सुझाव है कि क्यों नहीं इसके लिए मंत्रियों के एक अध्यन दल का गठन कर दिया जाए या इसे किसी न्यायिक कमीशन को सौंप दिया जाए जो करोड़ों रुपए खर्च करके दस-बीस साल में अपनी रिपोर्ट सरकार को दे दें।
यह व्यंग्य लेख सेवानिवृत्त इंजीनियर श्री शिवशंकर गोयल ने भेजा है। उनका संपर्क सूत्र है-फ्लेट नं. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट नं. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75
वैसे भी कुछ लोगों को देश की रोटी-रोजी की समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए प्रान्तीयता अथवा मंदिर-मस्जिद का मुद्धा उठाना ज्यादा ठीक लगता है तो कुछ को महंगाई, बेकारी, गरीबी तथा विकास जैसी ज्वलंत समस्याओं से लोगों का ध्यान बंटाने के लिए गांवों, शहरों के नाम बदलने का नुस्खा ज्यादा कामयाब नजर आता है। इसलिए अधिक बुद्धिमान लोगों ने सबसे पहले देश के चारों महानगरों के नाम बदलने का बीड़ा उठाया है। पहले बम्बई का नम्बर आया। बम्बई के 'रिमोट कन्ट्रोलÓ से एक रोज उनके सांध्य दैनिक में फरमान आया कि बम्बई का नाम बदल कर मुंबई करो। अत: बम्बई मुम्बई हो गई। एक ही झटके में न केवल मराठी मानुस का बल्कि सबका कल्याण हो गया। देश की व्यापारिक राजधानी का व्यापार भी बढ़ गया, सब को नौकरी भी मिल गई और महंगाई भी कम हो गई। कुछ समय बाद नम्बर आया मद्रास का। कुछ लोगों को इस नाम में अंग्रेजियत की बू आती थी, अत: इसका नाम बदलकर चेन्नई कर दिया गया। हुई न यह कमाल की बात ? रातों रात सारे देश के लोगों को तमिल का ज्ञान हो गया और गरीब झुग्गी-झोपडी वालों एवं मछुआरों की समस्याएं हल हो गईं। बाकी चीजें मुफत में बंटेंगी, वह अलग से। फिर कलकत्ता की बारी आई और भद्र लोगों ने वहां की राज्य सरकार की नाक में दम कर दिया कि इसे कोलकाता बनाओ वरना प्रगति की दौड़ में हम पीछे रह जायेंगे। मरता क्या न करता? राज्य सरकार ने केन्द्र को लिखा और कलकत्ता कोलकाता हो गया। इस दौड़ में बंगलोर वाले कैसे पीछे रहते। उन्होंने भी बंगलोर का नाम बदल कर बंगालुरू कर लिया और अब उड़ीसा ने अपना नाम बदला है कि इसे ओडीसा कहो। इससे न केवल यहां का पिछड़ापन बल्कि कालाहांडी जैसे जिलों की घोर गरीबी भी दूर हो जायेगी। उधर मध्यप्रदेश में भोपाल वाले मांग कर रहे हैं कि राजा भोज की नगरी भोपाल को अब भोजपाल कहो। अब दिल्ली की बारी है। आजकल हिन्दी इंगलिश की मिक्स भाषा हिंगलिश का जमाना है। किसी ने सुझाव दिया बताते हैं कि इसका नाम 'ढिल्लीÓ रख दिया जाए। इस सुझाव देने वाले के अपने तर्क हैं। उसका कहना है कि नामकरण यथा नाम तथा गुण होना चाहिए यानि जो हर काम में ढिलाई बरते वह 'ढिल्लीÓ। हम आए दिन देखते हैं कि हमारी सरकार चाहे गरीबी-बेकारी मिटाने का सवाल हो, चाहे महंगाई कम करने का और चाहे आतंकवादियों या नक्सलवादियों से निबटने का प्रश्न हो, यह ढि़लाई से चलती है। नहीं तो क्या कारण है कि इतना सब कुछ होने के बाद भी अभी तक अफजल और कसाब को हम मेहमान की तरह पाल रहे हैं? चारों तरफ भ्रष्टाचार का बोलबाला है, नित नए घोटाले सामने आ रहे हैं और जो इनको रोक सकते हंै, वे कह रहे हैं कि 'मैं मजबूर हंूÓ इसलिए इसको 'ढिल्लीÓ कहने में क्या हर्ज है? कहते हंै कि काने को काना कह दिया तो कोई जुर्म नही है। आप चाहे तो किसी वकील से सलाह करके देख लें, बशर्तें कि वह इसके लिए आपसे कोई भारी भरकम फीस न ऐंठ ले। कुछ लोगों की राय है कि आज कल देश के राजनीतिक पटल पर दलों के दलदल का जो दृश्य है, उसको देखते हुए देश की राजधानी का नाम 'दलदलीÓ होना चाहिए, जबकि कुछ की राय है कि जब कतिपय लोगों ने इसको दाल समझ कर दल दिया है तो क्यों नही इसका नाम 'दलीÓ रखा जाए? एक इंगलिश अखबार के विद्वान पाठक ने इसे विश्व का तीसरा सबसे प्रदूषणयुक्त शहर बताते हुए इसका नाम 'डैडलीÓ रखने का सुझाव दिया है। वैसे इस विषय में खोज हेतु कई विशेषज्ञ भी लगे हुए हैं। एक और नाम जोरों से चर्चा में है। वह नाम है 'देलीÓ, अर्थात इसके जिसने दे ली, उसने दे ली। अब उसका कुछ नहीं हो सकता। इतिहास बताता है कि कई आक्रमणकारी आएं और इसके दे के, मार के, चले गए। संसद और फिर मुम्बई के ताज होटल पर हमला इसकी ताजा मिसाल है। वे आए और दे के, मार के, चले गये। इस विषय में एक दिलचस्प किस्सा है। कुछ लोग देश में हो रहे नित नए घोटालों पर, चांदनी चौक में, एक चाटवाले के ठेले के पास चर्चा कर रहे थे। एक का कहना था कि लोग देश को ऐसे लूट रहे हैं, जैसे चगेंज खां, नादिर खां, तैमूर लंग इत्यादि ने दिल्ली को लूटा था। तो इनकी बातें सुन रहे चाट वाले ने कहा- बाबूजी! यह दिल्ली बसी ही लुटियन जोन पर है, तो लुटेगी नहीं तो और क्या होगा?
नाम तो और भी कई हैं लेकिन एक सुझाव है कि क्यों नहीं इसके लिए मंत्रियों के एक अध्यन दल का गठन कर दिया जाए या इसे किसी न्यायिक कमीशन को सौंप दिया जाए जो करोड़ों रुपए खर्च करके दस-बीस साल में अपनी रिपोर्ट सरकार को दे दें।
यह व्यंग्य लेख सेवानिवृत्त इंजीनियर श्री शिवशंकर गोयल ने भेजा है। उनका संपर्क सूत्र है-फ्लेट नं. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट नं. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75
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