बुधवार, 17 अप्रैल 2013

अजमेर का अभेद दुर्ग है अनूठा तारागढ़

वर्ल्ड हेरिटेज डे पर विशेष
taragarh kila 3आक्रमण, सुरक्षा और स्थापत्य का अद्भुत नमूना है तारागढ़ दुर्ग! अजमेर में जाकर कहीं से देखिए लगता है, ऐसा लगता है मानो तारागढ़ हमें बुला रहा है। इस दुर्ग के पीछे छिपा है इसका गौरवशाली इतिहास। इसके खंडहर आज भी उतनी ही मजबूती से अपनी गाथा कह रहे हैं।
अजमेर की सबसे ऊंची पर्वत शृंखला पर स्थित तारागढ़ दुर्ग को सन् 1832 में भारत के गवर्नर जनरल विलियम बैंटिक ने देखा तो उनके मुंह से निकल पड़ा- ''ओह दुनिया का दूसरा जिब्राल्टरÓÓ और मुगल बादशाह अकबर ने तो इसकी श्रेष्ठता भांप कर अजमेर को अपने साम्राज्य का सबसे बड़ा सूबा बनाया था। 1 हजार 885 फीट ऊंचे पर्वत शिखर पर दो वर्ग मील में फैले इस दुर्ग के चारों तरफ बनी बुर्जों पर से एक ओर गहरी घाटी, दूसरी ओर लगातार तीन पर्वत शृंखलाओं, तीसरी ओर सर्पाकार पहाड़ी मार्ग के सीधे ढलान व चौथी ओर पहाड़ी की तलहटी में बसे विशाल अजमेर शहर को देखते हैं तो बड़ा सुखद रोमांच होता है। मुगलकालीन उत्तर-मध्य भारत के सामरिक नियंत्रण और उत्तर मुगलकालीन राजस्थान में मराठों, राठौड़ों तथा अंग्रेजों की रक्तिम पैंतरेबाजी में तारागढ़ का सर्वाधिक महत्व रहा। तारागढ़ की प्राकृतिक सुरक्षा एवं अनूठे स्थापत्य के कारण ही मुगल साम्राज्य का सबसे बड़ा सूबा बनाया जिसमें उस समय साठ सरकारें व 197 परगने थे।
यह ऐतिहासिक दुर्ग अजमेर के चौहान राजा अजयराज द्वितीय ने 1033 ई. में बनवाया था। इससे पहले सयादलक्ष के चौहान नरेश अजयराज प्रथम ने छठी शताब्दी में यहां चौहानों की सैन्य चौकी स्थापित की थी। प्रारंभ में नाम अजयमेरू दुर्ग था। सन् 1505 में मेवाड़ के राजकुमार पृथ्वीराज ने इस पर अधिकार किया तथा अपनी रानी ताराबाई के नाम से दुर्ग का नाम तारागढ़ रख दिया। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ. पारसनाथ सिंह के अनुसार उत्तर भारत के अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान (तृतीय) का वध इसी तारागढ़ में सुल्तान मुहम्मद गौरी ने किया था। तारागढ़ का स्थापत्य अनूठा है। दुर्ग स्थापत्य की दृष्टि से राजस्थान में कुम्भलगढ़, सिवाना, रणथम्भौर, चित्तौडग़ढ़ व तारागढ़ बेमिसाल है। इनमें भी तारागढ़ की विशिष्टता को अंग्रेज सेनापतियों ने भी खुली आंखों से स्वीकार किया। दुर्ग की अनूठी विशेषता उसके तोरणद्वार को ढकने वाली वर्तुलाकार दीवार है। ऐसा भारत के किसी भी दुर्ग में नहीं है। इसमें प्रवेश के लिए एक छोटा-सा द्वार है। उसकी बनावट भी ऐसी है कि बाहर से आने वाले दुश्मों को पंक्तिबद्ध करके आसानी से सफाया किया जा सके। मुख्यद्वार को ढकने वाली दीवार में भीतर से गोलियां और तीर चलाने के लिए पचासों सुराख हैं। किले के चारों तरफ 14 बुर्ज हैं जिन पर मुगलों ने तोपें जमा की थी। इन्हीं बुर्जों ने तो दुर्जेय तारागढ़ को अजेय बना दिया था। इसलिए तारागढ़ जिसके भी अधीन रहा, वह दुर्ग के द्वार पर कभी लड़ाई नहीं हारा। शताधिक युद्धों के साक्षी इस दुर्ग का भाग्य मैदानी लड़ाई के निर्णयों के अनुसार ही बदलता रहा। तारागढ़ के दुर्ग-स्थापत्य में चौदह बुर्जों का विशेष महत्व रहा। बड़े दरवाजे से पूरब की ओर जा रही किले की दीवार पर तीन बुर्जें हैं-घूंघट बुर्ज, गुमटी बुर्ज तथा फूटी बुर्ज। घूंघट बुर्ज इमारतनुमा है-दूर से यह नजर नहीं आती। आजकल इसमें सरकार का वायरलैस लगा हुआ है। बुर्ज की इस प्रकार की संरचना युद्धनीति के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण मानी जाती है। आगे है नक्कारची बुर्ज, कहते हैं कि सैय्यद मीरान साहब के साथ युद्ध में नगाड़ा बजाते हुए हजरत बुलन्दशाह यहीं मारे गए थे, इसलिए बुर्ज का नाम नक्कारची बुर्ज पड़ गया। अब तो ध्वंसावशेष ही दिखते हैं। शहर जाने वाली गिब्सन रोड उसी के पास से गुजरती है। इस बुर्ज के बाद है शृंगार चंवरी बुर्ज। वह आजकल लोढ़ों की कोठी है। इसके आगे चार बुर्जें हैं-अत्ता बुर्ज, पीपली बुर्ज, इब्राहिम शहीद का बुर्ज व दौराई बुर्ज। इनके बाद बान्द्रा बुर्ज, इमली बुर्ज, खिड़की बुर्ज व फतह बुर्ज है। इन बुर्जों के अलावा दुर्ग का दो किलोमीटर लम्बा परकोटा भी इसकी विशेषता है। इस परकोटे पर दो घुड़सवार आराम से साथ-साथ दौड़ सकते थे। पहले पूरा शहर इसी परकोटे के भीतर रहा होगा।
तारागढ़ का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि 1832 से 1920 के बीच अंग्रेजों ने इसमें व्यापक तोडफ़ोड़ की, जिसके परिणामस्वरूप तोरणद्वार, टूटी-फूटी बुर्जों, मीरान साहब की दरगाह आदि के अलावा आज कुछ भी शेष नहीं है। अजमेर के विख्यात इतिहासकार दीवान हरबिलास शारदा के अनुसार 1832 में भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड विलियम मेंटिक ने तारागढ़ में व्यापक तोड़-फोड़ के आदेश देते हुए व्यवस्था कर दी कि यहां नसीराबाद छावनी के सैनिकों की चिकित्सा हेतु सेनिटोरियम स्थापित कर दिया जाए। अत: 1860 से 1920 तक यहां सेनिटोरियम रहा। सन् 1033 से 1818 तक इस दुर्ग ने शताधिक युद्ध देखे। चौहानों के बाद अफगानों, मुगलों, राजपूतों, मराठों और अंग्रेजों के बीच इस दुर्ग को अपने-अपने अधिकार में रखने के लिए जो छोटे-बड़े युद्ध हुए उनका अनुमान इन ऐतिहासिक तथ्यों से लगाया जा सकता है-
1192 गढ़ पर गौरी का अधिकार, 1202 राजपूतों का आधिपत्य, 1226 में सुल्तान इल्तुतमश के अधीन, 1242 में सुल्तान अलाउद्दीन मसूद का कब्जा, 1364 में महाराणा क्षेत्र सिंह का अधिकार, 1405 में चूण्डा राठौड़ का प्रभुत्व, 1455 में मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी का अधिकार, 1505 में मेवाड़ के सिसोदिया राजपूतों का कब्जा, 1535 में गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह का अधिकार, 1538 में जोधपुर के राजा मालदेव का प्रभुत्व, 1557 में हाजी खां पठान का कब्जा, 1558 में मुगलों का अधिकार, 1818 में अंग्रेजों का अधिकार। लेकिन वक्त की विडम्बना है कि इतना महत्वपूर्ण तारागढ़ दुर्ग पुरातत्व विभाग की उपेक्षा के कारण मिट्टी में मिलता जा रहा है। इसके मुख्य द्वार और परकोटे से पत्थर निकाले जा रहे हैं। बीच में राज्य सरकार ने इसे राजस्थान का ''मिनी माउण्ट आबूÓÓ बनाने का विचार किया था, लेकिन वह योजना भी कागजों तक ही सीमित रह गई।
-शिव शर्मा, रामगंज, अजमेर

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