शनिवार, 12 नवंबर 2011

बडी कचहरी - छोटी कचहरी

ईष्वर ने जबसे सृष्टि की रचना की न्याय तभी से किसी न किसी रूप में मौजूद
रहा हेैं. तुलसीदासजी ने मानस की रचना तो कलियुग में की लेकिन कथा त्रेतायुग की कहीउसमें
उन्होंने न्याय के लिए यही कहा ‘समरथ को नही दोष्ेष गुसुसांइंईर्’ . फिर ‘जिसकी लाठी
उसकी भैंस’ का जमाना आया और काजीजी न्याय करने लगे. उस काल में काजी इतने
मषहूर होगए कि उनके नाम के मुहावरें बनने लगे. मसलन ‘काजीजी दुबुबले क्यों ं ? षहर के
अंदंदेष्ेषे से’े’ या ‘मियां बीबी राजी तो क्या करेगेगा काजी ? इत्यादि फिर राजाओं का जमाना
आयाकुछ
का कहना है कि वें बडे न्यायप्रिय थे. रजवाडों के समय में न्याय कैसे होता था
इसकी एक छोटीसी मिषाल पेष है. राजस्थान की एक बडी रियासत की हुबहू घटना हैं. एक
समय उस राज्य में ‘दरबार’ के फैसले हेतु काफी फाइलंें इकटठी होने लगी. हालांकि दरबारी
एवं कारिन्दें उन्हें बार बार याद दिलाते रहते थे, ‘बडा हुकुम ! घणी खम्मा ! घणी सारी
फाइलां को ढेर लाग रयोै है जो गरीब परवर से न्याय मांग रही हेै, हुजूर की करौ’ लेकिन
महाराजा साहब को इन कामों के लिए फुर्सत कहां थी. वह कह देते
अरे बाला ! अबार रैबादेै, जद चौको दिन होसी कर देवा फैसलो, कित्तोक तो टैम
लागसी ?-अर्थात जब अच्छा दिन होगा तब फैसला कर देंगे.-
परन्तु धीरे धीरे जब फाइलों का अंबार लग गया तो एक रोज मुंह लगा एक दरबारी
हाथाजोडी करके उन्हें न्यायकक्ष में लेगया. वहां एक बडी मेज पर फाइलों का ढेर रखा हुआ
था. जब महाराजा सिंहासन पर विराज गए तो उन्होंने एक दरबारी से कहा कि ‘आलै म्हारी
छडी और इै ढेर पर मार.’ उस कारिन्दें ने उनके हुकम का पालन किया. इसका नतीजा
यह हुआ कि कुछ फाइलें मेज के दाहिनी ओर गिर गई और कुछ बांयी ओर, इसके बावजूद
कुछ अभागी फाइलें मेज पर ही पडी रह गई.
...अब काई करणों है हुजूर ! कारिन्दें ने पूछने की हिम्मत की.
...करणो कांई है रे, जो अठीनै-दाहिनी तरफ-पडी है बै सगलां जीत गया औेर जो
बठीनै-बांयी तरफ-पडी है बै बापडा-अभागा-सगलां हार गया.-दाहिनी तरफवालें जीत गए
और बांयी तरफवालें हार गए-
...हुजूर ! अै कुछ फाइलां तो अठैही-मेज पर ही- रहगी, ब्याकौ कांई करणो है ?
-जो कुछ फाइलें मेज परही रह गई उनका क्या करना है-
... अरे गेला ! तू गेलो ही रयौ, तू कोनी सुधरै. यांको यान करणो है कि सबानै
साल दो साल की तारीख दे दै. न्याय कोई यांन ही कोनी मिलै, कोई हथेली म्है तो सरसों
उगै कोनी, इमै भी टैम लागेै. समझयो या कोनी समझयो ?-यानि बाकी लोगों को अगली
तारीख देदे. इतना कह कर महाराजा यह कहते हुए चल दिए कि ‘म्हानै अब और टैम
कोनी. और घणो ही काम करबा को है, ओ एकलो काम ही थोडी हेैं.’
बाद में उनकी प्रजा ने जब यह बातें सुनी तो उनमें से जीतनेवालों के उदगार थे कि
वाह ! महाराजा, घणीखम्मा, अन्नदाता कांई न्याय करयौ है, दूध को दूध और पाणी को
पाणी कर दियो जाण हंसो करै है, जदी तो अै राजा सूर्यवंषी-चन्द्रवंषी कहलावै हैें. धन्य
म्हाका भाग जो इस्यां राज म्है पैदा हुया. कलयुग म्है भी सुरग की जाण लागै हैंअंग्रेजों
के समय से ही इस षहर में दो कचहरियां थी. और दूसरी जगह की तरह
मसलन पुरानी दिल्ली की फतेहपुरी स्थित ‘भवानीषंकंकर की कचहरी,’ की तरह उनका
नामकरण नही था. आपको तो पता ही होगा कि भवानीषंकर जसवंतराव होल्कर का वजीर
था जो बाद में अंग्रेजों से मिल गया था. इसी कारण उसकी इतनी प्रसिद्धी है कि कूंचा
घासीराम स्थित उसकी हवेली आज भी ‘नमक हराम की हवेलेली’ के नामसे जानी जाती हैदेख्
ाा आपने, क्या नाम है ? खैर, इस षहर में स्थित यह कचहरियां तो एक छोटी और
दूसरी बडी कचहरी कहलाती हैं. कहते है कि कचहरियां कानून के अनुसार चलती हैं परन्तु
लोगों का कहना है कि यह दोनों कचहरियां तो आज भी वही की वही है जहां सौ साल
पहले थी. यहां वकील अब भी काला कोट पहनकर आते हैं. कहते है कि सन 1694 ईमें
इंगलेंड में क्वीन मेरी का देहांत होगया तब उनके षोक में जिन देषों में अंग्रेजों का राज्य
था वहां की अदालतों में काले कपडें पहनकर आना षुरू हुआ था जो परम्परा के वषाीभूत
होकर आज तक चालू हेैं. भला बताइये कि ऐसी परम्पराएं नही निभाएंगे तो हम दुनियां को
कैसे बतायेंगे कि कभी अंग्रेज हम पर राज्य करते थेदोनों
ही कचहरियों में बडे दिलचस्प मुकदमें आते रहते हैंे. बहुत वर्षों पूर्व की बात
है. बडी कचहरी में एक मुकदमा दाखिल हुआ. उसके अनुसार रामू नामक एक व्यक्ति यात्रा
पर गया. जाने से पहले उसने अपने मित्र ष्यामू को कहा कि मेरे पास 500 रू. है वह
तुम रखलो जब मैं वापस आउॅगा तो लेलूंगा. यह कहकर वह कुछ दिनों के लिए यात्रा पर
चला गया. जब डेढ-दो महीनें बाद वापस लौटा तो उसने ष्यामू से अपने रू. वापस मांगे
लेकिन ष्यामू मुकर गया और रामू से कहा कि कौनसे रू.? मामला अदालत में पहुंचा. जज
ने रामू से कहा कि तुमने रामू को जब रू. दिए थे तब क्या कोई अन्य व्यक्ति भी वहां था
? रामू सीधासादा था बोला हुजूर मैंने रू. एक पेड के नीचे दिए थे, उस समय वहां हम
दोनों के अलावा और कोई नही था. इस पर जज महोदय ने एक योजना बनाई ओैर उसी
अनुसार रामू से कहा कि जाओ और उस पेड से पूछकर आओ कि क्या वह इस केस में
गवाही देगा ? रामू चला गया. जब काफी देर बाद भी वह नही लौटा तो जज ने अदालत
में कहा कि क्या बात हुई रामू अभीतक नही लौटा तो ष्यामूने कहा कि वह अभी से ही
कैसे लौट आयेगा, वहतो अभी वहां तक पहुंचा भी नही होगा. इस बात पर जज ने उसको
पकड लिया और कहा कि तुम्हें कैसे मालूम कि वह पेड यहां से बहुत दूर है ? तुम सच
सच बताओ नही तो मैं तुम्हें कडी से कडी सजा दूंगा इस पर ष्यामू घबडा गया और सच
सच बता दिया. इस तरह पेड की गवाही की युक्ति काम आगई और रामू को उसकी रकम
मिल गई.
षायद इसी से प्रेरणा लेकर यहां के नगर निगम ने अपने मुख्य द्वार के पास स्थित
पेड पर एक बोर्ड लगाया हुआ है जिस पर लिखा है ‘मृतक जानवरों ं की सूचूचना यहां देवेवें’ं’
जबकि हकीकत में अकसर वहां पेड के अलावा और कोई होता ही नही हैं. निगम का
आषय यह रहा होगा कि जब पेड कचहरी में गवाही दे सकता है तो निगम की रिपोर्ट क्यों
नही दर्ज कर सकता हैं ? अवष्य कर सकता हैं और वह भी बिना पगार बढाने की मांग
किए और बिना धरना, प्रदर्षन अथवा हडताल की धमकी दिए.
इसी कचहरी में एक बार बडा दिलचस्प केस आया. वाद के अनुसार एक षाम चार
व्यक्ति दौलतबाग में जूआ खेल रहे थे. एक पुलीसवालें की नजर उनपर पड गई. उसने
उनको रंगे हाथों पकड लिया. उन पर केस दायर हुआ. काफी समय तक मुकदमा चला
और गवाह इत्यादि के बयानों के बाद अभियुक्तों की पेषी हुई. मजिस्ट्ेट ने पहले अभियुक्त
से पूछा:-
...तुम फंला तारीख को बाग में जूआ खेल रहे थे ?
...हुजूर ! पुलीस का यह आरोप गलत हैं. उस तारीख को तो मैं धार्मिक यात्रा पर
रामेष्वरम गया हुआ था. इसका प्रमाण है ‘चारधाम सप्तमपुरुरी यात्रा’ हेतु प्रसिद्ध यात्रा
कम्पनी की यह एलटीसी की रसीद. मैं धर्म-कर्म को माननेवाला व्यक्ति हूं. मुझे इनसे क्या
लेना देना ?
मजिस्ट्ेट महोदय ने उसकी दलीलों से सहमत होते हुए उसे बरी कर दियाअब
दूसरें अभियुक्त की बारी आई. उसने कहा:-
...मैं तो एक लम्बे अर्से से बीमार हूं और इसका प्रमाण है षहर के मषहूर आरएमपी,
‘खानदानी हकीम’ साहब का सार्टिफिकेटमजिस्ट्
ेट महोदय ने कुछ सोचकर उसे भी बरी कर दिया. अब तीसरें का नम्बर आयाउसने
कठघरे में खडे होकर बयान दिया:-
...सा’ब ! मैं एक जिम्मेवार सरकारी कर्मचारी हूं. हाजिरी करने के बाद हमें सुबह से लेकर
रात तक ऑफिस में मौजूद रहना पडता हैं. मैं उस रोज वहां मौजूद था और इसके सबूत
के रूप में यह रहा मेरे बॉस गजेटेड ऑफीसर का उपस्थिति प्रमाण पत्र.
मजिस्ट्ेट साहब के पास इसे भी छोडने के अलावा क्या चारा था ? जब तीनों अभियुक्त
बरी हो गए तो चौथे की बारी आई. उसने अपनी बात रखते हुए मजिस्ट्ेट साहब से कहा
...हुजूर ! जब यह तीनों ही वहां नही थे तो मैं अकेला किसके साथ जूआ खेलता ?
अंततः मजिस्ट्ेट साहब ने उसको भी बरी कर दिया.
षायद इसी से प्रेरणा लेकर देष के कुछ राजनीतिज्ञ ‘नोटेट के बदले वोटेट’ का खेल
खेल गए. अब दोनों ही मुख्य राजनीतिक दलों एवं तथाकथित समाजवादी दल के नेता,
सभी, एक एक करके मना कर रहे है कि ‘खेल’ में हम थे ही नही अर्थात ‘नो वन किल्ड
जेेिसिकालाल’ अब आखिरी बंदा भी इंकार कर देगा कि मैं अकेला किससे नोट लेता ओैर
किसको नोट देता ? इसको कहते है ‘चातुरुरी’ परन्तु इन्होंने षायद यह कहावत नही सुनी है
‘घणी चतुरुराईर्,, खुदुद नै ही खाईर्’’
कचहरी में एक बार ऐडीषनल जज के इजलास में एक केस आया. हुआ यह कि
वरमाजी और षरमाजी के सरकारी बंगलें पास पास ही थे. वरमाजी मलाईदार विभाग में थे
जबकि षरमाजी के यहां छाछ की भी तंगी थी. वरमाजी ने अलग अलग विदेषी नस्ल के दो
कुत्तें पाल रखे थे. वह बडा षोर मचाते थे. षरमाजी को यह सब बडा अखरता थाआपसकी
कुछ कहा-सुनी से जब कोई बात नही बनी तो उन्होंने ऐडीषनल जज की अदालत
में वाद दायर कर दिया. जब मामला सुनवाई हेतु आया तो जज महोदय ने वरमाजी को
पूछा कि आपने कुत्तें पाल रखे है जिनसे पडौसियों की षांती भंग होती है, आपको इस बारें
में क्या कहना है ? वरमाजी गुस्से से भरे हुए थे ही, बोले ‘हम न किसी से कुछ लेते है ना
किसी को कुछ देते है, अपनाही खाते है, अपनाही पीते हैं. हमनें कुत्तें पाले है इसमें दूसरों
को क्या एतराज है ?
...परन्तु दो दो कुत्तों की क्या आवष्यकता है ? जज महोदय ने पूछा.
...वैसे तो एक ही काफी है, हुजूर ! दूसरा तो ऐडीषनल हैं. वरमाजी ने उत्तर दिया.
यह सुनने के बाद जज महोदय ने सामने रखी फाइलों में ऐसी नजर गढाई कि फिर उठाई
ही नही जब तककि सारा इजलास खाली नही हो गयाउन
दिनों की बात है जब अधिकांष लोग कोर्ट कचहरी यातो पैदल जाते थे या तांगें
की सवारी करते थे. एक बार एक वकील साहब कचहरी जा रहे थे. रास्तें में षीतलामाता
के मंदिर के पास एक तेली की घाणी पडती थी. वहां घाणी पर एक बैल, जिसकी आंखों पर
लकडी के टॉपें लगे हुए थे, घाणी के कोल्हू के चारों तरफ चक्कर लगा रहा था. बैल के
गले में घन्टी भी बंधी हुई थी जिसकी आवाज से दूर बैठे तेली को पता चलता रहता था कि
बैल रूका नही, घूम रहा हैं. कौतुहलवष वकील साहब यह सब देख्कर ठिठक कर वही खडे
हो गए. उन्हें वहां देखकर तेली उनके पास आगया और पूछा कि हुकम, क्या बात है ? इस
पर वकील साहब ने उससे कहा कि मानलो यह बैल चलते चलते खडा हो जाय औेर
आवाज करने के लिए अपने गले में बंधी घंटी को घुमाता रहे तो तुमको कैसे पता लगेगा
कि यह घूम रहा है या रूका रूका ही घंटी बजा रहा है. इस पर तेली बोला ‘वकील साहब
वकालात की डिग्री आपने पास की है इस बैल ने नही की हैं. यह कर लेगा जब की तब
देखेंगेउस
जमानें में वकीलों के मुंषी अधिकांष में यातो कोई मियांजी होते थे या माथुर.
यह दोनों ही कौमें उर्दू में माहिर होती थी. मियां अब्दुल वहीद षहर के नामी फौजदारी
वकील, जिनका ऑफिस कडक्का चौक में हुआ करता था, के मुंषी थे. वकील साहब जज
महोदय के दूर के रिष्तें में भानजी दामाद लगते थे इसलिए, कहते है कि, उस समय उनकी
चवन्नी खूब चलती थी. यह निगोडी चवन्नी तो अब जाकर बंद हुई है. उस समय तो खूब
चलती थी आप किसी पुरुराने-यहां पुराने से मेरा आषय अधिक उम्रवालांे से हेै-आदमी को
पूछ सकते हेैंवही
मुंषीजी कचहरी की चाय की थडीपर बिछी मुडिडयों पर बैठे हुए अपने साथियों
को बता रहे थे कि एक बार एक आदमी से आवेष में आकर मर्डर होगया. वह चाहता था
कि उसे फांसी न होकर आजंम कैद होजाय. उसने हमारे वकील साहब से बात की. उन्होंने
उसे आष्वासन दिया कि तुम बेफिक्र रहो, मैं सब संभाल लूंगा. खैर जब फैसला हुआ तो
उस व्यक्ति को आजंम कैद की सजा सुनाई गई. वकील साहब और मैं उससे मिलने जेल
गए. वहां वकील साहब को देखते ही उसने उनका बहुत बहुत षुक्रिया अदा किया. वकील
साहब ने उससे कहा कि तुम बहुत किस्मतवालें हो जो तुम्हारें मन माफिक फैसला होगया
वर्ना जज साहब तो तुम्हें छोडनेवाले थे किसी तरह तुम्हें आजंम कैद करवाई हैंउसी
स्थान पर चाय पीते पीते मुंषी वहीद के दोस्त मुंषी देवकीनन्दन माथुर ने
बताया कि एक बार लालू-राबडीदेवी के राजकाल में हमारें वकील साहब अपने किसी
रिष्तेदार का केस लडने पटना गए. वहां उन्होंने कोर्ट में उस काम के साथ साथ एक
जनहितयाचिका भी दाखिल की कि इस राज्य में बिजली, पानी, षिक्षा, सुरक्षा इत्यादि कुछ भी
नही है. तब जज ने इन्हें कहा कि आप इसकी बजाय जनता को लेकर सडकों पर क्यों
नही आजाते ? यहां सडकें भी कहां है हुजूर ! इन्होंने जज को जवाब दियाकचहरी
में किसी फौजदारी केस की सुनवाई चल रही थी. वकील साहब एक
चष्मदीद गवाह से जिरह कर रहे थे. वाकया था कि गवाह ने मुजरिम-अभियुक्त- को रात्रि
में खून करते देखा था. उसका कहना था कि उस समय घटनास्थल के पास ही पेड पर एक
उल्लू भी था तो वकील साहब ने जोर देकर पूछा कि
... क्या तुमने उल्लू देखा है ?
गवाह सहमकर चुपचाप खडा रहा और इजलास की खिडकी से बाहर की तरफ देखने लगाइस
पर वकील साहब और भी भडक गए और गवाह से कहा
...उधर क्या देख रहे हो, मेरी तरफ देखो.
वकील साहब का इतना कहना था कि कोर्ट में मौजूद सभी लोग मुस्कराने लगे.
एक बार किसी दिवानी मुकदमें में वादी के वकील साहब अपनी जिरह पेष कर रहे
थे और नजीर पर नजीर दिए जा रहे थे. इस पर जज महोदय ने उनसे कहा कि मुझे तो
लग रहा है कि तमाम सबूतों और गवाहों के आधार पर कहा जा सकता हेै कि कसूरवार
आप हीे है, इस पर वादी के वकील ने तैष में आकर कहा कि ‘कौनैन साला कह रहा है ?
इसे सुनकर वहां उपस्थित सभी को बुरा लगा. जज साहब ने भी इसका संज्ञान लेते
हुए एतराज किया और अपने पेषकार से कहा कि वकील साहब को अदालत की मानहानि
का नोटिस दिया जाय. वहां खडे कुछ और वकीलों ने भी अपने साथी को समझाने की
कोषिष की. इस पर उन्होंने पलटा खाते हुए कहा कि मैंने तो यह कहा था कि कौनैनसा ‘ला’
कहता है ?
बाद में वकील साहब की इस दलील को कोर्ट भी मान गया और मामला वही रफा
दफा होगयाइसी
कचहरी की बात हेैं. एक चोरी के केस में एक वयोवृद्ध वकील साहब अभियुक्त
से जिरह कर रहे थे.
वकील:- क्या तुमने चोरी की ?
मुजरिमः- जी साहब
वकील:- अच्छा यह बताओ तुमने चोरी कैसे की ?
मुजरिमः- रहने दीजिए साहब, इस उम्र में आप यह सब सीखकर क्या करेंगे ?
यहां मृत्युलोक में तो कोर्ट कचहरियां होती ही है वहां यानि उपर जाने के बाद भी
वादविवाद चलते रहते हेैं. कहते है कि एक बार स्वर्ग और नरकवालों के बीच साझें की
दीवार को लेकर झगडा होगया. दोनों ही पक्षों का अपना अपना दावा था कि यह हमारी हद
हैं. बहस के दौरान यह बात उठी कि मामलें को अदालत में लेजाया जाय. इस पर
नरकवालों के चेहरें खिल उठे और स्वर्गवालें मायूस हो गए. वहतो बाद में यमदूतों ने
रहस्योदघाटन किया और बताया कि स्वर्ग में तो वकीलों का टोटा है, ढूंढें नही मिलतेउनका
केस लडेगा कौन ?
इस तरह इन दोनोही कचहरियों में मुकदमों के दौरान हंसी-मजाक की बातें भी होती
रहती हैंई.
-ई. शिव शंकर गोयल,
फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,
प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.
मो. 9873706333

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