उत्तरप्रदेश समेत पाँच विधानसभा चुनावों के दौरान केंद्र सरकार ने जब केंद्रीय शिक्षण संस्थाओं के प्रवेश के लिए निर्धारित पिछड़ा वर्ग के आरक्षण में ही मुस्लिम छात्रों को साढ़े चार फीसदी आरक्षण देने का ऐलान किया था तो इसमें कम से कम राजनीतिक दलों को राजनीति ही नजर आई थी। संविधान मजहब-आस्था के आधार पर किसी भी किस्म के आरक्षण का निषेध करता है, लेकिन केंद्रीय सत्ता ने ठीक ऐसा ही किया और अल्पसंख्यक तबकों विशेष रूप से मुस्लिम समुदाय को आकर्षित करने के लिए उसने आनन-फानन आधिकारिक ज्ञापन के जरिये साढ़े चार फीसद आरक्षण की घोषणा कर दी। यह घोषणा तब की गई जब निर्वाचन आयोग चुनाव कार्यक्रम घोषित करने की तैयारी कर रहा था। सर्वोच्च न्यायालय ने जिस तरह यह कहा कि अल्पसंख्यक आरक्षण के लिए जिस आधिकारिक ज्ञापन का सहारा लिया गया उसका कोई संवैधानिक या वैधानिक आधार ही नहीं है उससे यह स्वत: सिद्ध हो जाता है कि केंद्रीय सत्ता अपने इस फैसले के जरिये वोटों की फसल काटना चाहती थी। हालांकि उसके फैसले का विरोध हर स्तर पर हुआ, लेकिन उसने यह तर्क दिया कि उसने इस तरह के आरक्षण का वायदा 2009 के अपने चुनाव घोषणा पत्र में किया था। वह अभी तक यह स्पष्ट नहीं कर सकी है कि उसने अपने चुनावी वायदे को पूरा करने में तीन साल की देर क्यों की ? उसके पास इस सवाल का भी जवाब नहीं कि क्या चुनावी घोषणा पत्र में दर्ज बातों को वैधानिक दर्जा हासिल हो जाता है ? यदि चुनावी घोषणा पत्र इस तरह संवैधानिक प्रावधानों को नकारने लगेंगे तो फिर जिसके जो मन आएगा वही करेगा। सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से यह सही सवाल पूछा है कि क्या वह आस्था के आधार पर आरक्षण दे सकती है ? उसे इस सवाल का जवाब न केवल न्यायपालिका, बल्कि देश की जनता को भी देना होगा। इसके साथ ही केंद्रीय सत्ता के नीति-नियंताओं को इस पर चिंतन-मनन भी करना होगा कि नीतिगत मामलों में उन्हें बार-बार मुंह की क्यों खानी पड़ रही है ? यह आश्चर्यजनक है कि सर्वोच्च न्यायालय से राहत न मिलने के बावजूद सरकार अभी भी यह मानने के लिए राजी नहीं कि उससे कहीं कोई भूल हुई है अथवा यह काम इस तरह से नहीं किया जाना चाहिए था। उसके इस रवैये का नतीजा यह है कि अल्पसंख्यक समुदाय खुद को छला हुआ महसूस कर रहा है। सबसे बड़ी समस्या उन छात्रों के समक्ष है जिन्होंने अल्पसंख्यक आरक्षण के जरिये आइआइटी प्रवेश परीक्षा में स्थान हासिल कर लिया है। सर्वोच्च न्यायालय चाहकर भी इन छात्रों को राहत नहीं दे सकता। सरकार को न केवल इन छात्रों, बल्कि अल्पसंख्यकों की मायूसी को दूर करने के लिए ऐसे उपायों पर काम करना चाहिए जो संविधान सम्मत हों। इस संदर्भ में यह नजरिया सही नहीं कि संविधान संशोधन का सहारा लिया जाना चाहिए। ऐसा करना एक और भूल होगी। इसे पहले आंध्रप्रदेश हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया और जब इसके खिलाफ केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट गई तो उसने भी हाईकोर्ट के फैसले को ही फिलहाल जायज ठहराया है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपनी मर्यादाओं में रहते हुए केंद्र सरकार से मुख्यतः तीन सवाल पूछे हैं। पहला ये कि 27 फीसद ओबीसी कोटे में से किस आधार पर उपकोटा निर्धारित किया गया दूसरा इसके लिए पिछड़ा वर्ग आयोग से कोई सलाह की गई और तीसरा कि क्या इसके लिए कोई अध्ययन कराया गया। तीनों ही सवालों का जवाब केंद्र सरकार के पास नहीं है। विपक्षी दलों खासकर बीजेपी और शिवसेना का आरोप है कि कोटा में कोटा देने का फैसला दरअसल संविधान की उस भावना के विपरीत है जिसमें धार्मिक आधार पर आरक्षण देने का विरोध किया गया है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट में दिए तर्क में सरकार ने कहा है कि उसने अपने आदेश में अल्पसंख्यक शब्द का इस्तेमाल किया है जिसका अर्थ सिर्फ मुस्लिम नहीं होता है। सुप्रीम कोर्ट के इन सवालों ने केंद्र सरकार के लिए कोई मौका नहीं छोड़ा है। आरक्षण के जरिए वंचित और कमजोर तबके को मुख्यधारा में लाने और अधिकार संपन्न बनाने में मदद मिली है लेकिन यह भी उतना ही सच है कि इस हथियार का इस्तेमाल दलों ने अपने राजनीतिक हित साधने के लिए किया है। सुप्रीम कोर्ट के इन सवालों ने भी राजनीतिक दलों के वोट लुभाने वाले खेल को ना सिर्फ उजागर किया है बल्कि उसका दस्तावेजीकरण भी कर दिया है। सवाल यह है कि क्या सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद भी अल्पसंख्यकों के वोट बैंक की राजनीति करने वाले दल फिर ऐसा कदम उठाने से बाज आएँगे। अतीत के अनुभव तो इस सवाल का जवाब ना में ही देते हैं। शाहबानो प्रकरण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए संवैधानिक संशोधन ही ला दिया गया था। समाज के कमजोर और वंचित तबके को आगे बढ़ने का मौका मुहैया कराना सरकारों का दायित्व है। लेकिन इसके लिए देखना होगा कि ऐसा करते वक्त दूसरे के हक न मारे जाएँ लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा होता नजर नहीं आ रहा।
Muzaffar Bharti
Cell:no 8764355800
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