सोमवार, 5 दिसंबर 2011

मुस्कुराइये, क्यों कि अजमेर में पधारे हैं


कहते है कि सीरत अथवा स्वभाव, चाहे किसी का हो, आसानी से बदलता नही हैंइस
विषय में राजस्थानी में एक कहावत बहुत मषहूर है जिसमें कहा गया है कि ‘जी का
पडया स्वभाव जावे जीवसै’ै अर्थात स्वभाव तो अंत तक साथ चलता हैं. अब आप इस षहर
को ही लेवें. यह षहर अपने हंसी मजाक, दिल्लगी से कभी बाज नही आता हैं. यहां जगह
जगह जो इष्तहार, पोस्टर, बोर्ड इत्यादि लगाए जाते है लोगबाग उसमें भी अनाधिकार चेष्टा
करके बदलाव कर देते हैं और अनायास ही हंसी-खुषी का माहौल पैदा होजाता हैं.
एक स्थान पर आसपास के गांववालें बेचने हेतु सरौली-चूसनेवालें-आम लेकर आते
थे और सडक किनारे ढेरी लगाकर बेचा करते थे. एक बार वही पास में ही किसी ने
अपनी मिल्कियत की धाक जमाने हेतु एक रास्ते पर बोर्ड लगा दिया जिस पर लिखा था
‘आम रास्ता नही है’ै’ इस सूचना को किसी मनचले ने बदलकर कर दिया ‘आम सस्ता नही
है’ै’ जब लोगांे ने देखा कि नीचे ढेरी लगाकर किसान आम बेच रहा है और उपर बोर्ड लगा
हुआ है कि आम सस्ता नही है ! तो एक रोज भीड इकटठा होगई. उनमें तरह तरह की
चर्चा चल पडी. इनमें से कुछ का कहना था कि जैसे केन्द्र सरकार फुटकर व्यापार में
वालमार्ट जैसी विदेषी कम्पनियों को लाकर छोटा व्यापार करनेवालों के साथ मखौल कर रही
है ऐसा ही मजाक यहां हो रहा हैं.
एक बार नगर के एक पार्क में परिषद ने बोर्ड लगवा दिया ‘इस पार्क में कुत्ुत्तों का
प्रव्रवेष्ेष वर्जित है’ै’ पता नही इस सूचना को ‘उन्हांेने’ पढा या नही लेकिन उन्होंने आना-जाना
जारी रखा. ठीक भी है चौपाएं है उन्हें कौन समझायें ? इस बारें में कइयों की तो यह राय
थी कि क्या पता उन्हें हिन्दी लिखना पढना आता भी है या नही क्योंकि आजकल चारों
तरफ अंग्रेजी का फैषन चल पडा हैं. खैर, जो भी हो. कुछ दिनों तो यह चलता रहा फिर
एक दिन किसी अधिक समझदार ने इस सूचना के नीचे लिख दिया ‘पढनेवेवाला बेवेवकूफूफ है’ै’.
इतना लिख देने के बाद आते-जाते कई लोग इन लाइनों को पढतो लेते लेकिन ऐसा
दिखाते गोया उन्होंने कुछ पढा ही नही. अब आप जानो कि खामेंखा मूर्ख कौन बनना
चाहेगा ? लेकिन ऐसा ज्यादा दिन नही चला. किसी ने नहलें पर दहला चलाते हुए इस
लाईन के नीचे लिख दिया ‘लिखनेवेवाला बेवेवकूफूफ है’ै’ अब यह पूरा ईष्तहार इस तरह बन
गया:-
‘इस पार्क में ं कुत्ुत्तों ं का प्रव्रवेष्ेष वर्जिर्तत है
पढनेवेवाला मूख्ूर्ख है
लिखनेवेवाला बेवेवकूफूफ है ’
देखा आपने ? कुत्तों पर बात चलते चलते कहां तक आ पहुंची. एक रोज सुबह की
सैर करनेवालों की भीड इस बोर्ड के सामने एकत्रित होगई. अपने देष में बात बिना बात
भीड इकटठा होना आम बात हैं. लोगों का कहना था कि एनडीए षासन के समय साहित्य
में बदलाव की बयार चली थी. उसी कडी में प्रसिद्ध कवियों के दोहें तक बदले जाने लगेवह
क्रम चालू रहा. मसलन पहले कभी एक दोहा हुआ करता था
‘पढोंगंगे लिखोंगंगे तो बनोंगंगे नवाब,
खेलेलोंगंगे कूदूदोंगंगे तो होअेओंगंगे खराब’
अब क्रिकेट के दिवानों ने इसे इस तरह से बदलने की ठानली
‘पढोंगंगे लिखोंगंगे तो रहोंगेंगे बेकेकार,
क्रिक्रकेटेट ही खेलेलोंगंगे तो बनोंगेंगंगे कुछुछ यार’.
वैष्वीकरण, उदारवाद एवं पूंजी के मिश्रण से बेकारी कहां तक पहुंच गई है
इसकी एक झलक एक चाय की थडी पर इस तरह देखने को मिल रही हैं. लिखा
हैः-
‘गुलुलामी की जंजंजीरों ं से,े,
स्वतंत्रंत्रता की षान अच्छीदो-
े-तीन हजार की नौकैकरी से,े,
चाय की दुकुकान अच्छी.’
इस षहर में पानवालें भी तरह तरह के इष्तहार लगाने के आदी रहे हैं. अब आप
षहर के मषहूर कंवरीलाल पानवालें को ही देखें. उसने पहले एक तख्ती टांगी थी जिस पर
लिखा था ‘आज नकद, कल उधार’. चूंकि दिनरात कैंची चलाता रहता था इसलिए थोडे
दिनों बाद इसे बदलकर दूसरी तख्ती लगादी, लिखा ‘उधार मोहेहब्बत की कैैंचंची है’. उस
दुकान पर अकसर एक पंडितजी आया करते थे. वह पान अक्सर उधारी में ही खाया करते
थे. लेकिन धर्मग्रन्थों की उनकी जानकारी की चारों तरफ धाक थी. बातों ही बातों में एक
दिन उन्होंने बताया कि कलियुग तो क्या उधारी का हिसाब किताब तो त्रेतायुग से चला
आरहा हैं. राजा दषरथ ने केकैयी को जो दो वर दिए थे वह उधार रहने दिये. जब राम
का राजतिलक होने लगा तो केकैयी ने मौका देखकर मांग लिए. उनका मानना था कि
उधारी से आप बच नही सकते. मोरारजी देसाई जब वित्तमंत्री थे तब विदेषों से कितना
कितना उधार लाते थेपरन्तु
उधार मांगनेवालों से तंग आकर कंवरीलाल ने थोडें दिनों बाद तीसरा इष्तहार
लगाया ‘उधार मांगंगकर षर्र्मिंदंदा ना करें’ं’ परन्तु मजे की बात देखिये कि जानकार तो रहे दूर
एक रोज एक अन्जान आदमी कंवरीलाल पानवालें के पास आया और कहा कि सौ रू.
उधार देना. कंवरीलाल भौंचक्का होकर उसकी तरफ देखने लगा और बोला कि ‘मैं तो
आपको जानता तक नही’ इस पर वह षख्स बोला कि ‘तभी तो आपसे मांग रहा हूं,
जानकार तो वैसे भी मुझे उधार देते नही’ देखी आपने इस षहर के निवासियों की हंसी
दिल्लगी और दिलेरी ?
यह षहर ज्यादातर नौकरी पेषेवालों का हैं. इसमें भी रोज रोज अप-डाउन करनेवालें
भी खूब हैं. सुबह सुबह ही घर से खाना बनवाकर ले आते हैे औेर दोपहर ऑफिस के
आसपास के किसी रेस्टोरेंट, होटल में बैठकर खाना खा लेते है और आखिर में चाय मंगा
कर घंटों बैठे रहते हैं. इस समस्या से निजात पाने के लिए होटलवालों ने अपने यहां बोर्ड
टंागने षुरू कर दिए जिस पर लिखा था ‘कृप्या यहां अपना खाना मना है’ै’ परन्तु जिसे
होषियारी करनी हो वह अपना रास्ता निकाल लेता हैे जैसे टूजी स्पैक्ट्म घोटालें में हुआलोगों
ने यहां भी अपना हिसाब बैठा लिया. एक रोज दो व्यक्ति होटल में घर का लाया
खाना खा रहे थे. इतने में मैनेजर ने आकर उन्हें टोका और कहा कि आप अपना खाना
यहां नही खा सकते. इस पर उनमें से एक व्यक्ति ने जवाब दिया कि मैं इसका लाया खाना
खा रहा हूं और यह मेरा खाना खा रहा है. माहौल बिगडने से बचाने हेतु मैनेजर बेचारा
चुपचाप अपनी मेज की तरफ चल दिया, क्या कहता ?
अपेक्षाकृत छोटें षहरों में जहां माल संस्कृति नही पनपी है वहां मनोरंजन के लिए
सिनेमा हॉल हैं. ऐसे ही एक स्थान न्यूमैजेस्टिक हॉल की बात हैं. वहां पिक्चर के टिकट
बिकने के समय अकसर बहुत भीड और धक्का-मुक्की होती थी. इसके लिए प्रबंधकों ने
वहां एक बोर्ड टांग दिया. ‘कृप्या टिकट खरीदने के लिए लाईर्नन में लगे’े . संयोग की बात
एक पिक्चर ऐसी आई कि बुकिंग खुलने के बाद भी एक आदमी के अलावा कोई नही
पहुंचा. वह व्यक्ति भी आकर दूर खडा होगया. काफी देर बाद बुकिंग क्लर्क ने उससे पूछा
कि क्या आपको टिकट खरीदना है ? उसके द्वारा हामी भरने पर क्लर्क ने कहा कि फिर
टिकट लेते क्यों नही हो ? तो उसने जवाब दिया कि यहां तो लिखा है कि टिकट खरीदने
के लिए लाईन में लगे, जब लाईन लगेगी तो टिकट लूंगा.
एक बार कोई प्रोग्राम देखने के लिए स्थानीय एडीटोरियम में जाना हुआ. प्रवेष पास
से था. काउन्टर पर मैं कुछ पूछने के लिए गया तो देखा कि वहां बहुत भीड हैं. सभी हॉल
से लौट लौटकर काउंटर पर आ रहे थे. उत्सुकतावष मैंने भी जानना चाहा कि आखिर क्या
बात है ? पता लगा कि वें पूछ रहे थे कि षांति कहां बैठी है ? क्योंकि हॉल में जगह जगह
लिखा है कि ‘कृप्या षांंिति के साथ बैठैठें’ं’. मैं सोचने लगा कि यह प्रॉबलम मेरे साथ तो नही
हेै क्योंकि मैं तो अपनी धर्मपत्नि के साथ था, अकेला होता तो ओैर बात थी.
यह षहर ऐतिहासिक एवं धार्मिक स्थल होने के साथ साथ पर्यटन के लिए भी मषहूर
हैं. इसलिए यहां धर्मषालाएं भी हैं ओैर होटलें भी. हालांकि अब कुछ धर्मषालाएं होटलों में
तब्दील होती जा रही है लेकिन फिर भी धर्मषालाओं में ठहरने का अपना महत्व हैं. मुझे
यह बात पता नही थी वहतो बातों ही बातों में एक दिन एक धार्मिक प्रकृति के व्यक्ति ने
मुझे बताई. उसका कहना था कि धर्मषालाओं में उपर जाने के लिए अकसर लिखा हुआ
मिलेगा ‘जीने का रास्ता’ जबकि होटलों में आप पायेंगे ‘लिफट यानि उपर जाने का रास्ता’
दोनों ही बातों का आध्यात्मिक महत्व हैं. समझाने के बावजूद बहुधा ऐसी गूढ बातें मेरी
समझ में नही आती.
एक सरकारी विभाग के कार्यालय में कामकाज कम ही था इसलिए बाबू वगैरह जब
राजनीति एवं क्रिकेट की बातें करते करते उकता जाते तो साहब के पीए के कमरें में जाकर
मौसम अथवा पिक्चर संबंधी बातें करने लगते या और कोई टॉपिक पकड लेते. वही चाय,
मूंगफली इत्यादि मंगवा लेते. इससे पीए के कामकाज में भी दखल होता. एक रोज उसने
अपने कमरें मंे एक तख्ती टांगदी लिखा ‘यहां फालतू ना बैठैठे’. कमचारियों को यह नागवार
गुजरा. उनमें से एक कर्मचारी इस सूचना में से ‘ना’ षब्द को उठाकर नगर के बडे
हस्पताल लेगया. अब यहां रह गया ‘यहां फालतू बैठैठे’ उधर हस्पताल में जहां लिखा था ‘चुपुप
रहिये’ उसकी जगह अब होगया ‘चुपुप ना रहिये’े’, इतना ही नही किसी मनचले ने इसके नीचे
ही दीवार पर ही कोयले से लिखकर पूरा संदेष यों कर दिया
‘चुपुप ना रहिये
‘कहिए जी कुछुछ तो कहिए’
ऐसेसी भी क्या बात है ?’.
एनडीए षासन की बात हैं. एक बार एक सरकारी कार्यालय में एक छुटभैयें नेताजी
मिल गए. वह पहले दुसरें दलकी सरकार के साथ थे परन्तु सत्ता बदलते ही रातोरात इधर
आगए. कहने लगे उस सरकार ने गरीबी हटाने के लिए क्या किया, सिर्फ जगह जगह
‘गरीबी हटाओ’े’ के बोर्ड लगा दिए. क्या मिट गई गरीबी ? उस दिन जरा ज्यादा ही जोष में
थे. आगे कहने लगे अब हम भ्रष्टाचार सहन नही करेंगे. उपर से आदेष हुए है इसलिए
हर कार्यालय में ऑफीसर के कमरें में तख्तियां लगवाई हैं. उनके जाने के बाद उत्सुकतावष
मेैं साहब के चैम्बर मंे देखने गया. सामने ही बडे बडे अक्षरों में लिखा था ‘रिष्वत दे ना
लेनेना पाप है’ पढकर मैं मुस्कराएं बगैर नही रह सका. सोचने लगा क्या भूलसे पेंटर से यह
गलती हुई है या जानबूझकर किया गया कोई ‘छिपा एजेंडा’ हैंकुछ
लोगों की हंसी दिल्लगी की इंतहा देखिए. एक ठाकुर साहब के लडके की षादी
थी. ठाकुर साहब ने निमंत्रण पत्र में ही लिखवा दिया कि ‘कृप्या बारात में दारू पीकर नही
आएं’ इसकी क्या वजह थी अब इस पचडें में आप पडकर क्या करंेगे ? जब लोगांे को यह
कार्ड मिले तो उन्होंने तरह तरह के अनुमान लगाने षुरू कर दिए. मसलन एक सज्जन का
अनुमान था कि आजकल विवाह आदि में दारू इत्यादि का प्रचलन बढने से खूब धमाल होने
लगे हेै षायद इसीलिए ठाकुर साहब ने यह सब किया है जबकि ठाकुर साहब के रिष्तेदार
रामसिंहजी का दूसरा ही अनुमान था. उनका मानना था कि घर से पीकर आने के लिए
इसलिए मना किया होगाा कि जब बारात में खूब पीने पिलाने को मिलेगा ही तो नाहक घर
से पीकर आने की क्या जरूरत है ?
रेलवे में पहले यह स्लोगन लिखा मिलता था ‘रेलेलवे आपकी सम्पति है कृपया इसका
समुुिचित ढंगंग से इस्तैमैमाल करें’ं . लोगों ने इस ‘आपकी’ का कुछ और ही मतलब निकाल
लिया और जहां मौका देखा वही बल्ब निकाल लिया, कही टॉयलेट का षीषा लेगए. अब
रेलवे कारखाने में तैयार डिब्बों में यह नया स्लोगन लिखना षुरू किया है ‘कृपया कोचेच एवं
षौचैचालय को साफ रखने में हमारी मदद करें’ं परन्तु किसी ने इसमें सुधार करके यों कर
दिया ‘कृपया कोचेच एवं षौचैचालय को साफ करने में ें हमारी मदद करें’ं’.
यों होने को ‘कानूनून के सामने सब बराबर है’ै’, थानों पर लिखा ‘मेरेरे योग्ेग्य सेवेवा’,
‘दहेजेज लेनेना अपराध है’ै’ ‘यहां थूकूकना मना है’ै’ आदि स्थायी, वैधानिक नारंे भी है जो सिर्फ
देखने के काम आते हैंइसलिए
अब नगरवासियों एवं निगम को कुछ वर्षेंा पूर्व पुज्य श्री मोरारीबापू का पटेल मैदान
में कथा करते वक्त दिया गया यह सुझाव मानकर हिन्दी, इंगलिष, तमिल, कष्मीरी एवं
मणिपुरी भाषा में रेलवे स्टेषन, बस स्टैन्ड तथा षहर के प्रमुख 2 चौराहों पर निम्नलिखित
बैनर अवष्य लगाने चाहिए.
मुस्कुराइये, क्यों कि आप अजमेर में पधारे हैं
-ई. शिव शंकर गोयल,
फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,
प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.
मो. 9873706333

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