मंगलवार, 5 जून 2012

काश तू आँचल का परचम बना लेती ......!

खातिर एकजुट हो रही हैं बांग्ला महिलाएं
उत्तर भारत के प्रमुख शहरों के घरों में काम करने वाली महिला कामगारों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है. इनमे से ज्यादातर महिलाए बंगाल की है. जयपुर में ही इनकी संख्या कोई तीस हज़ार से भी अधिक है. इनके लिए कोई सेवा नियम नहीं है. लेकिन अब ये महिलाए अपने अधिकारों के लिए संगठित हो रही है.वे जगह-जगह बैठके कर रही हैं. इन महिलाओ के लिए उनकी पहचान बड़ा संकट बनी हुई है. उन्हें कई बार चोरी के इल्ज़ामों का सामना करना पड़ता है तो कभी उन्हें बांग्ला देशी करार दिया जाता है.घर-घर जाकर काम करती इन महिलाओं को समय मिला तो वे जमा हुई, सुख दुख बांटे और अपने हक़ के लिए नारे बुलंद किए.
किसी के भाल और कपाल पर उसकी राष्ट्रीयता नहीं लिखी होती. मगर जब भी कोई विवाद हुआ, इन महिलाओं को अपने ही वतन में बांग्ला देशी घोषित कर दिया गया.बिहार की गायत्री ने ये दंश कई बार झेला है.
पहचान
वो कहती हैं, ''मुझे दस बारह साल हो गए जयपुर में, मेरे पास न राशन कार्ड है , न मतदाता सूची में नाम है.मेरे जयपुर में रहने का कोई सबूत नहीं है.जहां भी काम करते है, हमें बांग्ला देशी कह कर पुकारा जाता है.आप बंगाल में जाकर पूछिए न हम कौन है, आप ममता बनर्जी से पूछिए ना."
गायत्री का कहना था कि जब महीने में चार छुट्टी की मांग करो तो बांग्लादेशी बता दिया जाता है.
यूं तो भूगोल ने बंगाल और राजस्थान में बहुत दूरिया पैदा की है.लेकिन इन घरेलू महिला कामगारों के जरिए एक बंगाल घरों के भीतर तक पहुंचा है.
कभी महारानी गायत्री देवी के वैवाहिक रिश्ते ने बंगाल और जयपुर के बीच संबधों का मजबूत सेतु खड़ा किया था क्योंकि वे कूच बिहार की थी मगर इन कामकाजी महिलाओं के लिए ये रिश्ता मजदूरी का है,मजबूरी का है.
बंगाल में कोलकात्ता से आई मंजू कहती है,''मुझे जयपुर में रहते सात साल हो गए ,लेकिन राशन कार्ड नहीं बनाया जा रहा है. हम चौबीस घंटे काम करते हैं,कभी यहां कभी वहां.एक एक औरत रोज़ पांच घरों में झाडु पोछा और चूल्हा चौका करती है.पहचान नहीं होने से बैंक खाता नहीं खुल सकता. मेरे परिवार में पांच लोग है. मकान मालिक डेढ़ दो हजार किराया ले लेता है. बच्चो को पढ़ाना मुश्किल है.''
हिकारत भरी निगाहें
गायत्री और मंजू बंगाल से हैं. मगर कमलेश तो राजस्थान की है. वो कहती है हमें बाई कह कर पुकारा जाता है और ये बड़ा अपमानजनक है. बैंक में खाता नहीं है लिहाजा दो तीन हज़ार जमा हो तो घर पर रखते है. मगर जब मकान मालिक के घर चोरी हो जाए तो वो पुलिस के साथ आते हैं और हमारी जमा पूंजी उठा ले जाते हैं. हम जानते है कि हम कैसे झूठन साफ़ कर पैसे जमा करते है. मकान मालिक लगातार किराया बढ़ाने का तकाजा करता रहता है.
भारत में कोई मोटर बंगला तो कोई सोने चांदी का तलबगार है. मगर इन औरतों की मुराद तो राशन कार्ड जैसे मुद्दों तक महदूद होकर रह गई है.
इन महिला कामगारों के संगठन की प्रमुख मेवा भारती कहती है, ''ये राशन कार्ड, वोटर कार्ड, बैंक में अकाउंट खुलवाने जैसी समस्याओ से जुझ रही हैं. इनके बच्चों के पास जन्म तिथि का सबूत नहीं होता, उन्हें बिना पहचान के स्कूल में दाखिला नहीं मिलता. महंगाई के हिसाब से मजदूरी नहीं बढती है. कार्य स्थल पर कई बार इन्हें बदसलूकी और इल्ज़ाम का सामना करना पड़ता है. इनकी संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है. बंगाल से बराबर ऐसी घरेलू कामगारों का आना जारी है.''
इन महिलाओ का कहना था कि बंगाल में रोज़गार की कमी है.लिहाजा वो जयपुर जैसे शहरों का रुख करती है. ये महज औरत नहीं, उसकी हालत का बयान है. पर इसे कौन सुनेगा. काश, वो आँचल का परचम बना लेती और जमाना गौर से सुनता...
लेखक श्री नारायण बारेठ राजस्थान के जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार हैं और लंबे समय से बीबीसी से जुड़े हैं

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