कहते हैं कि कहावतें यों ही नहीं बन जातीं। इसके पीछे ज्ञान एवं मकसद होता है। अब आप इस कहावत को ही लें, जिसमें कहा गया है कि 'यथा राजा, तथा प्रजाÓ अर्थात जैसा राजा होगा वैसा ही माहौल राज में सब तरफ हो जाता है।
कुछ समय पूर्व रेलवे में हर तरफ हंसी-मजाक का माहौल था। ऐसे माहौल में एक बार मुझे अचानक अजमेर से दिल्ली जाना पड़ा, इसलिए अपना सामान इत्यादि ले कर अजमेर रेलवे स्टेशन पहुंचा और टिकट लेने हेतु लाइन में खड़ा हो गया। मेरे आगे भी क्यू में कुछ लोग थे। सभी को जल्दी थी, लेकिन लाइन धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी। पूछने पर पता पड़ा कि बुकिंग विंडो के बाबू का सभी को एक ही जवाब था, 'मेरे पास छुट्टे पैसे नहीं हैÓ, जिसका नतीजा यह निकल रहा था कि कइयों के पैसे उस के पास छूट रहे थे। इतने में ही हड़बड़ाहट में एक व्यक्ति वहां आया और बुकिंग विंडो के बाबू से बोला कि एक टिकट नंडू खां का देना नंडू खां का?
वह कहां है? बाबू ने उत्सुकतावश पूछा।
वह बाहर सामान के पास खड़ा है, उस व्यक्ति ने हाथ के इशारे से
बतलाया।
इतना सुनते ही सब मुस्कराने लगे।
लाइन में लगे हुए एक और व्यक्ति ने बुकिंग विंडो पर दिल्ली का तत्काल टिकट मांगा, लेकिन बाबू ने कहा कि 'तत्कालÓ टिकट नहीं है, इस पर लाइन में लोग चर्चा करने लगे कि पिछले चुनाव के दिनों जब ऐक्टर धर्मेन्द्र ने बी.जे.पी. से बीकानेर का तत्काल याने ऐन मौके पर टिकट मांगा था तो उसे मिल गया। इसी तरह जब गोविन्दा ने कांग्रेस से मुम्बई का टिकट मांगा तो उसे मिल गया, लेकिन आम लोगों के लिए कहीं का भी तत्काल टिकट नहीं है, क्या यही लोकतन्त्र है?
कुछ देर बाद अपना टिकट ले कर मैं प्लेटफार्म में दाखिल हुआ। टे्रन का समय तो हो चुका था, लेकिन टे्रन अभी आई नहीं थी। थोड़ी दूर आगे चलने पर देखा कि एक स्थान पर एक व्यक्ति कुछ ढूूंढ रहा है, तभी वहां खड़े एक दूसरे व्यक्ति ने उत्सुकतावश उससे पूछा, 'क्यों भाई साहब क्या ढूंढ रहे हैं?Ó
'मेरा सूटकेस अभी-अभी यहीं पड़ा था, कुछ ही मिनटों में न जाने कौन ले गया?Ó पहला व्यक्ति बोला
आप उस समय क्या कर रहे थे?
मैं सामने वाला बोर्ड पढ रहा था जिस पर लिखा है, 'यात्री अपने
सामान की स्वयं देख भाल करें।Ó उस यात्री ने जवाब दिया। इतना सुनने के बाद सभी मुस्कराने लगे, लेकिन कोई कुछ बोला नहीं। थोड़ी देर बाद मैं वहां से चल दिया और बैठने हेतु खाली बैंच ढूंढऩे के लिए आगे बढ़ गया। प्लेटफार्म पर बैठने की बैंचें बहुत कम थीं और मुसाफिर बहुत थे, मुझे प्यास भी लग रही थी, लेकिन रेलवे की तरफ से पीने के पानी की कोई व्यवस्था नहीं थी। हां, तरह-तरह के बोतल बन्द पानी, मिनरल वाटर के नाम पर जरूर बिक रहे थे। इसी तरह जगह-जगह यह तो जरूर लिखा था कि यहां पेशाब करना मना है, लेकिन यह कहीं नहीं लिखा था कि यहां पेशाब कर सकते हैं। यात्रियों के समझ में यह बात नहीं आती कि किसी भी आइलैंड, बीच के, प्लेटफार्म पर अमूमन टायॅलेट की सुविधा क्यों नही होती है? कुछ दूर आगे चलने पर मैं फस्र्ट क्लास वेटिंग रूम के सामने से गुजरा। वहां एक यात्री वेटिंग रूम के बाहर बैठे एक कर्मचारी से पूछ रहा था कि जब टे्रनें इतनी लेट होती हैं तो टाइम टेबल का क्या फायदा? कर्मचारी ने जवाब दिया, 'अजी साहब टाइम टेबल इसलिए बनाये जाते हैं ताकि यात्रियों को पता लग जाए कि टे्रन कितनी लेट है? उसी रोज मुझे पता पड़ा कि रेलवे ने टाइम टेबल एवं वेटिंग रूम क्यों बनाये हैं। सम्भवत: इन्हीं का महत्व बढ़ाने के लिए टे्रनें लेट की जाती हैं। हालांकि मुझे मालुम था कि स्टेशन पर रिटायरिंग रूम भी बने हुए हैं, लेकिन शायद ही कोई रिटायर आदमी उसमें ठहरता हो? होना तो यह चाहिए कि रिटायर्ड आदमियों को रियायती दरों पर ठहरने की सुविधा वहां उपलब्ध होती, लेकिन ऐसा कहां है? सिर्फ उन्हें सीनियर सिटीजन का खिताब दे दिया है और मजे की बात देखिए कि रेलवे 60 साल की उम्र वाले को सीनियर सिटीजन मानता है, जब कि इन्कम टैक्स विभाग 65 साल वाले को सीनियर सिटीजन मानता आया है।
थोड़ी देर में ही स्टेशन पर माइक से घोषणा हुई कि 'अहमदाबाद-हरिद्वार मेलÓ प्लेटफार्म नम्बर एक पर आ रही है।Ó जैसे ही टे्रन अपनी निर्धारित लाइन पर आती दिखाई दी, एक सज्जन जो प्लेटफार्म पर खड़े थे, उस लाइन पर कूद गए। वह तो भला हो एक नवयुवक का जो वहीं प्लेटफार्म पर खड़ा था। उसने कूद कर उन सज्जन को बचा लिया, वर्ना उस रोज दुर्घटना होने में कोई कसर बाकी नहीं थी। थोड़ी देर में ही वहां काफी भीड़ इकट्ठी हो गई, बाद में उन सज्जन से यह पूछने पर कि उन्होंने आत्महत्या का प्रयास क्यों किया ? उन्होने जवाब दिया, 'बादशाहों! कौन सी आत्महत्या? माइक पर अनाउन्स हुआ था कि अहमदाबाद-हरिद्वार वाली गड्डी प्लेटफार्म नम्बर एक पर आ रही है, मैं उत्थे प्लेटफार्म पर ही खड़ा था, अपनी जान बचाने के लिए वहां से लाइन पर कूद गया, जान सबको प्यारी होती है। इतना सुन कर सब मुस्कराते हुए तितर-बितर हो गए।
प्लेटफार्म एवं गाडी में काफी भीड थी, कुली अपनी अपनी चादरें लिए हुए अनारक्षित डिब्बों में जगह घेरने की कोशिश कर रहे थे। प्लेटफार्म पर वैन्डर वहीं अपनी आलू की छिलके वाली सदाबहार, स्वादिष्ट सब्जी-पूरी की आवाजें लगा रहे थे। चाय वाले आवाजें तो चाय की लगा रहे थे, लेकिन असल में चाय के नाम पर गरम पानी ही बेच रहे थे। टे्रन में ही खाने के लिए चलने वाली पेंट्री कार के खाने का कटु अनुभव मुझे पहले से ही था, इसलिए मैं अपना खाना घर से ही ले कर चला था, अत: इनकी तरफ ध्यान दिये बगैर जगह के लिए किसी तरह एक डिब्बे में प्रवेश किया और थोडी कोशिश के बाद एक सीट घेर कर बैठ गया। थोड़ी ही देर में डिब्बा पूरा भर गया और कहीं जगह खाली नहीं बची। जिस सीट पर मैं बैठा था, उसके सामने वाली सीट पर एक नवयुवक बैठा था। थोड़ी देर बाद वह शायद कुछ खाने-पीने का सामान लेने नीचे उतरा। इसी बीच एक अन्य यात्री आ कर उस सीट पर बैठ गया। थोड़ी देर बाद जब वह नवयुवक वापस लौटा तो उसने दूसरे यात्री से सीट खाली करने का आग्रह किया, लेकिन काफी प्रयास के बाद भी उसका कोई नतीजा नहीं निकला तो नवयुवक ने नम्रतापूर्वक उस नये यात्री से पूछा कि आपका नाम क्या है?
'मेरा नाम रामलाल हैÓ उसने जवाब दिया
तब उस नवयुवक ने फिर उससे पूछा, 'आपके पिताजी का क्या नाम है?Ó
'मेरे पिताजी का नाम श्याम लाल हैÓ उसने बताया।
इस पर उस नवयुवक ने उस यात्री से कहा कि 'क्या यह सीट श्याम लाल जी की है, जो आप इसे खाली नहीं कर रहे हैं?Ó लड़ाई करने का आधुनिक एवं रिफाइंड तरीका देख कर वहां बैठे सभी व्यक्ति मुस्कराने लगे और आखिरकार उस व्यक्ति को नवयुवक के लिए सीट खाली करनी पड़ी। जब तक गााडी स्टेशन पर खड़ी रही सब अपनी-अपनी जगह रोकने एवं सामान को सहेज कर रखने में लगे रहे। जैसे ही गाडी अपने निर्धारित समय के बाद चली तो मेरे पास की सीट पर बैठे एक व्यक्ति ने बातचीत का सिलसिला शुरू करते हुए सामने वाले यात्री से पूछा, 'कहा तक जायेंगे?Ó वह बोला।
'मैं दिल्ली जा रहा हूं।Ó कुछ और पूछने पर उसने बताया कि वह एक सॉफ्टवेयर इजीनियर है और वहां किसी कम्पनी में नौकरी करता है, धीरे-धीरे कम्प्यूटर संबंधी बातें होने लगीं और यह बात बार-बार दोहराई जाने लगी कि देश इन्फोरमेशन टैक्नोलोजी में काफी तरक्की कर चुका है। कुछ देर बाद मेरे पास वाले सज्जन ने ही सामने की तरफ ऊपर बर्थ पर पांव पसारे लेट रहे व्यक्ति से पूछा, 'आप भी दिल्ली जा रहे हैं?Ó
वह बोला कि मैं तो अहमदाबाद जा रहा हूं। नीचे की बर्थ पर बैठे सभी विस्मय से एक-दूसरे को देखने लगे, लेकिन कोई कुछ बोला नहीं। थोड़ी देर बाद पास के हिस्से से किसी ने कमेंट किया कि 'यह आई. टी. का ही कमाल है कि एक ही डिब्बे में ऊपर की बर्थ अहमदाबाद जा रही है और नीचे की बर्थ दिल्ली जा रही है, जिसे सुन कर सब मुस्कराने लगे। अब तक ऊपर की सीट पर पसरा हुआ व्यक्ति समझ चुका था कि टे्रन जब प्लेटफार्म पर लग ही रही थी तो हड़बड़ाहट में उसने गलत ट्रेन में ऊपर की बर्थ पर अपनी चादर बिछा दी थी, लेकिन अब क्या हो सकता था, अब तो अगले स्टेशन यानि फुलेरा पर ही उतर कर गाडी बदली जा सकती थी।
सह यात्रियों के बीच बातचीत फिर आगे चल पड़ी। उन दिनों भारत- पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच की धूम मची हुई थी। वहां बैठे एक नवयुवक ने अति उत्साह में अपने पास वाले सह यात्री से पूछा, 'आपका क्या ख्याल है कि हम पाकिस्तान को हरा देंगे?Ó
'भैया हम किसी झगड़े में नहीं पड़ते। उस यात्री ने टेलीग्राफिक रिप्लाई दी। मैने जब यह सुना तो मुझे सालों पहले देखी फिल्म 'अनपढ़Ó याद आ गई, जिसमें एक उद्दंड लड़का, जिसका मन पढऩे में नहीं लगता था, इतिहास की क्लास से झुंझला कर मास्टर साहब की गैर हाजिरी में अपने साथियों के साथ गाना गाता है, जिसके बोल हैं, 'सिकन्दर ने पोरस पर, की थी चढ़ाई, की थी चढ़ाई, तो मैं क्या करूं? कौरव और पांडव में हुई हाथापाई तो मैं क्या करूं?Ó
थोडी देर में ही टीटी आ गया और सीट पर बैठे यात्रियों से टिकट मांगने के लिए हाथ बढ़ाया। सब अपनी-अपनी जेबें टटोलने लगे। इसी बीच उसने दूसरी ओर ऊपर की बर्थ पर लेटे हुए नेता सरीखे एक व्यक्ति से कहा, टिकट? वह बोला, 'टिकट? टिकट कहां है? वही तो लेने दिल्ली जा रहे हैं।Ó उनके इस उत्तर से डिब्बे का वातावरण हास्यमय हो गया। इन्ही के साथ एक वृद्ध सज्जन, जिन्हें शायद रेवाड़ी जाना था, बैठे थे। इस बार टीटी ने उनसे टिकट मांगा तो वह अपना जूता उतारने लगे, जिससे एक बार तो ऐसा लगा कि बात कहीं बढ़ न जाय, खैर टीटी तो इसे अनदेखा कर दूसरों से टिकट मांगने लगा, लेकिन बाद में पता पड़ा कि वृद्ध सज्जन ने अपना टिकट जूतों में संभाल कर रखा हुआ था।
टीटी के जाने के बाद थोड़ी देर के लिए सन्नाटा छा गया। हालांकि रात गहरा रही थी और यात्रियों के सोने का समय हो चला था, फिर भी समय बिताने हेतु कुछ सहयात्रियों के बीच बातचीत चालू थी। एक सज्जन, जो कि रेलवे से ही सेवानिवृत्त थे, बताने लगे कि एक बार विश्व मेडीकल सेमीनार के समय तरह-तरह के दिमागों की प्रदर्शनी लगी। उसमें एक भारतीय के दिमाग को पहला इनाम मिला। पूछने पर पता लगा कि वह एक रेलवे के रिटायर्ड ऑफीसर का दिमाग था और उसके फस्र्ट आने का कारण था कि चूंकि रेलवे में लिखित में इतने कायदे-कानून होते हैं कि ऑफीसर को अपने पूरे सेवाकाल में अपना दिमाग काम में लेने की आवश्यकता ही नही पड़ी, अत: वह दिमाग बिलकुल तरोताजा याने फे्रश था और इनाम पा गया।
एक और यात्री अपनी शेखी बघार रहा था कि कैसे उसने एक बार रेलवे को चकमा दिया। उसने बताया कि मैंने दिल्ली से चेन्नई का टिकट तो खरीद लिया, लेकिन सफर किया ही नहीं। रेलवे वाले मुझे लगातार दो-तीन दिन ढूंढ़ते रहे होंगे। थोड़ी देर बाद ही जयपुर स्टेशन आ गया। एक सहयात्री को चाय की तलब हुई। उसने खिड़की में से मुंह निकाल कर प्लेटफार्म पर दूर खड़े एक चाय वाले को आवाज लगा कर एक चाय मांगी, लेकिन ठेले पर भीड़ होने के कारण उसने कोई ध्यान नहीं दिया। ऐसा उसने कई बार किया लेकिन उसका कोई फायदा नहीं हुआ। इस पर उसने प्लेटफार्म पर ही खड़े एक व्यक्ति से कहा कि यह लो दस रुपए और एक चाय आप भी पी लेना। 'यानि दो चाय ले ले, एक मुझे दे दे, एक आप ले ले। वह व्यक्ति चाय वाले के पास गया और एक चाय ले कर पीने लगा। इस पर डिब्बे वाला यात्री चिल्लाया तो उस व्यक्ति ने पांच रुपए उसे लौटाते हुए कहा कि आपने कहा था सो एक चाय मैंने पी ली है।
जयपुर के बाद गााडी दौसा स्टेशन पर रुकी और फिर बान्दीकुई। बान्दीकुई पर एक जी.आर.पी. का सिपाही एक बेटिकट यात्री को पकड़ कर ले जा रहा था कि हवा के तेज झोंके से उसकी टोपी उड़ गई। इस पर उस यात्री ने सिपाही को कहा कि साब आप यहां ठहरें, मैं आपकी टोपी ले कर आता हूं, तो सिपाही ने उसे कहा वाह! बच्चू मुझे बेवकूफ बनाता है, तू यहीं ठहर, मैं ले कर आता हूं और सिपाही उसे वहीं छोड़ कर अपनी टोपी लेने चल दिया। इधर वह आदमी भी अपने ठिकाने की तरफ चल दिया।
गाडी अपने गंतव्य स्थान के लिए फिर चल पड़ी। बान्दीकुई के बाद कुछ किन्नर भी गाडी में चढ़े और यात्रियों से जबरन पैसे मांगने लगे और नहीं देने पर तंग करने लगे। यह तो अच्छा हुआ कि सफर रात का था, वर्ना डिब्बों में गाना गाने वालों का तांता लग जाता। अधिकांश यात्री जैसे-तैसे अपनी नींद निकाल रहे थे। कुछ देर बाद अलवर स्टेशन आ गया। गाडी रेंगते-रेंगते अभी प्लेटफार्म पर रुकी ही थी कि एक कुली ने अपना सिर डिब्बे की खिड़की में लगा कर आवाज लगाई, 'उतारू।Ó उसका आशय शायद सामान उतारने से था। एक बहुत मोटी औरत जो वहां उतर रही थी, वह बोली, 'नहीं मैं अपने आप उतर जा
ऊंगी।Ó
अलवर के प्लेटफार्म पर ही मुझे वहां का प्रसिद्ध मावा बेचने का वेन्डर का यह तरीका देखने-सुनने का मौका मिला, जिसमें वह आवाजें लगा रहा था 'मावा, सब मिल कर खावा।Ó
आगे रेवाडी स्टेशन आ गया, यहां से बहुत से नवयुवक डिब्बे में चढ़े। उनमें से कुछ लोगों ने अपने बैठने हेतु जगह बनाने के लिए डिब्बे में लेटे- अधलेटे यात्रियों को उठा-उठा कर धमकाना चालू किया कि जानते नहीं यह हरियाणा है? उनमें से एक नवयुवक हमारे पास ही आ कर बैठ गया। गाडी चलने पर समय काटने के लिए मैने उससे पूछा, बेटे! कहां जा रहे हो? उसने कहा अंकल, मैं दिल्ली जा रहा हूं। मैने कहा दिल्ली कैसे जा रहे हो? अपने हाथ का फार्म दिखाते हुए वह बोला, अंकल नौकरी का फार्म भरना है। मैने उससे कहा कि यह फार्म तो अपने घर से ही भर कर भिजवा सकते थे। इसमें दिल्ली जाने की क्या जरूरत है? वह बोला, अंकल इसमें लिखा है, 'फिल इन कैपीटलÓ, इसलिए इसे कैपीटल अर्थात दिल्ली में जा कर भरूंगा।
भौर हो गई थी। इतने में अधिकांश यात्रियों ने अपनी-अपनी खिड़कियां बन्द कर ली। पूछने पर किसी ने बताया कि सुबह-सुबह पालम स्टेशन से पुरानी दिल्ली स्टेशन तक लाइन के दोनों ओर बसी झुग्गी वासियों की 'ऑपन एयर टॉयलेटÓ है, इसलिए उस दृश्य को देखने की बजाय खिड़कियां बन्द कर लेना ही उचित है। थोड़ी देर में ही आखिर गाडी दिल्ली पहुंच गई। मजे की बात यह थी कि टे्रन में बैठे यात्री कह रहे थे कि दिल्ली आ गई और प्लेटफार्म पर खड़े व्यक्ति कह रहे थे कि गाडी आ गई, राम जाने कि दोनो में से कौन एक ठीक है? या दोनों ही ठीक हैं? इस तरह उस रोज मेरा यह रेल सफर पूरा हुआ।
यह व्यंग्य लेख सेवानिवृत्त इंजीनियर श्री शिवशंकर गोयल ने भेजा है। उनका संपर्क सूत्र है -फ्लेट नं. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट नं. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75, मोबाइल नंबर: 9873706333
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