बुधवार, 23 नवंबर 2011

ख्वाईशें दम तोडती रही


जब भी मिलते
निरंतर कहते हम से
किसी दिन
फुरसत में बात करेंगे
उनकी
फ़ुरसत के इंतज़ार में
उम्र बीत गयी
ना उन्हें फुर्सत मिली
ना हमारी हसरतें
पूरी हुयी
ख्वाईशें
दम तोडती रही
दिल की बात
दिल में रह गयी

क्षणिकाएं -5


मंजिल

मंजिल की तलाश में
ज़िन्दगी गुजर जाती
मिलती किसी को नहीं

चिंतन

चिंतन
बिना जीवन नहीं
जीवन
बिना चिंतन नहीं
एक आगे आगे
दूजा पीछे पीछे

सत्य सुनना

दूसरों का
सत्य सब सुनना
चाहते
खुद का सत्य
छुपा कर रखना
चाहते
सत्य कहना
सत्य जानते हैं
कहने से पहले
तोलते हैं
कहूँ ना कहूँ
के भंवर में
डोलते हैं

बच्चे- बड़े

बच्चे चाहते
बड़े हो जाएँ
बड़े चाहते
बच्चे बन जाएँ
बचपन-बुढापा

बड़े बचपन को
भूल नहीं पाते
बच्चे बुढापे को
समझ नहीं पाते

संतुष्टी से जीवन जीता जाता

सर्दी,गर्मी या हो
वर्षा का मौसम
एक तारा लिए एक साधू
निरंतर
मेरे घर पर आता
एकाग्रचित्त हो मन -लगन
और सहज भाव से
लोक गीत सुना कर
मंत्रमुग्ध करता
कोई दान दक्षिणा दे दे
सहर्ष स्वीकार कर लेता
नहीं दे तो मुंह नहीं
बिचकाता
ना पाने की इच्छा
ना कुछ खोने का भय
बहते पानी सा बहता
रहता
सबकी खुशी में
अपनी खुशी समझता
कुछ नहीं पास उसके
फिर भी संतुष्टी से
जीवन जीता जाता

रेत के घरोंदे

बहुत
समझाता था उसे
सपनों पर
विश्वास मत किया करो
समुद्र किनारे रेत के
घरोंदे मत बनाया करो
कभी कोई तेज़ लहर आयेगी
घर को बहायेगी
अपने सपनों को टूटते देख
तुम व्यथित हो कर
दुःख मनाओगे
बार बार घरोंदे को
याद कर आंसू बहाओगे
घरोंदे बनाने ही हो
तो मेहनत,लगन और सब्र की
सुद्रढ़ नीव से बनाओ
जो आसानी से नहीं टूटे
जीवन भर चैन से रहने दे
समय की तेज़ हवाएं
भाग्य की लहरें
कुछ बिगाड़ ना सके
निश्चिंतता से सो सको
पर कभी
बात नहीं मानी उसने
निरंतर रेत के घरोंदे से
सपनों पर विश्वास
करता रहा
शीघ्र पाने की इच्छा में
उतावलापन दिखाता रहा
जीवन भर
बेघर और असंतुष्ट रहा
असंतुष्ट ही
संसार से विदा हुआ

इसी में खुश रहती हूँ

उसकी
चुनडी, लहंगा
पुराना पैबंद
लगा होता था
पर उसे सूर्ख रंगों की
चूड़ियां
पहनने का शौक था
जब भी आती
कलाईयों में पहनी
चूड़ियों को खनकाती
रहती
एक बार रहा ना गया
उसे कह ही दिया
इतने पैसे चूड़ियों पर
खर्च करती हो
कुछ पैसे कपड़ों पर भी
खर्च कर लिया करो
उसका मुंह रुआंसा हो गया
आँखें भर आयी
कहने लगी बाबूजी
चूड़ियां खरीदती नहीं हूँ
तीसरी गली वाले बाबूजी की
चूड़ियों की दूकान है
वहां झाडू लगाती हूँ
काम के बदले में
पैसे की जगह चूड़ियां
लेती हूँ
रंग बिरंगी चूड़ियां
मुझे गरीबी का
अहसास नहीं होने देती
एक यही इच्छा है
जो पूरी कर सकती हूँ
निरंतर
इसी में खुश रहती हूँ


हँसमुखजी का ज्योतिष प्रेम (हास्य कविता)

हँसमुखजी
ज्योतिष के बारे में
कुछ नहीं जानते थे
पहली बार
ज्योतिषी के पास जन्म पत्री
दिखाने गए
जन्मपत्री देखते ही
ज्योतिषी बोला
आपकी मंगल बहुत भारी है
कन्या के घर में नीच का
बुद्ध बैठा है
चंद्रमा आठवे घर में
सूर्य के साथ है
शनी उच्च का
सातवे घर में अच्छा है
हँसमुखजी बौखलाए
अपने को रोक नहीं सके
फ़ौरन बोले सब बकवास है
मंगल मेरा बेटा है
खिला खिला कर परेशान
हो गए
वज़न बढ़ने का
नाम ही नहीं लेता
भारी कैसे हो गया
कन्या के पती का नाम
श्याम है
नीच बुद्ध राम वहाँ क्या
कर रहा है
मुझे बेवकूफ समझते हो
आठवे घर में शर्माजी
रहते हैं
सूर्य ,चंद्रमा आकाश में
रहते हैं
सूर्य दिन को निकलता है
चंद्रमा रात को
पड़ोसी का नाम शनिशचर है
एक नंबर का पाजी है
वो उच्च का कैसे हो गया
तुम खाली पीली नाटक
कर रहे हो
निरंतर बेवकूफ बना रहे हो
कहते कहते
ज्योतिषी पर टूट पड़े
मैं रोकता जब तक
पीट पीट कर
उसका वर्तमान और भविष्य
दोनों खराब कर दिए

रास्ते अलग क्यों थे ?

दोनों मित्र थे
एक यीशु मसीह को
मानता
चर्च जाता
दूसरा राम-क्रष्ण को
मानता
मंदिर जाता
दोनों निरंतर
इमानदारी से कर्म करते
निश्छल निष्कपट
जीवन जीते
थोड़े अंतराल में
दोनों का निधन हुआ
एक को दफनाया गया
दूजे को जलाया गया
दोनों मित्र स्वर्ग में मिले
तो आश्चर्य में डूब गए
एकटक एक दूजे को
देखने लगे
मन में सोचने लगे
जब मंजिल एक है
तो फिर रास्ते अलग
क्यों थे ?


मैंने भी

सपना देखा था
कोई मुझे भी मिल जाए
अपना जिसे कह सकूँ
साथ हँसू ,साथ घूमूँ
हाथ में हाथ डाल के
छोटा सा संसार हो मेरा
स्वछन्द जिसमें रह सकूँ
खुशी से जी सकूँ
प्यार की निशानी को
जन्म दूं
घर का आँगन जिसकी
किलकारियों से गूंजे
साथ भी मिला ,घर भी मिला
पर सफ़र अधूरा रह गया
काल के क्रूर हाथों से
खुशियों का संसार देखा
ना गया
मेरा देवता मुझसे
छीन लिया
जीवन शून्य हो गया
निरंतर आंसू बहाने के लिए
यादों के सहारे छोड़ दिया
कैसे सहूँ
विछोह प्रियतम का
समझ नहीं पाती हूँ
कसम खाती हूँ
अब ना देखूंगी सपना कभी
हर अबला से कहूंगी
सपनों पर विश्वास ना करे
टूटते हैं तो मौत से कम
नहीं होते सपने
मैंने भी सपना देखा था
कोई मुझे भी मिल जाए
अपना जिसे कह सकूँ ...

धोरों का, महलों का, मेरा राजस्थान

वीरों का,अलबेलों का
धोरों का,महलों का
मेरा राजस्थान
मेलों का,त्योहारों का
रंग रंगीला राजस्थान
जंतर मंतर, आमेर
बढाए जयपुर की शान
सूर्यनगरी जोधपुर
मारवाड़ की आन
झीलों की नगरी उदयपुर
प्रताप जन्म भूमी मेवाड़
गढ़ चित्तोड़ का सुनाता
पद्मनी जौहर की गाथा
पृथ्वीराज नगरी अजमेर में
बसती
ख्वाजा मोईनुद्दीन की
दरगाह
तीर्थ राज़ पुष्कर में स्थित
पवित्र सरोवर,ब्रह्मा मंदिर
शीश नवाता,स्नान करता
सारा हिन्दुस्तान
शूरवीरों की शौर्य गाथाओं का
मेरा राजस्थान
हाडोती कोटा में चम्बल
विराजे
गंगानगर अन्न की खान
ऊंटों का गढ़ बीकानेर
हवेलियाँ देखो शेखावाटी की
भरतपुर में पंछी निहारो
जैसलमेर में सोन किला
घूम घूम कर देखो
मेरा राजस्थान
मीरा डूबी क्रष्ण प्रेम में
दयानंद ने लिया निर्वाण
मकराना का संगेमरमर
ताजमहल की आन
धोलपुर का लाल पत्थर
बढाता लाल किले शान
खनिज संपदाओं से भरा
राजाओं,रजवाड़ों का
मेरा राजस्थान
जन्म भूमी पर मिटने
वालों की
आन,बान,शान का
मेरा राजस्थान

शक और स्वार्थ (काव्यात्मक लघु कथा)

संतानहीन बूढा सेठ
बुढापे से चिंतित था
बुढापा आराम से कटे
कोई सेवा करने वाला
मिल जाए
मन में खोट लिए
निरंतर सोचता था
सेवा करेगा तो ठीक
नहीं तो निकाल बाहर
करूंगा
भाग्य ने साथ दिया
एक रिश्तेदार के
बेटे को गोद ले लिया
उससे सेवा की उम्मीद
करने लगा
गोद लिया बेटा भी
कम नहीं था
वो भी सोचता कब
सेठजी दुनिया से जाएँ
कब वो जायदाद का
मालिक बन जाए
कहीं ऐसा नो हो
सेवा मैं करूँ
सेठजी धन जायदाद
किसी और को दे जाएँ
द्वंद्व में दोनों उलझे रहते
एक दूसरे पर शक करते
निरंतर
नए दांव पैतरे चलते
दिन निकलते गए
सेठजी सेवा की आस में
बीमारी से लड़ते लड़ते
स्वर्ग सिधार गए
सारी जायदाद
अनाथालय को दे गए
गोद लिया बेटा दो बाप
होते हुए भी अनाथ
हो गया
शक और स्वार्थ ने
दोनों को संतुष्ट
नहीं होने दिया

कैसे कहूं उनसे ?

(मार्मिक -हास्य)

कैसे कहूं उनसे ?
बगीचे में
रोज़ क्यों नहीं आती
क्यों कई दिन बाद
झलक अपनी दिखलाती
जब भी उन्हें देखता
मन करता
दौड़ कर गले से
लग जाऊं
कैसे अहसास दिलाऊँ ?
उनका यूँ
कई कई दिन तक
नहीं दिखना
कितनी बेचैनी
पैदा करता दिल में
ना सो पाता,ना जाग पाता
उन्हें देखने की ख्वाइश
क्या नहीं करवाती मुझसे
कैसे समझाऊँ
क्या नहीं
भुगतना पड़ता मुझको
आज दिख जाएँ शायद
उम्मीद में
भरी दोपहर धूप में भी
बगीचे में पहुँच जाता
बगीचे का माली शक से
मुझे देखता
कोई फूल चुराने वाला
समझता
मोहल्ले के लोग
मुझे लफंगा समझते
मेरी तरफ ऊंगली दिखा कर
दूसरों को बताते
कई बार सोचा उनसे
कह ही दूं
मगर हिम्मत ना
कर सका
कुछ भी हो जाए
इस बार होंसला रख
बता ही दूंगा
उनकी सूरत मेरी
दिवंगत माँ से मिलती
उनमें मुझे मेरी माँ
नज़र आती

क्षणिकाएं -6


मजबूरी

करना नहीं चाहता
फिर भी करना पड़ता

अंतर्द्वंद्व

करूँ तो
मन खुश नहीं होगा
नहीं करूँ तो
दूसरों को नाराज़
करना होगा

विडंबना

मैं उन्हें बहन
समझता
वो मुझे शक से
देखती

खुश

मैं रोज़ सपनों में
उनको देख लेता हूँ
थोड़ी देर खुश हो
लेता हूँ

दिल में
दिल में बहुतों के लिए
कुछ होता रहता है
मजबूरी में
इंसान खामोश

रहता है
*****

बदकिस्मती

उनका
इंतज़ार करते करते
सो गया
जब तक जागा
वो आकर चले गए

डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर"
"GULMOHAR"
H-1,Sagar Vihar
Vaishali Nagar,AJMER-305004
Mobile:09352007181

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