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बादशाह अकबर के समय यह दौलतखाना मुगल राजनीति व समर नीति का केन्द्र स्थल था। विश्व की सबसे लम्बी लड़ाई मुगल-मेवाड़ युद्ध यहीं से संचालित हुआ। गुलाब के इत्र का आविष्कार यहीं हुआ। जहांगीर की बेगम को 'नूरजहांÓ और पुत्र खुर्रम को 'शाहजहांÓ की उपाधि यहीं दी गई थी। ईस्ट इण्डिया को भारत में व्यापार की अनुमति भी यहीं मिली थी।
अजमेर के नया बाजार क्षेत्र में स्थित लगभग 425 वर्ष पुराना यह दौलतखाना, अकबरी महल, राजपूताना संग्रहालय व मेगजीन के नाम से ही जाना जाता है। मुगल बादशाह अकबर ने अजमेर को मुगल साम्राज्य का सबसे बड़ा सूबा बनाया था। बादशाह जहांगीर यहां तीन साल रहा। इस दौरान यहां एंग्लो-मुगल पेंटिंग का बहुत परिष्कार हुआ। सर टॉमस ने बेगम नूरजहां की एक इतनी सुन्दर पेंटिंग तैयार कराई थी कि उसकी खूबसूरती परक कुर्बान बादशाह जहांगीर ने टॉमस से मिलना स्वीकार किया और बितानी कम्पनी को भारत में व्यापार करने की अनुमति दे दी। इतिहास साक्षी है कि इस छोटी से घटना ने पूरे हिन्दुस्तान की तकदीर उलट दी थी।
मुगल इतिहास में इस दौलतखाने के महत्व को जरा सिलसिलेवार देखें-
राजपुताना संग्रहालय (मेगजीन) वस्तुत: मुगल बादशाह अकबर का महल (दौलतखाना) है। इसका निर्माण 1571 से 1574 तक तीन वर्ष में हुआ था। इस आयताकार इमारत के प्रत्येक कोने में एक विशाल बुर्ज है। भूरे पत्थर से निर्मित इस भवन का मुख्य द्वार 84 फीट ऊंचा और 43 फीट चौड़ा है। मुगल बादशाह अपनी अजमेर यात्रा के दौरान अक्सर यहीं ठहरते थे। शहंशाह जहांगीर तो यहां 1613 से 1616 तक ठहरा था और यहीं नूरजहां की मां सलमा ने गुलाब के इत्र का आविष्कर किया था। सर टॉमस रो (ब्रिटेन के राजा जॉर्ज पंचम का दूत) ने यहीं सम्राट जहांगीर से ईस्ट इण्डिया कम्पनी के लिए भारत में व्यापार की अनुमति प्राप्त की थी। कालान्तर में यह मराठों का मुख्यावास रहा और उन्होंने इसमें कुछ परिवर्तन किए। पश्चिमी बुर्ज के एक कक्ष की छत पर उन्होंने आनासागर से हटवाकर एक बारहदरी स्थापित की जिसका उपयोग मंदिर के रूप में किया जाता था। फिर अंग्रेजों ने 1818 से 1863 ई. तक इसका उपयोग शास्त्रागार के रूप में किया और इसलिए इसे मेगजीन कहा जाने लगा। सन् 1863 में इस इमारत के केन्द्रीय कक्ष में तहसील कार्यालय खोला गया जिसे 1903 में एक बुर्ज में स्थानान्तरित कर दिया गया और 1971 तक यहीं रहा। फिर 19 अक्टूबर 1908 को यहां राजपूताना संग्रहालय खोल दिया गया तथा पं. गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा इसके अधीक्षक नियुक्त किए गए। सन 1857 की क्रांति के दौरान इसकी किलाबंदी की गई। बुर्जों पर तोपें तैनात की गईं। मुख्य द्वार को बंद कर दिया गया तथा आने-जाने के लिए एक छोटा सा द्वार दक्षिण में बनाया गया जो अब जानवरों के अस्पताल के परिसर में देखा जा सकता है। सन 1892 में यहां की दक्षिणी पूर्वी बुर्ज में नगर पालिका का कार्यालय स्थानान्तरित किया गया जो पहले बारहदरी पर था।
खाटू और आगरा के पत्थर से निर्मित इस दौलतखाना के मध्य में विशाल कक्ष था जहां शाही दरबार का आयोजन होता था। उत्तर-पूरब और दक्षिण-पूरब वाली प्रत्येक बुर्ज की लम्बाई 74 फीट थी और इन बुर्जों के मध्य ऊंची दीवार के सहारे कक्ष बने हुए थे। केन्द्रीय सभाकक्ष के चारों तरफ बगीचा था। शहंशाह जहांगीर के समय यहां इण्डो-मुगल शैली की अनुपम पेंटिंग्स देखकर सर टॉमस रो भी विस्मित रह गया था। दौलतखाना के मुख्य द्वार के दोनों तरफ दो-दो झरोखे और एक शानदार गैलरी है। इन्ही झरोखों में बैठकर शहंशाह जहांगीर जनता की फरियाद सुनता था। इसी दौलतखाना में फरवरी 1576 में हल्दीघाटी युद्ध की योजना बनी थी और जनवरी 1615 में यहीं पर शहजादा खुर्रम का स्वागत किया गया, क्योंकि उसने महाराणा अमरसिंह को संधि के लिए सहमत करके हल्दीघाटी युद्ध या कहें कि मुगलों की मेवाड़ मुहिम को समाप्त किया।
पुरातात्विक वस्तुओं का संग्रह
मेगजीन के केन्द्रीय कक्ष में जो पुस्तकालय है उसमें इतिहास की प्राचीन पुस्तकों व दुर्लभ ग्रंथों का संग्रह है। इस भवन में राजपूताना संग्रहालय है। उसमें अनेक प्राचीन शिलालेख, मूर्तियां व सिक्के सुरक्षित हैं। सबसे पुराना शिलालेख पांच सदी ई. पूर्व का है, जो बड़ली (अजमेर से दक्षिण-पूरब में 36 मील दूर) गांव के मिलोत माता मंदिर से प्राप्त हुआ है। जिसका वर्तमान नाम नगरी (चित्तौड़ से उत्तर में आठ छह मील दूर) है। इसी माह 646 ईं. का सिमोली का शिलालेखों में प्रसिद्ध है- हर्षनाथ मंदिर का अभिलेख ढाई दिन के झौपड़े से प्राप्त 12वीं सदी का शिलालेख (पत्थर की सात पट्टिïयों पर अभिलेख) आदि। ऐतिहासिक प्राचीन प्रतिमाओं का भी यहां अ'छा भंडार है। हर्षनाथ मंदिर से प्राप्त लिंगोदभव प्रतिमा, ढाई दिन के झौपड़े से प्राप्त नक्षत्रों की प्रतिमाएं गुप्तकालीन यम-सूर्य-शिव-पार्वती की प्रतिमाएं और पर्शिया से आए मेगाया मागा शिल्पकारों द्वारा निर्मित सूर्य प्रतिमाएं हैं। जैन धर्म से संबंधित तीर्थंकरों की भी अनेक प्राचीन प्रतिमाएं तथा लरकाना जिले में खुदाई से प्राप्त सिंधु सभ्यता के समय की सीलें भी यहां सुरक्षित हैं। इसी तरह क्षत्रिय, शक, कुषाण, हूण व चौहान कालीन सिक्के भी इस संग्राहलय की शान हैं। अब इस भवन के मुख्य भाग में पुस्तकालय है। इस पुस्तकालय में इतिहास और पुरातत्व से संबंधित मूल्यवान प्राचीन ग्रंथ सुरक्षित हैं। विख्यात लिपि विशेषज्ञ एवं इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा सन 1908 में यहां के क्यूरेटर थे। इसी भांति दाहिनी तरफ के हिस्से में एक दर्शन-दीर्घा है, जिसमें पुरा महत्व की अनेक वस्तुओं का प्रदर्शन किया गया है। इस भवन का अब केन्द्रीय सरकार ने अधिग्रहण कर लिया है।
-शिव शर्मा, रामगंज, अजमेर
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