शनिवार, 9 जुलाई 2011
आडवाणी जी ने किया लोकपाल विधेयक के इतिहास का खुलासा
पिछले कुछ दिनों से लोकपाल विधेयक को बड़ा हल्ला मचा हुआ है। अन्ना हजारे के अनशन के बाद केन्द्र सरकार हालांकि उनकी टीम के साथ प्रभावी लोकपाल विधेयक बनाने को राजी हुई और उस पर बहस भी हुई, मगर सहमति नहीं हुई। विशेष रूप से प्रधानमंत्री, सुप्रीम कोर्ट व सांसदों के मुद्दे पर मतांतर बना हुआ है। ऐसे में अन्ना हजारे ने सभी राजनीतिक दलों से अलग-अलग चर्चा की है। सरकार कह रही है कि वह विधेयक संसद में पेश कर देगी, वहीं पर फैसला होगा। उधर अन्ना हजारे अपनी टीम की ओर से तैयार ड्राफ्ट को ही लागू करवाने के लिए अड़े हुए हैं और आगामी 16 अगस्त से फिर अनशन की चेतावनी दे चुके हैं।
असल में लोकपाल विधेयक का इतिहास काफी पुराना है। कितनी ही बार इस पर चर्चा हो चुकी है, मगर हर बार किसी न किसी वजह से बाधाएं आती रहीं। यह पहला मौका है कि इस पर पूरे देश को जगाने की कोशिश हुई है। आमजन की भी इसमें रुचि जागृत हुई है और वे इसके बारे में जानना चाहते हैं।
भाजपा के वरिष्ठ नेता व पूर्व उप प्रधानमंत्री श्री लाल कृष्ण आडवाणी लोकपाल विधेयक के इतिहास के काफी करीबी गवाह हैं। उन्होंने हाल ही अपने ब्लॉग पर इसका खुलासा किया है। उन्होंने लिखा है कि भारतीय संसद के इतिहास में यही ऐसा विधेयक है, जिसका इतिहास सर्वाधिक इतना उतार-चढ़ाव वाला रहा है।
वे लिखते हैं कि लोकपाल शब्द मूलत: स्वीडन के अम्बुड्समैन का भारतीय संस्करण है, जिसका अर्थ होता है कि जिससे शिकायत की जा सकती हो। अर्थात अम्बुड्समैन वह अधिकारी है, जिसकी नियुक्ति प्रशासन के विरुद्ध शिकायतों की जांच करने हेतु की जाती है।
लोकपाल विधेयक के इतिहास पर प्रकाश डालते हुए आडवाणी जी बताते हैं कि सन् 1966 में तत्कालीन राष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन ने प्रशासनिक सुधार आयोग गठित किया था, जिसके अध्यक्ष मोरारजी भाई देसाई थे। इसी आयोग ने लोकपाल गठित करने हेतु कानून बनाने का सुझाव दिया था। उन्हीं के सुझाव पर पहली बार 43 साल पहले चौथी लोकसभा में इस किस्म के विधेयक को पेश किया गया था। तब इसे लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक, 1968 के रूप में वर्णित किया गया था। तब से लेकर आज की पंद्रहवीं लोकसभा तक इसका इतिहास काफी उतार-चढ़ाव भरा रहा है, जिसके कि आडवाणी जी गवाह हैं।
आडवाणी जी बताते हैं पहली बार विधेयक को दोनों सदनों की संयुक्त समिति को भेजा गया और समिति की रिपोर्ट के आधार पर विधेयक को लोकसभा ने पारित किया, लेकिन जब विधेयक राज्यसभा में लम्बित था, तभी लोकसभा भंग हो गई और इसलिए विधेयक रद्द हो गया।
पांचवीं लोकसभा में श्रीमती इंदिरा गांधी ने एक बार फिर इस इस विधेयक को प्रस्तुत किया। 6 वर्षों की लम्बी अवधि में यह विचार किये जाने वाले विधेयकों की श्रेणी में पड़ा रहा। सन् 1977 में लोकसभा भंग हो गई और विधेयक भी रद्द हो गया।
इसके बाद सन् 1977 में मोरारजी भाई देसाई की सरकार में यह विधेयक लोकपाल विधेयक, 1977 के रूप में प्रस्तुत किया गया। विधेयक को संयुक्त समिति को भेजा गया जिसने जुलाई, 1978 में अपनी रिपोर्ट सौंप दी। जब विधेयक को लोकसभा में विचारार्थ लाना था, तब लोकसभा स्थगित हो गई और बाद में भंग। और इस प्रकार यह विधेयक भी समाप्त हो गया।
सन् 1980 में गठित सातवीं लोकसभा में ऐसा कोई विधेयक पेश नहीं किया गया। सन् 1985 में, जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, तब लोकपाल विधेयक नए सिरे से प्रस्तुत किया गया । इसे फिर संयुक्त समिति को सौंप दिया गया। उस समय श्री आडवाणी जी राज्यसभा में विपक्ष के नेता थे। उन्होंने शुरू में ही बता दिया कि दो संयुक्त समितियां पहले ही गहराई से इस विधेयक का परीक्षण कर चुकी हैं। इस व्यापक काम को फिर से करने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन समिति ने अपने हिसाब से इसे नहीं माना। तीन वर्षों तक समिति ने शिमला से त्रिवेन्द्रम और पंजिम से पोर्ट ब्लयेर तक पूरे देश का दौरा किया। वास्तव में समिति ने 23 विभिन्न राज्यों तथा केन्द्र शासित प्रदेशों का दौरा किया। समिति का कार्यकाल कम से कम आठ बार बढ़ाया गया और इसकी समाप्ति 15 नवम्बर, 1988 को तत्कालीन गृहराज्य मंत्री चिदम्बरम ने समिति को सूचित किया कि सरकार ने इस विधेयक को वापस लेने का निर्णय किया है। संयुक्त समिति में विपक्ष के सभी सदस्यों पी. उपेन्द्र, अलादी अरुणा, के. पी. उन्नीकृष्णन, जयपाल रेड्डी, सी. माधव रेड्डी, जेनइल आबेदीन, इन्द्रजीत गुप्त, वीरेन्द्र वर्मा और आडवाणी जी के हस्ताक्षरों से युक्त एक असहमति नोट संयुक्त रूप से प्रस्तुत किया गया। उसमें दर्ज किया गय कि आज तक लोकपाल विधेयक के अनेक प्रारूप प्रस्तुत किए जा चुके हैं। 1985 वाला विधेयक विषयवस्तु में नीरस और दायरे में सर्वाधिक सीमितता से भरा है। अत: जब सरकार ने इसे दोनों सदनों की संयुक्त समिति को भेजने का निर्णय लिया तो आडवाणी जी सहित सभी आशान्वित हुए कि सरकार इस विधेयक की अनेक कमजोरियों को सुधारने के लिए खुले रूप से तैयार है।
आडवाणी जी सहित सभी ने बहुमत के इस विचार कि विधेयक को वापस ले लिया जाए से कड़ी असहमति व्यक्त करते हुए कहा कि संयुक्त समिति की तीन वर्षों की लम्बी मेहनत व्यर्थ में खर्चीली कार्रवाई सिध्द होगी। अहसति पत्र में लिखा गया कि शुरुआत से ही सभी इस विचार के थे कि जो विधेयक प्रस्तुत किया गया है, वह अपर्याप्त है। सरकार इससे सहमत नहीं थी और उसके बाद उसने आगे बढऩे का फैसला किया। और अब, तीन वर्षों के बाद, शायद यह इस निष्कर्ष पर पहुंची है कि यह न केवल अपर्याप्त है, अपितु यह इतना खराब भी है कि इसे सुधारा भी नहीं जा सकता। विधेयक की वर्तमान विसंगतियों के बावजूद लोकपाल से, मंत्रियों की ईमानदारी की जांच करने वाले के रूप में आशा की जाती है। पिछले दो वर्षों में उच्च पदों पर भ्रष्टाचार सार्वजनिक बहसों का जोशीला मुद्दा बन चुका है। राज्यों में लोकायुक्त के क्षेत्राधिकार के कामकाज का अध्ययन करके पता चला कि अनेक राज्यों के मुख्यमंत्री लोकायुक्त के क्षेत्राधिकार में आते हैं, अत: आडवाणी जी का यह दृढ़ मत है कि प्रधानमंत्री का पद भी लोकपाल के क्षेत्राधिकार में लाया जाना चाहिए। यह अत्यन्त ही दुख का विषय है कि इस मुद्दे पर लोगों की चिंताओं और हमारी मांग के औचित्य की सराहना करने के बजाय सरकार का रुख इस विधेयक को ही तारपीडो करना तथा इसे वापस लेने की ओर बढऩे वाला है। अत: संयुक्त समिति को जनता की नजरों में गिराना है। उच्च पदों पर बैठे लोगों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के चलते सरकार की घबराहट को दर्शाता है तथा एक ऐसी संस्था का गठन करने से कतराने को भी, जो उसके लिए चिंता का कारण बन सकती है। सरकार द्वारा अपने कुकर्मों पर पर्दा डालने के लिए के भौंडे सरकारी प्रयासों का हम समर्थन नहीं कर सकते। इसलिए यह असहमति वाला नोट प्रस्तुत है।
आडवाणी जी आगे बताते हैं कि सन् 1989 में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस चुनाव हार गई। श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह भाजपा और वामपंथी दलों के बाहरी समर्थन से बनी गठबंधन सरकार के प्रधानमंत्री बने। सन् 1989 में इस सरकार द्वारा प्रस्तुत लोकपाल विधेयक में स्वाभाविक रूप से 1988 के संयुक्त असहमति नोट में दर्ज गैर-कांग्रेसी विचारों की अभिव्यक्ति देखने को मिली और प्रधानमंत्री को भी इसके दायरे में लाया गया। तत्पश्चात अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए सरकार द्वारा प्रस्तुत लोकपाल विधेयकों में भी प्रधानमंत्री को इसके दायरे में रखा गया। आडवाणी जी बताते हैं कि उन्हें अच्छी तरह से याद है कि प्रधानमंत्री के रूप में श्री अटल बिहारी वाजपेयी इस पर अडिग थे कि प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे के बाहर नहीं छोड़ा जाना चाहिए।
आडवाणी जी ने एक तालिका भी दी है, जिसमें दर्शाया गया है कि सन् 1968 से प्रस्तुत सम्बन्धित विधेयकों में से किन-किन में प्रधानमंत्री को इसके दायरे में रखा गया और किन-किन से बाहर
लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक, 1968 नहीं
लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक, 1974 नहीं
लोकपाल विधेयक 1977 नहीं
लोकपाल विधेयक 1985 नहीं
लोकपाल विधेयक 1989 हां
लोकपाल विधेयक 1996 हां
लोकपाल विधेयक 1998 हां
लोकपाल विधेयक 2001 हां
टेलपीस (पश्च लेख)
इस तालिका के बाद आडवाणी जी लिखते हैं कि वे चालीस साल से संसद में हैं और सरकार द्वारा बुलाई गई अनगिनत सर्वदलीय बैठकों में भाग ले चुके हैं। गत 3 जुलाई की शाम को प्रधानमंत्री द्वारा आहत बैठक न केवल अनोखी सिध्द हुई और ऐसी भी जो अतीत में कभी देखने को नहीं मिली। कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि सर्वदलीय बैठक सरकार की आलोचना करने पर सर्वसम्मत हुई है, जैसी कि पिछले सोमवार को हुआ। लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने विचार-विमर्श की शुरुआत की। उनका भाषण खरा और दमदार था। देश एक मजबूत और प्रभावी लोकपाल चाहता है, लेकिन इस मुद्दे पर सरकार का जो रुख रहा और संसद को एक किनारे कर दिया गया, उसके बचाव में कुछ नहीं कहा जा सकता। प्रचलित संसदीय प्रक्रिया को दरकिनार कर इसने मामले को उलझा दिया और अपने आपको हंसी का पात्र बना दिया। यह सर्वदलीय बैठक इस मुसीबत में से निकलने का प्रयास दिखती थी। बैठक में बोलने वाले सभी सांसदों ने भाजपा नेत्री की बात का समर्थन किया। बैठक में अंतिम वक्ता थे राज्य सभा में विपक्ष के नेता अरूण जेटली। उन्होंने कहा सरकार ने यहां पर विधेयक के दो प्रारूप हमें दिए हैं-एक टीम हजारे द्वारा तैयार और दूसरा पांच मंत्रियों द्वारा तैयार। उन्होंने इस पर जोर दिया कि मंत्रियों वाले प्रारूप ने लोकपाल को एक दब्बू सरकारी व्यक्ति बना दिया। जब सरकार ने संसद में लोकपाल विधेयक प्रस्तुत करे तो वर्तमान प्रारूप् को आमूल चूल बदल देना चाहिए।
-कंवल प्रकाश किशनानी,
जिला प्रचार मंत्री, शहर जिला भाजपा अजमेर
निवास-599/9, राजेन्द्रपुरा, हाथीभाटा, अजमेर
फोन-0145-2627999, मोबाइल-98290-70059 फैक्स- 0145-2622590
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